इंडिया गेट से
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26/11 के गम में हो गई
अथ श्री महंगाई कथा
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संतोष कुमार
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शहीदों को शत शत नमन। आतंक के खिलाफ लड़ाई में देश की जनता एकजुट हो चुकी। भले संसद में सियासत हावी रही। पर देश भर में सड़कों पर जनता ने श्रद्धा की लौ जलाई। संसद में चेयर से प्रस्ताव आया। समूचे सदन ने मौन श्रद्धांजलि दी। पर 26/11 की घटना से उमड़ी जनभावना नेताओं को हिला चुकी। याद है ना, मुंबई हमले के बाद देश भर में जनता सड़कों पर उतरी। तो नेता घरों में दुबक गए थे। दबी जुबान कह रहे थे, हमारा क्या कसूर। पर इतना बड़ा हमला देश को दहला चुका था। आखिर मु_ïीभर आतंकी कैसे तमाम सुरक्षा इंतजामात का बलात्कार कर साजिश को अंजाम दे गए। सो जनता ने समूची राजनीतिक व्यवस्था को आड़े हाथ लिया। अब बरसी के मौके पर मीडिया से लेकर जनता ने श्रद्धांजलि का बीड़ा उठाया। तो अपने नेताओं को शायद नहीं सुहा रहा। सो गुरुवार को बीजेपी के आहलूवालिया काफी भड़के दिखे। संसद पहुंचे, तो मीडिया ने श्रद्धांजलि के दो शब्द मांगे। पर आहलूवालिया ने ज्ञान उड़ेल दिया। आहलूवालिया का गुस्सा, 26/11 को देश में और भी घटनाएं हुईं। पर सिर्फ मुंबई हमले को ही क्यों याद कर रहे? भले आहलूवालिया की भावना सही। उन ने जो बात कही, वह भी सही। पहले बोले- 'देश में कई ऐसी घटनाएं होती रहतीं। पर आप सिर्फ ताज की घटना इसलिए हाईलाइट कर रहे, क्योंकि वहां बड़े लोग मारे गए।' सो दिन भर खूब सुर्खियां बनीं। पर बाद में उन ने नई दलील जोड़ दी। कहा- '26 नवंबर 1949 को देश ने संविधान को स्वीकार किया। सो आज साठवीं सालगिरह। पर मीडिया उसे क्यों भुला रहा?Ó वाकई आहलूवालिया ने अच्छी बात याद दिलाई। मीडिया और देशवासियों को आहलूवालिया का साधुवाद कहना ही चाहिए। पर माननीय आहलूवालिया जी, जनता किस संविधान को याद करे? उस संविधान को, जिसका आप नेताओं ने मिलकर बैंड बजा दिया। या उस संविधान को, जिससे बड़ा नेता खुद को माने बैठे। अब तो आम जनता राजनीतिक रसूख वालों को ही माई-बाप मानने लगी। अगर नेता चाह ले, तो संविधान में संशोधन कर बल्ब को लालटेन बता दे और लालटेन को बल्ब। सो आहलूवालिया तो सिर्फ प्रतीक। अपने नेताओं का यह दर्द समझना कोई बड़ी बात नहीं। नेताओं को डर सताने लगा, चिंगारी कहीं शोला न बन जाए। सो मुद्दा कोई भी हो, नेता सियासत की लौ बुझने नहीं देते। तभी तो बीजेपी ने लोकसभा में राई को पहाड़ बना दिया। जीरो ऑवर में आडवाणी ने 26/11 के पीडि़तों को मुआवजे में देरी का सवाल उठाया। बाकायदा आंकड़े बताए। तो आडवाणी सिर्फ सुझाव के अंदाज में बात रख रहे थे। पर नंबर बढ़ाने की होड़ में अनंत कुमार ने मोर्चा संभाल लिया। जिद ठान ली, सदन के नेता प्रणव मुखर्जी जवाब दें। पर प्रणव दा ने कह दिया- 'मैं खास तौर से नेता विपक्ष को सुनने चैंबर से सदन में आया। सो हर मुद्दे पर सरकार के फौरन जवाब की परंपरा न बनाएं।Ó यानी प्रणव दा ने आडवाणी को पूरा सम्मान दिया। पर अनंत अड़ गए। तो दादा का गुस्सा सातवें आसमान पर। बोले- 'बीजेपी ने 26/11 की घटना पर राजनीति की। तो चुनाव में कीमत चुकानी पड़ी। अब फिर सियासत कर रही। सो दुबारा कीमत चुकानी पड़ेगी।Ó पर प्रणव दा के व्यवहार से खफा अनंत ने संसद के बाहर भी मामला उछाला। पर अनंत ने सहानुभूति की बात की। तो पुराने दिन भी याद दिलाने होंगे। पीडि़त परिवारों को सालभर बाद भी मुआवजा न मिलना वाकई दुखद। आंकड़ों के मुताबिक मुआवजे के 403 हकदारों में सिर्फ 118 को ही चैक मिले। कुछ को नौकरी का इंतजार। तो कई अस्पताल में सर्जरी को तरस रहे। अब आडवाणी ने दुख जताया। होम मिनिस्ट्री में अलग सेल बनाने की मांग की। ताकि कभी ऐसी नौबत न आए, जब याद दिलाने के लिए पीडि़तों को दिल्ली आना पड़े। आडवाणी की मांग को राजनीति कहना उचित नहीं। पर राजनीति का चेहरा आप खुद पढि़ए। संसद पर हमला 13 दिसंबर 2001 को हुआ। पर 2004 तक आडवाणी खुद होम मिनिस्टर थे। तब क्यों नहीं सेल बने? संसद हमले के शहीदों के परिजन 2006 तक आवाज बुलंद करते रहे। शहीद मातवर नेगी, जे.पी. यादव, कमलेश कुमारी, नानक चंद, रामपाल सिंह, विक्रम सिंह बिष्टï के परिजनों की मांग 2006 में पूरी हुई। क्या सत्ता में रहने पर नेता फर्ज भूल जाते? सिर्फ विपक्ष में रहने पर ही जनता के दर्द याद आते? सो एक लौ राजनीति की आत्मा को जगाने के लिए क्यों न जलाएं। वरना सरकार हो या विपक्ष, इतनी चालाकी नहीं दिखाते। 26/11 की बरसी की लौ के तले महंगाई पर बहस पूरी करा ली। महंगाई सातवें आसमान को भी पार कर चुकी। पर गुरुवार को बहस हुई। तो लोकसभा में गिने-चुने सांसद बैठे दिखे। देर शाम शरद पवार का जवाब भी आ गया। जवाब तो क्या बताएं। पिछले सत्र में जो कहा, उससे नया कुछ भी नहीं। इतने टन उत्पादन, इतनी खपत। कहीं कोल्ड स्टोरेज की बात। पर हकीकत क्या। थोक मंडी में जिस सामान की कीमत दो से चार रुपए। खुदरा बाजार में वही सामान 25 से 40 रुपए। उत्पादक किसान बद से बदतर हालत में। बिचौलिए की बल्ले-बल्ले। सो महंगाई पर सरकार की वही कहानी। सदन में सवाल उठा, जब घर में नहीं दाने। तो अम्मा क्यों चली भुनाने। जब आम आदमी को राहत नहीं दे सकते। तो किस विकास का ढोल पीट रहे। पर अब तो बेहतर यही, अपने नेतागण महंगाई का नाम बदलकर सस्ताई रख दें। संविधान संशोधन कर महंगाई शब्द पर बैन लगवा दें। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
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26/11/2009
Thursday, November 26, 2009
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