Tuesday, April 12, 2011

अन्ना लोकपाल के पीछे, तो नेता अन्ना के पीछे

एक कहावत है- ‘नेता, सांप, .., ऊंट और भैंसा अपनी चोट का बदला जरूर लेते हैं।’ सो अन्ना के वार से चोटिल नेताओं ने मुहिम छेड़ दी। येन-केन-प्रकारेण अन्ना हजारे को बदनाम करने की कोशिश होने लगी। मंगलवार को कांग्रेस नए शिगूफे के साथ मैदान में उतरी। इशारों में ही सवाल उठाया- धरना-प्रदर्शन-अनशन करने वाले एनजीओ को टेटं लगाने, माइक सिस्टम और अन्य बंदोबस्त के लिए फंड कहां से मिलते, इसकी भी जांच हो। अगर अन्ना राजनीति में ट्रांसपेरेंसी की पैरवी कर रहे, तो एनजीओ को इस काम के लिए फंड कौन देता है, यह भी खुलासा हो। यानी अन्ना के पांच दिन के अनशन में हुए खर्च का हिसाब मांग रही कांग्रेस। अब राजनीति की बेहयाई के बारे में क्या कहें। मनमोहन सरकार ने वल्र्ड कप क्रिकेट से हुई बेतहाशा आमदनी में भी आईसीसी को करीब 45 करोड़ रुपए की टेक्स छूट दी। तो कांग्रेस ने कोई सवाल नहीं उठाया। पर अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन किया, तो जंतर-मंतर पर तैयार हुए मंच और टेंट का खर्चा कांग्रेसियों की आंखों में खटक रहा। अब तो कांग्रेसी ही नहीं, करीब-करीब सभी राजनीतिक दल अन्ना की हर बात में नुक्ताचीनी कर रहे। अन्ना ने गुजरात के विकास के लिए नरेंद्र मोदी की तारीफ की। तो बटला, 26/11, मालेगांव, अजमेर ब्लास्ट जैसे मामलों को सांप्रदायिक जामा पहनाने वाले कांग्रेसी राजा दिग्विजय सिंह ने अब अन्ना के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया। बोले- ‘मोदी की तारीफ करने वाले अन्ना गुजरात में आठ साल से खाली पड़े लोकायुक्त के पद को भरने के लिए उन पर दबाव क्यों नहीं डालते?’ यानी खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे। अन्ना ने नेताओं को भ्रष्ट क्या कहा। अब तो दिग्विजय के साथ-साथ आडवाणी भी एतराज जता रहे। दोनों का लब्बोलुवाब यही- सभी नेताओं को भ्रष्ट कहने का मतलब समूची राजनीतिक व्यवस्था को नकारना होगा। यों यह बात सोलह आने सही, सभी नेताओं को भ्रष्ट कहना उचित नहीं। पर राजनीति में ईमानदार नेता की हालत कैसी, प्रख्यात कवि सुदामा पांडे धूमिल की इन पंक्तियों से लगाया जा सकता। उन ने लिखा- ‘.. संसद तेली की वह घानी है, जिसमें आधा तेल है और आधा पानी है। और यदि यह सच नहीं है, तो यहां एक ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है। जिसने सत्य कह दिया है, उसका बुरा हाल क्यों है?’ जो नेता अपने वक्त में ईमानदार रहा, उसका परिवार मुफलिसी में ही परलोक सिधार जाता। जो राज करने की नीति को समझ लेता, उसकी सात पुश्तें गरीबी की परिभाषा भी समझ नहीं पातीं। चुनाव में धन बल, बाहु बल इतना हावी हो चुका, कोई ईमानदार चुनाव लडऩे की सोच भी नहीं सकता। सो कांग्रेस ने मंगलवार को अन्ना और उनके समर्थकों को एक और चुनौती दी। कहा- ‘नेताओं को गाली मत दो। हिम्मत है, तो चुनाव लड़ो और जीतकर दिखाओ।’ यानी कांग्रेस चाह रही, अन्ना जैसे समाजसेवी को भी जैसे-तैसे अपनी जमात में शामिल कर लो। फिर न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। पर चुनाव की असलियत का ताजा किस्सा तमिलनाडु में दिख रहा। जहां अब तक करीब 50 करोड़ रुपए जब्त किए जा चुके। वोटरों को रिश्वत देने के 900 से अधिक मामले दर्ज हो गए। कहा तो यहां तक जा रहा- तमिलनाडु के बैंकों से पांच सौ और हजार रुपए के नोट गायब हो चुके। आम खाता धारक छुट्टों से ही काम चला रहे। पर नेता अपने गिरेबां में झांकना भूल चुके। किसी को भ्रष्टाचार नजर नहीं आता, तो किसी को महंगाई। जनता ने भ्रष्टाचार पर अपने गुस्से का इजहार क्या किया, नेताओं को तो दुकानदारी चौपट दिख रही। पर महंगाई की बात चली, तो कांग्रेस की एक और कलई खुल गई। अब तक महंगाई के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी को ढाल बनाती रही कांग्रेस। पर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, जो एमएसपी तय करने में अहम भूमिका निभाता। उसके चेयरमैन अशोक गुलाटी ने महंगाई के पीछे एमएसपी में बढ़ोतरी की दलील सिरे से खारिज कर दी। बाकायदा आंकड़े भी पेश किए। पर आम आदमी को बरगलाना तो नेताओं की फितरत बन चुकी। अब वही खेल भ्रष्टाचार के मामले में। अन्ना जनता की आवाज बन गए। तो अन्ना की छवि धूमिल करने के तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे। रामविलास पासवान चार दिन बाद जागे। तो याद आया, ड्राफ्टिंग कमेटी में कोई दलित नहीं। पर अभी तो महज शुरुआत। ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंग शुरू होगी। तो अन्ना से जले-भुने नेता अपनी भड़ास निकालने में कसर नहीं छोड़ेंगे। वैसे भी नेतागिरी का अहम फार्मूला- एक झूठ को सौ बार बोलो, सच हो जाएगा। सो पहले अन्ना के अनशन पर राष्ट्रीय बहस छेड़ी। अब अनशन के खर्च पर सवाल उठा रहे। अन्ना विरोधियों की जमात खड़ी की जा रही। जिनमें एक ने तो मंगलवार को अखबार के दफ्तरों में घूम-घूम कर परचा बांटा। बुधवार को दिल्ली में राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी जनशक्ति के बैनर तले कोई हेमंत पाटिल प्रेस कांफ्रेंस करेंगे। तो अन्ना के हिंद स्वराज ट्रस्ट की 89 एकड़ जमीन घोटाला, जन्म दिन पर दो लाख 20 हजार रुपए का ट्रस्ट को चूना लगाना, ऑडिट को छुपाना जैसे कई गंभीर आरोप लगाए। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। अन्नागिरी से चोटिल नेताओं ने ठान लिया- बिल ड्राफ्ट होते-होते अन्ना की ईमानदारी पर इतने सवाल उठा दो, वह खुद कमेटी से बाहर हो जाएं।
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12/04/2011

Monday, April 11, 2011

लोकपाल पर ‘अन्नागिरी’ से लहू-लुहान ‘नेतागिरी’

एक अन्ना ने समूची राजनीति को चौकन्ना कर दिया। सो आरामतलब नेता अब अपनी खीझ चाहकर भी नहीं छुपा पा रहे। अन्ना तो सिर्फ नाम, असल में जनता का जागना नेताओं को साल रहा। सो मन की भड़ास निकालने को कुछ नेता दबी जुबान में, तो कुछ सार्वजनिक मंच से बकवास करने लगे। पर कपिल सिब्बल से पहले बात कुमारस्वामी की। कुमारस्वामी अपने पूर्व पीएम एच.डी. देवगौड़ा के बेटे। जोड़तोड़ का जुगाड़ कर 20 महीने कर्नाटक के सीएम भी रह चुके। उन ने लाग-लपेट के बिना यह कबूल लिया- भ्रष्टाचार के हमाम में सभी राजनीतिक नंगे। कुमारस्वामी ने अन्ना समर्थकों को चुनौती दी- बिना भ्रष्टाचार के धन के एक राजनीतिक पार्टी चलाकर दिखाएं। सो अन्ना की मुहिम से राजनीतिक दलों में खीझ क्यों, यह तो अब कोई अनाड़ी भी समझ जाएगा। पर कुमार के बोल यहीं नहीं थमे। उन ने तो यहां तक कह दिया- अगर आज महात्मा गांधी होते, तो वह भी भ्रष्टाचार के जरिए धन जमा करते, वरना राजनीति छोड़ देते। अब इसे बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे? जिन महात्मा गांधी को दुनिया ने अपना लिया, अब उन पर अपने देश के नेता ही उंगली उठा रहे। यों कुमारस्वामी ने यह साबित कर दिया, देवगौड़ा परिवार के पास जमा 700 करोड़ रुपए ईमानदारी के तो नहीं। सचमुच पेशे से किसान रहे एच.डी. देवगौड़ा की जिंदगी की शुरुआत बैलगाड़ी से हुई। अब हम-आप भला क्यों पूछें, खुद उनके बेटे ने अपनी अकूत संपत्ति का स्रोत बता दिया। पर कुमारस्वामी की छोडि़ए, हद तो कपिल सिब्बल ने पार कर दी। सिब्बल खुद लोकपाल बिल पर ड्राफ्टिंग कमेटी के मेंबर। पर दिल की खीझ जुबां पर आई। तो भ्रष्टाचार से लडऩे की मनमोहन सरकार की गंभीरता उजागर हो गई। अन्ना का अनशन तुड़वाने में सिब्बल को पांच दिन लग गए। सो इतवार को खूब भड़ास निकाली। बोले- अगर गरीब बच्चे के पास पढऩे का साधन नहीं, तो लोकपाल विधेयक उसकी क्या सहायता करेगा। गरीब को स्वास्थ्य सेवा की जरूरत। तो लोकपाल कैसे मदद करेगा? पर मनमोहन सरकार के काबिल मंत्री कपिल सिब्बल शायद भूल गए। देश में शिक्षा और स्वास्थ्य का स्तर आजादी के 64 साल बाद भी दयनीय, तो इसके लिए नेता ही जिम्मेदार। शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए दिया जाने वाला बजट कभी पूरी ईमानदारी से खर्च नहीं होता। गरीबों के लिए शुरू की गई सभी योजनाओं को उठाकर देखो। तो भ्रष्टाचार का कीड़ा हर जगह नजर आएगा। नरेगा में रोजगार चाहिए, तो ठेकेदार से लेकर मुखिया तक को रिश्वत। सर्वशिक्षा अभियान के तहत नौकरी चाहिए, तो पहले मुखिया, फिर ऊपर के अधिकारियों का पेट भरो। इंदिरा आवास का मकान चाहिए, तो 45 हजार में से बीडीओ पहले ही पांच हजार काट लेगा। फिर सिफारिश करने वाला मुखिया कोई धर्म-खाता खोले तो नहीं बैठा। सो कुछ दक्षिणा उसकी भी बनती। स्वास्थ्य मिशन का हाल तो पूछो मत। कागजों पर दवाइयां लिखी जातीं। पर गरीबों को मिलती नहीं। अगर कभी कोई छापा पड़ जाए, तो खुदरा दुकानदारों के पास नॉट फॉर सेल वाली दवाइयां यों ही मिल जाएंगी। सो अब कोई कपिल सिब्बल से पूछे- क्या शिक्षा-स्वास्थ्य में भ्रष्टाचार नहीं होता? क्या लोकपाल जैसी मजबूत संस्था के आने से शिक्षा-स्वास्थ्य का भ्रष्टाचार थम जाए, तो उसका फायदा गरीबों को नहीं होगा? पर माफ करिए, यह सवाल भला कपिल सिब्बल से क्यों पूछें। जिन्हें एक नील 76 खरब के टू-जी घोटाले में कोई घोटाला नजर नहीं आता। राजा घोटालेबाज नजर नहीं आते। हमेशा विपक्ष जिन्हें झूठा नजर आता। ऐसे कपिल सिब्बल से अन्ना के आंदोलन पर ऐसे बयान की उम्मीद थी। सो सोमवार को अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र लौटने से पहले सिब्बल पर पलटवार किया। बोले- अगर लोकपाल बिल से कुछ नहीं होगा, तो सिब्बल संयुक्त समिति से इस्तीफा दे दें। यों बयान पर बवाल मचने के बाद सोमवार को सिब्बल ने भी सफाई दी। उनके बयान का गलत मतलब निकाला गया। पर सिर्फ सिब्बल नहीं, ड्राफ्टिंग कमेटी के दूसरे मेंबर ने भी लोकपाल बिल को बेमतलब बताने की कोशिश की। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद की दलील सुनिए। भगवान के रहने पर भी अपराध होता है। तो भला लोकपाल बिल से क्या होगा। सचमुच भ्रष्टाचार के सागर में डुबकी लगा कांग्रेस अब काफी प्रेक्टीकल हो गई। यों अभी तो लोकपाल पर जुबानी जंग की शुरुआत। बीजेपी भी अंदरखाने कसमसा रही। सपा के मोहन सिंह, एनसीपी के तारिक अनवर और कई कांग्रेसी नेताओं की दलील- ऐसा होने लगा, तो फिर संसद का क्या महत्व रहेगा? पर संसद को महत्व की दुहाई देने वाले नेता संसद में क्या गुल खिलाते, यह जगजाहिर। अगर संसद की इतनी सुध, तो 42 साल से लोकपाल बिल पर कुंडली मारे क्यों बैठे रहे? सो अन्ना के आंदोलन पर खीझ की एकमात्र वजह- नेता अपने गले में घंटी नहीं बांधना चाहते। अगर लोकपाल बिल में अन्नागिरी चली, तो कुबेर का खजाना बनी राजनीति में मंदी का दौर आ जाएगा। फिर जेब भरने और भाई-भतीजावाद करने से पहले सोचना होगा। सो राजनेताओं का एक बड़ा तबका अब अन्ना के खिलाफ हाथ धोकर पड़ गया।
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11/04/2011

Saturday, April 9, 2011

सरकार ही नहीं, समाज के लिए भी सबक ‘अन्नागिरी’

तो आखिर तय हो ही गया- देश में लोक बड़ा, तंत्र नहीं। अपने नेता तंत्र की दुहाई दे लोक यानी जनता की आवाज दबाने में जुटे थे। पर देर से ही सही, मनमोहन के सिपहसालारों को बात समझ आ गई। तंत्र कोई आसमान से नहीं आया। पहले लोक, फिर लोक से तंत्र बना। सो ना-नुकर के बाद सरकार ने शासनादेश के बजाए नोटीफिकेशन जारी करना ही मुफीद समझा। अनशन के पांचवें दिन छपा हुआ गजट अन्ना हजारे तक पहुंचा दिया। सो लोकतंत्र की जीत के साथ ही शनिवार सुबह दस बजे अन्ना ने अनशन तोड़ दिया। जंतर-मंतर ही नहीं, समूचा देश दूसरी आजादी के जश्न में सराबोर हो गया। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या युवा और क्या महिलाएं। न कोई मजहब, न कोई जात-पांत, न सामाजिक भेद-भाव। अन्ना का आंदोलन देश-दुनिया में छा गया। दिन में होली, तो शाम को देशभर में दिवाली मनी। अपने इंडिया गेट पर भी लोगों ने कैंडल मार्च कर खुशी का इजहार किया। आईपीएल का रंग इतना फीका पड़ेगा, शायद ही किसी ने सोचा हो। शुक्रवार आंदोलनकारियों और सरकार की वार्ता तक आयोजकों के तो हाथ-पांव फूले हुए थे। शुक्रवार का चेन्नई बनाम कोलकाता का मैच भले रोमांचक हुआ, पर पहली दफा अपनी मीडिया और युवाओं ने उदासीनता दिखाई। जंतर-मंतर पर कई युवाओं के हाथों में तख्तियां दिखीं, जिनमें लिखा था- वेट आईपीएल, इट्स टाइम फॉर इंडियन अगेंस्ट करप्शन। सचमुच अन्ना की आंधी ने सरकार की सांसें उखाड़ दीं। पहले नोटीफिकेशन को सिरे से खारिज कर दिया। पर जनता के जज्बे के आगे झुकना पड़ा। तो खीझ मिटाने को अब कांग्रेस कह रही- तमाम कानूनी बाध्यताओं के बाद भी हम एक स्वस्थ लोकतंत्र चाहते। संयुक्त समिति का गठन भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारी गंभीरता को दर्शाता। हमने भविष्य की चिंता की, भूत की नहीं। यानी कानूनी पेच को गिना सरकार पुरानी दलील देती रहती। तो शायद सरकार का भविष्य अंधेरे में होता। सो कांग्रेस की साख को ध्यान में रख खुद सोनिया गांधी ने कमान संभाली। कपिल सिब्बल की आंदोलनकारियों से पहली वार्ता फेल हुई। तो खुद सोनिया ने अन्ना हजारे से अपील की। फिर नौकरशाही की दलीलों में सरकार आए, उससे पहले सोनिया ने शीर्ष स्तर पर मीटिंग का दौर शुरू कर दिया। सो नोटीफिकेशन को ना कर चुके कपिल सिब्बल ने आखिरकार स्वामी अग्निवेश को औपचारिक नोटीफिकेशन की कापी थमा दी। अब असली इम्तिहान बिल के ड्राफ्ट पर होगा। अन्ना हजारे ने तो अल्टीमेटम दे दिया- 15 अगस्त तक जन लोकपाल बिल पारित नहीं हुआ, तो लालकिले से तिरंगा लहराते हुए फिर अनशन करेंगे। उन ने आशंका जताई- जन लोकपाल बिल के लिए शायद एक और अनशन करना होगा। पर अन्ना के उपवास तोडऩे के बाद पीएम मनमोहन ने जो कहा, वह बेहद अहम। बोले- संसद के मानसून सत्र में आने वाला यह बिल एतिहासिक होगा। सोनिया गांधी की एनएसी अन्ना के जन लोकपाल बिल पर सहमति जाहिर कर चुकी। सो संयुक्त समिति के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने इशारा कर दिया- बिल आम सहमति का होगा। यानी अन्ना के अनशन ने देश को नई दिशा दी। भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा युवाओं के प्रेरणास्रोत बने। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में फिलहाल सिर्फ बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी बनी। यह जीत आखिरी नहीं, अलबत्ता अभी तो शुरुआत हुई। सो खुशी के बावजूद जोश और जज्बा कायम रखना होगा। देश के युवाओं को शपथ लेनी होगी- अब कोई पुलिस वाला हो या पटवारी, कोई अफसर हो या बाबू, कोई मंत्री हो या संतरी। किसी ने रिश्वत मांगी, तो अन्नागिरी अपनाएंगे। भले एक झटके में भ्रष्टाचार का खात्मा संभव नहीं। पर इस नकारात्मक सोच की वजह से नई शुरुआत को दफन नहीं कर सकते। भ्रष्टाचार से लडऩे को अभी भी कई कानून, पर अन्ना बोले- अभी जो संस्था काम कर रहीं, सब सरकार के अधीन। हम स्वायत्त संस्था की बात कर रहे। अब सरकार को शायद अक्ल आ गई होगी। जनता ने पांच दिनों में अपनी भावना का इजहार कर दिया। पर अन्ना का आंदोलन सरकार ही नहीं, समाज के उन कई तबकों के लिए भी एक सबक। जो अपने निजी स्वार्थ के लिए कई रेल की पटरियां उखाड़ते, कभी बसें फूंक डालते, सडक़ें जाम कर देते। हाल ही में जाट और गुर्जर आंदोलनों ने बाकी जनता के मन में गुस्सा पैदा किया। जबकि अन्ना के आंदोलन ने देशवासियों के दिल में जगह बनाई। जंतर-मंतर पर लोग अपने पूरे परिवार, छोटे-छोटे बच्चों के साथ पहुंचने में गर्व महसूस करने लगे। क्या कोई अन्य व्यक्ति किसी गुर्जर-जाट आंदोलन में ऐसे पहुंच सकता? जाट-गुर्जर आंदोलन तो हालिया उदाहरण, पर समाज के हर वर्ग के लोगों को अन्ना से सबक लेने की जरूरत। जिनके आंदोलन ने महज पांच दिन में सरकार के घुटने टिकवा दिए और ना कोई ट्रेफिक जाम हुआ, न जनता को परेशानी। न रेल की पटरियां उखड़ीं, न किसी सरकारी संपत्ति को नुकसान। सरकार को भी मानना पड़ा, यह लोकतंत्र की जीत। सो अन्ना का आंदोलन सरकार ही नहीं, पटरी उखाडऩे वाले, सडक़ जाम करने वाले, बस फूंकने वाले समाज के अन्य आंदोलनकारियों के लिए भी सबक।
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09/04/2011

Friday, April 8, 2011

आंदोलन की शक्ल ने दी सरकार को अक्ल

दुष्यंत की ये पंक्तियां शुक्रवार को मौजूं हो गईं- ‘.. आज ये दीवार परदों की तरह हिलने लगी। शर्त लेकिन थी कि बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सडक़ पर, हर गली में। हर नगर, हर गांव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही। हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’ यों सही मायने में अन्ना हजारे ने तो सिर्फ लौ जलाई थी। भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी जम चुकीं, हर दिल में आग जलने लगी। सो जन लोकपाल बिल के लिए अन्ना के आंदोलन को अपार जन समर्थन मिला। देश का कोई कोना नहीं बचा, जहां आंदोलन की गूंज न पहुंची हो। सो सरकार की रात की नींद, दिन का चैन गायब हो गया। गुरुवार की आधी रात को पीएमओ जागता रहा। केबिनेट सचिव ने समाधान ढूंढने की कोशिश की। फिर शुक्रवार तडक़े सोनिया गांधी प्रधानमंत्री निवास पहुंचीं। मीटिंग में सोनिया-पीएम-सिब्बल-अहमद पटेल और पीएम के प्रिंसीपल सैक्रेट्री टी.के.ए. नायर शरीक हुए। दोपहर बाद पीएम ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से विचार-विमर्श किया। फिर पीएम के घर वीरप्पा मोइली-कपिल सिब्बल-सलमान खुर्शीद और प्रणव मुखर्जी का जमावड़ा हुआ। अन्ना को भेजे जाने वाले ड्राफ्ट पर चर्चा हुई। तो देर शाम सिब्बल के घर चौथे दौर की वार्ता हुई। सरकार की ओर से मोइली-सिब्बल-प्रणव, तो अन्ना की ओर से स्वामी अग्निवेश, किरन बेदी, अरविंद केजरीवाल पहुंचे। वार्ता के बाद अग्निवेश ने अनशन खत्म करने का इशारा किया। पर अन्ना के आगे सरकार की चालाकी नहीं चली। आखिर सरकार पर फौरी ऐतबार हो भी कैसे, जब सुबह ही हुस्नी मुबारक की तरह हेकड़ी दिखाई। आंदोलनकारियों की ओर से संयुक्त समिति के लिए नोटीफिकेशन और गैर सरकारी नेता को अध्यक्ष बनाने की मांग सिरे से खारिज कर दी। सो देर शाम सरकार नतमस्तक दिखी। तो अन्ना को शक हो गया, सुबह हेकड़ी दिखाने वाले शाम को झुक रहे। तो दाल में जरूर कुछ काला। वैसे भी ड्राफ्ट को तैयार करने वाले तीनों केबिनेट मंत्री पेशे से वकील। सिब्बल, सलमान खुर्शीद और वीरप्पा मोइली ने आसानी से सरेंडर किया होगा, ऐसी उम्मीद करना बेमानी। सो सरकार के ड्राफ्ट पर अन्ना ने पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण के साथ चर्चा की। देर रात एलान कर दिया- अभी अनशन जारी रहेगा। सरकार के ड्राफ्ट पर अभी अंतिम फैसला नहीं, शनिवार को बात होगी। सो अब उम्मीद, शनिवार को शायद अनशन खत्म हो। सरकार संयुक्त समिति के लिए नोटीफिकेशन तो नहीं, पर शासनादेश जारी करने को राजी दिख रही। कमेटी में चेयरमैन के बजाए को-चेयरमैन का पद आंदोलनकारियों को देने का प्रस्ताव रखा गया। सरकार की हालत अब बद से बदतर हो चुकी। पांच राज्यों के चुनाव में आंदोलन का असर पड़ता दिख रहा। कांग्रेस और सरकार के रणनीतिकार अब मानने लगे। देर से ही सही, अन्ना के आंदोलन ने जो राह पकड़ी, संयुक्त समिति की मांग माननी पड़ेगी। सो ऐसा न हो, जैसे टू-जी घोटाले में सब कुछ लुटाकर होश में आए, अब भी कुछ ऐसा ही हो। सो संयुक्त समिति की मांग मानने में देरी की अब कोई तुक नहीं। अनशन पर बैठे अन्ना की तबियत थोड़ी भी नासाज हुई। तो कहीं देश की जनता सरकार की अर्थी न सजा दे। पर सरकार के झुकने की सबसे बड़ी वजह खुफिया रपट बनी। जिसमें बताया गया- अगर जल्द आंदोलन को नहीं रोका गया, तो आंदोलन अराजक हो सकता। दिल्ली में जंतर-मंतर पर तो अन्ना बैठे। पर देश भर के चौक-चौराहों-मैदानों में कोई एक नेतृत्व नहीं। लोगों का गुस्सा भडक़ता जा रहा। आंदोलनकारियों की भीड़ बढ़ती जा रही। यानी इंटेलीजेंस रिपोर्ट ने सरकार के कान खड़े कर दिए। सो सरकार की ओर से वार्ताकार अब आंदोलनकारियों से वार्ता में जुबान कम, कलम अधिक चला रहे। ताकि आंदोलन खत्म हो सके। शुक्रवार की शाम सरकार को उम्मीद बंधी। स्वामी अग्निवेश के इशारे के बाद मीडिया ने आनन-फानन में अनशन खत्म होने के आसार जता दिए। तो जंतर-मंतर हो या इंडिया गेट, मुंबई का आजाद मैदान हो या देश के अन्य चौक-चौराहे, हर जगह आजादी का तराना गूंजने लगा। ये देश है वीर जवानों का, हम होंगे कामयाब, वंदे मातरम जैसे गीतों के उद्घोष से माहौल ऐसा बन गया, मानो दूसरी आजादी मिल गई। सचमुच भ्रष्टाचार की मार से शायद ही देश का कोई नागरिक बचा हो। सो गुस्सा अब सडक़ों पर साफ दिख रहा। सबके दिलों में अजीब सी आग, जुबां पर एक ही नारा- अब जान रहे या जाए, पर ये सूरत बदलनी चाहिए।
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08/04/2011

 

Thursday, April 7, 2011

उपवास पर अन्ना, दम सरकार की घुट रही

बजट सत्र से पहले 16 फरवरी को जब पीएम भ्रष्टाचार पर भरोसा देने के लिए टीवी संपादकों के जरिए देश से रू-ब-रू हुए थे। तब उन ने खम ठोककर कहा था- भारत में मिस्र नहीं दोहराएगा। उन ने भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की दुहाई दी थी। तो ऐसा लगा, सचमुच अब जनता में क्रांति की भावना खत्म हो चुकी। समाज सुविधा भोगी हो चुका। पर दो महीने भी नहीं हुए, अपने जंतर-मंतर ने ‘तहरीर’ लिख दी। साइबर से सडक़ तक सिर्फ देश नहीं, दुनिया में अन्ना के आंदोलन की चर्चा। सो मनमोहन सरकार को अनशन के तीसरे दिन ही बात समझ आ गई। मिस्र में तो सिर्फ एक तहरीर-ए-स्क्वायर। गर आंदोलन लंबा खिंचा, तो भारत में कई तहरीर चौक बन जाएंगे। सो गुरुवार को केबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल को वार्ताकार बनाकर भेजा। सरकार अब जाकर अन्ना की मांग के मुताबिक संयुक्त समिति बनाने को राजी हुई। पर चूंकि सिब्बल सरकारी वार्ताकार बने। सो कानूनी घालमेल कर गए। संयुक्त समिति को तैयार, पर नोटिफिकेशन नहीं होगा। अब कोई मनमोहन से पूछे- जब 16 फरवरी को लोकतंत्र की दुहाई दे रहे थे। तो अब लोकतंत्र की आवाज सुनने के बजाए उसे अपनी जागीर क्यों माने बैठे? क्यों नहीं जन लोकपाल बिल लाने और भ्रष्टाचारियों को सींखचों में बंद करने का साहस दिखाते? क्या सिर्फ सोनिया गांधी सरीखे नेताओं के लिए ही एनएसी बन सकती? क्या सिर्फ बड़े नेताओं को बचाने के लिए ही बैक डेट से लाभ के पद का कानून लागू किया जा सकता? जिस कानून पर तबके राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी आपत्ति जताई थी। सो नीयत में खोट देख अन्ना समर्थकों ने सरकारी प्रस्ताव ठुकरा दिया। दो दौर की बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला। अब शुक्रवार को फिर वार्ता होगी। पर मौके की नजाकत भांप सोनिया गांधी ने गुरुवार को ही अपील जारी कर दी। अन्ना के अनशन पर दुख जताया। बोलीं- अन्ना ने जो मुद्दा उठाया, वह बेहद चिंता की बात। भ्रष्टाचार पर कभी दो राय नहीं हो सकतीं। भ्रष्टाचार से लडऩे का कानून प्रभावी और नतीजा देने वाला होना चाहिए। मुझे भरोसा है, सरकार अन्ना की राय को पूरी तवज्जो देगी। सो मैं अन्ना हजारे से अनशन खत्म करने की अपील करती हूं। अब जब सोनिया गांधी जैसी नेता भ्रष्टाचार पर दो राय न होने की दलील दे रहीं। तो उनके मनोनीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर-मगर क्यों कर रहे? क्यों नहीं जनता की आवाज को अक्षरश: कबूल किया जा रहा? क्रिकेट डिप्लोमैसी के लिए तो मनमोहन मोहाली के मैदान में घंटों बैठे। पर जंतर-मंतर जाने की जहमत क्यों नहीं उठा रहे, जहां लोकतंत्र की सच्ची आवाज गूंज रही? विधानसभा चुनाव की दलील देकर पल्ला क्यों झाड़ रहे? क्या सिर्फ चुनाव के समय ही जनता की बात होगी? और तो और, मनमोहन ने ऐसे कपिल सिब्बल को वार्ताकार बना क्यों भेजा, जिन्हें न तो टू-जी घोटाले में कोई घोटाला नजर आता, न घोटालाधिराज ए. राजा दोषी नजर आते? पर सिब्बल ने स्वामी अग्निवेश और अरविंद केजरीवाल से बात की। तो संयुक्त समिति का अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी को बनाने का प्रस्ताव रखा। पर अन्ना समर्थकों ने अन्ना का नाम आगे किया। तो देर शाम खुद अन्ना हजारे ने अध्यक्षता से इनकार कर दिया। बोले- मैं संयुक्त समिति का अध्यक्ष बना, तो कहा जाएगा- मैं इस पद के लिए अनशन कर रहा। मैं ताउम्र कहीं भी किसी भी संस्था का सामान्य पदाधिकारी तक नहीं रहा। अन्ना ने साफ कर दिया- अब पीछे नहीं हटेंगे। गांधीवादी तरीका नहीं, तो छत्रपति शिवाजी को सामने लाना होगा। अन्ना ने शरद पवार के इस्तीफे पर दो-टूक कहा- सिर्फ एक शरद पवार की बात नहीं। जो-जो भ्रष्ट मंत्री, उसे केबिनेट में नहीं रहना चाहिए। सूचना के हक कानून के लिए अपने आंदोलन की याद ताजा करते हुए अन्ना बोले- उस कानून की वजह से आज घोटाले दर घोटाले बाहर आ रहे। पर अफसोस, घोटालेबाज जेल नहीं जा रहे। सो अब पीएम साहस दिखाएं। यों अन्ना भले पीएम को ईमानदार कहें। पर दागी मंत्री के मसले में मनमोहन ने ही संसद में क्या कहा था, रिकार्ड उठाकर देख लीजिए। उन ने दलील दी थी- जब तक कोर्ट में आरोप तय न हो, किसी मंत्री को दागी नहीं कहा जा सकता। सो पीएम से साहस की उम्मीद भला कैसे करें। वैसे भी केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत से मनमोहन को अलग नहीं किया जा सकता। पर बात अन्ना के आंदोलन की। अब देश का हर चौक-चौराहा तहरीर की झलक दे रहा। भले अन्ना का आंदोलन अभी सिर्फ जन लोकपाल के लिए। सरकार जल्द नहीं चेती, तो जनता चेतनाशून्य न कर दे।
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07/04/2011

Wednesday, April 6, 2011

तहरीर-ए-स्क्वायर की शक्ल लेता जंतर-मंतर!

तो चिंगारी अब शोला बनती जा रही। अन्ना हजारे के अनशन में लोगों का हुजूम उमड़ रहा। सो मंगलवार तक अन्ना के आंदोलन को गैर जरूरी और वक्त से पहले का कदम बता रही कांग्रेस अब गुहार लगा रही। बुधवार को सरकार बातचीत को राजी हो गई। शरद पवार भी जीओएम छोडऩे को तैयार। यों छोडऩे वाले ऐसे लफ्फाजी नहीं करते। पर दिन भर की लफ्फाजी के बाद देर शाम पवार ने सिर्फ जीओएम से हटने की इच्छा को चिट्ठी में लिख मनमोहन को भिजवा दिया। अब कांग्रेस चाहे जो कहे, अन्ना के आंदोलन का असर दिखने लगा। सो केबिनेट मंत्री वीरप्पा मोइली से लेकर अंबिका सोनी भी मैदान में कूदे। दलील दी- सरकार ने कभी अन्ना के सुझावों को नकारा नहीं। यानी अब सरकार को लग रहा- भैंस पानी में जाए, उससे पहले ही हांक लो। सो अन्ना को मनाने के लिए संपर्क के सारे सूत्र खोल दिए। नित नई दलीलें दी जा रहीं, ताकि आंदोलन की महत्ता बढ़ न सके। कांग्रेस और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने फिर संसदीय मर्यादा की दुहाई दी। अगले सत्र में बिल पेश करने की इच्छा जताई। जीओएम के सामने सुझाव रखने की सलाह दी। यहां तक पेशकश कर दी- संयुक्त समिति की मांग पर हम गौर करने को तैयार। हमने कभी सिद्धांत रूप से संयुक्त समिति के गठन को ना नहीं कहा। अब अगर सरकार सचमुच संयुक्त समिति का गठन कर दे, तो अन्ना हजारे का आंदोलन भी थम जाएगा। पर दूसरे दिन भी अन्ना का उपवास जारी। फिर भी सरकार की ओर से सिर्फ जुबानी हलचल हो रही। तभी तो मोइली ने संसद की पारदर्शिता का बखान किया। बोले- बिल का ड्राफ्ट तैयार हो चुका है। पर यह तब तक आखिरी रूप नहीं लेगा, जब तक स्टैंडिंग कमेटी में चर्चा नहीं हो जाती। कोई भी बिल लुकाछिपी से पारित नहीं होता। अपनी संसद के कामकाज का तरीका सबसे पारदर्शी। यानी सरकार तय नहीं कर पा रही, अन्ना के आंदोलन पर क्या कहें और क्या करें। कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने मोइली उवाच ही दोहराया। साथ में कह गईं- देश में हमेशा संसद ही बिल पारित करती आई। बाहरी लोग बिल को तय नहीं करते। अगर हर कोई भूख हड़ताल करने लगे, तो देश कैसे चलेगा? अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पर सवाल कांग्रेस से- माना बाहरी लोग बिल तय नहीं करते। तो सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल क्या आसमान से उतर कर आई? कांग्रेस जिन अन्ना हजारे को बाहरी बताना चाह रही, वह आज देश की जनता की आवाज हैं। पर सोनिया ने गिने-चुने लोगों को एनएसी का मेंबर बनाया। पीएम मनमोहन ने मजबूरी में मान्यता दी। अब जब सोनिया गांधी के लिए सरकार एनएसी का गठन कर संवैधानिक जामा पहना सकती। तो अन्ना और उनके समर्थकों को क्यों नहीं? जब एनएसी के मेंबर बड़े-बड़े कानून का ड्राफ्ट बना सरकार को भेज सकते। सरकार ना-नुकर के बाद भी उस ड्राफ्ट को कानूनी शक्ल देने के लिए बाध्य हो सकती। तो भला अन्ना की आवाज को कांग्रेस बाहरी कैसे बता सकती? वैसे भी अपनी संसद भले बिल पारित करने की औपचारिकता निभाती हो। पर क्या यह सच नहीं, संसद में पास होने वाला हर बिल मंत्रालयों में ही अंतिम रूप ले लेता? अपने कानूनविद लक्ष्मीमल सिंघवी ने तो यही कहा था। उनके मुताबिक- यह सत्य है कि कानून बनाने और टेक्स लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है। पर वास्तविकता यह है कि विधि अधिनियमों का गर्भाधान और जन्म मंत्रालयों में होता है, संसद में तो सिर्फ मंत्रोच्चारण के साथ उनका उपनयन संस्कार होता और औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता। अब सवाल- यह कैसा तंत्र, जिसमें सिर्फ चुनाव तक जनता जनार्दन की जय होती। सत्ता में बैठने के बाद जनता से दूर हो जाते। अब संसदीय मर्यादा की दुहाई देकर जनता की आवाज दबाने की कोशिश हो रही। यों कांग्रेस लाख दलीलें दे, पर अन्ना ने पीएम को खुला पत्र लिख बता दिया- यह आजादी की दूसरी लड़ाई। किसी के उकसावे पर नहीं। सचमुच महात्मा गांधी ने भी ऐसे ही अंग्रेजी संसदीय मर्यादा का ख्याल रखा होता। तो भारत की आजादी की तारीख और साल शायद कुछ और होते। कांग्रेस भूल रही, जब जनता सडक़ों पर उतरती, तो फिर मर्यादा नहीं, मकसद सामने होता। सो अन्ना ने अब अनशन स्थल पर नेताओं के लिए नो एंट्री का बोर्ड टंगवा दिया। मंगलवार को शरद यादव जैसे-तैसे बोल आए। पर बुधवार को उमा भारती और ओम प्रकाश चौटाला को उलटे पांव लौटना पड़ा। सो अब अपने नेता और नौकरशाह अपनी खैर मनाएं। नवरात्र के इन दिनों में देवी से दुआ करें, जंतर-मंतर सचमुच में तहरीर-ए-स्क्वायर न बन जाए।
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06/04/2011

Tuesday, April 5, 2011

तो अबके तय हो ही जाए, ‘लोक’ बड़ा या ‘तंत्र’

क्रिकेट के बाद करप्शन कांग्रेस को फिर कुरेदने लगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ अबके मुहिम राजनीतिक नहीं, छोटे गांधी के नाम से मशहूर अन्ना हजारे ने छेड़ी। अब तक विपक्ष या स्वामी रामदेव जैसे इक्के-दुक्के लोग आवाज उठाते। तो राजनीतिक बता दबा दी जाती। पर पहली दफा भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे जैसी गैर-विवादित छवि मैदान में। जिनकी अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं। सो अन्ना की चोट सह पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। दूसरी आजादी की लड़ाई का शंखनाद करते हुए अन्ना मंगलवार से आमरण अनशन पर बैठ गए। स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल जैसी कई सामाजिक हस्तियां भी अन्ना के साथ जुड़ गईं। मंगलवार को देश भर में अन्ना के अनशन का असर दिखा। देश भर में लोगों ने उपवास रखा, रैलियां निकालीं। सो सोमवार तक अकड़ रही कांग्रेस मंगलवार को सकपका गई। अन्ना से अनशन खत्म करने की अपील की। पर कांग्रेस से पहले मनमोहन और उनका महकमा एड़ी-चोटी का जोर लगा चुका। फिर भी अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम से पीछे नहीं हटे। सो अन्ना की मुहिम की राजनीतिक बढ़त लेने बीजेपी मैदान में कूद पड़ी। अन्ना से उपवास तोडऩे का अनुरोध तो किया। पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकी। सो अब दबी जुबान में कांग्रेसी अन्ना के आंदोलन को भी संघ की साजिश समझाने में जुटे। खीझ में कांग्रेसी अंटशंट गालियां भी निकाल रहे। पर देश के लिए सर्वस्व लुटाने सडक़ों पर उतरे अन्ना हजारे को जन-भावना का अनुमान। सो बोले- सरकार मेरे अनशन से नहीं डरती। उसे डर है, तो बस यह कि पब्लिक भडक़ेगी। तो उसकी सरकार गिर जाएगी। इसलिए मुझे लगता है कि सरकार तीन-चार दिन में झुकेगी। और उसे जन-लोकपाल बिल की मांग माननी पड़ेगी। सचमुच गांधीवादी अन्ना से सरकार सहमी हुई। अन्ना अब तक सौ से अधिक बार आमरण अनशन कर चुके। छह मंत्री और चार सौ नौकरशाहों के खिलाफ मुहिम को अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लिया। मनमोहन ने सरकार जब नौकरशाही के दबाव में सूचना के हक कानून में संशोधन करने की सोची। तो मुखालफत की पहली आवाज अन्ना ने ही उठाई। अब अन्ना जन-लोकपाल बिल की मांग कर रहे। ताकि भ्रष्टाचार का जड़ से खात्मा हो। पर नेताओं-नौकरशाहों का दिल है कि भरेगा नहीं। सो सरकार अपनी मर्जी का लोकपाल बिल थोपना चाहती। पर अन्ना ने ठान लिया- अब जनता का बिल ही कानून बनेगा। जन-लोकपाल में स्वत: संज्ञान, सारी शक्तियों से लैस, तय समय में जांच और कार्रवाई दोषी को कड़ी सजा का प्रावधान। और 11 सदस्यीय संस्था की बात, जिनमें आधे सरकार के, तो आधे सीधे जनता के लोग हों। पर सरकारी लोकपाल में भ्रष्टाचार को झुनझुना बनाने की कोशिश। मसलन, शिकायतों पर पहले अनुमति लेनी होगी। कार्रवाई नहीं, परामर्श देने का अधिकार होगा। नौकरशाहों और जजों के खिलाफ जांच का प्रावधान नहीं। सजा भी महज छह से सात महीने की। घोटालों की रिकवरी की कोई व्यवस्था नहीं। सो सात मार्च की मुलाकात में ही पीएम ने अन्ना हजारे के सामने अपनी असमर्थता जता दी। पीएम ने बजट सत्र और पांच राज्यों के चुनाव के बाद दुबारा बात करने का भरोसा दिया। सो अन्ना को यह बात चुभ गई। बोले- जिस जनता ने उन्हें कुर्सी पर बिठाया, उसके लिए टाइम नहीं। हमारे बिल को इसलिए नहीं मान रहे, क्योंकि सबका खाना-पीना (रिश्वत) बंद हो जाएगा। पर सरकार की दलील- लोकपाल बिल पर विचार के लिए जीओएम बना हुआ। फिर भी आंदोलनकारियों ने संयुक्त समिति की मांग की। ताकि जन-लोकपाल बिल पर विचार हो। अन्ना की दलील- भ्रष्टाचार से लडऩे को देश में बहुतेरे कानून। पर सब हाथी के दिखाने वाले दांत। अब कुछ ऐसा हो, जो काट सके। पर सरकार के लिए मुश्किल- नौकरशाही को कैसे मनाए। भ्रष्टाचार का कोई भी किस्सा उठाकर देखो, नेता-नौकरशाह का गठजोड़ दिख जाएगा। टू-जी के राजा हों, या कॉमनवेल्थ के खिलाड़ी कलमाड़ी या कारगिल शहीद की विधवाओं के लिए बनी आदर्श इमारत की बलि चढ़े अशोक चव्हाण। हर खेल में नेता-नौकरशाह का गठजोड़ जन-जाहिर। अपने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने 1993 में भारतीय अफसरशाही को पॉलिश्ड कॉल गल्र्स की संज्ञा दी थी। नौकरशाह सचमुच किसी न किसी नेता को गॉड फादर बना इशारों पर काम करते। जिसका प्रतिफल वरिष्ठता लांघ मलाईदार पद के रूप में मिलता। सो 42 साल से लोकपाल बिल धूल फांक रहा। कभी किसी राजनीतिक दल ने लोकपाल बिल को अमल में लाने का साहस नहीं दिखाया। सो तबसे अब तक 13 सरकारें आईं-गईं, लोकपाल बिल भी लोकसभा में पेश होता और खत्म हो जाता। यानी नौकरशाही अपनी मनमर्जी पर अंकुश लगाना नहीं चाहती। अंग्रेजों ने भारत में जैसी नौकरशाही शुरू की, आज तक वही चलता आ रहा। सो अपने लोक-सेवक अभी भी कानून के संरक्षक या प्रतीक नहीं, अलबत्ता मालिक ही समझते। पर अन्ना हजारे ने उम्मीद की किरण जगा दी। बुजुर्ग नेतृत्व में युवा एक बार फिर सडक़ों पर उतर रहा। सो कहीं भ्रष्टाचार के महासागर में डुबकी लगा रही कांग्रेस की सरकार के लिए अन्ना का आंदोलन ताबूत में आखिरी कील साबित न हो।
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05/04/2011

Friday, April 1, 2011

शिक्षा के हक को नहीं धन, पर क्रिकेट को लूट की छूट

क्या दुआएं, क्या यज्ञ, क्या हवन, क्या नमाज और क्या गंगा आरती। टोटकेबाजी की तो पूछो मत। एक मॉडल तो नंगई पर उतारू। सो कुल मिलाकर क्रिकेट वल्र्ड कप का नशा अब पागलपन में तब्दील हो गया। अपनी मनमोहन सरकार तो मोहाली सेमीफाइनल से ही ऐसी अभिभूत, मालदार आईसीसी को टेक्स छूट दे दी। पर बदले में आईसीसी ने अपनी औकात दिखा दी। भारत के टीवी चैनलों को फाइनल मैच की कवरेज से रोक दिया। टीवी चैनलों पर पाबंदी सिर्फ मैच ही नहीं, प्रेस कांफ्रेंस और नैट प्रेक्टिस तक लागू होगी। सो शुक्रवार को आईसीसी के खिलाफ मीडिया ने बिगुल फूंका। तो आईसीसी पर मेहरबान अपनी सरकार भी लपेटे में आ गई। बीजेपी ने सीधे आईसीसी के मुखिया शरद पवार से जवाब मांगा। कपिल देव ने भी आलोचना करते हुए सवाल उठाया- इतने अहम मैच की कवरेज से मीडिया को दूर कैसे रखा जा सकता? पर आईसीसी हो या बीसीसीआई या शरद पवार। तीनों के लिए सिर्फ पैसे की अहमियत, बाकी जाएं भाड़ में। जिन चैनलों को प्रसारण का अधिकार मिला हुआ, सिर्फ उनका फायदा बढ़ाने के लिए आईसीसी ने यह कदम उठाया। पर जब भारत में हो रहे मैच की कवरेज से भारतीय मीडिया को वंचित रखा जा रहा। यानी भारत सरकार से छूट भी ले रही और भारतीय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को आंखें भी दिखा रही। वह भी तब, जब अपने शरद पवार आईसीसी के प्रेसीडेंट। पर जब दिन भर आईसीसी और शरद पवार की खिंचाई हुई। बीजेपी-कांग्रेस ने मोर्चेबंदी कर मैच से पहले मामला सुलझाने की मांग की। तो आखिरकार देर से ही सही, आईसीसी दुरुस्त आई। शुक्रवार की देर शाम मीडिया कवरेज से बैन हट गया। यों शरद पवार से भला और उम्मीद भी क्या। जिन ने बतौर कृषि मंत्री आम जनता का बेड़ गर्क कर दिया। जब भी मुंह खोला, महंगाई बढ़ा दी। पर जब सरकारी खजाने को लूटना हो, तो पवार चुप रहना मुनासिब समझते। गुरुवार की केबिनेट मीटिंग में यही हुआ। जब आईसीसी वल्र्ड कप को टेक्स छूट का मामला आया। तो पवार चुपचाप बैठे रहे। पर पवार के खास-उल-खास और एनसीपी कोटे से मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने केबिनेट में टेक्स छूट की पैरवी की। अपने मनमोहन भी शायद मन बना चुके थे। पर खानापूर्ति के लिए खेल मंत्री अजय माकन से राय मांगी। तो माकन ने टेक्स छूट की मुखालफत की। माकन ने दलील दी, ऐसे में अन्य खेल संगठन भी सरकार से छूट की मांग करेंगे। क्रिकेट टूर्नामेंट को छूट देने का कोई तुक नहीं बनता। वैसे भी आईसीसी कोई सामाजिक संस्था नहीं, अलबत्ता पेशेवर और मुनाफा कमाने के लिए बनाई गई संस्था। माकन ने अपनी सरकार को आईना भी दिखाया। जब दलील दी- खेल मंत्रालय का बजट कम किया गया। तो ऐसे में क्रिकेट को टेक्स छूट क्यों? अब जरा वल्र्ड कप 2011 के आयोजन से आमदनी, खर्च और भारत सरकार की ओर से मिलने वाली टेक्स छूट को देखो। इस वल्र्ड कप से आईसीसी को कुल 1,476 करोड़ रुपए की आमदनी होगी। पर इस पूरे टूर्नामेंट का खर्चा महज 571 करोड़ रुपए होने की संभावना। यानी कुल 905 करोड़ की अतिरिक्त आमदनी आईसीसी को होने जा रही। फिर भी अपनी सरकार जो छूट दे रही, उसका आंकड़ा करीबन 45 करोड़ रुपया बन रहा। सो केबिनेट मीटिंग में अजय माकन के साथ-साथ अंबिका सोनी, कुमारी शैलजा और अन्य मंत्रियों ने भी टेक्स छूट का विरोध किया। केबिनेट मीटिंग में पवार टेक्स छूट के विरोधियों को हैरानगी से देखते रहे। पर आखिर में फैसला आईसीसी के फेवर में गया। सो अब सवाल- पवार ने इस केबिनेट मीटिंग में शिरकत क्यों की। जबकि वह खुद आईसीसी के मुखिया भी। ऐसे में नीयत पर सवाल उठना लाजिमी। सो अब सवाल पवार से- क्या यह मुफ्तखोरी नहीं? जब सुप्रीम कोर्ट ने सड़ रहे अनाज को बरबादी से बचाने के लिए गरीबों में बांटने का आदेश दिया। तो पवार ने मुफ्तखोरी की आदत को बढ़ावा देने वाला बताया था। अपने मनमोहन ने कार्यपालिका के अधिकार में दखल बताया था। पर अब कोई पूछे- 905 करोड़ का सीधा मुनाफा कमाने वाली संस्था को 45 करोड़ की टेक्स छूट क्यों? किसी आम नागरिक की सालाना आमदनी आयकर छूट की सीमा से महज हजार रुपए भी आगे बढ़ जाए, तो दस फीसदी टेक्स चुकाना पड़ता। शुक्रवार को जब टेक्स छूट के मामले पर देश में बवाल मचा। तो संयोग देखिए, आज के दिन यानी पहली अप्रैल 2010 को राइट टू एजूकेशन का कानून देश में लागू हुआ था। पर यूपी, बिहार समेत कई राज्यों, यहां तक कि राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने भी केंद्र-राज्य के खर्च अनुपात को 85:15 करने की मांग की थी। पर मनमोहन सरकार ने किसी की नहीं सुनी। पर क्रिकेट के लिए सबकी सुन रहे। किसी ने सच ही कहा है- गरीबों को देने में दर्द होता है, अमीरों को देने में खुशी। अपनी सरकार को अब क्या कहें। पर आईसीसी भी मानो शर्म का परदा उतार चुकी। महज 45 करोड़ की छूट के लिए भारत सरकार के सामने गिड़गिड़ाई। केबिनेट मीटिंग में पवार ने प्रफुल्ल पटेल को एक बार भी नहीं रोका। हद तो तब पार हो गई, जब विश्व कप ट्राफी को कस्टम ड्यूटी से बचाने के लिए आईसीसी ने कमर्शियल वैल्यू जीरो बता दी। पर कस्टम विभाग ने ट्राफी को रोक आकलन करवाया। तो साठ लाख कीमत आंकी गई। सुनते हैं, कस्टम विभाग ने 22 लाख की ड्यूटी लगा दी।
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01/04/2011