Wednesday, July 21, 2010

आखिर लोकतंत्र को कब मिलेगा न्याय?

विपक्ष को लोकतंत्र की शान कहा जाता। अगर किसी देश की जनता की आजादी के बारे में जानना हो। तो विपक्ष के अस्तित्व भर से ही अंदाजा लगाया जा सकता। अगर लोकतंत्र में विपक्ष न हो, तो सच में वह लोकतंत्र नहीं। विपक्ष में बैठने वाले दल की यह जिम्मेदारी होती, सत्ता के नशे में चूर नेताओं के होश ठिकाने लाए। पर जब विपक्ष ही जोश में होश खो दे, तो लोकतंत्र का रखवाला कौन? बिहार विधानसभा में मंगलवार को कुर्सी के हत्थे से उठा हाथ बुधवार को चप्पल तक पहुंच गया। विधानसभा में मंगलवार के आचरण पर 17 विधायकों के निलंबन का प्रस्ताव रखा ही जा रहा था। तभी एक लालूवादी ने स्पीकर उदय नारायण चौधरी के ऊपर चप्पल दे मारी। पर चप्पल भी कम चालाक नहीं, कभी नेताओं से बैर मोल नहीं लेती। नेताओं पर चप्पल-जूते देश ही नहीं दुनिया में भी बहुत चले। पर किसी चप्पल-जूते ने सीधे नेताजी को छूने का साहस नहीं किया। अलबत्ता जॉर्ज बुश हों या पी. चिदंबरम, आडवाणी हों या मनमोहन या फिर जूता तंत्र की शुरुआत करने वाला इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी। जिसने खुद भी बाद में जूते खाए, पर देखो जूता कितना समझदार। वह जानता है, पैरों की चीज पैरों में ही अच्छी लगती। सो जूते ने जैदी को भी नहीं छुआ। पर अपने नेता भले लोकतंत्र से कुछ न सीख सके, कम से कम हाल में स्थापित जूता तंत्र से ही सीख लेते। एक निर्जीव जूता मर्यादा का इतना ख्याल रखता। तो अपने नेता सजीव होकर भी मर्यादा की इतनी धज्जियां कैसे उड़ाते रहते? सचमुच बुधवार को बिहार विधानसभा, विधान परिषद और कैंपस में जो हुआ, उसे विपक्ष का विरोध भर नहीं कह सकते। स्पीकर पर चप्पल फेंकना विरोध का परिचायक नहीं। विधान परिषद के हंगामे की तस्वीर अभी जारी नहीं हुई। सो वहां की मर्यादा फिलहाल कैमरे में बंद। पर विधानसभा परिसर में कांग्रेस की एमएलसी ज्योति कुमारी ने सचमुच मर्यादा की अद्भुत ज्योति जलाई। विधान परिषद में तांडव मचाकर बाहर पहुंचीं, तो बेजुबान गमलों-पौधों पर जमकर गुबार निकाला। एक-एक कर दर्जनों गमले तोड़े। फिर भी दिल का गुबार नहीं थमा, तो गमलों से छिटके पौधों का छोर पकड़ जमीन पर पटकना शुरू कर दिया। बदहवासी तो ज्योति कुमारी के चेहरे से दिख ही रही थी। हर हरकत यही बयां कर रही थी, मानो पगला सी गई हों। अब अपनी ज्योति कुमारी की हरकत पर पर्यावरण के अजीज दोस्त जयराम रमेश क्या फरमाएंगे? विधानसभा हो या विधान परिषद, विपक्ष की खिसियाहट साफ झलकी। नीतिश कुमार की जनमानस में बनी विकास पुरुष की छवि को तोडऩे के लिए लालू-पासवान-कांग्रेस ने सारी ताकत झोंक दी। ट्रेजरी घोटाले के मामले में नीतिश कुमार बहस को तैयार थे। स्पीकर भी हामी भर चुके। पर विपक्ष को बहस से अधिक बलवे में दिलचस्पी। विपक्ष की रणनीति भी देख लो। ट्रेजरी घोटाले पर अगर सदन में बहस कर ली, तो चुनाव में ठन-ठन गोपाल बनकर जाना होगा। नीतिश अपने बचाव में खम ठोककर कहेंगे, सदन में विपक्ष को पूरा जवाब दिया। पर विपक्ष ने तब चुप्पी साध ली। लालू-पासवान-कांग्रेस नीतिश को बचाव का यही हथियार नहीं देना चाह रहे। ताकि जब जनता के बीच जाएं, तो ट्रेजरी घोटाले की आड़ में नीतिश की छवि को भी दागदार बता सकें। खम ठोककर कह सकें, देखो अगर मेरी कमीज सफेद नहीं, तो नीतिश की भी नहीं। पर बहस से भागने की विपक्षी रणनीति की पोल भी अब खुल रही। जिस सीएजी की रिपोर्ट को लालू-पासवान-कांग्रेस नीतिश के खिलाफ हथियार बना रहे। उसमें राबड़ी राज और बिहार के गवर्नर बूटा राज भी शामिल। यानी अपने लोकतंत्र की मजबूरी देखिए। बहस हो, तो भी हमाम में सभी नंगे। बहस न हो, तो भी। पर दोनों ही बहस में बदनाम हो रहा लोकतंत्र। फिर भी लालू हों या पासवान या नीतिश, सबने बुधवार की घटना को लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली बताया। पर देश के ठेकेदारों को खुद पर शर्म नहीं आई। शर्म-हया तो नेतागिरी की डिक्शनरी से ही डिलीट हो चुके। सो यह सवाल सवाल ही रह गया, लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला कौन? लालू ने नीतिश पर आरोप लगाया, नीतिश ने लालू पर। बीजेपी ने कांग्रेस पर। सो अपना लोकतंत्र समझ ही नहीं पाया, किसने गला घोंट दिया। क्या नेतागिरी शब्द की जगह अब सिर्फ गुंडागर्दी इस्तेमाल होना चाहिए? आखिर नेताओं को कायदा-कानून की परवाह नहीं, तो कम से कम लोकतंत्र के जिस मंदिर में बैठते, उसकी पवित्रता का तो ख्याल करें। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च में जाने वाले अनुयायियों का भले रिकार्ड कैसा भी हो। पर धार्मिक स्थलों में जा उसकी पवित्रता का पूरा ख्याल रखते। सो देश की जनता को नेताओं की पवित्रता की फिक्र नहीं। फिक्र है, तो सिर्फ उस पवित्र लोकतंत्र की, जिसे अपने स्वाधीनता सेनानियों ने खून से सींचा। जैसे-जैसे मतदाता परिपक्व होते जा रहे, अपने नेता उतने ही बदहवास हो रहे। अब उन्हें समझ नहीं आ रहा, जनता को उल्लू कैसे बनाएं। सो सुर्खियों में छाने के लिए कुछ भी करने से परहेज नहीं कर रहे। संसद के बजट सत्र में कितनी बार मर्यादाएं टूटीं, हिसाब नहीं। मार्शल तक का इस्तेमाल संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ। पर जब बड़े लोगों के सदन में मार्शल आए, तो देश की विधानसभाओं ने ट्रैंड ही चला दिया। कहते हैं ना, बुरी लत जल्द लग जाती। सो संसद-विधानसभा को मर्यादा तोड़ू घुन लग चुका। ऐसे में लोकतंत्र को न्याय कब मिलेगा?
---------
21/07/2010

No comments:

Post a Comment