Tuesday, December 21, 2010

अब तो जवाब मांग रहा देश, यह कैसा आंदोलन?

गुर्जर आंदोलन की आग में राजस्थान फिर झुलस उठा। पिछले चार साल में चौथी बार ऐसा आंदोलन हो रहा। हर बार की तरह अबके भी आंदोलन देश का चौथा निकाल रहा। पांच फीसदी आरक्षण का मसला हाईकोर्ट में लंबित। पर आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने एलान कर दिया- अब पांच फीसदी लेकर ही उठेंगे। तो क्या एक बार फिर देश आंदोलन की आग में झुलसकर अपाहिज बनेगा? आखिर आंदोलन का क्या मकसद? माना, सरकार के बहरे कान बिना शोर-शराबे या हिंसा के नहीं सुनते। पर अपने फायदे के लिए समूचे देश को ठहरा देना कहां तक न्यायसंगत? वसुंधरा सरकार के वक्त 2007 में 29 मई से दो जून तक हिंसक आंदोलन हुए। फिर जून 2008 में 27 दिन तक आंदोलन हुए। तो वसुंधरा सरकार ने पांच फीसदी आरक्षण के साथ-साथ सवर्णों को 14 फीसदी आरक्षण का भी पासा फेंक दिया। पर चुनाव बाद सत्ता बदली। तो गुर्जर आरक्षण का मसला अशोक गहलोत सरकार के गले की हड्डी बन गई। तबके गवर्नर एस.के. सिंह आरक्षण के मुखर विरोधी थे। सो उन ने बीजेपी राज में विधानसभा से पारित प्रस्ताव में फच्चर फंसा दिया। तो बीजेपी को सियासत का मौका मिल गया। वसुंधरा राज में खुद को किसी दल से बाहर का बताने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला गहलोत सरकार के आते-आते भगवा रंग में रंग चुके थे। बाकायदा बीजेपी के टिकट से कांग्रेसी नमोनारायण मीणा के खिलाफ टोंक-सवाई माधोपुर सीट से चुनावी मैदान में कूदे। पर कांटे की टक्कर में मीणा बच गए, बैंसला को कांटा चुभ गया। सो जब जुलाई 2009 में बीजेपी के समर्थन से बैंसला ने झंडा उठाया। कांग्रेस सरकार पर आठ महीने तक फाइल दबाने का आरोप लगा आंदोलन का एलान किया। तो सरकार के हाथ-पांव फूल गए। विधानसभा में तब जो हुल्लड़ मचा, दोहराने की जरूरत नहीं। बीजेपी के एमएलए ने टेबल पर चढ़ माइक फेंके, कागज लहराए। पर खुद गुर्जर आंदोलन का दंश झेल चुकी बीजेपी का तब और अब शह देने का क्या मकसद? क्या विपक्ष में आ जाने से राजनीतिक जिम्मेदारी का मकसद बदल जाता? ऐसे आंदोलनों के वक्त राजनीतिक एका की जरूरत, ताकि कोई हिंसक घटना न हो। पर लाशों की राजनीति नेताओं के बायोडाटा का हिस्सा बन चुकी। अब चाहे कांग्रेस राज में पिछली बार कोई हिंसक वारदात नहीं हुई। अलबत्ता दिल्ली के दखल से गवर्नर-सीएम ने बीजेपी राज के प्रस्ताव को ही मान लिया। तब चीफ मिनिस्टर ने आंदोलन थामने का क्रेडिट लेते हुए दलील दी थी- आठ महीने का वक्त कानूनविदों की राय लेने में लग गया। हम चाहते थे कि भविष्य में कोई कानूनी अड़चन न आए। पर जैसे गुर्जर आंदोलन में बीजेपी दोषी, वैसी ही कांग्रेस भी। अब कोई पूछे, जब आठ महीने कानूनविदों की राय लेने में बिता दिए। तो अब फिर मामला कोर्ट में क्यों पेंडिंग? यानी वोट बैंक की राजनीति में ईमानदार कोई नहीं। सो अबके कर्नल बैंसला ने एलान किया- चाहे सीएम आ जाएं या मध्यस्थ विश्वेंद्र सिंह या कोई तीस मार खां। जब तक पांच फीसदी आरक्षण नहीं मिलता, नहीं उठेंगे। पर सवाल हुआ- कोर्ट के आगे सरकार के हाथ बंधे हुए। तो बैंसला की दलील- सरकारी भरती की प्रक्रिया कोर्ट के फैसले तक रोक दो। क्या लोकतंत्र में निजी हित के लिए समाज के बाकी तबकों का हित दबाना उचित? रेल की पटरियां उखाडऩे और राजमार्ग को ठप करने से किसका नुकसान होगा? क्या किसी नेता की यात्रा रुक रही या काफिला ठहर रहा? आखिर में नुकसान तो आम नागरिकों को हो रहा। लोग स्टेशनों पर ठंड में ठिठुर रहे। जीवन अस्तव्यस्त हो रहा। सो आंदोलन के रहनुमाओं को जवाब देना होगा, यह कैसा आंदोलन? यह कैसी जिद, जो दूसरों की आजादी में खलल डाले? हर बार आंदोलन से सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाता। फिर उसी सरकार से अपने हित की मांग क्यों? सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड के सिविल वार में आंदोलन शब्द का विशेष प्रचलन हुआ। तब क्राम वेल की सेना के हर रेजीमेंट में प्रतिनिधि निर्वाचित किए गए। हर प्रतिनिधि को आंदोलनकर्ता कहा गया। फिर फ्रांसीसी क्रांति के वक्त आंदोलनकर्ता उन्हें कहा गया, जिन ने दंगा-फसाद कराने की कोशिश की। बाद में इंग्लैंड में इसी शब्द का इस्तेमाल शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए हुआ। जिसका मकसद लोकमत से संसद को इस बात के लिए प्रेरित करना था कि वह कानून में सुधार करे। वामपंथियों ने आंदोलन का मतलब उग्र बना दिया। पर अपने देश में जनआंदोलन का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को। उन ने शांति, प्रेम और अहिंसा से अंग्रेजों को मजबूर कर दिया। पर उग्र आंदोलन की शुरुआत 1948 में कम्युनिस्टों ने की। जब कलकत्ता थीसिस घोषित किया गया। आजादी को अधूरी बता कम्युनिस्टों ने बल प्रयोग से उलटने का एलान किया। रक्तरंजित क्रांति शुरू कर दी। ट्रेन-बैंक लूटे गए। देश में कड़ा विरोध हुआ। तो केंद्र-राज्य ने मिलकर हिंसा को कुचल दिया। बाद में देश में कई ऐसे आंदोलन हुए। पर अब वोट बैंक की राजनीति ने आंदोलनों को हवा देनी शुरू कर दी। सो अब जवाब आंदोलनकारियों को देना होगा, वह किस प्रकार का आंदोलन कर रहे? हिंसक आंदोलन का दर्द उस परिवार से पूछिए, जिनके घरों के चिराग बुझ गए। सो अपनी अपील, सर्वजन के हित में गुर्जर समाज खुद अमन-चैन का बीड़ा उठाए। अगर सरकार के बहरे कान तक आवाज पहुंचानी। तो रेल की पटरी उखाड़ आम जनता को नुकसान न पहुंचाएं। अलबत्ता महात्मा गांधी की तरह अहिंसा का मार्ग अपनाएं।
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21/12/2010