Monday, January 18, 2010

'गर अमर समाजवादी, तो पूंजीवादी कौन?

इंडिया गेट से
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 संतोष कुमार
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         कॉमरेड ज्योति बसु की अंतिम यात्रा में मंगलवार को सोनिया, आडवाणी, गडकरी जैसे दिग्गज पहुंचेंगे। यों राजनीति की अच्छी पहल। कम से कम मृत्यु के बाद तो विरोध नहीं। जब केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद का 1998 में निधन हुआ। तो रायसिना हिल में अटल बिहारी वाजपेयी उसी दिन 19 मार्च को शपथ ले रहे थे। आडवाणी पहली बार होम मिनिस्टर बने। तो वाजपेयी ने नंबूदरीपाद की अंतिम यात्रा में सरकारी नुमाइंदा भेजना चाहा। आडवाणी ने विचारधारा को किनारे रख खुद जाने की इच्छा जताई। अब वही मिसाल ज्योति दा के निधन पर। सो लग रहा, राजनीति में थोड़ा लोक-लिहाज अभी बाकी। वैसे ज्योति दा वाम राजनीति के पुरोधा रहे। सो उनकी कमी हमेशा खलेगी। भले कई राजनीतिक दलों के विचार ज्योति दा से न मिलते हों। पर अंदर खाने उनकी कार्यशैली के कायल सभी। खास तौर से बंगाल में कैडर खड़ा करने की कला। जब 2004 में वाजपेयी सत्ता से हटे। तो वर्करों की निराशा देख बीजेपी को बंगाल से सीख लेने की नसीहत दी थी। सो लोगों के दिलों में खास जगह बनाने वाले ज्योति दा को अपनी भी श्रद्धांजलि। पर श्रद्धांजलि में भी कोई राजनीतिक चालबाजी दिखाए। तो आप क्या कहेंगे? यही ना... अमर सिंह। जी हां, अपना इशारा भी समाजवाद के नए-नए पहरुआ बाबू मोशाय अमर सिंह की ओर। अमर को तो बस मौका मिलना चाहिए अपनी वाणी सुनाने का। सो ज्योति दा को श्रद्धांजलि तो दी। पर मुलायम सिंह का कुनबा भाव नहीं दे रहा। तो कांग्रेस में ठौर ढूंढ रहे। सो ब्लॉगिए अमर ने लिख दिया- 'पीएम पद ठुकराने जैसा बड़ा बलिदान 1996 में ज्योति बसु के बाद 2004 में सोनिया गांधी ने किया।'  यों ये वही अमर सिंह हैं, जिन ने 18-19 मई 2004 को कसमें खाई थीं। जब बिन बुलाए अमर-मुलायम कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ दस जनपथ चले गए। पर भाव तो छोडि़ए, कांग्रेसियों ने अमर को ऐसा दुत्कारा। खाना-पानी के बजाए कड़वा घूंट पीकर लौटे। फिर आदतन मीडिया के सामने राग। अब कभी दस जनपथ नहीं जाऊंगा। पर अमर अपनी बात पर कायम रह जाएं। तो फिर काहे के अमर। यों आखिरकार मुलायम के कुनबे ने बेदखल कर दिया। मुलायम ने अमर का इस्तीफा मंजूर कर लिया। तो अब अमर सिंह का क्षत्रिय खून उबाल मार रहा। सौ-सौ जूते खाकर भी सपा में रहने की रार ठान ली। प्रेस कांफ्रेंस की। तो संजय दत्त और मुस्लिम चेहरों की फौज भी साथ लाए। ताकि मुलायम को चिढ़ा सकें। अब देश भर में क्षत्रिय सम्मेलन भी करेंगे। यों अपने जसवंत सिंह राजस्थान में यह नुस्खा अपना चुके। सो अपना तो यही कहना- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी। अब जरा खुद को शुरुआती कांग्रेसी कहने वाले और सोनिया के मुरीद अमर को कांग्रेस की सलामी देखिए। अपने दिग्गी राजा अर्जी डालने की सलाह दे चुके। पर अमर को जुबानी जंग में जवाब देने वाले सत्यव्रत चतुर्वेदी का अंदाज ही कुछ और। अमर को चिरकुट उन ने ही कहा था। अब कह दिया- 'जब अमर खुद को बीमार कह रहे। तो कांग्रेस में क्यों आना चाहते हैं। क्या कांग्रेस कोई सराय या नर्सिंग होम है? वाकई अमर को इलाज की जरूरत है।' यह तो रहा कांग्रेसी अंदाज। पर सही मायने में इलाज मुलायम ने कर दिया। अमर ने छह जनवरी को इस्तीफा भेजा। तो मुलायम ने सोचा, मान जाएंगे। पर अमर ब्लैकमेलिंग को उतर आए। तो शायद मुलायम का समाजवादी मन होश में आया। यों कहते हैं- बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया। पर मुलायम ने अबके कहावत झुठला दी। अमर के साथ मुलायम परिवार की जंग में आखिर जीत परिवार की हुई। मुलायम ने भी खम ठोक दिया। कहा- 'अमर पर अब कोई बात नहीं। मैं आगे देखता हूं, पीछे नहीं।'  यानी अमर को इशारा- जो जी में आए, कर लें। सो अमर तो धड़ाम से जमीन पर आ गिरे। कहां मुंबई से ही दुबई लौटने की सोची थी। अब सोमवार को सीधे दिल्ली आ गए। पर अभी भी बिना जूता खाए सपा छोडऩे को तैयार नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे पंचों की बात सिर-माथे, पतनाला वहीं रहेगा। अब खुद को आजाद महसूस कर रहे। सो न कुछ बोलेंगे, न कुछ करेंगे। बाकायदा मुलायम को थैंक यू भी बोला। पर बौखलाहट और पैसे का जोर कहां चुप रहने देगा। सो अमर ने कुनबा-ए-मुलायम को यदुकुल कहा। मुलायम पर व्यंग्य कसने में कोर-कसर नहीं छोड़ी। अमरवाणी का दर्द-ए-निचोड़ यही। खून के रिश्ते के आगे दोस्ती हार गई। वर्कर नहीं, परिवार बड़ा हो गया। अब दोनों गुर्दे बदल गए। जख्मी सिपाही बन गया। तो योद्धा मुलायम पीछे मुड़कर जख्मी सिपाही को क्यों देखेंगे। अब अमर सिंह प्रासंगिक नहीं। सो सहानुभूति क्यों जताएंगे मुलायम। यानी अपनी हैसियत अमर को भी दिखने लगी। सो आखिर में अमर की जो टिप्पणी लिख रहा। उसे पढ़ हंसना मत। अमर ने कहा- 'अब मैं मुलायमवादी नहीं, समाजवादी बनूंगा।' आप सोचो, गर अमर जैसे लोग समाजवादी। तो पूंजीवादी और दलाली व्यवस्था के पहरुआ कौन? अमर ने सोशलिस्ट मोहन सिंह की पैसे से मदद की। तो सोचा, समाजवाद जेब में। तभी तो मोहन सिंह ने आलोचना क्या कर दी। अमर इलाज के लिए मोहन को दी मदद वापस मांगने लगे। कहा- पहले पैसे लौटाओ, फिर आलोचना करना। सो अमर का समाजवाद आप खुद ही देख लो।
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18/01/2010