Thursday, February 24, 2011

तो क्या पक्ष-विपक्ष में बैठने से बदलती सोच?

कुछ ऐसे भी मंजर हैं तारीख की नजरों में, लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई है। आखिर मनमोहन की जुबां से दर्द फिर छलक ही पड़ा। तीन महीने के गतिरोध के बाद संसद में बहाल हुई शांति का सुकून भी दिखा। पर शायरी में लम्हा किसके लिए और सदियां किसके लिए? कहीं पीएम का मतलब यह तो नहीं- गठबंधन की मजबूरी का फायदा उठा राजा ने खता की। सजा कांग्रेस को भुगतनी पड़ रही? यों कांग्रेस गाहे-ब-गाहे यही साबित करने में जुटी। सो गुरुवार को लोकसभा में जेपीसी का औपचारिक प्रस्ताव आया। तो टर्म एंड रेफरेंस की आड़ में झुनझुना थमा दिया। लोकसभा से जेपीसी के 20 मेंबरों के नाम का एलान हो गया। अब राज्यसभा दस नामों का एलान करेगी। पर जेपीसी को सिर्फ टेलीकॉम लाइसेंस तक सिमटा दिया। यों स्पेक्ट्रम आवंटन में गड़बड़ी की जांच अब 1998 से होगी। सो जेपीसी पर राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई। लोकसभा में प्रणव दा ने प्रस्ताव पेश किया। तो जेपीसी के गठन के पीछे ईमानदार सोच नदारद। अलबत्ता उन ने भी वही राग अलापा, जो पीएम ने कहा था। जेपीसी का गठन सिर्फ इसलिए, क्योंकि संसद की कार्यवाही चल सके। सो प्रणव दा ने विपक्ष को खूब खरी-खोटी सुनाईं। दलील दी- 543 के सदन में 20, 50 या 200 सांसदों की ओर से संसद को बंधक बनाने का क्या मतलब? संसद को ठप करना लोकतंत्र को मजबूत बनाना नहीं। हमें संविधान के प्रति अपनी शपथ को याद रखना होगा। उन ने पाकिस्तान के मिलिट्री रूल की भी याद दिलाई। कैसे दस अक्टूबर 1958 को पाकिस्तान मार्शल लॉ का शिकार हुआ। चार दिन में तीन पीएम बने, सदन का उपाध्यक्ष सदन में ही मार दिया गया। फिर संसदीय संस्थाओं के प्रति नफरत की भावना पैदा हुई और आखिरकार उसकी जगह एक संविधानेत्तर संस्था ने ली। यों प्रणव दा ने भारत में ऐसे हालात को बेमानी बताया। पर क्या यह एक अडिय़ल सरकार की विपक्ष और देश की जनता को धमकी नहीं? आखिर भ्रष्टाचार पर जेपीसी के गठन में मिलिट्री रूल जैसे उदाहरण की क्या जरूरत थी? यही प्रणव दा कुछ हफ्ते पहले विपक्ष की जेपीसी की मांग को माओवादी हरकत करार दे चुके। सो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी सरकार को घेरने में कसर नहीं छोड़ी। पीएम को आत्मचिंतन की सलाह दी। कहा- अगर जेपीसी की मांग करना माओवाद, तो विपक्ष में रहते कांग्रेस भी ऐसा कर चुकी। सो सदन में जमकर नोंकझोंक हुई। सुषमा ने गुस्से में 2001 के हंगामे का रिकार्ड मार्शल के हाथ बंसल को भिजवा दिया। बोलीं- जिनके घर शीशे के हों, दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। सचमुच भ्रष्टाचार के इस हमाम में सब एक जैसे। भ्रष्टाचार पर किसी भी सरकार का रुख ईमानदार नहीं रहा। इंदिरा राज में भ्रष्टाचार का मुद्दा गूंजा। जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को नया मुकाम दिया। तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को वैश्विक मुद्दा करार दिया। यही हाल राजीव गांधी के शासन में भी। यही हाल वाजपेयी राज में भी। तहलका कांड और ताबूत घोटाले पर एनडीए ने विपक्षी कांग्रेस को कितनी तवज्जो दी? जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा लिया। पर रपट आने से पहले मंत्री बना दिया। तब एनडीए ने जेपीसी की मांग नहीं मानी। प्रणव मुखर्जी ने विपक्ष को याद दिलाया। कैसे तबके विधि मंत्री अरुण जेतली ने कहा था- जेपीसी जांच नहीं हो सकती। इस मुद्दे पर सदन में चर्चा कराना अधिक महत्वपूर्ण। बकौल प्रणव दा, कांग्रेस भी अबके पहले सदन में बहस चाहती थी, फिर कोई फैसला। यों प्रणव दा की यह दलील डैमेज कंट्रोल की कवायद। पर उन ने बीजेपी को सही याद दिलाई। पर सुषमा ने पेप्सी-कोला में पेस्टीसाइड के मुद्दे पर गठित जेपीसी की नजीर दी। कहा- मैंने दो घंटे में जेपीसी मान ली थी। विपक्ष के सदस्य शरद पवार को अध्यक्ष बनाया था। पर सुषमा भूल रहीं, पेप्सी-कोला विवाद राजनीतिक मुद्दा नहीं था। सो जब कपिल सिब्बल ने बहस में हिस्सा लिया। तो मुंह खोलते ही पहले मुंह की खा गए। सुषमा को झूठी साबित करने की कोशिश की। पर फौरन सॉरी बोल शब्द वापस लेने पड़े। फिर भी सिब्बल हमले से बाज नहीं आए। पहले तो स्पेक्ट्रम घोटाले में जीरो नुकसान का राग अलापा। हंगामा हुआ, तो बैठ गए। पर सदन में विपक्षी सांसदों ने पूछ ही लिया- जब कोई नुकसान नहीं हुआ। तो जेपीसी का क्या मतलब? यों सिब्बल ने बीजेपी को याद दिलाया, कैसे तहलका कांड के वक्त पीएम वाजपेयी ने देश के नाम संदेश दिया। तो कहा था- संसद ही सही फोरम, जहां चर्चा हो सकती। पर विपक्ष हंगामा कर सदन रोक रहा। सचमुच विपक्ष और सत्तापक्ष में रहते राजनीतिक दलों की सोच बदल जाती। सत्ताधारी तानाशाही तेवर दिखाते। तो विपक्ष भी हाईजैक करने की फिराक में रहता। सुषमा ने तो खुद कबूला- जब-जब भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा, तबकी विपक्ष ने जेपीसी की मांग की। अबके माहौल बना, कांग्रेस मजबूर हुई। तो कांग्रेसियों के चेहरों पर खिन्नता साफ झलक रही। प्रणव का सैन्य शासन का भय दिखाना। पक्ष-विपक्ष की वही लड़ाई- तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे। सो बीजेपी ने पीएम को मंथन की सलाह दी। पर जब खुद का इतिहास दिखाया गया। तो तिलमिला उठी।
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24/02/2011