Monday, September 6, 2010

कार्यपालिका पर कंट्रोल नहीं, कोर्ट को नसीहत

नक्सली कब्जे से बिहार के तीनों पुलिसिए रिहा हो गए। पर नक्सलियों ने अपना बर्बर चेहरा फिर दिखा दिया। चार बंधकों में से एक सिपाही लूकस टेटे की हत्या कर दबाव बनाया। पर दबाव रंग न लाया, तो आखिर में सारे बंधक छोड़ दिए। ताकि आम जनता की सहानुभूति बटोर सकें। पर नीतिश कुमार ने चुनौती दी, गर नक्सलियों को जनसमर्थन का इतना भरोसा। तो चुनावी समर में उतरकर लड़ें। शाम होते-होते चुनाव आयोग ने भी तारीखों का एलान कर डुगडुगी बजा दी। पर नक्सली खुद में इतने कन्फ्यूज्ड, शायद ही चुनाव लड़ें। अब चुनाव में कहीं गड़बड़ी न हो, सो आयोग ने छह फेज में चुनाव कराने का फैसला किया। आयोग ने तारीखों के चयन में त्योहार का ख्याल रखने की दलील दी। पर शायद आयोग बिहार के त्योहार को समझ ही नहीं पा रहा। दीपावली और छठ के बीच नौ नवंबर को वोटिंग होगी। जिस दिन छठ व्रत रखने वाले महिला-पुरुष उपवास पर होंगे। पर आयोग की तो छोडि़ए, यहां तो अपनी सरकार देश को उपवास कराने पर तुली हुई। भले खुले में पड़ा सरकारी अनाज सड़ जाए, पर मुफ्त नहीं बंटेगा। सुप्रीम कोर्ट ने सड़ते अनाज की खबरों के बाद आदेश क्या दिया। समूची सरकार बौखला गई। पहली बौखलाहट महंगाई बढ़ाने वाले मंत्री शरद पवार ने दिखाई। तो कोर्ट के आदेश को महज सलाह बता निकल लिए। पर मानसून सत्र के आखिरी दिन सुप्रीम कोर्ट ने ठोक बजाकर सरकारी वकील को बताया- जाकर अपने मंत्री को बता दो, मुफ्त अनाज बांटने की सलाह नहीं आदेश दिया। सो संसद में हंगामा बरपा। तो शरद पवार ने आदेश पालन करने का भरोसा दिया। पर सोमवार को साफ हो गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सिर्फ पवार नहीं बौखलाए, अलबत्ता समूची सरकार सकते में। मनमोहन ने सोमवार को संपादकों के एक समूह से मुलाकात की। तो दिल का दर्द जुबां से छलक पड़ा। भले सरकारी व्यवस्था आउट ऑफ कंट्रोल हो। पर मनमोहन ने सुप्रीम कोर्ट को लाइन ऑफ कंट्रोल दिखाया। कोर्ट को नीतिगत मामलों में दखल न देने की नसीहत दी। दो-टूक कह दिया- मुफ्त अनाज बांटना संभव नहीं। मनमोहन के इनकार की दलील देखिए। बोले- सेंतीस फीसदी बीपीएल हैं, सो मुफ्त अनाज कैसे बांटा जा सकता। मुफ्त बांटेंगे, तो किसानों को अधिक पैदावार के लिए प्रेरित करने के उपाय फेल हो जाएंगे। फिर अनाज ही नहीं होगा, तो क्या बांटेंगे। मतलब साफ- भले अनाज सड़ जाए, पर मुफ्त नहीं देंगे। सुप्रीम कोर्ट की भावना और मनमोहन की भावना का फर्क देखिए। माना, कोर्ट को नीतिगत मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। संविधान में भी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखा तय। तीनों के बीच संतुलन ऐसा, अगर कोई एक नाकाम हो, तो दूसरा हावी हो जाएगा। यानी कार्यपालिका लंबी तानकर सोएगी। तो न्यायपालिका को दखल का मौका मिलेगा। पर मनमोहन ने कार्यपालिका में सुधार का कोई एजंडा नहीं रखा। अलबत्ता न्यायपालिका को हद में रहने की नसीहत दी। पर सवाल, खुद पीएम 37 फीसदी बीपीएल की बात कर रहे। तो क्या यह देश और पीएम के लिए शर्म की बात नहीं कि बीपीएल के रहते भी देश में अनाज सड़ रहा? आजादी के 63 साल बाद भी बीपीएल परिवारों की संख्या इतनी अधिक, क्या कार्यपालिका की संवेदनहीनता का सबूत नहीं? पिछले छह साल से महंगाई कोहराम मचा रही। पर सरकार सिर्फ जुबानी दिलासा दिला रही। क्यों नहीं पीडीएस को दुरुस्त करने का कदम उठाया मनमोहन ने? न्यायपालिका को कार्यपालिका में दखल देने का कोई शौक नहीं। अलबत्ता हमेशा ऐसा काम करती, जिससे आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ हो जाती। न्यायपालिका को नसीहत कोई नई बात नहीं। सनद रहे, सो बता दें। दस दिसंबर 2007 को खुद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.के. माथुर और मार्कंडेय काटजू की बैंच ने न्यायपालिका को हद में रहने की नसीहत दी थी। सो तब भी राजनीतिक बहस छिड़ी। तो राजनेताओं के अहं का कीड़ा कुलबुलाने लगा। कोर्ट का फैसला मनमाफिक हो, तो ठीक। वरना जुडीशियल एक्टिविज्म का शिगूफा छेडऩे में नेतागण माहिर। पर सवाल, कोर्ट दखल क्यों देता? स्कूलों में एडमिशन हो या सरकारी अस्पतालों में इलाज, आम नागरिक के साथ कैसा व्यवहार होता, सभी जानते। पर कार्यपालिका ने कभी पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किया? अब अगर कोई अदालत का दरवाजा खटखटाए और अदालत आदेश दे, तो एक्टिविज्म की बात होने लगती। क्या जनता को कोर्ट से गुहार लगाने का हक नहीं? क्या न्यायपालिका में भी नेताओं की मर्जी चले? जैसा 1973 और 1977 में हो चुका। जब 1973 में वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस शेलट, हेगड़े और ग्रोवर का नंबर था। पर तब इन तीनों से जूनियर ए.एन. रे को चीफ जस्टिस बना दिया। सो तीनों ने इस्तीफा दे दिया। इसी तरह 1977 में रे के बाद एच. आर. खन्ना का नंबर था। पर बनाए गए मिर्जा हमीदुल्ला बेग। सो खन्ना ने इस्तीफा दे दिया। पर पीआईएल के दौर से कोर्ट एक्टिव हुआ। सरकारी तंत्र ने गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की। तो न्यायपालिका ने हथौड़ा चलाया। अगर कोर्ट एक्टिव न होता, तो जैन हवाला, सेंट किट्स मामला, चारा घोटाला, विचाराधीन कैदियों का मामला जैसे कई अहम केस फाइलों में ही दब जाते। पर कोर्ट ने नजीर पेश की। कार्यपालिका की पोल खुली, जनता ने कोर्ट का साथ दिया। सो नेताओं का भडक़ना लाजिमी।
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06/09/2010