फैसले से पहले फैसला देने वाले ही बंट गए। अयोध्या विवाद पर शुक्रवार को कोर्ट ने सुलहनामे की याचिका खारिज कर जुर्माना लगाया था। पर सोमवार को तीन जजों की बैंच में से एक जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने शुक्रवार के फैसले पर असहमति जता दी। जस्टिस एसयू खां और सुधीर अग्रवाल की दलील से इतर जस्टिस शर्मा फैसले से एक दिन पहले तक सुलह की गुंजाइश देख रहे। जस्टिस शर्मा ने याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी पर लगाए जुर्माने की रकम को भी अनुचित ठहराया। यों जस्टिस शर्मा का फैसला अब महज एक टिप्पणी भर, क्योंकि बहुमत जज का फैसला ही लागू होगा। पर अंतिम फैसले से पहले जजों के सार्वजनिक मतभेद से पेचीदगी और बढ़ गई। संघ परिवार फिलहाल संयत रणनीति अख्तियार कर रहा। पर कांग्रेस के दिग्विजय सिंह को एतबार नहीं। बोले- इतिहास गवाह है, सो संघ-बीजेपी-वीएचपी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सरकार की ओर से एहतियातन तैयारी हो रही। माना, संघ परिवार पर कांग्रेस को भरोसा नहीं। तो सवाल, कांग्रेस की तैयारी पर कैसे भरोसा करें? जिस इतिहास की बात दिग्विजय सिंह कर रहे, उस वक्त भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। पिछले तीन महीने से कश्मीर घाटी झुलस रही। पर कांग्रेस या उसकी सरकार ने क्या तीर मार लिया? तीन महीने बाद ऑल पार्टी डेलीगेशन भेजने का फैसला हुआ। सोमवार को 42 मेंबरी टीम चिदंबरम की रहनुमाई में श्रीनगर पहुंच गई। पर सुबह से रात तक हुई चर्चाओं के बाद भी कशमकश जारी रही। फिर भी डेलीगेशन उम्मीद की कोई किरण नहीं छोड़ पाया। घाटी की सुलगी आग में सचमुच सबने रोटी सेकने की ठान ली। सो दिल्ली में बिना शर्त बातचीत की पैरवी करने वाली पीडीपी की महबूबा न डेलीगेशन में शामिल हुईं, न मिलीं। अलबत्ता अपने नुमाइंदे भेजे। सो महबूबा की नजर में मुद्दे की गंभीरता आप खुद देख लो। पर सिर्फ महबूबा ही नहीं, रोटी सेकने में नेशनल कांफ्रेंस भी पीछे नहीं रही। एनसी के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला खुद सीएम। तीन महीने से आग की लपटें नहीं बुझा पाए। सो अब उसी आग में रोटी सेकने आ गए। ऑल पार्टी डेलीगेशन पहुंचा समस्या के समाधान के लिए। पर नेशनल कांफ्रेंस ने फिर स्वायत्तता का पुराना राग अलाप दिया। जो हमेशा से इसी का चुनावी मुद्दा रही। एनसी ने 1996 के विधानसभा चुनाव में इसी मुद्दे पर दो तिहाई बहुमत हासिल किया था। फिर स्वायत्तता पर रपट देने के लिए डा. कर्ण सिंह की रहनुमाई में कमेटी बनाई गई। पर उन ने इस्तीफा दे दिया। सो बाद में फारुक अब्दुल्ला केबिनेट के गुलाम मोहिउद्दीन शाह को जिम्मेदारी सौंपी गई। रपट में 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने की सिफारिश हुई। भारत के संविधान के 21वें भाग में अनुच्छेद 370 के लिए लिखे अस्थायी शब्द को हटा विशेष शब्द जोडऩे की सिफारिश हुई। पर वाजपेयी सरकार के वक्त जब नेशनल कांफ्रेंस राजग का हिस्सा थी, तब भी चार जुलाई 2000 को केबिनेट ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा से पारित स्वायत्तता प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। केबिनेट ने माना था, प्रस्ताव मंजूर करने का मतलब पीछे की ओर लौटना होगा और ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा, जो देश की एकता के हित में नहीं। यानी एनसी हो या पीडीपी, हालात पर काबू पाने के बजाए वोट बैंक को संबोधित कर रहीं। भले घाटी में अलगाववादी खुलेआम पाकिस्तानी झंडा लहरा रहे। तमाम कफ्र्यू को धता बता फौजों पर पत्थरबाजी कर रहे। अलगाववादी तो बातचीत की मेज पर भी आने को तैयार नहीं। सचमुच अनुच्छेद 370 के तहत पंडित नेहरू ने कश्मीर को स्पेशल स्टेटस तो दिला दिया। पर क्या सभी मुख्य धारा में लौट आए? आज हालात पंडित नेहरू की सोच से बिलकुल उलट। घाटी में अलगाववादियों का मनोबल सिर चढक़र बोल रहा। सोचिए, उमर के दादा शेख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 को स्थायी बनाने के मकसद से इसे देश के सभी राज्यों में लागू करने का दांव खेला था। अगर ऐसा होता, तो आज सिर्फ कश्मीर नहीं, समूचा देश सुलग रहा होता। अलगाववादियों पर नकेल कसने की ईमानदार पहल कभी नहीं हुई। सो मौका पाकर अलगाववादी अवाम को भडक़ाने में पीछे नहीं रहे। सोमवार को तीनों अलगाववादी नेता सैयद अलीशाह गिलानी, मीरवाइज और यासीन मलिक ने डेलीगेशन से मिलने से इनकार कर दिया। फिर भी डेलीगेशन के कुछ मेंबर अलग-अलग दल में तीनों से मिले। पर चूंकि अलगाववादियों ने उपद्रव न रोकने की ठान रखी। सो मेहमाननवाजी कर डेलीगेशन मेंबरों को विदा कर दिया। पर सवाल, जब अलगाववादी वार्ता को राजी नहीं। तो उनके घर जाकर हौसला अफजाई करने की क्या जरूरत? अलगाववादियों से मिलने के बजाए डेलीगेशन एलान करता। अवाम को बताता, देखो, हम बात करने आए हैं। पर ये बात करने को राजी नहीं। सीधे अवाम और पीडि़तों से बात करते। पर जब डेलीगेशन के मेंबर अपने एजंडे के साथ गए हों। तो खुले दिमाग से बातचीत की उम्मीद ही कैसे करें? सो घाटी में इधर डेलीगेशन पहुंचा, उधर 72 घंटे का कफ्र्यू लगा दिया। सरकारी एजंडे के मुताबिक जो तय था, वही डेलीगेशन से मिलने पहुंचा। सो अलगाववादियों की तो छोडि़ए, अवाम में डेलीगेशन कोई भरोसा पैदा नहीं कर पाया। उमर अब्दुल्ला ने भी यही किया था, जब पहली बार 11 जून को घटना हुई। तो उमर मौके पर पहुंचने के बजाए छुट्टी में मशगूल रहे। सो हालात बेकाबू हो गए। सचमुच जिन उमर के काम को राहुल गांधी बेहतर बता रहे थे। सोमवार को कांग्रेसी सैफुद्दीन सोज ने मान लिया, कुछ कमी जरूर रही।
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20/09/2010
Monday, September 20, 2010
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