Friday, March 25, 2011

हंगामा हुआ, बहस भी, पर निचोड़ क्या निकला?

वल्र्ड कप फाइनल से पहले संसद के बजट सत्र का परदा गिर गया। आखिरी दिन भी संसद हंगामे से अछूती नहीं रही। कॉमनवेल्थ घोटाले पर पीएम की बनाई वी.के. शुंगलू कमेटी ने रपट दी। तो अब कलमाड़ी संग शीला-खन्ना की भी कलई खुल गई। सो शुक्रवार को संसद के दोनों सदनों में शीला के इस्तीफे, तो उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना पर कार्रवाई की मांग हुई। लोकसभा में खुद आडवाणी ने मोर्चा संभाला। सरकार से फौरन रपट सदन में पेश करने की मांग की। यों कहावत है- भागते भूत की लंगोटी ही सही। पर सरकार ऐसे भागी, लंगोटी भी हाथ में न आने दी। दोनों सदन दोपहर होते-होते अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गए। पर पहले संसदीय कार्यमंत्री ने विपक्ष से थोड़ा समय मांग लिया। यानी अब मानसून सत्र तक के लिए सरकार सुकून में। पर बजट सत्र की शुरुआत शीत सत्र के काले साये के साथ हुई। सरकार ने जेपीसी तो बना दी। पर अब जाते-जाते शुंगलू रपट ने विपक्ष को सडक़ की लड़ाई का मुद्दा थमा दिया। सच कहें, तो कॉमनवेल्थ का असली खेल तो अब शुरू हुआ। शुंगलू रपट का इशारा देखें, तो कॉमनवेल्थ के हमाम में सब एक जैसे। क्या कलमाड़ी, क्या तेजेंद्र खन्ना और क्या मैडम शीला। कलमाड़ी पर शिकंजा तो सीबीआई पहले ही कस चुकी। पर सीबीआई डाल-डाल, तो कलमाड़ी पात-पात निकले। कागजों में ऐसा कॉमनवेल्थ गेम खेला, सीबीआई चकरघिन्नी हो रही। हर फैसले में कलमाड़ी ने शीला सरकार और मनमोहन सरकार के मुलाजिमों की हरी झंडी ली। फिर अपने दस्तखत किए। सो सीबीआई के अधिकारी कलमाड़ी की फाइल देख आजकल सिर पर झंडू बाम लगा रहे। पर कॉमनवेल्थ की सफलता की शेखी बघारने वाली शीला और शीला की शिकायत करने वाले तेजेंद्र अब क्या करेंगे? सही मायने में कॉमनवेल्थ घोटाले की जांच में जुटीं कंपनियां अब आयोजकों को मैडल थमा रहीं। सो सच से परदा उठ गया, पर क्या कांग्रेस सच का सामना करेगी? यों जब लोकायुक्त की सिफारिश के बाद दिल्ली का एक मंत्री राजकुमार चौहान तक नहीं हटाया गया। तो सीएम शीला को हटाने की उम्मीद कांग्रेस से कैसे की जा सकती? पर आखिरी दिन सिर्फ शुंगलू रपट नहीं, विकीलिक्स ने भी एक नया धमाका किया। देश की एकता और अक्षुण्णता शपथ लेने वाले केंद्रीय मंत्री कैसी सोच रखते, साफ हो गया। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने अमेरिकी अधिकारियों से बातचीत में कहा था- अगर उत्तर भारत न होता, तो हमारा देश तेजी से विकास करता। यानी चिदंबरम बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के सगे निकले। पर चिदंबरम भूल गए, जिस राज्य से वह खुद आते, वहीं से घोटालों के महाराजा ए. राजा भी आते। पर नेताओं में यही कमी, कभी अपने गिरेबां में नहीं झांकते। चिदंबरम की ऐसी सोच कोई नई नहीं। कॉमनवेल्थ से पहले भी दिल्ली वालों को डंडे के जोर पर सुधारने का दंभ भर चुके। सो संसद में चिदंबरम खास तौर से लालू-मुलायम का निशाना बने। चिदंबरम के इस्तीफे की मांग हुई। पर बीजेपी ने सिर्फ एतराज जता चिदंबरम को बख्श दिया। सो सत्र के समापन पर दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने संतोष जताया। कहा- शीत सत्र के मुकाबले बजट सत्र में कुछ तो काम हुआ। पर सरकार और विपक्ष जमकर अपनी पीठ ठोक रहीं। सत्र समापन के बाद सुषमा, जेतली ने चार अहम सफलताएं गिनाईं। जिनमें जेपीसी का गठन, सीवीसी थॉमस का मामला, जनहित के मुद्दे और आक्रामकता के साथ-साथ विपक्ष की सकारात्मक सोच भी शामिल। सुषमा बोलीं- बजट सत्र में सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, जनहित के मुद्दे भी खूब उठे। जैसे सोमालिया लुटेरे, अमेरिका ट्राइवेली यूनिवर्सिटी में भारतीय छात्रों के पैरों में रेडियो कॉलर, तमिल मछुआरों की सुरक्षा आदि। पर क्या चुनाव की खातिर सिकुड़े संसद सत्र से सचमुच जनता का भला हुआ? संसद में हंगामा हुआ, बहस भी हुई। पर निचोड़ क्या निकला? विपक्ष ने सरकार को घेरने की कोशिश की। फिर वोट के बदले नोट कांड की बहस में पीएम की खरी-खरी सुननी पड़ी। पर अगले दिन ही पेंशन बिल पेश करने में घिरी सरकार को बचा लिया। अब सत्र निपट गया। तो अरुण जेतली ने भड़ास निकाली। पीएम ने कहा था- आडवाणी पीएम पद पर जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। इसलिए वह मुझे माफ नहीं कर पा रहे। पर अब जेतली ने चुटकी ली- मनमोहन का बयान कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना। जेतली के मुताबिक पीएम ने भले आडवाणी का नाम लिया। पर उनका इशारा गांधी-नेहरू खानदान की ओर था। सो जेतली की चतुर चाल से संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल सोच में पड़ गए। खीझते हुए बोले- जेतली ही जानें, वह क्या कहना चाहते हैं। यानी समझ कर भी बंसल ने नासमझी का ढोंग रचा। पर पक्ष-विपक्ष की तू-तू, मैं-मैं तो चलती रहेगी। सो बात संसद सत्र से मिले संदेश की। भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ सत्र की शुरुआत हुई। आखिर जेपीसी का गठन हो गया। पर समूचे सत्र से भ्रष्टाचार पर देश को कोई कठोर संदेश नहीं मिला। अलबत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सब एक-दूसरे का अतीत खंगालने और कपड़े उतारने में ही लगे रहे। अपने-अपने वोट बैंक को ध्यान में रख सबने मुद्दे उठाने की कोशिश की। आखिर में जेपीसी बनाम पीएसी जंग छिडऩे की नौबत। यानी फिर वही पुराने सवाल- संसद की प्रासंगिकता क्या रह गई। संसदीय मूल्यों में लगातार गिरावट, पर किसी को फिक्र नहीं।
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25/03/2011

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