Tuesday, June 8, 2010

विधुर व्यवस्था का यह कैसा विधवा विलाप?

हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराने से पहले जब मित्र राष्ट्रों पर धुरी राष्ट्र हावी थे। तब विंस्टन चर्चिल ने न्याय व्यवस्था से जुड़े एक अधिकारी से पूछा था, अपनी न्याय व्यवस्था कैसी चल रही? पर वह अधिकारी द्वितीय विश्व युद्ध को लेकर ब्रिटेन की जनता की चिंता लेकर पहुंचा था। सो चर्चिल ने अपना सवाल बार-बार दोहराया। तो अधिकारी ने झल्लाते हुए जवाब दिया, जनता में आज यह विषय नहीं। अलबत्ता जनता यह सोच रही, मित्र राष्ट्रों का क्या होगा? पर चर्चिल ने जवाब दिया- अगर हमारी जनता समूची व्यवस्था पर भरोसा करती होगी, तो हिटलर-मुसोलिनी जैसे जीतकर भी राज नहीं कर पाएंगे। यानी जिस देश की कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका पर जनता को एतबार न हो, उसे कोई भी गुलाम बना सकता। अपनी कार्यपालिका और विधायिका से जनता का भरोसा तो उठ चुका। रही-सही कसर भोपाल की महात्रासदी पर सोमवार को आए फैसले ने पूरी कर दी। आखिर अब न्यायपालिका पर कितना भरोसा करेगा आम आदमी? खास तौर से भोपाल गैस त्रासदी के पीडि़त तो अब कोई उम्मीद नहीं बांधेंगे। जिन ने न्याय की खातिर 26 साल से एक नहीं, दो-दो लड़ाइयां लड़ीं। न्याय की उम्मीद में अभियुक्तों से भी लडऩा पड़ा, अपनी सरकार से भी। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी है भोपाल गैस कांड। पूरे 26 साल मुकदमा चला। पर दोषियों को सजा मिली दो साल की। उससे भी क्रूर मजाक, इधर फैसला हुआ, उधर 25 हजार के मुचलके पर दोषियों को जमानत भी मिल गई। क्या भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोग इसलिए 26 साल से बाट जोह रहे थे? क्या इसी व्यवस्था के जरिए भारत विकसित देश बनने की सोच रहा? अपनी व्यवस्था में बैठे लोगों की नींद अब खुल रही। भोपाल गैस कांड की जांच कर चुके तबके सीबीआई संयुक्त निदेशक बीआर लाल ने अब खुलासा किया, विदेश मंत्रालय ने इस मामले के सबसे बड़े विदेशी गुनाहगार वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की पहल न करने की हिदायत दी थी। बकौल लाल, उन ने हिदायत नहीं मानी, एतराज जताया। तो उनका ट्रांसफर कर दिया गया। उन ने यह भी बता दिया, सीबीआई हमेशा से वही करती, जो सत्ता में बैठे आका का हुक्म होता। लाल की बात सोलह आने सही। पर सवाल बीआर लाल से भी। आखिर सोमवार को कोर्ट के फैसले के बाद ही नींद क्यों खुली? अब तक क्यों चुप बैठे थे लाल? क्या फैसले के बाद मीडिया ने तूल दिया, तो टीवी पर चेहरा चमकाने को खुलासा कर रहे? अब खुलासे से क्या होगा? अगर लाल इतने ही खुद्दार थे, तो तभी खुलासा क्यों नहीं किया? अब भोपाल की महात्रासदी पर 26 साल बाद विधवा विलाप करने वाले बहुतेरे। अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली अब फैसले को इंसाफ का दफन होना करार दे रहे। कानून में बदलाव से लेकर फास्ट ट्रेक कोर्ट की पैरवी कर रहे। पर पिछले 26 साल में कभी ऐसा ख्याल क्यों नहीं आया? अदालत में सीबीआई ने जिस धारा के तहत चार्जशीट दाखिल की, उसमें अधिकतम सजा दो साल की। वह भी 1987 में दाखिल की। फिर सितंबर 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई बड़ा करिश्मा नहीं किया। अलबत्ता कमजोर धारा में ही केस दर्ज करने का फैसला सुना दिया। फिर भी 1996 से 2010 तक किसी नेता ने कोई पहल नहीं की। भोपाल त्रासदी के पीडि़त न जाने कितनी दफा जंतर-मंतर पर चीख-पुकार मचा चुके। पर लकवाग्रस्त व्यवस्था अब गूंगी-बहरी भी हो चुकी। वारेन एंडरसन को तो चार दिसंबर 1984 को ही जमानत मिल गई थी। बाकायदा विशेष विमान से वह अमेरिका लौट गया। फिर तमाम वारंट के बाद भी एंडरसन नहीं लौटा। अब सरकार पर बचाने का आरोप लगा। तो मोइली बोले- अभी एंडरसन के खिलाफ केस बंद नहीं। यों मोइली देश की जनता को सिर्फ गुमराह कर रहे। दुनिया भर में यही कानून, अगर अपराध कर कोई व्यक्ति अपने देश लौटने में कामयाब हो जाए। तो वह देश अपने नागरिक का प्रत्यर्पण नहीं करता। अलबत्ता उस व्यक्ति पर उसके ही देश में स्थानीय कानून के तहत मुकदमा चलाया जा सकता। क्या मोइली को इस कानून का ज्ञान नहीं? सो चाहे जो हो, एंडरसन अब हाथ नहीं आएगा। यही तो अपनी व्यवस्था का निकम्मापन। भोपाल त्रासदी में न्याय नहीं हुआ, तो झूठा विलाप। रुचिका छेड़छाड़ कांड में 19 साल बाद एसपीएस राठौड़ को महज छह महीने की सजा मिली। मीडिया ने तूल दिया। तो नए सिरे से केस चला। राठौड़ के मैडल छिन गए। अपनी होम मिनिस्ट्री ने देश के सभी थानों को सर्कुलर जारी कर दिया। शिकायत को ही एफआईआर मानें। रुचिका केस में नौ साल तक एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई थी। पर 19 साल बाद फैसला आया। तो बीजेपी के शांता कुमार कहने लगे- 'रुचिका केस को सुन पीएम वाजपेयी भी रो पड़े थे। तब वाजपेयी ने सीएम चौटाला को कड़ी चिट्ठी लिखी थी।' पर क्या हुआ, बताने की जरूरत नहीं। जेसिका लाल का केस हो या नितीश कटारा का। बीएमडब्ल्यू कांड हो या फिर भोपाल जैसा ही 26 साल पुराना सिख विरोधी नरसंहार। जब व्यवस्था की पोल खुली, तो राजनेता हों या नौकरशाह, विधवा विलाप करने लगे। पर सवाल, अब विधवा विलाप का क्या मतलब? भोपाल त्रासदी में 20-25 हजार लोग मारे गए। आज भी पीडि़त परिवार उस त्रासदी का दंश झेल रहे। गुजरात दंगे से कई गुना भयावह थी भोपाल की गैस त्रासदी। पर जितना प्रो-एक्टिव सुप्रीम कोर्ट गुजरात दंगे में दिखा, क्या कभी भोपाल के लिए दिखा? अब क्या कहें अपनी व्यवस्था को। अपनी व्यवस्था ही 'विधुर' हो चुकी। सो अब 'विधवा विलाप' कैसा?
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08/06/2010

1 comment:

  1. अच्छा लिखे।
    पर पुरानी शैली क्यों बदले? दो चार लोगों की आलोचनाओं से अपनी मौलिकता नहीं बदलनी चाहिए। पहले के आलेखों में 'सोÓ का उपयोग करते थे। वह अब नहीं दिखता है। मुझे लगता है जो नियमित पाठक होंगे, उन्हें यह बात खटकती होंगी।
    शुभकामनाएं
    संजय

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