Wednesday, November 25, 2009

26/11 की बरसी, पर मनमोहन विदेश में!

इंडिया गेट से
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26/11 की बरसी,पर
मनमोहन विदेश में!
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 संतोष कुमार
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किसी ने खूब कहा है- 'जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा। कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है।' देखते-देखते 26/11 की बरसी आ गई। पर न बदली, तो सिर्फ अपनी सियासत। अब बरसी पर भी आपसी बदजुबानी न हो। सो गुरुवार को स्पीकर मीरा कुमार श्रद्धांजलि प्रस्ताव रखेंगी। सदन दो मिनट मौन की औपचारिकता भर निभाएगा। ताकि बहस का टंटा ही खत्म हो। यानी सौ दिन तो दूर, 365 दिन में अपनी सियासत अढ़ाई कोस भी नहीं चली। सो जुस्तजू तो यही, कभी तो जागेंगे अपने सियासतदां। पर 26/11 की बरसी आते-आते कई सवाल उठ खड़े हुए। आखिर अपनी तैयारी अब कितनी मुकम्मल? शहीद अशोक काम्टे की पत्नी विनीता काम्टे ने पूरी रिसर्च के बाद किताब लिखी। किताब 'टू द लास्ट बुलेट' में पुलिस की कलई खोल दी। कैसे घायल करकरे, काम्टे, सालस्कर को वक्त पर अपनी पुलिस ने मदद नहीं दी। वाकी-टॉकी के रिकार्ड खुद बता रहे, चालीस मिनट की देरी ने इन जांबाजों को कैसे शहीद कर दिया। महाराष्टï्र पुलिस हमले के बाद तो जैसे फ्रीज हो गई। पर साल भर में भी आतंकवाद से लडऩे को अपनी तैयारी दुरुस्त नहीं। मल्टी एजेंसी सेंटर, एनएसजी हब, एनआईए, समुद्री सुरक्षा के बंदोबस्त तो हुए। पर ये तो सिर्फ शाखाएं। अभी जड़ मजबूत होना बाकी। पुलिस और खुफिया तंत्र का आधुनिकीकरण सिर्फ दस्तावेजों में। भले 26/11 के बाद कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। पर आखिर यह कैसी कामयाबी। कसाब को जिंदा पकड़ पाक को हम डोजियर भेजते रहे। पर अब एफबीआई बता रही। डेविड हेडली 26/11 का मास्टर माइंड। फिर अपनी एजेंसियां क्या जांच कर रही थीं? साल भर में किसी हेडली-राना तक फटक भी न सकीं। ऊपर से अब डिप्टी सीएम छगन भुजबल ने एक और खुलासा किया। होम मिनिस्टर आर.आर.पाटिल हमले के दिन घर में दुबके हुए थे। बुधवार को पाटिल ने सफाई दी, पुलिस के कहने पर ऐसा किया। क्या 26/11 की बरसी पर यही श्रद्धांजलि? जिन पाटिल को जिम्मेदार ठहरा कर पद से हटाया गया। सालभर में ही उसी महकमे के मालिक बन गए। विलासराव देशमुख सीएम न सही, पर मनमोहन के काबिना मंत्री तो बने ही। रही बात भाई शिवराज पाटिल की। तो धीरज रखिए, अभी कई राज्यों की गवर्नरी खाली। शायद कांग्रेस 26/11 की बरसी बीतने का ही इंतजार कर रही। ताकि छीछालेदर से बच सके। पर शिवराज के उत्तराधिकारी चिदंबरम ने भी कोई बड़ा तीर नहीं मारा। साल भर से भारत-पाक जुबानी जंग चल रही। पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई। अब गुरुवार को 26/11 की पहली बरसी। तो भारतीयों के जख्म ताजा हो गए। सो बुधवार को रावलपिंडी के एंटी टेरर कोर्ट में जकी उर रहमान लखवी समेत सात पर चार्जशीट हो गई। लखवी को मास्टर माइंड माना गया। पर पाकिस्तान की ईमानदारी कौन नहीं जानता। वैसे ईमानदार तो हम भी नहीं। आतंकवाद से लडऩे की लफ्फाजी तो खूब करते। पर जज्बा कभी नहीं दिखता। तभी तो संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल को हम तिहाड़ में आराम से रोटी-पानी खिला रहे। वोट की खातिर अफजल की फाइल इधर से उधर होती रही। पर फैसला नहीं हुआ। अभी भी फाइल दिल्ली की कांग्रेसी शीला सरकार के पास। क्या अब आतंकी भी वोट बैंक होने लगे? जब भी अफजल को फांसी की मांग उठी। तो शिवराज पाटिल से लेकर समूची कांग्रेस ने यही दलील दी। नंबर आने पर फैसला होगा। संसद पर हमले में शहीद जवानों के परिजनों ने मैडल तक लौटा दिए। पर मनमोहनवादियों के कान पर जूं नहीं रेंगी। हाल ही में 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया। दया याचिकाओं को जल्द निपटाए। पर मंगलवार को ही अपनी सरकार की ओर से संसद में दिए जवाब की बानगी देखिए- 'सरकार के पास 29 दया याचिका लंबित। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत फाइल निपटाने की कोई समय सीमा नहीं।Ó इस लिस्ट में अफजल का नंबर इक्कीसवां। अब संसद के हमले को आठ साल पूरे होने को। सो जरा सोचो, कसाब को कब फांसी मिलेगी। अभी तो सजा भी तय नहीं हुई। हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, माफी याचिका, क्यूरेटिव याचिका का सफर बाकी। उससे भी बड़ी बात, बीच में कोई केस नहीं आया। तो कसाब का नंबर तीसवां होगा। सो सरकार से क्या उम्मीद करते हैं आप? शीला दीक्षित को रसूखदार हत्यारे मनु शर्मा को पैरोल दिलाने में तीन महीने की जगह महज 20 दिन लगे। पर तीन-चार साल बीत गए, अफजल की फाइल नहीं निपटी। सो 26/11 में 26 विदेशी समेत मारे गए 168 लोगों, 308 घायलों को कब न्याय मिलेगा? अपनी सरकार और राजनीतिक व्यवस्था में इच्छाशक्ति अब नहीं रही। वरना देश पर सबसे बड़े हमले की बरसी हो। और देश का मुख्य कर्ता-धर्ता व्हाइट हाउस की दावत में मशगूल हों। तो क्या कहेंगे आप? अब और नहीं 26/11, ऐसा संकल्प कौन लेगा? अगर पीएम बरसी के मौके पर देश में होते। जैसे 9/11 की हर बरसी पर अमेरिका का राष्टï्रपति देश की जनता के साथ आतंकवाद से लडऩे का संकल्प दोहराता। कुछ वैसा ही मैसेज अपने पीएम भी देते। तो आतंकवादियों के मन में खौफ पैदा होता। अपने देश की जनता में भी भरोसा पैदा होता। अमेरिकी यात्रा का प्रोग्राम दो-चार दिन आगे-पीछे होता। तो कोई महामंदी नहीं आ जाती। पर शायद पीएम को जनता को भरोसा देने से ज्यादा ओबामा से तारीफ करवाने में सुकून मिल रहा।
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25/11/2009

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