Monday, September 27, 2010

पटरी पर कॉमनवेल्थ, मुहाने पर गौरव!

अब कॉमनवेल्थ की पटरी पर शीला-गिल-कलमाड़ी-जयपाल एक्सप्रेस दौडऩे लगी। चारों ट्रेन रास्ते में कहीं फिर तफरी न मारने लगें। सो पैरलल लाइन पर मनमोहन की राजधानी चल रही। पर विवाद है कि थमने का नाम नहीं ले रहा। कॉमनवेल्थ को शाप देने वाले कांग्रेसी दुर्वासा मणिशंकर अय्यर तो सोमवार को विदेश चले गए। कॉमनवेल्थ का बेड़ा गर्क होने की भविष्यवाणी पहले ही कर चुके। सो मणिशंकर अपनी आंखों के सामने भविष्यवाणी सच होते नहीं देखना चाहते। पर दिल में अभी भी वही बात, काश, कॉमनवेल्थ का बेड़ा गर्क हो जाए। यों मणिशंकर का लंदन जाना भले संयोग हो। पर दिलचस्प पहलू बताते जाएं। जब 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया, तब भी मणि भाई लंदन में थे। बतौर छात्र मणिशंकर ने कम्युनिस्टों के लिए खूब चंदे इकट्ठे किए थे। पर मणिशंकर की मति मणि ही जानें, फिलहाल फिक्र देश की साख की। सो आखिरी छह दिनों में सरकारी अमला छककर काम कर रहा। शीला खुद दिन में चार-छह दफा खेल गांव के चक्कर लगा रहीं। पर सच कहें, कॉमनवेल्थ गेम्स के अपने आयोजनों ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया। कहीं गंदगी का अंबार, तो कहीं खिलाड़ी के बैठने से ही बैड टूट रहे। खेल गांव की लिफ्ट यमुना की मार झेल रही। तो कहीं कमरे में सांप निकल रहे। फिर भी कलमाड़ी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। तुर्रा देखिए, सोमवार को बोले- साफ-सफाई करना मेरा काम नहीं। पर कोई पूछे, क्या सिर्फ मलाई मारना ही काम? आखिर आयोजन समिति का अध्यक्ष क्या झक मारने के लिए बने? अगर वक्त पर शहरी विकास मंत्रालय या दिल्ली सरकार या एमसीडी ने काम पूरा करके नहीं दिया। तो कलमाड़ी ने केबिनेट सचिव या पीएम से बात क्यों नहीं की? क्या इसी दिन का इंतजार कर रहे थे कलमाड़ी? सचमुच ये आयोजक देश की इज्जत के दु:शासन बन गए। अब देश के लिए गौरव का कॉमनवेल्थ फजीहत की वजह बन रहा। सो मनमोहन की नींद उसी तरह अब टूटी, जैसे द्रोपदी के चीर हरण के वक्त कौरवों की सभा में अट्टहास से धृतराष्ट्र द्रवित दिखे। तलत महमूद के गीत की तरह मनमोहन अब होश में आए। पर सवाल, सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। दिन में अगर चिराग जलाए, तो क्या किया। अगर मनमोहन यही चिराग साल भर पहले भी जलाते। तो आज कॉमनवेल्थ गेम्स में दूधिया रोशनी होती। बदनामी की काली छाया नहीं। पर देर से ही सही, अब करीब-करीब सब दुरुस्त होता दिख रहा। भले कुछ जगहों पर अपना देशी जुगाड़ काम आ रहा। जहां-जहां काम पूरे नहीं हुए, बड़े-बड़े फ्लैक्स बोर्ड लगाकर गंदगी को ढकने और सुंदरता बिखेरने का काम हो रहा। खेल गांव में जो भी कमियां पाई जा रहीं, फौरन दुरुस्त कराई जा रहीं। एक दिन में चौबीस घंटे नहीं, अड़तालीस घंटे काम कर रहे। पर मीन-मेख निकालने वाले विदेशी अपनी हरकतों से बाज कहां आएंगे। भारत को नीचा दिखाने की मानसिकता दुनिया के कई देशों ने अभी तक नहीं छोड़ी। पर सबसे अहम बयान कॉमनवेल्थ गेम्स फैडरेशन के सीईओ माइक हूपर का। जिन ने पहले कॉमनवेल्थ के लिए बनी विशेष लेन को चौबीस घंटे रिजर्व रखने की जिद पकड़ी। अपनी सरकार ने ट्रेफिक का हवाला देकर इनकार किया। तो हूपर ने समस्या के लिए दिल्ली की बेतरतीब जनसंख्या पर उंगली उठा दी। कॉमनवेल्थ की तैयारियों में कमी के लिए भारत सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। पर आलोचना हुई, तो कलमाड़ी एंड कंपनी का नाम लिया। अपने बयान से पलट गए। पर माइक हूपर के बड़े यानी फैडरेशन के अध्यक्ष माइक फेनेल ने हूपर का बचाव किया। सारा दोष अपने नेताओं की तरह मीडिया के सिर मढ़ दिया। पर फैडरेशन के माइक बंधुओं को तैयारियों में कमी आज ही नहीं दिखी। सो सवाल, फैडरेशन ने डे-टू-डे मानीटरिंग क्यों नहीं की? सनद रहे, सो माइक बंधुओं समेत आपको भी बताते जाएं। जब आठ अक्टूबर 2009 को 71 देशों के डेलीगेट्स ने अपनी तैयारियों का जायजा लिया था। तब दो दिन पहले से भडक़ने वाले डेलीगेट्स शाम होते-होते संतुष्ट हो गए थे। मौका-मुआइने से पहले फैडरेशन के मुखिया फैनेल ने मेजबानी छीनने तक की चेतावनी दी थी। सो सवाल, जब पिछले साल अक्टूबर में ही हालात इतने खराब होने की रपट फैनेल तक थी। तो फैनेल ने उसके बाद क्या किया? आखिर ऐसा क्या जुगाड़ हुआ, जो फैनेल तब तैयारियों के प्रति आश्वस्त हो गए? पर माइक बंधुओं की छोडि़ए। कमी सचमुच अपनी। टीवी पर सोमवार को शीला दीक्षित का चार साल पुराना एक बयान दिखा। तब शीला से पूछा गया था- गेम्स में सिर्फ चार साल बचे हैं, काम कैसे पूरा होगा? तो इतराती शीला ने कहा था- ब्रह्मा ने तो सिर्फ छह दिन में पूरी सृष्टि रच दी थी। सोचिए, तब आयोजन से जुड़े सभी महकमों ने फुर्ती दिखाई होती, तो आज विदेशी तो छोडि़ए, कोई भारतीय भी उंगली नहीं उठा पाता। पर अपने आयोजकों ने फैडरेशन के आगे ऐसे घुटने टेके, मानो माइक बंधु अब देश के गौरव को लेन बनाकर उस पर दौड़ेंगे। माइक हूपर ने सोमवार को बेहिचक कह दिया- मुझे भारत के गौरव की फिक्र नहीं। मेरी प्राथमिकता सफल खेल कराने की। पर विवाद अभी खत्म नहीं। तैयारी पटरी पर लौट आई। तो उद्घाटन-समापन समारोह की राजनीति शुरू हो गई। यानी अपने आयोजकों ने देश के लिए गौरव के आयोजन कॉमनवेल्थ को कड़वा घूंट बना दिया।
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27/09/2010