शनिवार को यूपीए की दूसरी पारी की पहली सालगिरह। सो सरकारी खेमा सजधज कर तैयार हो गया। पीएम के घर भोज की तैयारी। फिर सोमवार को उपलब्धियों के पिटारे के साथ मनमोहन मीडिया से रू-ब-रू होंगे। यानी पहले पेट, फिर जनता से भेंट। पर समूची कांग्रेस हफ्ते भर से फील गुड कर रही। उपलब्धियां ऐसे गिना रही, जैसे दिलीप कुमार सूट-बूट पहन कर साला मैं तो साहब बन गया.. .. गीत गुनगुना रहे। अब ऐसा नहीं कि कांग्रेस या सरकार को हकीकत मालूम न हो। जनता महंगाई से कितनी त्रस्त, किसान-गरीब की हालत कैसी, यह जगजाहिर। पर कांग्रेस अपनी नाकामी कैसे स्वीकारे। राजनीति में इतनी ईमानदारी होने लगे, तो राजनीति काजनीति हो जाए। पर यहां तो राजनीति का मतलब जनता के लिए काम से नहीं, जनता पर राज करना हो चुका। अब आप यूपीए का पिछला पांच साल छोड़ दो। सिर्फ दूसरी पारी के पहले साल का ही हिसाब-किताब देखिए। कांग्रेस ने जनता से जुड़े गंभीर से गंभीर मुद्दों पर मैदान छोडऩे की रणनीति अपनाई। विपक्ष जब-जब एकजुट हुआ, कांग्रेस ने एकता को तार-तार करने की शतरंजी चाल चल दी। महंगाई पर संसद से सडक़ तक आवाज बुलंद हुई। तो कांग्रेस ने महिला बिल का लंगड़ा घोड़ा दौड़ा दिया। अब साल पूरा हुआ, देश को हिसाब-किताब देने का वक्त। तो कहीं महंगाई, आंतरिक सुरक्षा जैसे अहम मुद्दे जश्न पर हावी न हो जाएं। सो बहस छेडऩे वाले बुद्धिजीवियों को नक्सलवाद की बहस में उलझा दिया। नक्सली हमले बढ़े, नक्सलवाद पर चिदंबरम के सख्त कदम उठे। तो कांग्रेस ने चिदंबरम की ही टांग खींच दी। नक्सलवाद पर ऐसी बहस छेड़ दी, जिसका ओर न छोर। भले नक्सली अपनी हिंसक वारदात को लगातार अंजाम दे रहे। पर गिनाने के लिए कांग्रेस के पास क्या उपलब्धि, जरा देखिए। यूनिक आई-डी कार्ड बन रहा। नरेगा का बजट बढ़ा दिया। फूड सिक्यूरिटी बिल आ रहा। नेशनल हैल्थ बिल आएगा। शिक्षा के हक को मौलिक अधिकार बनाया। महिला बिल राज्यसभा से पारित कराया। कांग्रेस की नजर में यही जनकल्याण के मुद्दे। पर असलियत तो यही, पहली पारी के मुकाबले मनमोहन की दूसरी पारी कहीं अधिक दुश्वार। महज साल भर में सरकार असहमति के भंवर में घूमती दिखी। शर्म अल शेख में विदेश नीति का चौथा हुआ। तो देश में आकर मंत्रियों-नौकरशाहों ने तेरहवीं कर दी। पहली बार बलूचिस्तान का जिक्र पाक के साथ साझा बयान में आया। मुंबई हमले के बाद अपना स्टैंड साफ था। जब तक पाक दोषियों पर कार्रवाई नहीं करेगा, बात नहीं होगी। पर कूटनीति का चालीसा तो तब हो गया, जब भारत ने खुद आगे बढक़र बातचीत की पहल की। तब पाक ने भारत को खुलेआम घुटना टेकू कहा। अमेरिकी दबाव में भारत ने वार्ता शुरू की। पर अमेरिका ने आतंकवादी डेविड हैडली से भारत को पूछताछ नहीं करने दी। सादगी को लेकर मनमोहन के दोनों विदेश मंत्रियों की संस्कृति तो सबने देखी। दस जनपथ से फटकार लगी, तब फाइव स्टार होटल छोड़ा। शशि थरूर ने तो साल भर में ही इतनी फजीहत कराई, आखिर सालगिरह से पहले ही बलि चढ़ गए। पर कांग्रेस का मतभेद यहीं खत्म नहीं हुआ। इसी साल मनमोहन के सिपहसालार केबिनेट मीटिंग में एक-दूसरे से खूब भिड़े। ममता ने महिला बिल से लेकर कटौती प्रस्ताव तक कांग्रेस को नचाया। अब पहले साल में ही दोनों के बीच दूरियां बढ़ गईं। स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा पर उंगली उठी। फिर भी मनमोहन नहीं हटा पाए। इसी साल मनमोहन और सोनिया के बीच भी दूरी दिखी। जब आरटीआई एक्ट में संशोधन को लेकर दोनों के बीच चिट्ठियों से बात हुई। मनमोहन ने खुद को दस जनपथ के साये से अलग दिखाने की कोशिश की। पर पहली पारी में लाभ के पद के विवाद की वजह से खत्म हुई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद अबके बहाल हो गई। यों दूसरी पारी में कांग्रेस बेहद मजबूत होकर उभरी। जनता ने पिछली पारी में 145 सीटें दी थीं। तो अबके कांग्रेस के पास 207 सांसद हो गए। पर मजबूती के बाद भी सरकार मजबूर दिखी। कटौती प्रस्ताव ने मनमोहन सरकार की मजबूती की कलई खोल दी। आजाद भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बजट में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े। पहली बार विपक्ष गिलोटिन डिमांड पर कटौती प्रस्ताव लेकर आया। पर मजबूत कांग्रेस ने तिकड़म का सहारा लिया। लालू-मुलायम को लॉलीपाप दिया। तो मायावती को सीबीआई का सहारा। पर लालू-मुलायम के गैरहाजिर रहने और माया के 22 सांसदों के वोट के बाद भी मनमोहन को कुल 289 वोट मिले। अगर 22 सांसद निकाल दो, तो बचे 267 सांसद। लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा 272 का। सो साल भर का जमा-खर्च यही, मजबूत होकर भी मजबूर सरकार। पर सिर्फ सत्ता पक्ष का ही हिसाब नहीं, विपक्ष का भी जरूरी। कांग्रेस की नीति भविष्य के हिसाब से बदल रही। युवा नेतृत्व तराशे जा रहे। पर बीजेपी का हाल किसी से छुपा नहीं। पुराने सिर-फुटव्वल छोड़ दो। तो झारखंड की कहानी बीजेपी की हालत बयां कर रही। नितिन गडकरी सिर्फ नाम के लिए गढ़ के रक्षक। खुद की जुबां पर नियंत्रण नहीं। किसी को कुत्ता कह रहे। पर जिसके लिए गडकरी ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया। कुछ हिसाब उनका भी हो जाए। मुलायम-लालू अपने गिरगिटिया अंदाज की वजह से विश्वसनीयता खो रहे। तो लेफ्ट ले-देकर बंगाल का किला बचाने में जुटा।
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21/05/2010
Friday, May 21, 2010
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