Thursday, November 19, 2009

न भूलें, गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे

इंडिया गेट से

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न भूलें, गांधी के देश में
भगत सिंह भी हुए थे
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 संतोष कुमार
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            मूर्खों के बारे में कहा जाता है। मूर्ख पहले करते हैं, फिर सोचते हैं। पर कोई सोच-समझ कर मूर्खता करे। तो उसे महामूर्ख के सिवा क्या उपाधि दी जाए। अब शीत सत्र के पहले दिन दिल्ली ठहर गई। संसद ठप हो गया। तब कहीं जाकर सरकार झुकी। अब सोमवार को सर्वदलीय मीटिंग होगी। तो गन्ना अध्यादेश में संशोधन पर विचार होगा। ताकि किसानों का गुस्सा ठंडा हो। पर सरकार यह कवायद पहले भी तो कर सकती थी। तब तथाकथित रहनुमाओं का दिमाग कुंद क्यों पड़ गया? किसानों का गुस्सा संसद से सड़क तक फूटेगा। इसकी जानकारी सबको थी। तो फिर मनमोहन और उनके सिपहसालार क्या गुरुवार की बाट जोह रहे थे। ताकि भीड़ देखकर दिमाग के घोड़े दौड़ा सकें। क्या सरकार में विजन नाम की कोई चीज नहीं? या जब तक पानी सिर से ऊपर न निकल जाए। तब तक पानी का अहसास ही नहीं होता। सो गुरुवार को संसद भले विपक्ष के हंगामे से ठप हुआ। पर सही मायने में सरकार ने संसद ठप होने दिया। अगर सरकार चाहती, तो किसानों और राजनीतिक दलों से पहले भी अपील कर सकती थी। पर जब अपने हित की खातिर गन्ना किसान सरकार की छाती पर मूंग दडऩे आए। तब सरकार का दम घुटने लगा। सो मनमोहन ने फौरन प्रणव, पवार, चिदंबरम, मोइली की मीटिंग बुला ली। मीटिंग के बाद शरद पवार ने किसानों से धरना खत्म करने की अपील की। अध्यादेश पर फिर से विचार का भरोसा दिलाया। तब कुछ बात बनी। यों अब शरद पवार के भरोसे पर ऐतबार भले न हो। पर पीएम ने जिनको भरोसा दिया। उसके बाद अध्यादेश में संशोधन तय मानिए। यही फर्क होता है आम आदमी और खास आदमी में। पीएम ने राहुल गांधी को भरोसा दिलाया। यानी शाम होते-होते क्रेडिट की लड़ाई में ट्विस्ट आ गया। कांग्रेस ने बाकायदा बयान जारी कर कह दिया- 'राहुल गांधी ने आज सुबह पीएम से मिल गन्ना किसानों की भावना रखी। तो पीएम ने किसानों के हित में अध्यादेश को संशोधित करने का भरोसा दिया।' वाकई कांग्रेस की रणनीति अजब हित की गजब कहानी जैसी। नरेगा हो या आरटीआई। एसईजेड हो या सादगी। कांग्रेसियों की सोनिया गांधी को श्रेय दिलवाने की गजब रणनीति। जब भी मामले ने तूल पकड़ा। दस जनपथ से चि_ïी निकली। बगल के सात रेसकोर्स रोड पहुंच गई। अब अध्यादेश में संशोधन होगा, तो कांग्रेसी कुर्ता फाड़ चिल्लाएंगे। राहुल बाबा के प्रयास से गन्ना किसानों के हित में कदम उठा। पर कोई पूछे, राहुल ने गन्ना किसानों की बात पीएम तक गुरुवार से पहले क्यों नहीं पहुंचाई? क्यों आग लगने का इंतजार किया? पर सत्ता पक्ष के साथ-साथ एक सवाल विपक्ष से भी। गन्ना किसानों की खातिर संसद से सड़क तक मुहिम में कितनी ईमानदारी? अगर पश्चिमी यूपी में ये किसान वोट बैंक न होते। तो क्या ऐसी आर-पार की लड़ाई होती? कैसे एक झटके में सरकार की हेकड़ी निकल गई। पर क्या इन विपक्षियों ने कभी आम आदमी के बारे में सोचा? महंगाई जान लेने पर आमादा। पर महंगाई की खातिर ऐसी राजनीतिक लड़ाई नहीं हुई। जो एक झटके में सरकार को हिला दे। वोट की खातिर मुलायम-अमर भी अजित संग हो गए। लालू, वासुदेव, गुरुदास, शरद, अरुण जेतली सब एक मंच तक आ गए। अब राजनाथ, शरद घुड़की दे रहे। जब तक अध्यादेश वापस नहीं होगा, संसद नहीं चलने देंगे। पर महंगाई के मुद्दे का क्या हश्र? हर सत्र में आवाज उठती। सरकार भी खानापूर्ति को बहस करा लंबी तान लेती। अब तो खबरें आ रहीं, चावल आयात होगा। प्याज की पैदावार कम हुई। सो रुला रही प्याज और रुलाएगी। पर नेता तो फिलहाल गन्ना चूसने में मस्त। अब गन्ना किसानों की समस्या भले खत्म हो जाए। पर देश में तो समस्याओं का अंबार। कपास किसान हों या बाकी अनाज पैदा करने वाले किसान। सबकी समस्या एक जैसी। आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही। पर अपने नेतागण समस्या पर तभी ध्यान देते, जब जनता गिरेबां थाम ले। गुरुवार को किसानों ने ताकत दिखाई। एक ने कहा- 'दिल्ली में अनाज नहीं आने देंगे। दूध, सब्जी, अनाज की गाडिय़ां रोक देंगे।Ó इतना ही नहीं, खून बहाने तक की चेतावनी दे गए। पर किसानों के नाम पर सिर्फ राजनीति। संसद-सरकार में चरण सिंह-देवीलाल जैसे खाटी किसान अब प्रतिनिधि नहीं। सो सरकार भी एडहॉक काम कर रही। कृषि आधारित अपनी अर्थव्यवस्था। पर समूची कृषि के लिए कोई केंद्रीकृत योजना नहीं। अब यह भी देश का संयोग ही। गुरुवार को किसान सौ-डेढ़ सौ रुपए की लड़ाई लड़ रहे थे। तो दूसरी तरफ मुकेश अंबानी की आमदनी साल भर में 54 फीसदी बढऩे की खबर। फोब्र्स मैगजीन में मुकेश देश के सबसे अमीर। पिछले साल 21 अरब डालर संपत्ति थी। अब 32 अरब डालर हो गई। दूसरे नंबर पर लक्ष्मी मित्तल। तो तीसरे पर मुकेश के भाई अनिल। इतना ही नहीं, पिछले साल देश में सिर्फ 27 अरबपति थे। अबके मंदी के बाद भी दुगुने यानी 54 हो गए। आखिर यह कैसी समानता? सो किसान या आम आदमी के पेट से ज्वाला तो निकलेगी ही। सो गुरुवार को जो हुआ। उसे देख सरकार को भी अब यह नहीं भूलना चाहिए। भले अहिंसा अपनी नीति। पर गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे। सो बेहतर यही, अपने बहरेपन का इलाज करा ले। वरना वह दिन दूर नहीं, जब लोग महानगरों को लूटना शुरू कर दें।
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19/11/2009