Friday, July 30, 2010

महंगाई की मझधार में संसद का मानसून सत्र!

संसद लाचार दिख रही। सो कवि सुदामा पांडे धूमिल की कुछ पंक्तियां याद आ रहीं। उन ने लिखा- मुझसे कहा गया कि संसद देश की धडक़न को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है। जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है, लेकिन क्या यह सच है? पर हकीकत में हफ्ते भर से संसद में क्या हो रहा। सरकार ने गांठ बांध रखी, तो विपक्ष ने रार। यों सरकार ने एक चाल जरूर चली। स्पीकर-चेयरमैन की ओर से कॉमन प्रस्ताव का सुर्रा छेड़ा। महंगाई पर आसंदी से चिंता जता बहस हो जाए। ताकि नियम का फच्चर खत्म हो। पर यह फार्मूला सत्र से पहले खुद मीरा कुमार दे चुकीं। विपक्ष ने तभी प्रस्ताव ठुकरा दिया था। विपक्ष महंगाई को सरकार की नाकामी साबित करना चाह रहा। पर सरकार किसी प्रस्ताव में यह स्वीकार करने को राजी नहीं। सो बीजेपी ने शुक्रवार को कॉमन प्रस्ताव की बात खारिज कर दी। चुनौती दी- अगर सरकार खुद को बहुमत में मानती है, तो बहस की मंजूरी देकर विपक्ष के प्रस्ताव को निरस्त करे। अब अगर कॉमन प्रस्ताव की बात सच मानी जाए, तो क्या संसद के नियम सिर्फ खास लोगों के लिए? अगर संसद सचमुच जनता की धडक़न को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण, तो महंगाई पर नियमों का बंधन क्यों? एटमी डील की खातिर मनमोहन तो सरकार की बलि चढ़ाने को तैयार थे। पर महंगाई से त्रस्त जनता के लिए परहेज क्यों? जनता का दर्द विशेष नियम के जरिए जाहिर करने में क्या एतराज? सचमुच अपना लोकतंत्र भले विस्तृत हो चुका हो। मतदाताओं में जागरूकता भी आ चुकी हो। पर नेताओं के मायाजाल तक जनता अभी नहीं पहुंच पाई। तभी तो सोनिया गांधी और सोमनाथ जैसे दिग्गजों की कुर्सी लाभ के पद से खिसकने लगी, तो इसी संसद को मनमोहन सरकार ने नया कानून बनाने के लिए मजबूर कर दिया। बाकायदा बिल लाया गया। आनन-फानन में दोनों सदनों से पारित करा राष्ट्रपति को भेज दिया। बिल बनाते वक्त सभी दलों को संदेशा भिजवा दिया- आपके जितने भी सांसद लाभ के जिन-जिन पदों पर बैठे, उसकी लिस्ट दे दीजिए। सो कुछ ने लिस्ट थमाई, पर तब बीजेपी ने नैतिकता दिखाई। कानून भी ऐसा बना, जो बना 2007 में, पर 1950 से लागू हो गया। ताकि कोर्ट कोई अड़चन न डाल सके। ऐसा सिर्फ सोनिया और सोमनाथ जैसों के लिए ही संभव। आम आदमी की खातिर न कामरोको मंजूर, न नियम 184 के तहत चर्चा। अलबत्ता खम ठोककर कह दिया- अगर 193 के तहत चर्चा चाहिए, तो लो, वरना फूटो। यानी सरकार की ओर से दो ही फार्मूले। या तो विपक्ष 193 की चर्चा मान ले, या चेयर से कॉमन प्रस्ताव के तहत। पर बीजेपी की मजबूरी, अबके लालू-मुलायम जैसे नेता नियम 184 पर अड़े हुए। अब अगर बीजेपी ने सरकार से अंदरखाने समझौता किया, तो लालू-मुलायम को मौका मिल जाएगा। अब तक बीजेपी लालू-मुलायम पर सीबीआई के डर से तलवे चाटने का आरोप लगाती रही। सो बीजेपी चाहे भी, तो ऐसा नहीं कर सकती। शुक्रवार को एनडीए ने फिर रणनीति बनाई, तो सोमवार के लिए नोटिस स्पीकर को भिजवा दिया। एसएस आहलूवालिया ने एलान कर दिया- नियम 184 के तहत बहस नहीं मानी, तो संसद नहीं चलने देंगे। पर सरकार भी झुकने को तैयार नहीं। यों सरकार के तेवर से तो इतना साफ हो चुका, महंगाई पर चाहे जिस नियम के तहत चर्चा करा लो। महंगाई का बाल बी बांका न होगा। शुक्रवार को कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का बयान सचमुच आम आदमी के जख्म पर नमक लगाने वाला रहा। बोले- सरकार के रचनात्मक कदमों से महंगाई दर कम हो रही। यह खबर सभी अखबारों में छपी। सो विपक्ष अगर पढऩे की कृपा करे, तो देश और संसद पर कृपा हो जाएगी। पर मनीष तिवारी यह भूल रहे, देश के अखबारों में ही आम आदमी का दर्द कई बार छलका। क्या कांग्रेस या मनमोहन ने सुध ली। अगर सुध ली, तो नतीजा क्या निकला? आज भले महंगाई दर कम हो रही, पर महंगाई कम नहीं हुई। सो संसद में बना गतिरोध अब दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर रहा। दोनों पक्षों के तेवर अब भी जस के तस। यों गतिरोध तोडऩे की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की। पर हंगामे में जब खुद संसदीय कार्यमंत्री पार्टी बन जाएं, तो भला गतिरोध कहां टूटने वाला। सो फ्लोर मैनेजमेंट में सरकार फिर नकारा साबित हो रही। शुक्रवार को एक वरिष्ठ मंत्री और एक सोनिया के बेहद करीबी नेता ने साफ कर दिया। वोटिंग वाले नियम के तहत बहस कतई मंजूर नहीं करेंगे। अगर अबके मंजूर कर लिया, तो विपक्ष इसे परंपरा बना लेगा और हर छोटे से छोटे मुद्दे पर वोटिंग की मांग करेगा। अगर सचमुच विपक्ष को सरकार की विफलता नजर आ रही, तो सीधे अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए, सरकार सामना करने को तैयार। इतना ही नहीं, मंत्री ने यह भी पूछा, क्या बहस होने से महंगाई कम हो जाएगी? अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। नियम तो सिर्फ बहाना, महंगाई को तो है बढ़ते ही जाना। यानी सरकार का इरादा साफ। हफ्ते भर का हंगामा बहुत हो चुका। अब विपक्ष सदन चलने दे, वरना हंगामे में ही सारे बिल पास करा सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करा लेंगे। यानी महंगाई के मझधार में मानसून सत्र। वैसे भी मौजूदा सत्र में सरकार के पास जितना काम नहीं, उससे अधिक घिरने वाले मुद्दे। कॉमन वैल्थ का घोटाला, सीबीआई का इस्तेमाल, भोपाल गैस त्रासदी, भारत-पाक वार्ता और अब तेलंगाना की आग भी भडक़ेगी। शुक्रवार को तेलंगाना की बारह सीटों के नतीजे आए, तो कांग्रेस का अध्यक्ष भी चुनाव हार गया।
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30/07/2010

Thursday, July 29, 2010

संसद सरकार की बपौती, महंगाई महज विपक्ष की

सांच को आंच नहीं, सरकार को विपक्ष रास नहीं। सो गुरुवार को भी संसद के दोनों सदन बैठने से पहले ही उठ गए। कामरोको खारिज हुआ। तो विपक्ष ने अबके नियम 184 के तहत नोटिस थमाया। पर बात घुमा-फिरा कर वोटिंग तक ही पहुंचेगी, सो सरकार को गवारा नहीं। स्पीकर मीरा कुमार ने भी तत्काल कोई रूलिंग नहीं दी। संसदीय कार्यमंत्री पवन कुमार बंसल नियम 193 के पहले के नोटिस पर अड़ गए। दलील दी, सुदीप बंदोपाध्याय और सांसद प्रेमदास राय का नोटिस 27 जुलाई को ही आया। सो पहले उस पर विचार होना चाहिए। पर अब मुश्किल मीरा कुमार की। कामरोको प्रस्ताव खारिज किया, तो प्रणव दा की दलील ही दोहरा दी। अब नियम 184 की फांस, सो सरकार की दलील के बाद सुदीप बंदोपाध्याय और राय के नोटिस को प्राथमिकता दी। तो निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजिमी। अगर स्पीकर नियम 193 के तहत बहस की मंजूरी देती हैं। तो सवाल होगा- जिस दिन कामरोको खारिज किया, उस दिन ही रूलिंग क्यों नहीं दी? नियम 193 का नोटिस तो तब भी सामने था। पर मीरा ने रूलिंग में सिर्फ कामरोको खारिज किया, साथ ही विपक्ष को किसी और नियम में नोटिस देने को कहा। अब विपक्ष ने नियम 184 का पेच फंसाया। तो इम्तिहान मीरा का। गुरुवार को विपक्ष ने सीधे तो नहीं, इशारों में ही निष्पक्षता पर सवाल उठा दिया। सुषमा स्वराज ने मीरा के फैसले पर निराशा और दुख जताया। तो शरद यादव ने हल्के-फुल्के अंदाज में संदेश दे दिया। कहा- साल बीत गया, आपका प्रेम प्रणव बाबू की तरफ खूब झलकता है। पर हमारी ओर दया कभी नहीं होती। आपके कल के फैसले से देश की जनता को भी बहुत तकलीफ हुई। रात भर हम लोगों को नींद नहीं आई। सोचते रहे, अध्यक्ष से कैसे लड़ें। सो अब हम यह नोटिस लेकर आए। मुलायम सिंह ने भी अपने अंदाज में विरोध जता दिया। बोले- सदन नहीं चल पा रहा, तो सरकार जिम्मेदार है। आप क्यों सरकार की जिम्मेदारी ले रही हैं। विपक्ष को हमेशा स्पीकर से संरक्षण मिला। आप भी हमें संरक्षण दें। यानी कुल मिलाकर स्पीकर की रूलिंग विपक्ष का हाजमा बिगाड़ गई। पर स्पीकर से सीधे मोर्चा लिया, तो मुद्दा ही बदल जाएगा। सो शुक्रवार को फिर विपक्ष अपनी मांग दोहराएगा। यानी सब कुछ तय स्क्रिप्ट के मुताबिक होगा। शुक्रवार को भी संसद नहीं चलेगी। पर सोमवार को सब कुछ सामान्य नहीं, तो कम से कम महंगाई की चर्चा सरकारी हिसाब से निपट जाएगी। यों विपक्ष के तरकश में अभी कई ब्रह्मास्त्र। पर सरकार भी मुख्य विपक्षी दल बीजेपी को किनारे करने का फार्मूला बना चुकी। सो विपक्षी एकता का इम्तिहान अगले हफ्ते होगा। पर महंगाई को लेकर ठनी रार अब खत्म समझिए। गुरुवार को बीजेपी ने दस करोड़ हस्ताक्षरों वाला ज्ञापन महामहिम प्रतिभा पाटिल को सौंप दिया। राष्ट्रपति से मिलकर लौटे। तो महंगाई पर विपक्ष गांडीव समर्पण करता ही दिखा। आडवाणी ने बेहिचक कह दिया- हमने अपना फर्ज पूरा किया। सडक़ से संसद तक और सरकार से अब राष्ट्रपति तक अलख जगा दी। विपक्ष इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता। सचमुच विपक्ष अब करे भी क्या। जब सरकार की जिद तानाशाही दिखने लगे। तो विपक्ष नहीं, सिर्फ जनता सबक सिखा सकती। पर मनमोहन सरकार की यह कैसी जिद। अगर सरकार को नंबर गेम का पूरा भरोसा, तो वोटिंग से डर क्यों? अगर सरकार ईमानदारी से दायित्व निभा रही। तो कामरोको या 184 के तहत बहस से परहेज क्यों? आखिर सत्तापक्ष इस जिद पर क्यों अड़ा हुआ कि वोटिंग वाले नियम के तहत बहस नहीं होने देंगे। क्या लोकतंत्र में विपक्ष की कोई हैसियत नहीं? विपक्ष ही लोकतंत्र की सही पहचान। पर विपक्ष को सत्ता के नशे में कुचलना हिटलर-मुसोलिनी से कम नहीं। हिटलर-मुसोलिनी तो विरोधियों को सीधे मरवा देते थे। पर संसद में सरकार का जो रवैया, वह भी कुछ कम नहीं। मनमोहन राज में महंगाई बढ़ी, यह खुद सोनिया-मनमोहन भी कई बार मान चुके। कई बार कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी चिंता जताई। पर सरकार की दलील, विपक्ष के कामरोको या 184 के तहत चर्चा नहीं हो। अलबत्ता सुदीप बंदोपाध्याय और प्रेमदास राय के 193 वाले नोटिस पर चर्चा हो। क्या यह लोकतंत्र की निशानी? सुदीप और राय कोई विपक्षी दल के सांसद नहीं। एक तृणमूल के, तो दूसरे सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के। दोनों मनमोहन सरकार के खेवनहार। अब सत्तापक्ष आपस में ही विपक्ष की जगह ले ले, अंदरखाने गुणा-भाग कर बहस करने लगें। तो फिर विपक्ष के क्या मायने? क्या संसद सत्तापक्ष की बपौती, जो अपनी मर्जी चलाए? महंगाई पर बहुमत विपक्ष के साथ। फिर भी न स्पीकर और न सरकार बहस को राजी। जिस नियम के तहत बहस को राजी, उसके तहत तेरह बहस हो चुकीं। पर महंगाई तो कम नहीं हुई, आम आदमी की तेरहवीं जरूर हो रही। अब तृणमूल और एसडीएफ के नोटिस का क्या मतलब। यही ना, सरकार के सहयोगी भी कीमत बढ़ोतरी को जायज नहीं मान रहे। क्या यह सरकार की संवैधानिक विफलता नहीं? आखिर सरकार ऐसा व्यवहार क्यों कर रही, मानो महंगाई सिर्फ विपक्ष की और संसद सरकार की बपौती। लोकतंत्र को सचमुच लूटतंत्र बना दिया। कॉमन वेल्थ के नाम पर जो लूट मची, उसकी पोलपट्टी तो अक्टूबर में खुलेगी। पर कलई गुरुवार को सीवीसी ने खोल दी। सतर्कता आयोग ने बता दिया- कई करोड़ का घोटाला हुआ। अधिक कीमत पर अयोग्य कंपनियों को ठेके दिए गए। महंगाई बढ़ाने में कॉमन वेल्थ की भी अहम भूमिका। सो सरकार की सफलता आप खुद देख लें।
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29/07/2010

Wednesday, July 28, 2010

स्पीकर के फैसले पर ‘ऑल इन वैल’

संसद न चलनी थी, न चली और बाकी बचे दो दिन भी चलनी नहीं। लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने विपक्ष का कामरोको प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। पर रूलिंग देने से पहले सबको अपना पक्ष रखने का मौका मिला। तो विपक्ष से ग्यारह और प्रणव दा समेत सत्तापक्ष से तीन लोग बोले। समूचे विपक्ष ने कामरोको प्रस्ताव मंजूर करने की खातिर दलीलें गिनाईं। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सरकार गिराने नहीं, सेंसर करने की मंशा जताई। करीब-करीब यही राय सभी विपक्षी नेताओं ने रखी। पर बीएसपी ने अपनी पोल खोल ली। मायावती के सिपहसालार दारा सिंह ने 2004 के बाद से महंगाई लगातार बढऩे की बात कही। यानी यूपीए राज पर हमला, एनडीए को क्लीन चिट। फिर भी मायावती लगातार यूपीए को समर्थन दे रहीं। लालू यादव ने भी सीबीआई के जरिए सौदेबाजी से इनकार किया। नितिन गडकरी की गाली याद दिलाई। अपनी रणनीति खुद तय करने का एलान किया। पर लालू यादव ने फिर चालाकी दिखा दी। लोकसभा में विपक्षी दलों को चुनौती दी, अगर सचमुच कांग्रेस से लडऩा है, तो 1977 की तरह पार्टियों का विसर्जन कर नया मंचा बनाइए। पर लोकसभा की लॉबी में लालूवाणी कुछ यों थी। कहा- विपक्ष एक मंच बनाए और मुझे उसका अध्यक्ष। यानी 1977 जैसी एकता की बात महज हंसी-ठिठोली समझिए। पर बात कामरोको प्रस्ताव की। जिसकी खातिर पक्ष-विपक्ष ने इतिहास कुरेदा। अपने वासुदेव आचार्य ने पुख्ता तैयारी कर रखी थी। सो स्पीकर को याद दिलाया, कैसे पूर्व के स्पीकरों ने महंगाई पर कामरोको मंजूर किया। उन ने 23 जुलाई 1973 के इंद्रजीत गुप्त के नोटिस, 21 फरवरी 1986 मधु दंडवते के नोटिस, 12 नवंबर 1993 एसएम बनर्जी के नोटिस, 13 जून 1994 रामाश्रय प्रसाद सिंह के नोटिस और अप्रैल 2007 के उदाहरण दिए। जब तत्कालीन स्पीकरों ने कामरोको प्रस्ताव पर सहमति दी। पर प्रणव मुखर्जी पूरी बहस के दौरान स्पीकर्स रूल-बुक के पन्ने पलट रहे थे। सो आखिर में उन ने 1928 से 2010 तक की रूलिंग गिनानी शुरू की। सेंट्रल असेंबली में चार सितंबर 1928 को विट्ठल भाई पटेल के फैसले की दुहाई दी। फिर जीवी मावलंकर से लेकर एमए अयंगर और जी.एस. ढिल्लन के फैसले गिनाए। प्रणव दा का निचोड़ यही रहा, कामरोको प्रस्ताव के लिए बहुमत के बावजूद मंजूरी नहीं दी जा सकती। कामरोको प्रस्ताव को आम चलन में लाना सही नहीं। कामरोको तभी लाया जा सकता, जब सरकार व्यवस्था संभालने में फेल हो चुकी हो। सो करीब डेढ़ घंटे की बहस के बाद स्पीकर फौरन फैसला नहीं दे पाईं। अलबत्ता लंच ब्रेक के बाद रूलिंग दी, तो हू-ब-हू प्रणव दा की दलीलें दोहरा दीं। मीरा कुमार ने भी 24 मई 1971 को स्पीकर जीएस ढिल्लन के फैसले की नजीर दी। यानी अगर सरकार संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर पा रही, तो ही कामरोको संभव। पर मीरा कुमार ने महंगाई को लेकर चिंता जताई। अब सवाल उठना लाजिमी। स्पीकर ने सिर्फ प्रणव दा की नजीर मानी, वासुदेव आचार्य की क्यों नहीं? पिछले छह साल में महंगाई पर संसद में तेरह बार बहस हो चुकी। नवंबर 2004 से ही मनमोहन और उनके सिपहसालार महंगाई रोकने का भरोसा दे रहे। फिर भी महंगाई दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती गई। अब इतना सब कुछ होने के बाद भी महंगाई पर यही सूरत-ए-हाल, तो क्या यह विफलता नहीं? बत्तीस रुपए की दाल 85 रुपए हो गई। सोलह की चीनी तीस के पार चली गई। चालीस का तेल अस्सी के पार हो गया। तेरह का दूध बत्तीस रुपए लीटर हो गया। सेर में मिलने वाली सब्जियां अब सोने के भाव बिक रहीं। क्या यह सब मनमोहन सरकार की उपलब्धि? पर बात लोकसभा की, जहां स्पीकर ने कामरोको के खिलाफ रूलिंग दी। तो समूचा विपक्ष वैल में आ गया। एनडीए ने स्पीकर के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया। यानी मीरा कुमार के फैसले से पहली बार विपक्ष नाराज। पर सवाल, मीरा ने प्रणव दा की दलील का ही जिक्र क्यों किया? उदाहरण तो वासुदेव आचार्य ने भी दिए थे। माना, ढिल्लन ने कामरोको पर जो व्यवस्था दी, वह अबके नजीर बनी। तो दलील देने वाले यह क्यों भूल रहे, ढिल्लन ने स्पीकर रहते कभी अपनी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठने दिए। आखिर सिर्फ मीठा-मीठा ही घप क्यों? पंडित नेहरू ने कहा था- स्पीकर का पद सम्मानित पद, सो वही व्यक्ति आसीन होने चाहिए, जो योग्य और निष्पक्ष हों। ब्रिटिश वास्तुकार हरबर्ट बेकर ने भी पद की गरिमा को देखते हुए सिंहासन का डिजाइन ऐसा बनाया। ताकि कोई भी मेंबर बोलने के लिए उठे, तो सीधे स्पीकर से मुखातिब हो। अपने यहां ब्रिटेन जैसी परंपरा तो नहीं, पर स्पीकर बनने के बाद दलगत राजनीति से अलग रहने की उम्मीद की जाती। पर इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण। बलराम जाखड़ ने पद की मर्यादा को छोड़ बोफोर्स मामले के वक्त सरकार बचाने के लिए जेहादी उत्साह दिखाया। पर मावलंकर, नीलम संजीव रेड्डी, ढिल्लों, बलिराम भगत, के.एस. हेगड़े जैसे स्पीकरों ने परंपरा को मजबूत किया। हाल के दशक में पीए संगमा, जीएमसी बालयोगी, मनोहर जोशी और सोमनाथ चटर्जी तक ने मिसाल पेश की। यों चटर्जी पर भी खूब सवाल उठे। पर आखिर में उन ने भी अंतरात्मा की आवाज सुनी। सो स्पीकरों से यही उम्मीद की जाती, वह सत्ता की कठपुतली न बनें। अब कहीं स्पीकर मीरा कुमार से विपक्ष का टकराव न हो जाए। आखिर बुधवार को स्पीकर के खिलाफ ही तो विपक्ष वैल में कूदा।
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28/07/2010

Tuesday, July 27, 2010

सरकार बेईमान, तो विपक्ष भी ईमानदार नहीं

महंगाई संसद के लिए फिर डायन बन गई। जिसने जैसा ठाना, संसद के दोनों सदनों में वही किया। लालूवादी-मुलायमवादी वैल में घुसने में अबके भी अव्वल दिखे। नारा लगाया- रोको महंगाई, बांधो दाम, नहीं तो होगा चक्का जाम। पर कहीं वोटिंग की नौबत आई, सरकार ने सीबीआई दौड़ा दी। तो लालू-मुलायम का नारा पिछली बार की तरह फिर बदल जाएगा। याद है ना, जब प्रणव दा ने बजट में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दीं। तो लालू-मुलायम विपक्ष के साथ गलबहियां कर नारा लगा रहे थे- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। पर जब कटौती प्रस्ताव आया, तो लालू-मुलायम ने नारे में संशोधन कर दिया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है। पर अभी शुरुआत, सो लालू-मुलायम ही नहीं, माया भी अपनी माया दिखा रहीं। आखिर दिखाएं भी क्यों ना, जब मरीज डाक्टर के पास आएगा, तो फीस देनी ही होगी। सो फिलहाल समूचा विपक्ष सुर मिला रहा। पर वोटिंग की नौबत आई, तो महंगाई इस राजनीतिक तिकड़ी के लिए सोलह दूनी आठ हो जाएगी। सो जुगाड़ तंत्र में महारत हासिल कर चुके मनमोहन को भी महंगाई की फिक्र नहीं। मंगलवार को आरबीआई ने रेपो और रिवर्स रेपो रेट में फिर बढ़ोतरी कर दी। ताकि मध्यम वर्ग पर कर्ज का बोझ बढ़ जाए और मार्केट में तरलता बनी रहे। पर ऐसे उपाय पिछले छह साल से करती आ रही सरकार। फिर भी महंगाई नहीं रुकी। अब महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। सो येन-केन-प्रकारेण महंगाई दर घटाने की कोशिश। मनमोहन दिसंबर तक महंगाई दर पर काबू पाने का भरोसा दिला रहे। तो प्रणव दा दो महीने में। पर मनमोहन राज के पिछले छह साल में इतने भरोसे दिलाए गए, अब तो भरोसा शब्द भी अपना भरोसा खो चुका। तभी तो मनमोहन सरकार वोटिंग वाले नियम के तहत बहस से कन्नी काट रही। पर सत्तापक्ष हो या विपक्ष, किसी ने हार नहीं मानी। अलबत्ता रार ठन गई। विपक्ष कामरोको प्रस्ताव के तहत ही बहस का खम ठोक रहा। तो सरकार ने भी गांठ बांध ली, भले संसद का कामकाज रुक जाए, पर कामरोको प्रस्ताव मंजूर नहीं। यानी सरकार की नीयत में खोट। अगर महंगाई सचमुच काबू में आने वाली होती, तो सरकार खम ठोककर बहस को राजी होती। पर हंगामे के बावजूद सरकार के तेवर देखिए। लोकसभा में हंगामे के बीच ही मुरली ने तान छेड़ी। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने बयान दिया, तो कीमत बढ़ोतरी को ईको-फ्रेंडली बताया। दलील दी- पेट्रोल महंगा होगा, तो लोग न गाडिय़ां चलाएंगे, न प्रदूषण होगा। अब इसे सरकार की हताशा नहीं, तो और क्या कहेंगे। मुरली यह भूल गए, कीमत बढ़ोतरी का असर सिर्फ कार वालों पर नहीं हुआ। अलबत्ता रोजमर्रा की सभी चीजें महंगी हो गईं। पर बेसुरी सरकार से किसी सुर की उम्मीद ही कहां। साल भर से अनाज सडऩे की रपट आ रही। पर शरद पवार को कभी नहीं दिखा। अब मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया। लाखों टन अनाज क्यों सड़ रहा? सरकार से दो हफ्ते में जवाब मांगा। कहा- अनाज का एक भी दाना बरबाद नहीं होना चाहिए। इसे गरीबों में बांटा जाए। अगर विशेषज्ञों की मानें, तो देश में जितने टन अनाज सड़ रहा, उससे बीस करोड़ लोगों को साल भर का भोजन दिया जा सकता। पर पवार को क्रिकेट की फिक्र। मनमोहन को विकास दर की। सचमुच महंगाई की रफ्तार और पिछले छह साल में मनमोहन सरकार के बयान देखें। तो सरकार का नकारापन साफ दिखेगा। पर सरकार बेईमान, तो ईमानदार विपक्षी दल भी नहीं। महंगाई पर दो दिन का सांकेतिक हंगामा होगा। फिर किसी भी नियम के तहत बहस की खानापूर्ति होगी। पर महंगाई जहां है, उससे पीछे नहीं, आगे बढ़ेगी। अगर विपक्ष ईमानदारी से सरकार को घेरे, तो कोई मुरली देवड़ा ऐसी बेहूदी दलील देने की हिम्मत नहीं करेगा। पर बीजेपी धरना या अनशन कांची कामकोटि के शंकराचार्य की गिरफ्तारी पर करेगी। गोवा में राष्ट्रपति राज लगे, तो पणजी से जंतर-मंतर तक हिला दिया। पर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व कैरोसिन-रसोई गैस के दाम में बढ़ोतरी पर वैसा आंदोलन क्यों नहीं करता? रैली करने या संसद में बहस की औपचारिकता से सरकार की हिटलरशाही बंद नहीं होगी। बात अधिक पुरानी नहीं, पर विपक्षी दलों के लिए नजीर। भले ममता बनर्जी फिलहाल यूपीए का हिस्सा। पर याद है ना, सिंगूर में किसानों की जमीन की खातिर 25 दिन तक आमरण अनशन किया। तो बंगाल से लेकर रायसिनी हिल तक हिल गया। तबके राष्ट्रपति कलाम ने खुद बुद्धदेव से दो बार बात की। आखिर वही हुआ, जो ममता ने चाहा। जब बंगाल जैसे वामपंथी गढ़ में छोटी सी पार्टी की नेता ममता इतना दम-खम दिखा सकतीं। तो राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी क्यों नहीं? अगर आडवाणी-सुषमा-जेतली-गडकरी एलान कर दें। जब तक रसोई गैस और कैरोसिन की बढ़ी कीमतें वापस नहीं होतीं, धरने पर बैठे रहेंगे। सचमुच विपक्ष ऐसा ठान ले, तो सरकार की इतनी हिम्मत नहीं, जो कीमत वापस न ले। जनता भी ऐसे नेताओं को सिर-आंखों पर बिठाती। जैसे ममता को बंगाल में। पर जुझारूपन अब राजनीति की डिक्शनरी से हट गया। सो महंगाई पर जैसी सरकार, वैसा विपक्ष। कवि सुदामा पांडे धूमिल ने सही लिखा- संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल और आधा पानी है। और यदि यह सच नहीं, तो एक ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों? जिसने सत्य कहा, उसका बुरा हाल क्यों?
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27/07/2010

Monday, July 26, 2010

हर मुद्दे पर किचकिच, क्या यही है लोकतंत्र?

संवेदना और श्रद्धांजलि दे संसद के दोनों सदन उठ गए। सो सोमवार को संसद के गलियारे में ही जुबानी तीर चले। फिर मंगलवार की रणनीति बनी। सो महाभारत का असली शंखनाद सदन में होगा। विपक्षी एकता बरकरार रखने को बीजेपी ने गुजरात का मुद्दा पीछे धकेल महंगाई को प्राथमिकता दी। कामरोको का नोटिस दोनों सदनों में पहुंच गया। सो आसंदी के लिए भी चुनौती कम नहीं। पिछली दफा स्पीकर मीरा कुमार ने नियम की बारीकियां बता कामरोको ठुकरा दिया था। पर अबके विपक्ष ने नोटिस को तकनीकी बारीकियों से लैस कर दिया। दो सत्रों के बीच के अहम मुद्दे पर ही कामरोको प्रस्ताव लाया जा सकता। सो विपक्ष ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी को नोटिस का आधार बनाया। पर सरकार और कांग्रेस भी खम ठोक चुकीं। बहस से एतराज नहीं, पर कामरोको या नियम 184 के तहत चर्चा मंजूर नहीं। महंगाई की नब्ज तो सरकार भांप चुकी। पर इलाज ढूंढे नहीं मिल रहा, सो वोटिंग करा खुद को खतरे में क्यों डाले। पर पक्ष हो या विपक्ष, महंगाई सिर्फ बहस का मुद्दा बनकर रह गई। यूपीए राज में शायद यह चौदहवीं बहस होगी। पर हर बहस भैंस के आगे बीन बजाने वाली ही साबित हुई। सो अबके भी कोई चमत्कार नहीं होगा। अलबत्ता दो-एक दिन हंगामा बरपेगा। फिर चैंबर मीटिंग में सारी सैटिंग हो जाएगी। पिछली दफा भी ऐसा ही हुआ था। आखिर में सरकार प्रश्नकाल स्थगन को राजी हो गई। विपक्ष कामरोको की जिद छोड़ गया। सो आप ही सोचो, इस दिखावे का क्या मतलब? सरकार तो हमेशा बहस से भागती। पर विपक्ष की यह जिम्मेदारी, सरकार को बहस में लाए। महंगाई हो या भोपाल त्रासदी या महिला बिल की बात। विपक्ष को चाहिए कि वह सरकार को गलती बताए। दुरुस्त करने के उपाय सुझाए। पर हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। सत्तापक्ष और विपक्ष की जुगलबंदी अब खूब होने लगी। वरना आप ही सोचो, आसंदी के कमरे में मीटिंगबाजी का क्या मतलब। सदन कोई कठपुतली या नाटक का मंच तो नहीं, जहां लिखित पटकथा का मंचन भर हो। आखिर ऐसा क्यों, जनता को दिखाने के लिए दोनों पक्ष सदन को स्थगित कराने तैयार हो जाते। फिर संसद से सडक़ तक कोई जिंदाबाद के नारे लगाता, तो कोई मुर्दाबाद के। अगर सचमुच संसद में ईमानदार बहस होने लगे। तो सरकार आम आदमी के साथ इतनी हिटलरशाही नहीं कर सकती, जितनी यूपीए सरकार कर रही। पर महंगाई का मुद्दा मंगलवार को सबसे पहले उठेगा। तो यह बीजेपी की रणनीतिक मजबूरी। असल में बीजेपी की तलवार सीबीआई के मुद्दे पर म्यान से निकली। महंगाई की रस्म अदायगी होते ही गुजरात का मुद्दा गूंजेगा। सो पीएम ने सोमवार को ही मोर्चा संभाल लिया। सीबीआई के बेजा इस्तेमाल के विपक्षी आरोप को बेतुका बताया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश और मॉनीटरिंग की दलील दी। यों सीबीआई सत्ताधारी दल की कठपुतली बन चुकी, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं। पर पीएम के बयान का मतलब साफ। अगर विपक्ष संसद ठप करने पर अड़ा, तो जनता में नकारात्मक छवि बनाने की कोशिश होगी। पर बीजेपी भी गुजरात को लेकर समझौते के मूड में नहीं। सो अमित शाह की पैरवी के लिए राम जेठमलानी को मैदान में उतार दिया। या यों कहें, नरेंद्र मोदी ने जेठमलानी को जो गिफ्ट दिया। अब जेठमलानी रिटर्न गिफ्ट दे रहे। सो बीजेपी के एक बड़े नेता से सवाल हुआ, जेठमलानी की फीस कितनी और कौन देगा? तो जवाब आया, इकट्ठे छह साल की फीस चुका दी। यानी राजस्थान से राज्यसभा की मैंबरी के बदले जेठमलानी गुजरात में मोदी एंड कंपनी का बचाव करेंगे। पर सरकार की रणनीति अलग। कांग्रेस को मालूम, गुजरात ही एकमात्र ऐसा मुद्दा, जो विपक्ष की एकता में पलीता बन जाए। सो कांग्रेस और बीजेपी दोनों सीबीआई के मुद्दे पर हंगामाई रणनीति का इंतजार कर रहीं। यानी कम से कम पहला हफ्ता तो आप हंगामे की भेंट मानिए। महंगाई, सीबीआई, भोपाल त्रासदी, जाति जनगणना, हिंदू आतंकवाद जैसे मुद्दों पर दोनों तरफ से तीर चलेंगे। पर इसी सत्र में एक मुद्दा ऐसा भी होगा, जब संसद में भेड़चाल दिखेगी। सांसदों के वेतन-भत्ते बढऩे का बिल आएगा। तो ऐतिहासिक एकता सदन के रिकार्ड में दर्ज हो जाएगी। पर उन तीरों का क्या, जिनसे घायल हो रहा सिर्फ आम आदमी। आखिर संसद के सत्र का आम आदमी के लिए क्या महत्व? संसद में हर छोटे-बड़े मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष में तकरार हो जाती। आपस में ही किचकिच करते रहते। क्या यही है अपना लोकतंत्र? सोमवार को मानसून सत्र का आगाज हुआ। तो कारगिल विजय दिवस की ग्यारहवीं वर्षगांठ थी। पर कारगिल को लेकर भी राजनीतिक किचकिच खूब दिखी। एनडीए काल में कारगिल युद्ध हुआ। सो यूपीए उसे दिल से अपना मानने को तैयार नहीं। बीजेपी वाले भी किसी दूसरे को कॉपी राइट देने को राजी नहीं। सो सोमवार को रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सुबह अमर जवान ज्योति जाकर श्रद्धांजलि की रस्म निभाई। तो बीजेपी ने शाम से लेकर रात तक शहीदों को याद किया। क्या अब शहादत में भी बीजेपी और कांग्रेस? क्या संसद अपनी प्रासंगिकता खोती नहीं जा रही? आखिर किसी को भी चिंता क्यों नहीं? संसद में नक्सलवाद पर भी चर्चा होगी। पर जिस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष प्वाइंट स्कोर करने के लिए किचकिच वाली राजनीति करते। उससे नक्सलियों को क्या संदेश जाएगा? नक्सलवादी अपनी संसद को इन्हीं हरकतों की वजह से सूअरबाड़ा कहते। हर मुद्दे पर किचकिच, क्या यही है अपना लोकतंत्र?
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26/07/2010

Friday, July 23, 2010

अमित शाह नहीं, फिक्र मोदी की

मानसून सत्र से पहले तलवारें खिंच गईं। अगर विपक्ष के तरकश में भारत-पाक वार्ता, महंगाई, भोपाल गैस कांड, रेल दुर्घटना, घाटी की घटना, नक्सलवाद और सरकार में आपसी खींचतान वाले मुद्दों के तीर। तो सत्तापक्ष की झोली में हिंदू आतंकवाद, कर्नाटक में अवैध खनन, बिहार का बवंडर और अब बीजेपी को अलग-थलग करने का सबसे लजीज मुद्दा गुजरात आ गया। सो खलबलाई बीजेपी ने शुक्रवार को पीएम के घर का 'लजीज' खाना ठुकरा दिया। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ में सीबीआई का शिकंजा नरेंद्र मोदी के दिल-अजीज मंत्री अमित शाह पर कसा। तो बीजेपी की बत्ती गुल हो गई। नरेंद्र मोदी की लिखी स्क्रिप्ट पर मंथन करने आडवाणी के घर बीजेपी की शीर्ष चौकड़ी बैठी। तो आर-पार का फैसला हो गया। बीजेपी के अरुण जेतली और सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला। तो सीबीआई के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगाया। सुषमा बोलीं- विरोधियों के खिलाफ सीबीआई के दुरुपयोग का यह ताजा उदाहरण। सो ऐसे प्रदूषित वातावरण में हम चारों का पीएम के घर लंच पर जाना जंचेगा नहीं। पर सवाल, क्या एक आरोपी मंत्री का इतने बड़े स्तर से बचाव जंच रहा? सीबीआई ने गुजरात के गृह राज्यमंत्री को दो बार समन किया। पर अमित शाह क्यों नहीं पहुंचे? अब सीबीआई ने बाकायदा चार्जशीट दाखिल कर दी। पर बीजेपी ने अमित शाह का इस्तीफा नहीं कराया। जबकि लालू-शिबू-जेपी जैसों के खिलाफ बीजेपी ने चार्जशीट पेश होते ही इस्तीफे की मांग की थी। खुद बीजेपी ऐसी नजीर पेश कर चुकी। उमा भारती जब मध्य प्रदेश की सीएम थीं। पर हुबली तिरंगा केस में फंसीं, तो बीजेपी ने रातों-रात इस्तीफा कराया। तब बीजेपी ने इस मुद्दे को खूब भुनाया। पर अब बीजेपी के चाल, चरित्र, चेहरे को क्या हो गया? अगर अमित शाह निर्दोष, तो सीबीआई के सामने आने से कतरा क्यों रहे? शाह कई दिनों से लापता, पर बीजेपी को फिक्र नहीं। गुजरात में मंत्री माया कोडनानी भी पहले ऐसे ही फरार हुई थीं। पर बाद में जेल जाना पड़ा। अब उसी राह पर अमित शाह। अगर अमित शाह सचमुच बेदाग, तो अदालत में दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। पर बीजेपी के शीर्ष नेता जिस तरह बचाव में उतरे, उसका क्या मतलब? अगर बीजेपी के आरोप को सच मान लें, तो सवाल- सीबीआई का बेजा इस्तेमाल कौन नहीं करता। अगर सीबीआई सचमुच कांग्रेस सरकार के इशारे पर शाह को फंसा रही होगी। तो कोर्ट में सीबीआई की कलई खुल जाएगी। अगर सीबीआई पर भरोसा नहीं, तो कम से कम कोर्ट पर बीजेपी को ऐतबार होगा। बीजेपी के इस आरोप में कोई दो-राय नहीं, सरकार सीबीआई का बेजा इस्तेमाल कर रही। सचमुच सीबीआई कहने भर को ‘ऑटोनॉमस बाडी’। केंद्र में जिसकी भी सरकार बनी, सीबीआई को भोंपू बनाया। जब भी राजनीतिक मुसीबत आन पड़ी, यही भोंपू बजा दिया। तभी तो सीबीआई डायरेक्टर की तैनाती में वफादारी मापदंड बन चुका। सीनियरिटी अब कुछ भी नहीं। सरकार हमेशा ऐसा डायरेक्टर ढूंढती, जो इशारे पर काम करे। तभी तो अपने राजस्थान काडर के एम.एल. शर्मा डायरेक्टर नहीं बन पाए। सीनियरिटी और अनुभव में शर्मा का नंबर था। पर डायरेक्टर बनाए गए शर्मा से एक साल जूनियर अश्विनी कुमार। जूनियर के अंडर में काम करना शर्मा को गवारा न हुआ। सो लंबी छुट्टïी पर चले गए। पर सीबीआई के बेजा इस्तेमाल में कोई राजनीतिक दल पाक-साफ नहीं। यूपी में बीजेपी से माया का गठजोड़ टूटा। तो एनडीए राज में ताज कॉरीडोर केस बन गया। जो अभी भी माया के गले की फांस। राष्टï्रपति चुनाव के वक्त माया-सोनिया मिलीं। तो बात बन गई थी। पर जब माया की मांग बढऩे लगी। तो रिश्तों में दरार आ गई। माया ‘आउट’ हुईं, तो एटमी डील के लिए मुलायम ‘इन’ हो गए। सो जब विश्वास मत का संकट आया, तो कांग्रेस ने माया को सीबीआई का हौवा दिखाया था। फिर कटमोशन के वक्त हुई सौदेबाजी भी जगजाहिर। तभी तो दस फरवरी 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को लताड़ पिलाई थी। जब एटमी डील की एवज में मनमोहन सरकार मुलायम को बचाने की कोशिश कर रही थी। सो कोर्ट ने सीधा सवाल पूछा था- ‘आप केंद्र सरकार के पास क्यों गए? मेरे पास क्यों नहीं आए? आप केंद्र सरकार और विधि मंत्रालय के इशारे पर काम कर रहे। अपनी मर्जी से नहीं। अब इसका (सीबीआई)भगवान ही मालिक।’ पर सीबीआई सुधरे भी कैसे। जब राजनीतिक आका गर्दन नापने को बैठे हुए। तभी तो कांग्रेस हो या बीजेपी, विपक्ष में रहते सीबीआई नहीं सुहाती। सो सचमुच सीबीआई का मतलब कांग्रेस-बीजेपी ऑफ इनवेस्टीगेशन होना चाहिए। अगर बीजेपी के अमित शाह पाक-साफ, तो भगोड़ा क्यों बने हुए? पर अब अमित शाह की गिरफ्तारी तय हो चुकी। सो बीजेपी की मुश्किल महज अमित शाह नहीं। अगर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व सीधे मैदान में उतरा, तो अमित की खातिर नहीं। अलबत्ता एसआईटी के सामने नरेंद्र मोदी की पेशी के बाद अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ में सीबीआई का अमित शाह तक पहुंचना सीधे मोदी को झुलसाएगा। गृह राज्यमंत्री अगर पूरे मामले में लिप्त, तो सवाल गुजरात की समूची संवैधानिक व्यवस्था पर। सो बीजेपी को अमित शाह की उतनी फिक्र नहीं, जितनी हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी की। आडवाणी-गडकरी-जेतली-सुषमा का मनमोहन के खिलाफ एलान-ए-जंग भविष्य की तैयारी। ताकि जब तक जांच की आंच मोदी तक पहुंचे, मामला पूरी तरह से राजनीति के रंग में रंग जाए।
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23/07/2010

Thursday, July 22, 2010

मुरली और अमेरिका की फिरकी से हारा भारत!

होम मिनिस्ट्री क्या कांग्रेस या सरकार की शान नहीं? चिदंबरम ने कछुआ चाल वाली मिनिस्ट्री को खरगोश बना दिया। फिर भी दिग्विजय सिंह हों या एसएम कृष्णा, ऐसे उपहास क्यों बना रहे। जैसे होम मिनिस्ट्री कोई मिनिस्ट्री नहीं, अलबत्ता समूचे गांव की भौजाई हो। यों दिग्विजय के बयान के बाद कांग्रेस ने अपने बड़बोले नेताओं की नकेल फिर कसी। पर मनमोहन राज में बयान बहादुरों की कमी नहीं। गुरुवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने भी नाम लिए बिना चुनौती दे डाली। अगर उनसे बेहतर होम मिनिस्ट्री संभाल सकते, तो बन जाएं मंत्री। पर अब विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के निशाने से कैसे निपटेंगे चिदंबरम। भारत-पाक की 15 जुलाई की वार्ता नाकाम हुई। अगले दिन पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कैसे भारत और कृष्णा को पानी पी-पीकर कोसा, सबने देखा। अपने कृष्णा इस्लामाबाद से जैसे ही दिल्ली उतरे। तो कुरैशी के बयानों का जवाब दिया। होम सैक्रेट्री जीके पिल्लई के बयान की तुलना हाफिज सईद से किए जाने को गलत ठहराया। वार्ता की रात दोनों विदेश मंत्री जब साझा प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। तो कुरैशी ने कृष्णा की मौजूदगी में भारत के होम सैक्रेट्री के बयान की तुलना आतंकी हाफिज से की थी। पर कृष्णा ने तब चुप्पी साध ली। फिर दिल्ली हवाई अड्डे पर सफाई दी, वहीं जवाब देकर माहौल खराब नहीं करना चाहते थे। यानी कृष्णा ने पिल्लई के बयान को गैरवाजिब नहीं ठहराया। पर जैसे ही अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में काबुल गए। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन से मुलाकात हुई। फिर कृष्णा तो कृष्णा, मनमोहन भी कुरैशी की भाषा बोलने लगे। अब कृष्णा भी विदेश मंत्री स्तर की बातचीत का जायका खराब करने का दोष होम सैक्रेट्री के सिर मढ़ रहे। तो मनमोहन सिंह ने भी पिल्लई को फटकार लगाई। पिल्लई के बयान को कृष्णा-मनमोहन वार्ता के माहौल को बिगाडऩे वाला मान रहे। कृष्णा ने तो यहां तक कह दिया- अगर वह होम सैक्रेट्री होते, तो डेविड हेडली के खुलासे पर बयान नहीं देते। अब कोई पूछे, डेविड हेडली से पूछताछ किसलिए की? क्या हेडली का खुलासा देश के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखना चाहती सरकार? क्या हेडली का बयान केबिनेट मीटिंग में होने वाली बहस जैसा, जिसका खुलासा नहीं किया जा सकता? आखिर अमेरिका या पाकिस्तान को खुलासे पर एतराज क्यों? क्या भारत की अवाम को सच्चाई जानने का हक नहीं? अमेरिका का क्या, 9/11 के बाद उसके घर में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ। सो उसने आतंकी डेविड हेडली से समझौता कर लिया। पर भारत ने कई आतंकी हमले झेले। सो आतंक फैलाने वालों को बेनकाब करना भारत सरकार की जिम्मेदारी। क्या 26/11 के बाद अमेरिकी एफबीआई ने कसाब से पूछताछ नहीं की? अमेरिका के टाइम्स स्क्वायर में बिना फटा बम मिला। तो एफबीआई सीधे फैजल के पाकिस्तानी घर पहुंच गई। पर मुंबई के हमलावर पाकिस्तान में खुले आम घूम रहे। आईएसआई और हुक्मरान पूरी सरपरस्ती दे रहे। सो अपने होम सैक्रेट्री के बयान में कुछ गलत नहीं। ना ही गलत समय पर दिया गया बयान। अलबत्ता आतंकवाद के मुद्दे पर वार्ता को केंद्रित करने के लिए हेडली के खुलासे का सार्वजनिक होना जरूरी था। अगर पाकिस्तान ईमानदार होता, तो हेडली के खुलासे के मुताबिक जांच का भरोसा दिलाता। पर आईएसआई के खिलाफ आरोप कबूलने की हिम्मत पाकिस्तान के किसी भी हुक्मरान में नहीं। सो कुरैशी की बौखलाहट उनके हर बयान में दिख रही। अमेरिका भी अपना दोमुंहापन दिखा रहा। एक तरफ पाकिस्तान को धमकी, अगर अमेरिका में कोई आतंकी हमला हुआ, तो पाक को विनाशकारी परिणाम भुगतने होंगे। पर दूसरी तरफ भारत के मामले में पाकिस्तान को शह दे रहा। तभी तो कुरैशी ने वार्ता के बाद तेवर दिखाए, अगले दिन नरमी। अब फिर तेवर दिखाने लगे। पर मनमोहन सरकार और कृष्णा की यह कैसी कूटनीति? सचमुच अमेरिकी दबाव में कूटनीति की इंतिहा हो गई। अमेरिकी प्रवक्ता पीजे क्राउले ने हेडली के बयान के सार्वजनिक होने पर चिंता तक जता दी। आखिर कब तक अमेरिका के आगे दुम हिलाती रहेगी सरकार? क्या भारत का कोई अपना आत्म सम्मान नहीं? होम सैक्रेट्री पिल्लई ने कोई अपनी मर्जी से बयान नहीं दिया होगा। सरकार ने पूरी रणनीति बनाई होगी। पर अमेरिका ने झिडक़ी लगाई। तो सारा ठीकरा पिल्लई पर फोड़ दिया। याद है ना, कैसे अमेरिका ने अपनी जांच एजेंसी को बैरंग लौटाया था। हेडली से पूछताछ तो दूर, चेहरा तक नहीं देखने दिया था। पर भारत में मनमोहन को विपक्ष ने चौतरफा घेरा। तो मनमोहन ने ओबामा से बात की। पर नवंबर 2009 में एफबीआई के जरिए छनकर आए हेडली के बयान जब मीडिया में जारी हो गए। तो अमेरिका की नीति देखिए, भारत एजेंसी को हेडली से पूछताछ की रपट शेयर करने से भी इनकार कर दिया था। अब पूछताछ कर ली, तो अमेरिका ने शर्तों का पुलंदा थमा दिया। सो अब तय करना होगा, भारत की विदेश नीति अमेरिका बनाएगा या खुद भारत। याद है ना, शर्म अल शेख में मनमोहन पाक से बातचीत को राजी हुए। तो संसद में यह कहकर बचाव किया, आतंकवाद पर कार्रवाई के बिना सार्थक बातचीत संभव नहीं। पर पाक तो आतंक पर बातचीत ही नहीं करना चाहता। सो कृष्णा के बयान से तो यही लग रहा, जीती बाजी हार गया भारत। उधर श्रीलंका के गाले मैदान पर मुरली की फिरकी ने भारत की टीम को चित किया। तो कूटनीति में अमेरिका की फिरकी ने पाक के आगे भी भारत को झुका दिया। 'एसएमके' यानी शाह महमूद कुरैशी और एसएम कृष्णा की भाषा एक हो गई।
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22/07/2010

Wednesday, July 21, 2010

आखिर लोकतंत्र को कब मिलेगा न्याय?

विपक्ष को लोकतंत्र की शान कहा जाता। अगर किसी देश की जनता की आजादी के बारे में जानना हो। तो विपक्ष के अस्तित्व भर से ही अंदाजा लगाया जा सकता। अगर लोकतंत्र में विपक्ष न हो, तो सच में वह लोकतंत्र नहीं। विपक्ष में बैठने वाले दल की यह जिम्मेदारी होती, सत्ता के नशे में चूर नेताओं के होश ठिकाने लाए। पर जब विपक्ष ही जोश में होश खो दे, तो लोकतंत्र का रखवाला कौन? बिहार विधानसभा में मंगलवार को कुर्सी के हत्थे से उठा हाथ बुधवार को चप्पल तक पहुंच गया। विधानसभा में मंगलवार के आचरण पर 17 विधायकों के निलंबन का प्रस्ताव रखा ही जा रहा था। तभी एक लालूवादी ने स्पीकर उदय नारायण चौधरी के ऊपर चप्पल दे मारी। पर चप्पल भी कम चालाक नहीं, कभी नेताओं से बैर मोल नहीं लेती। नेताओं पर चप्पल-जूते देश ही नहीं दुनिया में भी बहुत चले। पर किसी चप्पल-जूते ने सीधे नेताजी को छूने का साहस नहीं किया। अलबत्ता जॉर्ज बुश हों या पी. चिदंबरम, आडवाणी हों या मनमोहन या फिर जूता तंत्र की शुरुआत करने वाला इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी। जिसने खुद भी बाद में जूते खाए, पर देखो जूता कितना समझदार। वह जानता है, पैरों की चीज पैरों में ही अच्छी लगती। सो जूते ने जैदी को भी नहीं छुआ। पर अपने नेता भले लोकतंत्र से कुछ न सीख सके, कम से कम हाल में स्थापित जूता तंत्र से ही सीख लेते। एक निर्जीव जूता मर्यादा का इतना ख्याल रखता। तो अपने नेता सजीव होकर भी मर्यादा की इतनी धज्जियां कैसे उड़ाते रहते? सचमुच बुधवार को बिहार विधानसभा, विधान परिषद और कैंपस में जो हुआ, उसे विपक्ष का विरोध भर नहीं कह सकते। स्पीकर पर चप्पल फेंकना विरोध का परिचायक नहीं। विधान परिषद के हंगामे की तस्वीर अभी जारी नहीं हुई। सो वहां की मर्यादा फिलहाल कैमरे में बंद। पर विधानसभा परिसर में कांग्रेस की एमएलसी ज्योति कुमारी ने सचमुच मर्यादा की अद्भुत ज्योति जलाई। विधान परिषद में तांडव मचाकर बाहर पहुंचीं, तो बेजुबान गमलों-पौधों पर जमकर गुबार निकाला। एक-एक कर दर्जनों गमले तोड़े। फिर भी दिल का गुबार नहीं थमा, तो गमलों से छिटके पौधों का छोर पकड़ जमीन पर पटकना शुरू कर दिया। बदहवासी तो ज्योति कुमारी के चेहरे से दिख ही रही थी। हर हरकत यही बयां कर रही थी, मानो पगला सी गई हों। अब अपनी ज्योति कुमारी की हरकत पर पर्यावरण के अजीज दोस्त जयराम रमेश क्या फरमाएंगे? विधानसभा हो या विधान परिषद, विपक्ष की खिसियाहट साफ झलकी। नीतिश कुमार की जनमानस में बनी विकास पुरुष की छवि को तोडऩे के लिए लालू-पासवान-कांग्रेस ने सारी ताकत झोंक दी। ट्रेजरी घोटाले के मामले में नीतिश कुमार बहस को तैयार थे। स्पीकर भी हामी भर चुके। पर विपक्ष को बहस से अधिक बलवे में दिलचस्पी। विपक्ष की रणनीति भी देख लो। ट्रेजरी घोटाले पर अगर सदन में बहस कर ली, तो चुनाव में ठन-ठन गोपाल बनकर जाना होगा। नीतिश अपने बचाव में खम ठोककर कहेंगे, सदन में विपक्ष को पूरा जवाब दिया। पर विपक्ष ने तब चुप्पी साध ली। लालू-पासवान-कांग्रेस नीतिश को बचाव का यही हथियार नहीं देना चाह रहे। ताकि जब जनता के बीच जाएं, तो ट्रेजरी घोटाले की आड़ में नीतिश की छवि को भी दागदार बता सकें। खम ठोककर कह सकें, देखो अगर मेरी कमीज सफेद नहीं, तो नीतिश की भी नहीं। पर बहस से भागने की विपक्षी रणनीति की पोल भी अब खुल रही। जिस सीएजी की रिपोर्ट को लालू-पासवान-कांग्रेस नीतिश के खिलाफ हथियार बना रहे। उसमें राबड़ी राज और बिहार के गवर्नर बूटा राज भी शामिल। यानी अपने लोकतंत्र की मजबूरी देखिए। बहस हो, तो भी हमाम में सभी नंगे। बहस न हो, तो भी। पर दोनों ही बहस में बदनाम हो रहा लोकतंत्र। फिर भी लालू हों या पासवान या नीतिश, सबने बुधवार की घटना को लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली बताया। पर देश के ठेकेदारों को खुद पर शर्म नहीं आई। शर्म-हया तो नेतागिरी की डिक्शनरी से ही डिलीट हो चुके। सो यह सवाल सवाल ही रह गया, लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला कौन? लालू ने नीतिश पर आरोप लगाया, नीतिश ने लालू पर। बीजेपी ने कांग्रेस पर। सो अपना लोकतंत्र समझ ही नहीं पाया, किसने गला घोंट दिया। क्या नेतागिरी शब्द की जगह अब सिर्फ गुंडागर्दी इस्तेमाल होना चाहिए? आखिर नेताओं को कायदा-कानून की परवाह नहीं, तो कम से कम लोकतंत्र के जिस मंदिर में बैठते, उसकी पवित्रता का तो ख्याल करें। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च में जाने वाले अनुयायियों का भले रिकार्ड कैसा भी हो। पर धार्मिक स्थलों में जा उसकी पवित्रता का पूरा ख्याल रखते। सो देश की जनता को नेताओं की पवित्रता की फिक्र नहीं। फिक्र है, तो सिर्फ उस पवित्र लोकतंत्र की, जिसे अपने स्वाधीनता सेनानियों ने खून से सींचा। जैसे-जैसे मतदाता परिपक्व होते जा रहे, अपने नेता उतने ही बदहवास हो रहे। अब उन्हें समझ नहीं आ रहा, जनता को उल्लू कैसे बनाएं। सो सुर्खियों में छाने के लिए कुछ भी करने से परहेज नहीं कर रहे। संसद के बजट सत्र में कितनी बार मर्यादाएं टूटीं, हिसाब नहीं। मार्शल तक का इस्तेमाल संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ। पर जब बड़े लोगों के सदन में मार्शल आए, तो देश की विधानसभाओं ने ट्रैंड ही चला दिया। कहते हैं ना, बुरी लत जल्द लग जाती। सो संसद-विधानसभा को मर्यादा तोड़ू घुन लग चुका। ऐसे में लोकतंत्र को न्याय कब मिलेगा?
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21/07/2010

Tuesday, July 20, 2010

बिहार में दंगल, दिल्ली में वर्जिश

अपनी दिल्ली, राजस्थान में बदरा बरसे। तो बिहार में कुर्सियां बरसीं। नीतिश कुमार का पहला टर्म पूरा हो रहा। दूसरे टर्म से पहले सत्तापक्ष और विपक्ष ने विधानसभा को ही अखाड़ा बना लिया। नीतिश-बीजेपी सत्ता में वापसी की मुहिम में जुटे। तो पिछली बार जमीन सूंघ चुके लालू-पासवान वापसी की राह ढूंढ रहे। नीतिश सरकार ने भी आखिरी वक्त में विपक्ष को मुद्दा थमा दिया। जब सीएजी रपट में खुलासा हुआ, सरकार ने 11,412 करोड़ खर्च तो किए, पर कोई हिसाब नहीं। सो हाईकोर्ट ने ट्रेजरी घोटाले में सीबीआई जांच के आदेश दे दिए। अब नीतिश सरकार फटाफट खर्चे के बिल बनाने में जुटी। सो बिहार विधानसभा में मानसून सत्र के पहले दिन ही हंगामा मच गया। विपक्ष वैल में पहुंचा, तो सत्तापक्ष से मंत्री-विधायक भी धमके। सो जमकर हाथापाई हुई। जिसके हाथ में जो आया, एक-दूसरे को दे मारा। सो करीब दर्जन भर विधायक घायल हो गए। पर सीएम नीतिश मुस्करा कर चल दिए। सदन में सीएम, डिप्टी सीएम मौजूद हों और हंगामा इस कदर बढ़ जाए। तो नैतिकता की उम्मीद किससे करें। सो लालू-पासवान ने नीतिश पर हमला बोला। कहा- विपक्ष संवैधानिक हक के तहत सदन में विरोध कर रहा था। पर नीतिश की शह से सत्तापक्ष ने मारपीट की। यों सत्तापक्ष में बैठा नेता अपने चेले-चपाटों को कैसे शह देता, यह लालू से बेहतर कोई बता भी नहीं सकता। मनमोहन की पिछली पारी में लालू 24 सांसदों के साथ सबसे बड़े सहयोगी थे। सो रेल मंत्री रहते भी रुतबा पीएम-सीएम से कम नहीं था। घटना 24 अगस्त 2006 की, जब लोकसभा में तबके जदयू सांसद प्रभुनाथ सिंह और लालू की तू-तू, मैं-मैं हो गई। दोनों के बीच बहस गाली-गलौज तक पहुंच गई। तो लालू के इशारे पर उनसे साले साधु यादव सांसदों की बैठने वाली बैंच को लांघते हुए प्रभुनाथ को मारने पहुंच गए। पर बीच में सांसद बृजभूषण शरण सिंह खड़े हो गए। सो साधु अपनी हरकत को अंजाम नहीं दे पाए। पर लालू हाथ उठा-उठा कर उकसाते दिखे। मुंह से गालियों के फूल बरसाते रहे। सो बाद में माफी मांगनी पड़ी। अब राजनीतिक मतभेद मनभेद बन गए। सो संसद हो या विधानसभा, अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की वर्जिश का अड्डा बन गए। जनता के बीच जाने से पहले नेतागण सदन में ही वार्म-अप करते, ताकि मैदान में फुर्ती रहे। सो यूपी, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसी कई विधानसभा यह ट्रेंड अपना चुकीं। हर बार राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी दलील होती। दोनों पक्ष एक-दूसरे को जमकर कोसते। पर अपने गिरेबां में झांकते तक नहीं। अब नीतिश सरकार खर्च का हिसाब क्यों नहीं दे पाई या सचमुच घोटाला हुआ, यह तो जांच में साफ होगा। पर इतना तो जरूर हुआ, नीतिश राज में बिहार का कायापलट हो रहा। अगर रुपए खर्च नहीं होंगे, तो कायापलट कैसे संभव। अब हिसाब-किताब किसने नहीं रखा, यह तो बाद की बात। पर लालू-राबड़ी राज में पैसे खर्च ही नहीं हुए थे। कुछ फंड वापस केंद्र को चला जाता था, तो कुछ लालूवादी डकार जाते थे। पर साढ़े चार साल तक नीतिश के खिलाफ विपक्ष को ढूंढे कोई मुद्दा नहीं मिला। सो चुनावी साल में लालू-पासवान को तो समझो सीएजी ने मुंह मांगी मुराद थमा दी। यों सीएजी बनी ही मीन-मेख निकालने को। अगर काम कुछ भी न हो और कागजी पेट भर दो, तो सीएजी को एतराज नहीं होगा। यही हुआ था, जब सीएजी ने दिल्ली की शीला सरकार पर सवाल उठाए। लो फ्लोर बसों की खरीद के मामले में सीएजी ने रपट में कहा था कि अधिक कीमत पर बस खरीदी गई। पर तब शीला ने सीएजी को खरी-खरी सुनाने में देर नहीं की। सीएजी की रपट को कूड़ेदान में डालने को कह दिया। सीएजी जैसी संस्था की जरूरत पर ही सवाल उठा दिए। यानी कुल मिलाकर सीएजी कभी सत्तापक्ष को नहीं भाया। अलबत्ता विपक्ष के लिए हर रपट वरदान बन जाती। पर सीएजी और नीतिश के विवाद में आम आदमी का मुद्दा तो छूट गया। लालू-पासवान ने महंगाई पर मोर्चा निकाला। तो केंद्र को कम, नीतिश को खूब कोसा। पर अब बाकी मुद्दे गौण हो गए। सो बिहार के बाद अब दिल्ली में भी तैयारी हो रही। विपक्ष ने भारत बंद कर महंगाई पर तेवर दिखाए थे। तो अब सरकार ने विपक्षी एकता में सेंध लगाने को वही पुराना फार्मूला तय कर लिया। संसद का मानसून सत्र सोमवार से शुरू होगा। तो विपक्ष के तेवर देख सरकार मुद्दों की प्राथमिकता तय करेगी। पर इतना तय हो गया, विपक्षी एकता तोडऩे को हिंदू आतंकवाद और महिला आरक्षण बिल का सुर्रा छोड़ेगी सरकार। लेफ्ट तो वैसे भी ममता की बढ़ती राजनीतिक बेल से परेशान। सो बीजेपी के साथ दिखकर अपना और बंटाधार नहीं करेगी। लालू-पासवान भी बिहार चुनाव को देख बीजेपी संग बांसुरी नहीं बजाएंगे। रही बात मुलायम की। तो हिंदू आतंकवाद और महिला आरक्षण ही तोडऩे को काफी। अगर कांग्रेस सचमुच अपनी रणनीति में कामयाब हुई। बीजेपी-लेफ्ट के सहयोग से जबरन महिला बिल पास कराने की ठानी। तो कहीं ऐसा न हो, सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बिहार में भी गठबंधन टूट जाए। याद है ना, इसी सदन में शरद यादव ने एलान किया था- अगर महिला आरक्षण बिल पास हुआ, तो सुकरात की तरह जहर पी लेंगे। अब बिल पास हो या नहीं हो, पर विपक्षी एकता टूटनी तय। बिहार विधानसभा जैसी तस्वीर दिल्ली में दोहराए। तो हैरानी नहीं। सांसदों के वेतन-भत्ते बढऩे भी तय। पर महंगाई का बाल बांका नहीं होगा। यों केबिनेट सैक्रेट्री केएम चंद्रशेखर ने भरोसा दिलाया, दिसंबर तक महंगाई दर पांच-छह फीसदी पर आ जाएगी।
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20/07/2010

Monday, July 19, 2010

... मातम के लिए अभी आंसू बचाए रखिए

'आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों। इतनी जल्दी क्या है, जब जीना है बरसों।' रेलवे का मूल मंत्र अब यही हो गया। अपने नेता तो बरसों जीएंगे। आम आदमी यों ही हादसों का शिकार होता रहेगा। सो नीतिश कुमार के रेल मंत्री वक्त से ही टक्कर रोधी उपकरण (एंटी कोलीजन डिवाइस) हर रेल बजट भाषण में जगह पा जाता। भले अब तक पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे को छोड़ किसी ट्रेन में यह डिवाइस नहीं लगे। जब सीके जाफरशरीफ रेल मंत्री थे, तो कोंकण के एमडी बी राजामोहन को पूरी छूट मिली। उन ने डिवाइस तैयार तो किया। पर महंगी टेक्नोलॉजी की वजह से व्यापक अमल में नहीं लाया गया। भले हादसे-दर-हादसे मुसाफिर मरते जा रहे। मुआवजों से लेकर राहत तक धन पानी की तरह बह रहा। पर अपनी तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो रहा। अपने नेताओं को तो विदेशी माल लाने में ही फायदा नजर आता। कम से कम इसी बहाने विदेश टूर का मौका मिल जाता। कुछ मातहत भी कमीशन से मालामाल हो जाते। सो विदेशी माल के आगे देशी की क्या औकात। अब अगर महंगी टेक्नोलॉजी से रेलवे को परहेज, तो अपनी ही रिसर्च डिजाइन एंड स्टेंडर्ड ऑर्गनाइजेशन की सुध क्यों नहीं लेती। जी हां, रेलवे की अपनी रिसर्च विंग है। पर अब तक कोई आविष्कार नहीं कर पाई। हर बार सिर्फ जुबानी तीर चलते। हर रेल मंत्री अपनी डफली आप ही बजाता। तभी तो नीतिश के बाद पासवान, लालू और अब ममता रेल मंत्री। पर रेल मंत्रालय के बदलते चेहरों के साथ सुरक्षा के मुकम्मल उपाय तो नहीं हुए। पर हर रेल मंत्री का भाषण अपग्रेड होता चला गया। अगर पुराने भाषण छोड़ दें, तो ममता बनर्जी की ओर से 24 फरवरी 2010 को पेश रेल बजट ही देख लें। अब तक एंटी कोलीजन डिवाइस तो लगे नहीं। पर ममता ने अबके ट्रेन के डिब्बे और इंजन भी टक्कर रोधी बनाने का एलान कर दिया। लगे हाथ विजन-2020 का खाका भी परोसा। सालाना एक हजार किलोमीटर रेल लाइन बिछाने का लक्ष्य। अगले दस साल में नेटवर्क में 25 हजार किलोमीटर के इजाफे की तैयारी। पर क्या रेलवे का इतना बड़ा नेटवर्क कोलकाता के एक कमरे में बैठकर चलाया जा सकता? ममता ने बजट भाषण में खुद बताया था। कैसे जब देश आजाद हुआ, तो 1950 में रेलवे के पास 53,596 किलोमीटर की लाइन थी। पर 58 साल बाद भी यह नेटवर्क 64,015 किलोमीटर पर सिमटा हुआ। यानी सालाना औसत 180 किलोमीटर रहा। पर जब रेलवे का इतिहास इतना बिगड़ा हुआ। तो ममता बनर्जी कायापलट को मंत्रालय में बैठना गवारा क्यों नहीं समझतीं? सचमुच जब भारत आजाद हुआ था। तब चीन के पास भारत की तुलना में एक चौथाई रेल लाइनें भी नहीं थीं। पर अब दुनिया में चीन का नेटवर्क सबसे बड़ा। सो अपने रेल मंत्रियों ने नया ट्रेंड शुरू कर दिया। बजट भाषण में लच्छेदार जुमलों से दिल जीतने की खूब कोशिश होती। भले ट्रेन में मुसाफिरों का सफर अंग्रेजी का सफर क्यों न हो। सच्चाई यही, रेलवे को नेताओं ने राजनीति की ट्रेन बना लिया। जिस राज्य का मंत्री बना, ट्रेन की दिशा उधर ही मुड़ गई। सो दुधारू गाय होकर भी रेलवे मरणासन्न दिख रही। आखिर बिना चारा रेलवे कब तक दूध दे? अब तो खड़ी ट्रेन में भी पीछे से टक्कर आम बात हो गई। पिछले साल 21 अक्टूबर को मथुरा के पास रुकी मेवाड़ एक्सप्रेस को पीछे से गोवा एक्सप्रेस ने टक्कर मार दी थी। फिर दो जनवरी को इटावा में लिच्छवी-मगध और गोरखधाम-प्रयागराज की ऐसी ही टक्कर हुई थी। ममता के चौदह महीने के टर्म में अब तक करीब दर्जन भर दुर्घटनाएं हो चुकीं। कुछेक में नक्सलवादियों का भी हाथ। जिनमें 27 अक्टूबर 2009 को राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाना और 28 मई 2010 को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतारना शामिल। सो ममता को अबके भी साजिश नजर आ रही। रेलवे जिम्मेदारी ओढऩे को तैयार नहीं। केबिन मास्टर अपनी चूक से इनकार कर रहा। तो रेलवे बोर्ड के डायरेक्टर विवेक सहाय ड्राइवर की चूक से। जांच के नाम पर सब अपनी जिम्मेदारी से बच रहे। पर अब तक की दुर्घटनाओं की जांच का नतीजा क्या निकला? किसकी जिम्मेदारी तय हुई और रेलवे ने क्या सबक लिया? सो अब तो यही लग रहा, न रेलवे दोषी, न महकमा चलाने वाले नेता। अगर सचमुच कोई जिम्मेदार, तो वह है आम आदमी। अपना लोकतंत्र है ही ऐसा, जहां जनता खुद के लिए खुद जिम्मेदार। अगर नेता जिम्मेदारी ओढऩे लगें, तो फिर राजनीति कौन करेगा। हर हादसे के बाद वही होता, जो सोमवार को हुआ। बंगाल के बीरभूम के निकट सैंथिया स्टेशन पर खड़ी वनांचल एक्सप्रेस को पीछे से आ रही उत्तरबंग एक्सप्रेस ने जोरदार टक्कर मारी। साठ से ज्यादा मौतें हो चुकीं, सैकड़ों घायल। पर हादसों पर राजनीति शुरू हो गई। ममता पर लालू-पासवान के साथ लेफ्ट-बीजेपी ने भी हमला बोला। तो निचोड़ यही था, ममता का ध्यान रेल भवन से ज्यादा रायटर्स बिल्डिंग पर। सो ट्रेन बेलगाम दौड़ रही। सोमवार को हादसे की जगह राहत ट्रेन राहत काम पूरा होने के बाद पहुंची। तो उसमें पीने का पानी भी नहीं था। जब नेताओं की आंख का पानी मर चुका, तो पीने का पानी कहां से मिले? क्या लच्छेदार भाषणों से ही हो जाएगी रेलवे की सुरक्षा? इंटर लॉकिंग सिस्टम, एंटी कोलीजन डिवाइस क्या सिर्फ कागजों तक रहेंगे? आखिर कब तक रेलवे को रेलवे के भरोसे छोड़ा जाए? अब तो सरकार को विशेष पहल कर महकमा दुरुस्त करना होगा। वरना नेताओं का तो कुछ नहीं, पर हम-आप मातम के लिए आंसू बचाए रखें। क्योंकि आज का हादसा कोई आखिरी नहीं....।
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19/07/2010

Friday, July 16, 2010

पीठ में खंजर घोंपना तो पाक की फितरत

लो, कर लो बात। भारत-पाक विदेश मंत्री स्तर की बात बनी कम, बिगड़ ज्यादा गई। जगजाहिर हो गया, दोनों देशों की बातचीत महज रस्म अदायगी। तभी तो गुरुवार को दोनों विदेश मंत्री वार्ता की मेज पर बैठे। पर शुक्रवार को रिश्तों पर दोनों तरफ से जुबान की कैंची चली। पाक के विदेश मंत्री एसएम कुरैशी और अपने एसएम कृष्णा पद ही नहीं, नाम में भी एक राशि के। पर शांति वार्ता ऐसी हुई, दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाए। सो शुक्रवार को कृष्णा दिल्ली रवाना हुए। तो कुरैशी ने पाक की नीयत जाहिर कर दी। बौखलाहट कुरैशी के चेहरे से साफ झलकी। जब भारत के साथ-साथ कृष्णा पर फब्ती कसी। भारत को बातचीत में चुनिंदा बताया। तो कृष्णा को अपरिपक्व बताने की कोशिश की। कहा- मैंने पूरी बातचीत में किसी से निर्देश नहीं लिया। पर भारत के विदेश मंत्री को बार-बार नई दिल्ली से निर्देश लेना पड़ रहा था। पर कृष्णा जैसे ही दिल्ली उतरे, कुरैशी की कलई खुल गई। कृष्णा ने एक बार भी फोन से बात नहीं की। पर कुरैशी ने झूठ क्यों बोला? अगर आपने कुरैशी की लाइव प्रेस कांफ्रेंस देखी हो, तो बौखलाहट साफ देखी होगी। कुरैशी ने भारत को चुनिंदा मुद्दे पर बात करने वाला बताया। पर यह नहीं बताया, किस मुद्दे को लेकर रार ठनी। सच तो यह, भारत ने आतंकवाद पर जोर दिया। पाकिस्तान हुक्मरानों से हिसाब-किताब मांगा। तो कुरैशी ने कश्मीर राग छेड़ दिया। पर भारत की रणनीति तय थी। पी. चिदंबरम ने 26 जून को जो डोजियर सौंपा, उस पर बीते तीन हफ्ते में पाक ने क्या कदम उठाया? पर कदम उठाया हो, तो कुरैशी जवाब देते। पर भारत की आतंकवाद पर जिद ने कुरैशी को कुलबुला दिया। कुरैशी की खीझ तो गुरुवार को ही दिख गई, जब उन ने भारत के गृह सचिव जीके पिल्लई के बयान की तुलना आतंकवादी हाफिज सईद से कर दी। पिल्लई ने आखिर वही कहा था, जो एनआईए को पूछताछ में डेविड हेडली ने बताया। अमेरिकी एजेंसी एफबीआई के साथ अपनी एनआईए ने शिकागो में हेडली से पूछताछ की। तो हेडली ने मुंबई हमलों की साजिश की शुरुआत से अंत तक आईएसआई की भूमिका का खुलासा किया था। यानी आतंकवाद पर पाक चौतरफा घिरा, तो मुद्दे से फोकस हटाने को फिर पुराना राग छेड़ दिया। अब आप कुरैशी की पूरी प्रेस कांफ्रेंस का लब्बोलुवाब देखें। तो कुरैशी ने कश्मीर, सियाचीन, सरक्रीक का मुद्दा उठाया। भारत के अधिकार वाले कश्मीर में हुए निष्पक्ष चुनावों पर सवाल उठाए। हुर्रियत जैसे संगठनों के बिना चुनाव को निष्पक्ष नहीं मानता पाक। पर सबसे अहम जो पाक ने अबके यह मान लिया, कश्मीर में उपद्रव के पीछे उसी का हाथ। कुरैशी ने बेझिझक कह दिया- कश्मीर एक विवादित क्षेत्र। अगर वहां हिंसा हो रही, तो पाक मूकदर्शक नहीं रह सकता। अगर भारत वहां सेना भेजेगा, तो असर पाक पर भी होगा। यानी विदेश मंत्री स्तर की बातचीत का इतना फायदा तो हुआ, पाक ने कश्मीर में उपद्रव को शह देना कबूला। अब विदेश मंत्री स्तर की पहली बातचीत में पाक का यह रवैया क्या जतला रहा? पर कृष्णा ने भले आतंकवाद को मुख्य मुद्दा बना पाक को घेरा। मुंबई हमले के दोषियों पर कार्रवाई की मांग दोहरा दुखती रग छेड़ दी। पर कृष्णा ने कूटनीतिक चूक भी कर दी। जब गुरुवार को साझा प्रेस कांफ्रेंस में कुरैशी ने भारत के गृह सचिव की तुलना आतंकी हाफिज सईद से कर दी। तो अपने कृष्णा चुपचाप रहे। अगर तभी अपना एतराज जताया होता। तो अपनी विदेश नीति की धमक दिखती। पर कृष्णा तो ऐसे निकल लिए, जैसे कुछ सुना ही न हो। अगर तभी कृष्णा ने एतराज किया होता, तो शायद कुरैशी शुक्रवार को बड़ी हिमाकत न करते। यही नहीं, कृष्णा न तो पाक में बोले, न शुक्रवार को स्वदेश लौटने पर। कुरैशी के बयान से राजनीतिक पारा चढ़ गया। तो एयरपोर्ट पर ही कृष्णा ने जवाब दिया। कुरैशी के आरोपों पर पलटवार करने के बजाए महज सफाई देते दिखे। उन ने पिल्लई के बयान की तुलना पर एतराज जताया। पर कह गए- कुरैशी की तरह बयानबाजी कर प्वाइंट स्कोर नहीं करना चाहते। यों कृष्णा की बात सही। पर यह कैसी कूटनीति, जो पाक चोरी भी करे और फिर हमीं से सीनाजोरी करे। सो बीजेपी ने तो पाक से वार्ता बंद करने की मांग की। पर कांग्रेस ने खारिज कर दिया। सचमुच मुंबई हमले के बाद भारत ने पाक के खिलाफ जो कूटनीतिक सफलता हासिल की, अबके गंवा दी। पाक से वार्ता की पेशकश पहले भारत ने ही की। तो इन्हीं कुरैशी ने मजाक उड़ाया था। भारत को घुटनाटेकू बताया था। फिर भी 11 मई को अपने कृष्णा ने कुरैशी से फोन पर बात की। वार्ता के लिए 15 जुलाई मुकर्रर की थी। पर पहले 26 जून को चिदंबरम गए। जिन ने भी आतंकवाद पर फोकस किया। अब कृष्णा ने भी। पर मुंबई हमले के बाद से अब तक कार्रवाई के नाम पर पाक कितने पेंतरे बदल चुका, क्या मनमोहन सरकार को इल्म नहीं। फिर भी बातचीत का स्तर अपग्रेड होता गया। पर शुक्रवार को बदले में क्या मिला। अब दिसंबर में कुरैशी को दिल्ली आने का न्योता दिया गया। यों सरकार का एक खेमा भी बातचीत रोकने की पैरवी कर रहा। पर अंकल सैम को दिखाने के लिए बातचीत होगी। दोनों के दिल में क्या, यह तो रिस-रिस कर बाहर आ रहा। तो क्या सचमुच दोनों देशों की बातचीत से विश्वास का माहौल बन रहा? विदेश सचिव स्तर की वार्ता हो या विदेश मंत्री स्तर की, सिर्फ कड़वाहट पैदा कर रही। पाक अपनी हरकत से बाज नहीं आ सकता। जब वाजपेयी लाहौर बस लेकर गए, तो बदले में कारगिल मिला। अबके कृष्णा दिल मिलाने गए, तो कुरैशी ने जुबानी छुरा घोंप दिया।
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16/07/2010

Thursday, July 15, 2010

कांग्रेस सही, तो संघ पर क्यों नहीं लगा देती बैन?

तो जैसे को तैसा के चक्कर में राजनीति की ऐसी-तैसी हो रही। अब दिग्विजय सिंह ने नितिन गडकरी से पूछ लिया, बताओ तुम्हारा बाप कौन? यानी सीधे-सपाट शब्दों में कहें, तो संयत भाषा में नेता मां-बहन की गाली पर उतर आए। गडकरी ने दिग्विजय को औरंगजेब की औलाद कहा था। अफजल को कांग्रेस का दामाद बताया। तो दिग्गी के भाजपाई भाई लक्ष्मण को अखर गया। सो लक्ष्मण ने शर्त रखी, गडकरी माफी मांगें, वरना बीजेपी छोड़ देंगे। पर अब बीजेपी के लिए लक्ष्मण सिंह काम के नहीं रहे। सो गुरुवार को बीजेपी ने ही निकाल दिया। गडकरी की जुबान पूर्व सांसद पर भारी पड़ी। सिर्फ दिग्विजय नहीं, कांग्रेस महासचिव बी.के. हरिप्रसाद ने कर्नाटक विवाद पर बीजेपी से पूछ लिया- बताओ रेड्डी बंधु रिश्ते में तुम्हारे क्या? उत्तराखंड कांग्रेस ने तो उसी दिन पूछ लिया था- अगर अफजल को कांग्रेस का दामाद बता रहे, तो बताओ मसूद अजहर कौन थे? भले भाषाई अभद्रता दोनों तरफ से हो रही। पर अगर आप किसी को मां-बहन की गाली देंगे। तो बदले में लड्डू की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। सबको अपने-अपने वोट बैंक की फिक्र। सो गाली-गलौज में भी सब अपना फायदा देख रहे। कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने में जुटी। तो बीजेपी हिंदू वोट बैंक दुरुस्त करने में। उधर यूपी में मुलायम सिंह ने भी पासा फेंक दिया। कल्याण सिंह से बढ़ाई पींगों पर मुसलमानों से माफी मांग ली। पर वोट को मजहब में उलझाकर कब तक उल्लू सीधा करते रहेंगे राजनेता? दिग्विजय सिंह ने तो मानो ठान ली हो, संघ को बदनाम करके छोड़ेंगे। ताकि जनभावना सीधे संघ के खिलाफ बन जाए। पर दिग्विजय का भांडा तो सीबीआई ने ही फोड़ दिया। कांग्रेस मालेगांव, अजमेर जैसे कुछ ब्लास्ट के लिए सीधे संघ को जिम्मेदार ठहरा रही थी। मीडिया में लगातार खबरें आने लगीं। पर तेरह जुलाई को सीबीआई के डायरेक्टर अश्विनी कुमार ने खंडन कर दिया। कहा- अब तक की जांच में ना संघ की कोई भूमिका, ना ही संघ के किसी व्यक्ति से पूछताछ हुई। सो ना-ना करते गुरुवार को बीजेपी खुलकर संघ के बचाव में उतर आई। कांग्रेस को चेतावनी दी- संघ की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाए, तो खामियाजा भुगतना होगा। पर हफ्ते भर से बीजेपी की हवाइयां उड़ी हुई थीं। संघ का मसला संघ के सिर ही छोड़ दिया था। पर जब मीडिया में खुलासा होने लगा, संघ के बड़े नेताओं पर उंगली उठने लगी। तो मामला राजनीतिक हो गया। कांग्रेसी दिग्विजय के बयानों ने बीजेपी को मजबूर कर दिया। अब तक बीजेपी-संघ यही दलील दे रही थीं, कानून अपना काम करेगा। दोषी कोई भी हो, बख्शा नहीं जाना चाहिए। पर अब संघ परिवार आक्रामक मूड में आ गया। सीबीआई डायरेक्टर के बयान के बाद दिल्ली में जुटे संघ के नेता मंथन कर रहे। माना जा रहा, अब संघ मीडिया में छपी खबरों के खिलाफ मानहानि का नोटिस देगा। यों संघ की बात सही, जब जांच एजेंसी ही सबूत से इनकार कर रही। तो दिग्विजय किस आधार पर आरोप लगा रहे। अगर दिग्विजय के पास अपने सबूत, तो क्यों नहीं सरकार को देते। केंद्र में आखिर कांग्रेस की ही सरकार। अगर सचमुच संघ परिवार हिंदू आतंकवाद का केंद्र। तो बैन क्यों नहीं लगवाते? आखिर मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर राजनीति क्यों? पर कांग्रेस और संघ का बैर कोई नया नहीं। संघ पर अब तक तीन बार बैन लग चुका। पहली बार महात्मा गांधी की हत्या के बाद चार फरवरी 1948 को। यों गांधीजी की हत्या सिर्फ बहाना थी। असल में तबके गृहमंत्री सरदार पटेल को कांग्रेस संगठन और देश की जनता का भरोसा हासिल था। पंडित नेहरू को डर था, कहीं संघ का सहयोग लेकर पटेल उन्हें सत्ता से न हटा दें। सो गांधीजी की हत्या के बहाने अपनी हसरत पूरी की। पर जांच में साफ हो गया, गांधीजी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं। फिर नेहरू ने संघ के पास संविधान न होने को आधार बनाया। पर संघ ने कुछ समय के बाद संविधान उपलब्ध करा दिया। सो जुलाई 1949 में बैन हटाना पड़ा। फिर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के बाद चार जुलाई 1975 को संघ पर बैन लगाया। पर संघ में बढ़ती लोगों की आस्था की वजह से 1977 के चुनाव में इंदिरा की हार हुई और इस्तीफा देने से पहले 22 मार्च 1977 को उन ने बैन हटा दिया। फिर बाबरी विध्वंस के बाद दस दिसंबर 1992 को नरसिंह राव ने बैन लगाया। पर कोर्ट ने चार जून 1993 को बैन हटा दिया। यानी कांग्रेस ने जब-जब संघ पर बैन लगाया, आखिर मुंह की ही खानी पड़ी। सन 1948 हो या 1975 या फिर 1992, संघ पर सत्ता का कुठाराघात उसे और मजबूत कर गया। बीजेपी का सत्ता तक पहुंचना उसी का नतीजा। सो कांग्रेस अब येन-केन-प्रकारेण संघ को बदनाम करने में जुटी। हिंदू आतंकवाद का जुमला दिग्विजय सिंह के दिमाग की उपज। जिसे उन ने गुजरात विधानसभा चुनाव के वक्त इस्तेमाल किया। तो चुनाव आयोग की फटकार भी खानी पड़ी थी। पर साध्वी प्रज्ञा केस के बाद अजमेर ब्लास्ट मामले में देवेंद्र गुप्त की गिरफ्तारी ने दिग्विजय को फिर मौका दे दिया। गुरुवार को इंदौर में संघ व बीजेपी को हिंदू आतंकवाद की मदद करने वाला संगठन बताया। समझौता ब्लास्ट पर भी संघ को कटघरे में उतारा। अब सीबीआई को सच मानें या दिग्विजय को? दिग्विजय का एजंडा तो बटला से लेकर दंतेवाड़ा और भोपाल त्रासदी तक साफ हो चुका। पर अब दिग्विजय लाख चिल-पों करें, संघ को तो सीबीआई का सहारा मिल गया।
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15/07/2010

Wednesday, July 14, 2010

तो आगे भी जुबां से ही मिटाते रहेंगे नक्सलवाद!

नक्सलवाद पर एक और मीटिंग निपट गई। अब नक्सल प्रभावित जिलों में चार सौ थाने बनेंगे। हर थाने को सालाना दो करोड़ की सहायता मिलेगी। राज्यों में स्पेशल पुलिस आफीसरों के पद बढ़ेंगे। पर सबसे अहम फैसला हुआ, चार राज्य मिलकर यूनीफाइड कमांड बनाएंगे। पूरे ऑपरेशन में केंद्र सरकार तंत्रीय सुविधा मुहैया कराएगी। हैलीकॉप्टर दिए जाएंगे। यूनीफाइड कमांड में सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल को कमान सौंपी जाएगी। सीआरपीएफ में भी डीजी (एक्शन) की तैनायी होगी। यानी यह तो हुई नक्सलियों पर कार्रवाई की तैयारी। दूसरी तरफ योजना आयोग एक हाई पॉवर कमेटी बनाएगा। जो नक्सली क्षेत्र में विकास योजनाओं की जरूरत और हालात पर सुझाव देगी। सडक़ संपर्क सुधारे जाएंगे। प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल पर विशेष फोकस करेगी सरकार। पर कार्रवाई और विकास एक साथ कैसे संभव होगा? नक्सलियों की सोच यही, अगर सरकार रोड बना रही, तो उसका इस्तेमाल कार्रवाई के लिए होगा। सो नक्सली लैंड माइंस बिछा सडक़ ही नेस्तनाबूद कर देते। पर नक्सल समस्या को लेकर मीटिंग पीएम मनमोहन ने बुलाई थी। सो केंद्र सरकार सोनिया और दिग्विजय की सोच के साथ कदमताल करती दिखी। कुल मिलाकर मनमोहन सरकार ऊहापोह में ही फंसी। मीटिंग तो बुला ली। पर केंद्र की ओर से कोई ठोस फार्मूला नहीं। सारा दारोमदार राज्यों पर ही छोड़ दिया। छह साल बाद यूनीफाइड कमांड की सुध ली। पर प्रस्ताव को अधकचरा बना दिया। वाजपेयी सरकार ने यूनीफाइड कमांड की पहल की थी। पर मनमोहन ने कमान संभालते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। पहली पारी में साढ़े चार साल होम मिनिस्टर रहे शिवराज पाटिल तो वैसे ही नक्सलियों को अपना भाई बताते रहे। जैसा बुधवार को बीजेपी के सहयोगी नीतिश कुमार ने बताया। यों अच्छा हो, इन्हीं दोनों को नक्सलवादियों से वार्ता के लिए भेज दिया जाए। हो न हो एक भाई दूसरे भाई की बात मान ले। अब जरा नक्सलियों को भाई बताने वाले नेता कुछ नक्सली हमले भी याद रखें। छत्तीसगढ़ की हाल की घटनाओं को लें, तो कैसे नक्सलियों ने सुरक्षा बलों को मारा। फिर सिर धड़ से अलग किया। अगर नेताओं को सुरक्षा बल या आम आदमी का खून, खून नहीं लगता। तो याद दिलाते जाएं, नेताओं की बिरादरी के ही थे सुनील महतो। झामुमो के लोकसभा सांसद थे। पांच मार्च 2007 को जमशेदपुर के निकट केसरपुर गांव में फुटबाल मैच का ईनाम बांटने गए थे। तभी नक्सलवादियों ने मंच पर पहुंच सांसद के सुरक्षा गार्ड से बंदूक छीनी। पहले सुरक्षा गार्डों को मारा। फिर सांसद सुनील महतो को गोली से भून दिया। पर नक्सली करतूत यहीं खत्म नहीं हुई। नक्सलियों ने उसके बाद जो किया, उसे देख भले नेताओं का खून न खौले। पर आम नागरिक का खून खौल उठेगा। नक्सलवादियों ने सांसद को गोली मारने के बाद लाश पर कूद-कूद कर नृत्य किया। खुशियां मनाईं, माओवादी जिंदाबाद के नारे लगाए। पर नीतिश हों या पाटिल, दिग्विजय हों या सोनिया, कौन समझाए। यों पी. चिदंबरम ने लकीर पीटने के बजाए ऑपरेशन ग्रीन हंट के जरिए नई लकीर खींची। पर दस जनपथ से आए फरमान ने चिदंबरम के हाथ जकड़ दिए। मजबूर चिदंबरम ने छह अप्रैल को दंतेवाड़ा हमले के बाद इस्तीफे की पेशकश भी कर दी थी। सो मजबूरी में ही सही, अब चिदंबरम भी अपनों के रंग में रंग गए। दंतेवाड़ा कांड के बाद नक्सलियों की हरकत को गृह युद्ध करार देने वाले चिदंबरम ने बुधवार को कांग्रेसी फार्मूला ही अपनाया। नक्सलवाद को राज्य की कानून व्यवस्था का मुद्दा मान यूनीफाइड कमांड का जिम्मा भी राज्य के सिर ही छोड़ दिया। केंद्र राज्यों को संसाधन मुहैया कराएगा। पर उपलब्धता के आधार से। यानी हैलीकॉप्टर होगा, तो नक्सली क्षेत्र में तैनाती होगी। नहीं तो भगवान भरोसे। पर जुबानी सख्ती भी खूब दिख रही। चिदंबरम बोले- नक्सलियों को जज नहीं बनने देंगे। पर कोई पूछे, आप क्या कर लोगे। जब सारा मामला राज्य पर ही छोड़ दिया। नक्सलवाद को राष्ट्रीय समस्या मानने के बजाए कुछ राज्यों की समस्या मान रहे। तो कैसे नक्सलवाद का खात्मा होगा? पीएम ने सीएम की मीटिंग बुलाकर महज खानापूर्ति की। हर बार की तरह अबके भी भाषणबाजी हुई। तो एकीकृत कमान के साथ-साथ फंड की कमी न होने देने का भरोसा। नक्सलियों ने कितने लोगों को मारा, यह भी बताया। चिदंबरम के मुताबिक 2004 से 2008 के बीच सालाना औसतन पांच सौ आम नागरिक मारे गए। अब जरा नक्सली हमले की घटना के आंकड़े देखिए। साल 2006 में 930 हमले हुए। 2002 में 1465, 2003 में 1597, 2004 में 1533 और 2005 में 1608 जगहों पर नक्सली हमले हुए। हर बार वही भाषणबाजी, सघन कार्रवाई करेंगे। बख्शा नहीं जाएगा। पर सचमुच में अपनी व्यवस्था का नासूर नक्सलवाद कब खत्म होगा? यूनीफाइड कमांड की बात कोई नई नहीं। मुख्यमंत्रियों की मीटिंग हर साल दो-चार दफा हो ही जाती। पर बयानों में कोई फर्क नहीं होता। अब आप मार्च 2007 में सांसद सुनील महतो की नृशंस हत्या से पहले की सीएम मीटिंग में पीएम मनमोहन का एलान देख लो। तब कहा था- 'नक्सलियों के खिलाफ राज्य अब संयुक्त अभियान छेड़ेंगे। जिसके लिए केंद्रीय कोष की कमी नहीं होने दी जाएगी।' अब करीब साढ़े तीन साल बाद आज का बयान देखिए। आखिर साढ़े तीन साल बाद महज ढाई कोस भी क्यों नहीं चल पाई सरकार? यानी बुधवार की मीटिंग का मतलब साफ, आगे भी ऐसे ही जुबान से नक्सलवाद मिटाते रहेंगे।
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14/07/2010

Tuesday, July 13, 2010

भारत बनाम इंडिया, आधी हकीकत, आधा फसाना

साईं इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय। भक्ति काल में जब कबीर ने यह दोहा लिखा होगा, तो सोचा भी न होगा, दुनिया इतनी बदल जाएगी। अब जैसी अपने देश की तस्वीर, अगर कबीर वाणी की पैरोडी बने। तो यही होगा- साईं इतना दीजिए जामें आम आदमी मरता रहे,च् साधुज् मस्त होता जाय। सचमुच गरीब हर राजनीतिक जुमले में जुडक़र मर रहा। पर सरकार की नीतियां खास-उल-खास पर मेहरबान। यूएनडीपी की ताजा रपट ने अपने विकास के थोथे दावे की कलई खोल दी। रपट को मानिए, तो दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग भारत में रहते। यों अपने यहां तो गरीबी के पैमाने और आंकड़े को लेकर बहस ही छिड़ी हुई। पर यूएनडीपी के पैमाने से भारत में 42 करोड़ लोग गरीब। यानी 26 अफ्रीकी देशों से भी एक करोड़ अधिक गरीब भारत में। यूएनडीपी की नजर में गरीब वही, जो रोजाना एक डालर से कम की आमद पर जिंदगी बसर करे। यानी अपने यहां के हिसाब से देखें, तो 48-50 रुपए से कम कमाने वाला गरीब। पर सोचो, अर्जुन सेन गुप्त की 20 रुपए दिहाड़ी वाली रपट लागूं करें। तो गरीबी का आंकड़ा दुगुने से कहीं अधिक होगा। अर्जुन सेन कमेटी ने तो 84 करोड़ लोग गरीब बताए थे। पर यूएनडीपी ने जो गरीबी की खस्ता हालत बताई। उसके मुताबिक बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान में गरीबों की बाढ़। रपट में इन आठ राज्यों में रहने वाले गरीबों की हालत सबसे अधिक गरीब अफ्रीकी देश इथोपिया और तंजानिया के लोगों जैसी। जहां न स्वास्थ्य की सुविधा, न शिक्षा की। बुनियादी सुविधाएं तो दूर, पीने को साफ पानी भी नहीं। अब कोई पूछे, जब मनमोहन सरकार सामाजिक क्षेत्र पर फोकस कर रही। तो कहां गया नेशनल रूरल हैल्थ मिशन, कहां है सर्व शिक्षा अभियान, कहां है शिक्षा का मौलिक अधिकार? गरीबी की तस्वीर को अगर शहर और गांव में बांटें। तो अपनी 135 करोड़ की आबादी में करीब 37 फीसदी बीपीएल। जिनमें 22 फीसदी ग्रामीण, तो 15 फीसदी शहरी आबादी। अकेले बिहार, यूपी, उड़ीसा में आधे से अधिक गरीब। पर पंजाब, दिल्ली में गरीब की संख्या कम। यों नरेगा जैसी योजना ने कुछ बदलाव किया। पर गरीब को गरीबी रेखा से बाहर लाने में अभी सफल नहीं हुई। सो सवाल समूची राजनीतिक व्यवस्था से। आखिर 63 साल बाद भी देश की तस्वीर ऐसी क्यों? आखिर ऐसी कौन सी नीति बन रही, जहां करोड़पति-अरबपति धन कुबेर बनते जा रहे और आम आदमी पके हुए आम की तरह पिचकता जा रहा। सिर्फ राजनीति ही नहीं, अपनी मीडिया भी कोई दूध की धुली नहीं। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। जब अक्टूबर 2007 में अपने मुकेश अंबानी जगत अमीर बन गए। तो मीडिया की सुर्खियां बनीं। तब 31 अक्टूबर 2007 को यहीं पर लिखा था- सिर्फ अंबानी नहीं, 84 करोड़ की भी हो फिक्र। पर तबसे अब तक आम आदमी की फिक्र हुई, तो सिर्फ जुबां से। मनमोहन सरकार को तेल कंपनियों की सेहत की चिंता तो खूब, पर कभी आम आदमी के पीठ से चिपके पेट की फिक्र नहीं। एक तरफ देश की 42 करोड़ कहें या 84 करोड़, आबादी गरीब, तो दूसरी तरफ अकेले अंबानी जैसे सब पर भारी। अगर 1997 से अब तक के आंकड़े को देखें, तो करीबन सवा दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके। सन 1990 के दशक तक अपने देश की जीडीपी में कृषि का अनुपात पांच फीसदी होता था। अब महज एकाध फीसदी पर सिमटा हुआ। क्या यही है देश की मनमोहिनी अर्थव्यवस्था? हर चुनाव में वादे खूब होते। कभी परमाणु डील की बात, तो कभी पोकरण तिहराने की बात। पर कभी कोई नेता ताल ठोककर यह नहीं कहता- फलां वक्त तक देश से अमीरी-गरीबी की खाई मिटा देंगे। चारों तरफ खुशहाली ला देंगे। आखिर आम आदमी परमाणु डील या पोकरण-तीन से क्या करेगा? उसे तो दो जून की दाल-रोटी चाहिए। सिर ढकने को छत चाहिए। पर आजादी के 63 साल बाद आम आदमी रोजमर्रा की चीजों के लिए मोहताज। सरकार ने महंगाई से जिंदगी तबाह कर रखी। तो विपक्ष ने बंद से मुहाल कर रखी। फिर भी महंगाई कम नहीं होती। तो क्या ऐसी सूरत में भारत 2020 का सपना देख रहा? हम 2020 तक भारत को इंडिया बनाना चाह रहे। पर हकीकत क्या? क्या गरीबी-अमीरी की बढ़ती खाई से भारत विकसित देश बनेगा? क्या विकास दर आम आदमी की गरीबी दूर करेगी? हम मुकेश अंबानी के जगत अमीर बनने पर फक्र करते। सरपट दौड़ती विकास दर पर फक्र करते। सेसेंक्स और शेयर मार्केट की उछाल पर गदगद होते। पर देश की जो तस्वीर यूएनडीपी ने दिखाई, या अर्जुन सेन गुप्त कमेटी दिखा चुकी। कभी उधर ध्यान क्यों नहीं जाता? सरकार की नीतियां उन पांच फीसदी लोगों को ध्यान में रखकर बनतीं, जिनमें से चार फीसदी वोट डालना भी अपनी शान के खिलाफ समझते। पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल ने एक बार कहा था- अमीरी-गरीबी की खाई इसी तरह बढ़ी, तो वह दिन दूर नहीं जब गांव से लोग ट्रेक्टर में आएंगे और दिल्ली जैसे महानगर को लूट ले जाएंगे। अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार वायसराय लार्ड इर्विन को यहां तक कह दिया था, आपको शर्म आनी चाहिए, एक आम भारतीय से पांच सौ गुना अधिक आपकी आमदनी। पर आज के जमाने में अमीरी-गरीबी की खाई 80 से 85 लाख गुना बढ़ चुकी। पर आम आदमी की ओर कौन ध्यान दे। आम आदमी किसी राजनीतिक दल को चुनावी चंदा जो नहीं देता। सो जो देवत है, वो पावत है।
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13/07/2010

Friday, July 9, 2010

बदनाम राजनीति में अब कोई वाजपेयी क्यों नहीं?

'बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा।' वाजपेयी के बाद की बीजेपी कुछ साल से इसी फार्मूले पर चल रही। अब नितिन गडकरी भी उसी परंपरा के वाहक। सो अध्यक्षी संभाले छह महीने ही बीते। पर जुबान ऐसी चली, अब तक छह विवाद भी खाते में जोड़ लिए। पहला विवाद तो कुर्सी संभालने के 25वें दिन ही हो गया। जब अप्रवासियों को महानगरों की समस्या बता गए। तो बीजेपी की सबसे बड़ी सहयोगी जेडीयू ने गडकरी का पुतला फूंक सलामी दी थी। फिर फरवरी के इंदौर अधिवेशन में राम मंदिर के बाजू में मस्जिद बनाने का बयान। अप्रैल में सिख विरोधी दंगे को गुजरात दंगे से जोड़ा। दंगों को आम लोगों की प्रतिक्रिया बताया। तो खालसा पंथ ने एतराज जताया। सो फौरन गडकरी को खंडन जारी करना पड़ा। फिर बारह मई को चंडीगढ़ की रैली में लालू-मुलायम को सोनिया गांधी के तलवे चाटने वाला कुत्ता बता बखेड़ा खड़ा किया। पर राजनीतिक भूचाल देख गडकरी ने चंडीगढ़ में जुबान से जो उगला, वही निगल लिया। पर लालूवादी रामकृपाल ने गडकरी को छछूंदर कह दिया। अब दिग्विजय सिंह का नाम नहीं लिया। पर इशारों में ही पूछ लिया, आजमगढ़ में आतंकी के घर जाने वाले महाराणा प्रताप की औलाद हैं या औरंगजेब की? तो गुरुवार को देहरादून में संसद हमले के दोषी अफजल को कांग्रेस का दामाद बता दिया। सो बवाल मचना ही था। पर गडकरी का तुर्रा देखिए, अबके माफी मांगने से इनकार कर दिया। खम ठोककर बोले- 'जो कहा, वह सही, मैं अपने बयान पर कायम हूं।' पर कांग्रेस राशन-पानी लेकर चढ़ गई। गडकरी को मानसिक रोगी बताया। पर गडकरी जैसा सुलझा इनसान इतना उलझा बयान क्यों दे रहा? बीजेपी में एक थ्योरी चल रही, जो कांग्रेसी बयानों से पुष्ट हो रही। पिछले कुछ समय से कांग्रेस नेता गडकरी को गंभीरता से नहीं ले रहे। कभी कद पर उंगली उठा रहे, तो कभी पद पर। सो गडकरी ने जान-बूझ कर कांग्रेस नेताओं को निशाना बनाना शुरू किया। ताकि सुर्खियों के सरताज बने रहें। यों सचमुच पिछले शुक्रवार जब गडकरी ने महंगाई पर सवाल पूछा, तो मनीष तिवारी ने महंगाई के भूत से भागने को गडकरी के कद पर सवाल उठा दिए। कहा- 'गडकरी इतने बड़े नेता नहीं, जो कांग्रेस के इस मंच से जवाब दें।' पर अब गडकरी ने भाषाई मर्यादा तोड़ी, तो मनीष तिवारी गडकरी को पद की मर्यादा याद दिला रहे। शुक्रवार को कांग्रेस मंच से शकील अहमद उतरे। तो उन ने गडकरी को आड़े हाथों लिया। सो सवाल हुआ, आज गडकरी पर क्यों बोल रही कांग्रेस? तो शकील ने मनीष की उस राय को निंदा की एक शब्दावली बताया। अब गडकरी के प्रवक्ता भी कुछ ऐसी ही दलील दे रहे। रविशंकर बोले- 'गडकरी ने देश की पीड़ा जाहिर की।' तो सवाल, क्या भावना व्यक्त करने को राजनीति की मर्यादाएं ऐसे ही टूटेंगी? अगर गडकरी ने मर्यादा तोड़ी, तो कांग्रेस भी दूध की धुली नहीं रही। दिल्ली में कांग्रेस ने गडकरी को मनोरोगी बताया। तो देहरादून से कांग्रेस ने पलटवार कर पूछा, अगर अफजल को दामाद बता रहे। तो गडकरी बताएं, मसूद अजहर कौन था? जिसे सम्मान सहित जसवंत सिंह कंधार छोडक़र आए थे। पर कब तक मर्यादाएं टूटती रहेंगी? कभी सोनिया गुजरात के सीएम मोदी को मौत का सौदागर कहतीं, कभी मोदी सोनिया को। मई में मध्य प्रदेश विधानसभा के बाहर कांग्रेसी एमएलए ने बीजेपी की महिला एमएलए ललिता के खिलाफ ऐसी अभद्र टिप्पणी की, जिसे लिखा नहीं जा सकता। क्या यही अपनी राजनीति का स्तर? एक वक्त था, जब अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात दंगों से आहत हुए। तो सिर्फ एक शब्द- 'राजधर्म' का पालन करने की टिप्पणी से सारी बात कह दी। जब 2004 के चुनाव में प्रमोद महाजन ने सोनिया गांधी की तुलना मोनिका लेविंस्की से कर दी। नरेंद्र मोदी ने राहुल को जर्सी बछड़ा, तो सोनिया को इटली की.... कह दिया। तो कांग्रेसियों से पहले वाजपेयी ने एतराज किया। भाषा की लक्ष्मण रेखा न लांघने की नसीहत दी। पर आज कांग्रेस या बीजेपी में ऐसा कोई नेता क्यों नहीं, जो वाजपेयी जैसी दो-टूक नसीहत दे सके। अब तो कोई किसी को कुत्ता कह रहा, कोई छछूंदर। कोई मनोरोगी, तो कोई कुछ। राजनीतिक मुद्दे खत्म होते जा रहे। गाली-गलौज तो आम बात हो गई। संसद के पिछले सत्र को ही लें, तो मर्यादा तोड़ू सत्र कहना उम्दा रहेगा। कोई भी दल अछूता नहीं रहा था। आखिर में अनंत-लालू प्रकरण में सुषमा ने माफी मांगी। बाद में सुषमा ने कहा था- 'भले कहीं भी पार्टी नेता कुछ बोल जाएं, पर कम से कम संसद में वाणी पर संयम होना चाहिए।' पर गडकरी तो सांसद ही नहीं। सो बाहर ही सुर्खियां बटोर रहे। पर विरोधी ही नहीं, अब तो अपने भी गडकरी को संयम की नसीहत दे रहे। शुक्रवार को शरद यादव ने भी गडकरी की भावना को जायज माना, पर भाषा पर एतराज जता गए। बोले- 'सच मर्यादा में अधिक अच्छा लगता है।' पिछली बार लालू-मुलायम को कुत्ता कहा था। तो कलराज मिश्र ने नसीहत दी थी- 'नेता संयम में रहकर भाषा का प्रयोग करें। क्योंकि नेता जनता से जुड़ा होता है और जनता पर नेता की बात का फर्क पड़ता है।' सो कांग्रेस को फिलहाल छोडि़ए, गडकरी पर नसीहतों का असर कितना, यह तो भविष्य बताएगा। पर यह क्या, इधर गडकरी ने मर्यादा तोड़ू भाषा पर खम ठोक दिया। उधर हरियाणा के झिंझोली में बीजेपी के मंडल स्तरीय नेताओं के प्रशिक्षक वर्ग का उद्घाटन किया। अब सोचिए, जब बड़े मियां ऐसे, तो छोटे मियां क्या सीखेंगे?
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09/07/2010

Thursday, July 8, 2010

बुराई नहीं, राजनीति को सिर्फ वोट बैंक की फिक्र

घाटी में घमासान तेज हो गया। तो आखिर सेना बुलानी पड़ी। अलगाववादियों ने षडय़ंत्र रच घाटी को फिर सुलगा दिया। पहली बार सीएम बने युवा नेता उमर अब्दुल्ला षडय़ंत्र नहीं भांप पाए। सो अलगाववादी अपने मंसूबे में सफल होते दिख रहे। सिर्फ उमर नहीं, मनमोहन सरकार भी सोती रही। सो अब घाटी में हालात सामान्य बनाने का जिम्मा सेना को सौंपा गया। पर अभी भी कोई स्पष्ट नीति नहीं। पी. चिदंबरम ने सेना की मौजूदगी को महज प्रतिरोधात्मक बताया। अब गृह मंत्रालय से ही खुलासा हुआ। कैसे अलगाववादियों ने घाटी को सुलगाने की साजिश रची। फोन टेपिंग में कई भावी योजनाओं का भी खुलासा हुआ। पर केंद्र ने अपना हाथ झुलसाने के बजाए उमर अब्दुल्ला को आगे कर दिया। अब सारा दारोमदार उमर पर, जो जुलाई-अगस्त 2008 में हुए अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद के वक्त खूब तेवर दिखा चुके। लोकसभा में उमर का उत्तेजनापूर्ण भाषण सुर्खियों में रहा था। घाटी में अमन-चैन और अपनी जमीन के लिए कुर्बानी का एलान किया था। पर अब वही घाटी आग में क्यों झुलस रही? क्यों नहीं युवाओं के दिल पर राज कर पाए उमर? उमर हों या मनमोहन सरकार, अलगाववादियों के आगे नतमस्तक क्यों दिख रहे? पर जैसे अलगाववाद के आगे सरकार कमजोर दिख रही, वैसे ही गुरुवार को खाप के खौफ की शिकार दिखी। सो केबिनेट में ऑनर किलिंग पर संशोधन का फैसला टल गया। केबिनेट में ही आम सहमति नहीं बनी। सो बीच का लटकाऊ रास्ता अपनाया। अब संशोधन के मामले पर जीओएम बनेगी। सभी राज्यों से सलाह-मशविरा होगा। फिर संसद में संशोधन बिल पेश। पर जीओएम का मतलब तो अब बीच के शब्द ओ जैसा हो गया। यानी जो भी मैटर जीओएम के पास, उसका तो गोल-मोल होना तय। बीजेपी की मानें, तो यह 54 वां जीओएम होगा। अब सचमुच सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति होती, तो सीधे बिल लाने का खम ठोकती। पर अंबिका ने महज संभावना जताई। तो चिदंबरम ने मानसून सत्र खत्म होने से पहले सलाह-मशविरे की प्रक्रिया पूरी करने का एलान। पर जरा याद करिए, जब 30 मार्च को मनोज-बबली केस में करनाल कोर्ट ने खाप की खाल खींची। ऑनर किलिंग पर बहस शुरू हो गई। तो अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने संतवाणी सुनाई। हमेशा की तरह कानून की खामी कबूली, कानून में बदलाव को जरूरी बताया। बिल लाने का दावा भी किया। पर अपनों का दबाव बढ़ गया। याद है ना, कैसे कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल ने खाप की पैरवी की। तो कांग्रेस ने फटकार लगाई। पर जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी समर्थन कर दिया। तो वोट बैंक की मजबूरी कांग्रेस की जुबान पर ताला लगा गई। कांग्रेस को यही दिख रहा, एकाध प्रेमी जोड़ा वोट बैंक नहीं हो सकता, जबकि खाप से पंगा लेकर चुनाव में जीत संभव नहीं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने हमेशा की तरह नीति साफ कर दी। बोले- कानून में बदलाव की कोई जरूरत नहीं। मौजूदा कानून ही पर्याप्त। अब जीओएम का मतलब आप दिग्गी राजा के बयान से लगा लो। नक्सलवाद हो या आतंक या फिर बटला कांड, दिग्गी की सिर्फ जुबान होती, सोच दस जनपथ की। यानी सामाजिक बुराई से लडऩे का जज्बा किसी में नहीं। भैरोंसिंह शेखावत और बंसीलाल जैसी मिसाल अब नहीं मिलती। देवराला सती कांड में शेखावत पूरे समाज से लड़ गए थे। समाज उसे उचित ठहरा रहा था। पर शेखावत ने खुला विरोध जताया। दलील दी, बचपन में ही मेरे पिता गुजर गए थे और अगर तब मेरी मां सती हो जातीं, तो मैं कहां जाता। क्या आज मैं यहां होता? बीजेपी भी तब समाज का विरोध देख डर गई थी। कार्यकारिणी की बैठक के आखिर में होने वाली अटल-आडवाणी की रैली टालने का फैसला हुआ। पर शेखावत ने रार ठान ली। बंसीलाल का मामला थोड़ा अलग। चुनाव में किसानों को मुफ्त बिजली देने का शिगूफा चल रहा था। पर बंसीलाल ने जींद की जनसभा में खम ठोककर कहा- मुफ्त बिजली नहीं देंगे। सो बंसीलाल चुनाव हार गए। पर जब मुफ्तखोरी का हश्र जनता ने देखा। बिजली महज झरोखा-दर्शन कराने लगी। तो अगले चुनाव में उसी जनता ने बंसीलाल को ताज पहनाया। मानसिकता बदलने की यह अद्भुत मिसाल। पर अब सिर्फ वोट बैंक की फिक्र होती, बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर कोई और। बीजेपी भी अबके खाप जैसी ही सोच दिखा रही। पर राजनीतिक नफा-नुकसान से जुबां पर ताला। बीजेपी तो अंतरधार्मिक विवाह पर भी अपना रंग दिखा चुकी। भले जमाना बदल गया, पर समाज का भौंडा चेहरा नहीं बदला। अप्रैल 2007 में भोपाल के उमर ने सिंधी समाज की प्रियंका वाधवानी से लव मैरिज की। तो दोनों धर्मों के ठेकेदार मैदान में कूद पड़े। दोनों तरफ से तालिबानी फरमान जारी हो गए। तब सीएम शिवराज सिंह चौहान ने भले संविधान का मान रख उमर-प्रियंका की शादी पर सीधी टिप्पणी नहीं की। अलबत्ता मन की भड़ास निकालते हुए बोले- मध्य प्रदेश को दिल्ली या मुंबई न समझें। यहां का सामाजिक परिवेश भिन्न है। अब कोई पूछे, सामाजिक परिवेश बनाने वाला कौन? क्या व्यक्ति के बिना समाज का अस्तित्व है? व्यक्ति से परिवार, परिवार से मोहल्ला, मोहल्लों से गांव और समाज का निर्माण होता है। अगर बदलते जमाने के साथ व्यक्ति की सोच बदल रही, तो समाज के ठेकेदार रूढि़वाद में ही क्यों जकड़े हुए?
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08/07/2010

Tuesday, July 6, 2010

सिर्फ पवार नहीं, अब तो पूरी सरकार थक चुकी!

तो बंद के बाद अब आंकड़ों की जंग शुरू हो गई। बीजेपी ने सरकार से जवाब मांगा, बताए बंद से हुए नुकसान के आकलन का क्या पैमाना? भारत बंद की सफलता ने सचमुच विपक्ष में जोश भर दिया। सो मंगलवार को सरकारी रपट से ही सरकार पर हमला बोला। रविशंकर प्रसाद बोले- पेट्रोलियम मंत्रालय की रपट के मुताबिक वर्ष 2009-10 में तेल कंपनियों ने 4663.78 करोड़ का मुनाफा कमाया। फिर हर कंपनी का अलग-अलग मुनाफा भी बताया। यानी तेल कंपनियों के घाटे में होने की दलील महज शिगूफा। सचमुच सरकार ने पेट्रोल-डीजल को राजस्व का कुआं बना लिया। सरकारी इश्तिहारों में कैरोसिन की बढ़ोतरी पर पाकिस्तान जैसे देश के नाम तो गिना दिए। पर यह छुपा गई, कैसे पाक में 26 रुपए लीटर पेट्रोल मिल रहा। अपने से गरीब देश बांग्लादेश में भी 22 रुपए कीमत। पर भारत में 50 रुपए के पार हो चुका। औसतन पेट्रोल की बेसिक कीमत साढ़े सोलह रुपए प्रति लीटर। पर केंद्र सरकार का टेक्स करीबन 12 रुपए, उत्पाद शुल्क करीब दस रुपए। राज्यों का टेक्स करीबन आठ और वैट चार रुपए। अब कोई चीज तिगुने दाम पर बिके, फिर भी घाटे की बात हो। तो कौन भरोसा करेगा। पर महंगाई बेलगाम हो चुकी, तो शरद पवार अपना बोझ कम करना चाह रहे। पीएम से मिलकर गुहार लगा चुके। सो मानसून सत्र से पहले मनमोहन केबिनेट में फेरबदल की तैयारी। पर महंगाई की माथापच्ची छोड़ पावर की जोर-आजमाइश में जुटी कांग्रेस-एनसीपी। कांग्रेस पवार से खाद्य-आपूर्ति मंत्रालय लेकर अपने पास रखना चाह रही। ताकि खाद्य सुरक्षा बिल का श्रेय सिर्फ कांग्रेस को मिले। पर पवार चाह रहे, एनसीपी कोटे से एक और मंत्री बने। अब सोचो, पवार का बोझ भले कम होगा। पर देश का खर्चा तो बढ़ेगा ही। पवार विभाग छोडऩे को राजी। तो क्या नए मंत्री को सैलरी भी अपने हिस्से में से देंगे? नया मंत्री होगा, तो नया नौकर-चाकर-स्टाफ-गाड़ी-बंगला सब चाहिए। यानी आम आदमी तो पहले ही पवार को झेल रहा था। तो क्या अब पवार जैसे दो झेलने पड़ेंगे? आखिर पवार करते ही क्या, जो काम का बोझ हो? जब-जब मुंह खोला, सिर्फ महंगाई बढ़ाई। इससे बेहतर तो पवार का बोझ कम हो जाए। यों काम के बोझ से सिर्फ पवार ही नहीं थके, ऐसा लग रहा, पूरी सरकार थक चुकी। सचमुच सरकार के पास कोई नीति नहीं। सिर्फ राजनीतिक मैनेजमेंट से सरकार घिसट रही। अब अजित सिंह की रालोद को यूपीए में शामिल करने की भी तैयारी चल रही। ताकि मानसून सत्र में विपक्ष महंगाई पर तेवर दिखाए। तो सरकार का अस्तित्व खतरे में न दिखे। यों विपक्ष को महंगाई का मुद्दा पहली बार फैसलाकुन दिख रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में भी महंगाई मुद्दा थी। पर बीजेपी के एजंडे में तीसरे-चौथे नंबर का मुद्दा रही। मनमोहन का कमजोर नेतृत्व, आतंकवाद जैसे मुद्दे प्राथमिक रहे। पर अब भारत बंद में जनता के गुस्से का असर दिखा। तो संसद में फिर आर-पार की तैयारी। पर संसद का रिकार्ड यही बतला रहा, विपक्ष ने रार ठानी, तो बहस की रस्म अदायगी हो जाएगी। यही तो हुआ था बजट सत्र की शुरुआत में। विपक्ष ने जिद ठानी, तो सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस से पहले महंगाई की बहस पूरी करा दी। पर हुआ क्या, महंगाई तो अपना मुंह फैलाती ही चली गई। अब मंगलवार को बंद पर आडवाणी की टिप्पणी आई। तो यही लगा, संसद में सिर्फ रस्म अदायगी होगी। भारत बंद से हुए नुकसान की खबर से आहत दिखे। बोले- अबके बंद से यह टीका-टिप्पणी बंद होगी कि विपक्ष महंगाई के मुद्दे पर पर्याप्त कदम नहीं उठा रहा। अब आडवाणी की इस टिप्पणी का क्या मतलब? यही ना, एक भारत बंद, और जिम्मेदारी की इतिश्री। सो जब विपक्ष रस्म निभा चुप हो जाएगा। तो सरकार से राहत की क्या उम्मीद। महंगाई हो या आंतरिक सुरक्षा का मसला या फिर विदेश नीति। मनमोहन सरकार ढुलमुल ही दिखती। अब पाकिस्तान ने 17 आतंकी संगठनों पर बैन लगाया। टास्क फोर्स बनाकर आगे बढऩे की तैयारी की। इसी में मुंबई हमले से जुड़ी जमात-उद-दावा भी शामिल। पर पाकिस्तान ने यह कदम भारत के दबाव में नहीं उठाया। अलबत्ता जब पाक खुद आतंक का शिकार हुआ, अमेरिका को खतरा दिखा। तो यह कदम उठाया गया। सचमुच जब अपने देश में आतंक जैसे मुद्दे पर भी राजनीतिक आम सहमति नहीं होगी। तो कूटनीतिक सफलता की उम्मीद ही कैसे। अब इशरत जहां का ही केस देख लो। जब शिवराज पाटिल होम मिनिस्टर थे। तो कोर्ट में हलफनामा दिया, तो इशरत को लश्कर का आतंकी कबूला। पर चिदंबरम के टर्म में हलफनामा पलट गया। अब मुंबई हमले का मुख्य साजिशकर्ता अमेरिका में बंद डेविड कोलमैन हेडली का खुलासा हुआ। तो इशरत जहां तक बात पहुंच गई। हेडली ने खुलासा किया, इशरत लश्कर की आत्मघाती थी। अब हेडली से पूछताछ करने कोई नरेंद्र मोदी की टीम नहीं, अलबत्ता चिदंबरम की एनआईए गई थी। सो कब तक आतंकवाद और मजहब का घालमेल चलेगा? सिर्फ आतंक ही नहीं, नक्सलवाद पर भी ढोंग हो रहा। मंगलवार को होम सैक्रेट्री जीके पिल्लई ने नक्सलवाद के खिलाफ सेना की तैनाती से इनकार कर दिया। पर यह भी कहा, नक्सलवाद के खात्मे में सात साल लगेंगे। तो क्या तब तक खूनी तांडव चलता रहेगा? सरकार इतनी कन्फ्यूज्ड, अब चौदह जुलाई को नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक बुलाई। उधर कश्मीर अलगाववाद की आग में झुलस रहा। मंगलवार को श्रीनगर में बेमियादी कफ्र्यू लग गया। अपने सुरक्षा बलों पर दबाव बनाया जा रहा।
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06/07/2010

Monday, July 5, 2010

जनता सडक़ों पर उतरी, सरकार बेहयाई पर

बहरी सरकार तो आम आदमी का दर्द नहीं ही सुन रही थी। अब अगर सरकार अंधी नहीं, तो शायद भारत बंद की झलक देख ली होगी। विपक्ष के बिखराव का फायदा उठा कीमतें तो बढ़ा दीं। पर विपक्ष के बिखराव के बाद भी बंद का ऐसा असर, सरकार के लिए एक इशारा। लालू-माया तो साथ नहीं आए। रामविलास पासवान हैप्पी बर्थ-डे का केक बनवाने में मशगूल रहे। लेफ्ट ने अलग डफली बजाई। फिर भी बंद सफल रहा, तो यह जनता की ओर से बहरी, गंूगी, अंधी सरकार को संदेश। धरती से आकाश तक महंगाई के खिलाफ जनता ने आक्रोश का इजहार किया। पर महंगाई पर मंथन के बजाए सरकार ने रणनीतिक अभियान छेड़ दिया। शुरुआत तो दो दिन पहले ही हो गई, जब देश भर के अखबारों में सरकारी इश्तिहार छपे। मुरली देवड़ा के मंत्रालय से छपे इश्तिहार में कहा गया- 'भारत बंद, समस्या का समाधान नहीं।' यानी महंगाई से कांग्रेस और सरकार का भी तेल निकल रहा। पर दूरदृष्टा नेतृत्व का अभाव संकट बढ़ा रहा। अगर बंद बेमानी होता, तो सरकार इश्तिहारबाजी नहीं करती। सचमुच ऐसा पहली दफा हुआ होगा, जब विपक्ष के बंद के खिलाफ सरकार ने ऐसे इश्तिहार छपवाए। पर सवाल, अगर भारत बंद समाधान नहीं, तो सरकार ने महंगाई के लिए क्या किया? माना, बंद समाधान नहीं। पर सरकार कभी इश्तिहार देकर यह क्यों नहीं बताती, जबसे अर्थशास्त्री मनमोहन पीएम बने, महंगाई सिर्फ बढ़ती ही क्यों जा रही? पिछले छह साल में कभी भी ऐसा क्यों नहीं हुआ, जब महंगाई कुछ महीनों के लिए भी कम हुई हो और जनता ने राहत की सांस ली हो। आखिर ऐसा क्यों, जो सिर्फ महंगाई बढ़ती ही जा रही? अब भले महंगाई को रोकने को सरकार ने कुछ नहीं किया। पर विपक्ष के बंद के आयोजन ने कम से कम इशितहारबाजी में कुछ नौकरशाहों-नेताओं के वारे-न्यारे तो कर ही दिए। कोई भी इश्तिहार बिना कमीशनखोरी के नहीं छपते। अगर सरकार सचमुच ईमानदार होती, तो करोड़ों रुपए इश्तिहार पर लुटाने की बजाए गरीबी पर चोट करने के लिए खर्च करती। पर सोमवार को बंद के असर ने सरकारी इश्तिहार को धता बता दिया। तो मीडिया के एक तबके में बंद के खिलाफ मुहिम शुरू हो गई। शरद यादव ने तो इसे सरकार मैनेजमेंट का ही हिस्सा बताया। नितिन गडकरी ने भी सवाल उठाए, जब विपक्ष सडक़ पर नहीं उतरता है, तो भी मीडिया सवाल उठाता है। अब सडक़ों पर उतरा, तो भी सवाल उठा रहा। उन ने मीडिया को दोनों हाथों से डफली बजाने वाला करार दिया। सचमुच विजुअल मीडिया ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका को धूमिल किया। अगर सरकार की मनमानी पर एतराज जताना विपक्ष की जिम्मेदारी, तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की। पर जिस दिन पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ीं, उसी शाम से लगातार विजुअल मीडिया मॉडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या में घुसा हुआ। पल-पल की खबर दी जा रही। कहीं चैनल पर ऐसा नहीं दिखा, जो महंगाई के खिलाफ जनता को अपना मीडिया लामबंद कर रहा हो। लगातार विवेका बाबाजी को दिखाते रहे। तो ऐसा लगा, एक विवेका ने अपनी टीवी चैनलों को सचमुच बाबाजी बना दिया। सो बंद को बेमानी बताने वाले मीडिया के सवाल से शरद यादव भडक़े। उन ने पूछा- 'अगर बंद से महंगाई कम नहीं होगी, तो क्या टीवी चैनल पर राखी सावंत के ठुमके और महेंद्र सिंह धोनी की शादी की खबरों से महंगाई कम होगी?' सचमुच अपने मीडिया को शरद यादव ने आईना दिखाया। पर सरकारी हथकंडे का असर यहीं खत्म नहीं हुआ। शाम होते-होते एसोचैम जैसी संस्था ने बंद का आकलन कर दिया। बताया, भारत बंद से दस हजार करोड़ का नुकसान हुआ। पर कांग्रेस की अपनी ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन ने सिर्फ ट्रकों का नुकसान 20 अरब बताया। तो किसी ने बीस हजार करोड़ का नुकसान बताया। यानी बहस का मुद्दा घुमाने की कांग्रेसी कोशिश जमकर हुई। यों बंद सचमुच सही नहीं। पर जब सरकार तानाशाही तेवर दिखाए, तो और क्या उपाय? कैसे इतवार को प्रणव बाबू ने ठसक से कहा- कीमतें वापस नहीं लेंगे। पीएम-देवड़ा तो पहले ही तेवर दिखा चुके। पर आजादी के छह दशक बाद भी देश सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर ही निर्भर क्यों? क्यों नहीं गैस या बिजली आधारित या कोई और विकल्प ढूंढे गए? दीर्घकालिक नीति नहीं, सिर्फ पेट्रोलियम पर टेक्स का बोझ। फिर भी सरकार कीमत बढ़ोतरी को न्यायसंगत ठहरा रही। यह बेहयाई नहीं, तो और क्या? दूध के दाम फौरन बढ़ गए। पर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी बंद का संदेश भांपने के बजाए संवैधानिक पाठ पढ़ा रहे। कहा- 'बंद करना जनविरोधी कदम। विरोध के और भी तरीके हो सकते। विपक्ष संसद में और मीडिया के जरिए आवाज उठा सकता। पर कांग्रेस भूल रही, मनमोहन राज में महंगाई पर संसद में बारह बार बहस हो चुकी। फिर भी महंगाई सचिन की तरह रिकार्ड बनाती गई। सिंघवी ने एक और दलील दी, जब कोई बीमार हो, तो कड़वी दवा जरूरी। अभी न्यूनतम दरें बढ़ाई हैं। पर सिर्फ आम आदमी ही कड़वी दवा क्यों पीये? सरकार या तेल कंपनियां क्यों नहीं? थोथे विकास का राग कब तक? आम आदमी के पेट में अन्न दाना नहीं और सरकार कह रही, आओ कॉमन वैल्थ गेम दिखाएं। कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर ने हाल ही में सवाल उठाया था- 'यह कौन सा गेम हो रहा, जिसके लिए एक लाख कंडोम खेल गांव में स्टोर किए गए?'  अब आप ही सोचो, जब सरकार ऐसी हो, तो बंद हो या आम आदमी की बंदगी, क्या उम्मीद रखेंगे। बंद हो या महंगाई, परेशान तो सिर्फ आम आदमी हो रहा।
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05/07/2010

Friday, July 2, 2010

तो सचमुच महंगी पड़ी अपनी कांग्रेस

तो दुंदुभी बज उठी। पांच जुलाई को महंगाई का पंचनामा होगा, जब समूचा विपक्ष भारत बंद करेगा। सो शुक्रवार का दिन विपक्षी दलों की प्रेस कांफ्रेंस के नाम रहा। नितिन गडकरी, शरद यादव, प्रकाश कारत और एचडी देवगौड़ा ने राजधानी में मोर्चा संभाला। तो राज्यों में विपक्षी दलों की स्थानीय इकाइयों ने। पर अपने लालू अबके भारत बंद में शामिल नहीं। मायावती तो पिछली दफा भी साथ नहीं थीं। पिछली 27 अप्रैल को लोकसभा में महंगाई पर कटौती प्रस्ताव आया। तो सिर्फ मायावती नहीं, दिन के उजाले में उसी दिन भारत बंद के जलसे में शामिल लालू-मुलायम भी सूरज ढलते ही सरकार के साथ हो गए। दिन में नारा दिया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। शाम होते ही नारा बदल गया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है। वैसे भी लालू की पार्टी आरजेडी का राष्ट्रीय वजूद संकट में। सो भारत बंद से लालू का क्या फायदा। उन ने तो दस जुलाई को बिहार बंद का एलान कर रखा। चलो यह भी अच्छा हुआ। कहते हैं ना, तेते पांव पसारिए, जेती लंबी सौर। लालू पिछली बार बिहार की सत्ता से बेदखल हुए। तो मनमोहन की पहली पारी में उम्दा ठौर मिल गया। पर अब न वह देवी रही, न कड़ाह रहा। अब तो लालू सिर्फ कराह रहे। केंद्र में न कांग्रेस पूछ रही, न बिहार में नीतिश के आगे दाल गल रही। पर बिन लालू-माया-पासवान भी अबके भारत बंद की जबर्दस्त तैयारी। पिछली दफा तो बीजेपी ने नखरे दिखाए थे। पर अब समझ आ गया, इतनी गर्मी में अकेले भीड़ जुटाने की कोशिश की। तो फिर कहीं गश खाकर न गिर जाएं। सो सबने एक साथ बंद में शामिल होना कबूल कर लिया। यों पिछली दफा संसद में मुलायम भी लालू-माया के साथ सरकार के साथ खड़े थे। पर अबके पांच जुलाई की तारीख का एलान सबसे पहले मुलायम ने ही किया। यों पहल शरद यादव के नेतृत्व में हुई। तो पहली बार लेफ्ट-बीजेपी साझा सडक़ों पर उतरने को राजी हो गए। पिछली बार बीजेपी की दलील थी, सिर्फ संसद तक ही साथ, सडक़ों पर साथ दिखना वोट बैंक का नुकसान करना होगा। सो पिछली दफा बीजेपी ने अलग रैली की। लेफ्ट की रहनुमाई में तथाकथित तीसरे मोर्चे ने भारत बंद किया। तो मनमोहन सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। अलबत्ता अबके और मन भरके महंगाई बढ़ा दी। सो अबके साथ तो आए, पर होगा क्या। शुक्रवार को सीधे विपक्षी दलों के शीर्ष नेतृत्व ने कमान संभाली। तो मकसद एक ही था, कैसे बंद का श्रेय अपनी झोली में डालें। गडकरी ने तो अपने सभी राज्य यूनिटों से रपट भी ले ली। फिर बताया, भारत बंद एतिहासिक होगा। अब सोचिए, जब अकेले बीजेपी एतिहासिक बंद का दावा कर रही। तो समूचे विपक्ष का बंद क्या पौराणिक कहलाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं, कोई पौराणिक लड़ाइयों का इतिहास टटोलना पड़े। शरद यादव ने तो एलान किया, यह जेपी आंदोलन और 1989 में विपक्षी एकता के बाद महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी एकता की सबसे बड़ी कवायद, और यह बंद सरकार की इस गलतफहमी को दूर कर देगा कि विपक्ष बंटा हुआ है। सो सरकार जो चाहे मनमानी कर सकती। पर विपक्ष की यह एकता कब तक कायम रहेगी? क्या मुलायम भरोसे के लायक? मुलायमवादियों ने तो अभी से ही संकेत देने शुरू कर दिए। कह रहे- देश में कोई मध्यावधि चुनाव नहीं चाह रहा। यानी ममता बनर्जी महंगाई पर कड़ा रुख दिखाएं, तो भी मनमोहन सरकार की सेहत पर कोई खतरा नहीं। आखिर मुलायम किस दिन के लिए दुकान खोले बैठे। तभी तो कांग्रेस हो या मनमोहन के मंत्री, तेवर ऐसे दिखा रहे, मानो, देश में लोकशाही नहीं, हिटलरशाही चल रही। जब कीमतें बढ़ाईं, तो पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने आम आदमी को भगवान भरोसे छोड़ा। पर शुक्रवार को बेंगलुरु में थे, तो वहीं से गरजे। तेल कंपनियां और सरकार बोझ क्यों सहेंगी। सो कीमतें वापस नहीं लेंगे, भले विपक्ष कितना भी विरोध कर ले। उन ने तो विपक्ष पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। पर देवड़ा भूल रहे, महंगाई की मार ही इतनी, आम आदमी भला गुमराह होने वाली बातों पर कहां ध्यान दे पाएगा। अब कांग्रेस का बयान देखिए। इधर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने महंगाई पर कुछ मौजूं सवाल उठाए। पूछा- पीएम को सिर्फ तेल कंपनियों की खस्ता हालत दिखती। क्या जनता की खस्ता हालत नहीं दिख रही? सरकार बताए, उसकी प्राथमिकता आम आदमी है या तेल कंपनी? उन ने सोनिया-राहुल से भी सवाल पूछे। महंगाई रोकने में अर्थशास्त्री पीएम क्यों नाकाम हो रहे। पर कांग्रेस का जवाब सुनेंगे, तो आप भी दांतों तले उंगली दबा लेंगे। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी तो गडकरी के किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाए। पर गडकरी के कद को बौना बता दिया। कहा- गडकरी का राजनीतिक वजन इतना नहीं, जो इस मंच से जवाब दिया जाए। क्या कांग्रेस की नजर में पद की कोई गरिमा नहीं? अगर यही कांग्रेसी फार्मूला, तो फिर यह सवाल मनमोहन को लेकर भी उठ सकता। शायद कांग्रेस अभी भी उसी परंपरा की गुलाम, जहां कोई प्रधानमंत्री तो हो सकता, पर दस जनपथ से बड़ा नहीं। जो सवाल गडकरी ने पूछे, वह सवाल आज आम आदमी की जुबां पर। फिर भी सरकार और कांग्रेस को सिर्फ उन तेल कंपनियों की माली हालत दिख रही, जिनके कर्मचारी मोटी तनख्वाह-भत्ते पाते। हर साल लाभांश का चैक वित्तमंत्री को सौंपते, फोटू खिंचवाते। पर वह आम आदमी नहीं दिखता, जिसके पेट और पीठ में फर्क करना मुश्किल हो चुका। सो महंगी पड़ी कांग्रेस भले बीजेपी का गढ़ा हुआ नारा। पर आज दिल यह कहने को मजबूर, सचमुच महंगी पड़ी कांग्रेस।
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02/07/2010

Thursday, July 1, 2010

राजनीति में क्रिकेट मंत्री, क्रिकेट में कृषि मंत्री

तो शरद पवार अब इंटरनेशनल हो गए। गुरुवार को आईसीसी की अध्यक्षी संभाल ली। तो इस पद पर पहुंचने वाले दूसरे भारतीय हो गए। यों जगमोहन डालमिया जब आईसीसी से रिटायर हुए, तो बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन की कुर्सी भी बामुश्किल नसीब हुई। पर पवार राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी। सो कब, कहां और कौन सा मोहरा बिठाना, डालमिया से बेहतर जानते। तभी तो बीसीसीआई के अध्यक्ष शशांक मनोहर, पर कोई भी फैसला बिना पवार के नहीं होता। पवार की यही खासियत, जिस रास्ते से होकर गुजरते, वहीं तूती बोलती। चाहे महाराष्ट्र की सियासत हो या यूपीए सरकार में कम सीट होने के बाद भी रुतबा या फिर दुधारू गाय बीसीसीआई। पर विवाद से भी पवार का गहरा नाता। आईपीएल के हमाम में कैसे पवार की पोल खुली, सबको मालूम। बतौर कृषि मंत्री कामकाज भले कांग्रेस को रास नहीं आए। पर यह पवार का पावर ही, जो दूसरे टर्म में भी कृषि के साथ-साथ खाद्य आपूर्ति का भारी-भरकम मंत्रालय लिए बैठे हुए। अबके पवार का पावर इंटरनेशनल हुआ। पर वहां भी विवाद की छाया पड़ गई। आस्ट्रेलिया के पूर्व पीएम जॉन हावर्ड उपाध्यक्ष बनना चाहते थे। ताकि दो साल बाद पवार का उत्तराधिकार मिल सके। पर एफ्रो-एशियाई देशों ने विरोध किया। हावर्ड की काबिलियत पर सवाल उठाए। तो आईसीसी ने भी आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के वोट से नए नाम मांग लिए। सो हावर्ड के हिमायती मैल्कम स्पीड खफा हो गए। स्पीड खुद आईसीसी की कमान संभाल चुके। पर 2008 में विवादों के साथ स्पीड का टर्म खत्म हुआ। अब हावर्ड की दावेदारी क्रिकेट की समझ न होने की वजह से खारिज हुई। तो मैल्कम स्पीड ने पवार पर निशाना साधा। कह दिया, पवार भी आईसीसी अध्यक्ष बनने के लायक नहीं। यों स्पीड की टिप्पणी महज भड़ास निकालना। पर स्पीड ने एक और बात कही- 'आईसीसी के अध्यक्ष बनने वाले शरद पवार भारत सरकार में कृषि मंत्री हैं, जो एक अरब बीस करोड़ लोगों के पेट भरने का गंभीर पूर्णकालिक काम है। वह अच्छे और साफ-सुथरी छवि के व्यक्ति हैं, लेकिन वह आईसीसी अध्यक्ष के तौर पर पार्ट टाइम ही काम करेंगे और अगर मेरी मानें, तो उन्हें क्रिकेट प्रशासन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। इसको देखते हुए कहा जा सकता है कि वह आईसीसी अध्यक्ष बनने के लायक नहीं हैं।' यों स्पीड ने बात सही कही, पर अपनी नजर में महज कल्पना। शरद पवार भले एक अरब बीस करोड़ लोगों के पेट से जुड़ा मंत्रालय संभाल रहे हों, पर दिल और दिमाग क्रिकेट में ही बसा। जब बीजेपी में प्रमोद महाजन जिंदा थे, तब आडवाणी-राजनाथ की ट्विन भारत सुरक्षा यात्रा चल रही थी। तब मुंबई-पुणे-सोलापुर के रास्ते में कई जनसभाएं हुईं। लोग आडवाणी से अधिक प्रमोद का भाषण सुनना पसंद करते थे। याद है, तभी प्रमोद महाजन ने शरद भाऊ को क्रिकेट मंत्री का तमगा दिया था। तब पवार बीसीसीआई के अध्यक्ष थे। यानी मैल्कम स्पीड ने जो 2010 में कहा, प्रमोद महाजन 2006 में ही खारिज कर चुके। पवार अगर सचमुच अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाते, तो देश खाद्यान्न संकट के कगार पर खड़ा नहीं होता। सही मायने में पवार का पार्ट टाइम क्रिकेट नहीं, अलबत्ता मंत्री पद की जिम्मेदारी। पर राजनीति के धुरंधर पवार के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी। जो क्रिकेट वाले कृषि मंत्री बता रहे, तो आम जनता और विरोधी 'क्रिकेट मंत्री'। पर पवार की किस्मत देखिए, गुरुवार को ही आईसीसी में पदभार संभाला। तो इधर महंगाई की दर चार फीसदी गिर गई। यों यह दर पेट्रोल-डीजल-गैस के दाम बढऩे से पहले की। अभी तो दाम बढ़ोतरी ने अपना असर दिखाना शुरू ही किया। साथ में सियासत भी चल रही। गुरुवार को बीजेपी ने देश भर की 26 जगहों पर एक साथ रैली का एलान किया था। पर कई जगह रैली रद्द करनी पड़ी। तो कई जगह ऐसी, जहां सूचीबद्ध नेता पहुंचा ही नहीं। सो शाम वाली रैलियों में दिन वाले कई नेताओं को ओवर टाइम करना पड़ गया। यानी महंगाई पर विरोध की सिर्फ शोशेबाजी हो रही। अब तो कांग्रेस ने विरोध को फुस्स करने की नई रणनीति बना ली। सोनिया गांधी की रहनुमाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल ने खाद्य सुरक्षा और सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ वाले बिल पर फुर्ती दिखा दी। सोनिया ने दो कमेटी बना दीं। ताकि किसी भी तरह मानसून सत्र में दोनों बिल लाकर विपक्ष की धार भोंथरी कर सके। इतना ही नहीं, खाद्य सुरक्षा बिल में सोनिया मार्का लगाने को अब 25 किलो की जगह 35 किलो अनाज मुहैया कराने का प्रस्ताव। पर वाजपेयी सरकार में बीपीएल को 35 किलो ही अनाज मिलता था। सो सोनिया मार्का में नया कुछ नहीं। पर महंगाई से ध्यान बंटाने की इससे कारगर कोई और रणनीति भी नहीं। वैसे भी महंगाई पर घेरे में सिर्फ कांग्रेस। पवार तो अब आईसीसी चले गए। वैसे भी पवार कई दफा कह चुके, वह कोई ज्योतिषी नहीं, जो बता सकें, महंगाई कब कम होगी। अपने मुरली देवड़ा तो महंगाई को भगवान भरोसे छोड़ चुके। मनमोहन सरकार के मंत्रियों के कहने ही क्या, जब-जब मुंह खोलते, महंगाई को सिर्फ बढ़ाते। पवार ने दूध, चीनी, प्याज, आलू, दाल, गेहूं, चावल पर जब-जब बयान दिए, महज हफ्ते भर में कीमतें बढ़ गईं। अब तो मनमोहन भी खम ठोककर कह रहे, सब्सिडी का बोझ सरकार नहीं उठाएगी। यानी महंगाई के बोझ तले दबी जनता जमींदोज होने को तैयार हो जाए। पर पवार के लिए क्या कहेंगे। जो राजनीति में तो क्रिकेट मंत्री होने का आरोप झेल ही रहे। तो क्रिकेट वाले भी क्रिकेट का पार्ट टाइमर बता रहे।
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01/07/2010