Monday, January 31, 2011

गर मैं चोर, तो तू डाकू, जय हो लोकतंत्र की!

लोकतंत्र की आड़ में तानाशाही के दिन अब लद चुके। काहिरा की कहानी इसकी ताजा मिसाल। मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने जन दबाव में नई सरकार बना दी। पहली बार उपराष्ट्रपति भी बनाया। पर जनता ने मुबारक को सत्ता से विदा करने का मन बना लिया। सो आंदोलन थमने का नाम नहीं। पर मुबारक तीन दशक से कुर्सी से ऐसे चिपके हुए, हटने का नाम नहीं ले रहे। आंदोलन कुचलने को तानाशाही तरीका अख्तियार कर लिया। पर इतिहास साक्षी, आखिर में जीत जन आंदोलन की ही होती। सो लोकतंत्र को बपौती समझने वालों के लिए ऐसे आंदोलन एक सबक। जैसे हुस्नी मुबारक कुर्सी छोडऩे को राजी नहीं। कुछ वैसे ही अपने सीवीसी पी.जे. थॉमस। सुप्रीम कोर्ट के सवालों और देश भर में हो रही फजीहत के बावजूद थॉमस ताल ठोक कर कह रहे- मैं तो सीवीसी, इस्तीफा क्यों दूं। मनमोहन सरकार भी समझ नहीं पा रही, थॉमस पर क्या रुख अपनाए? कभी बचाव में उतरती, तो कभी सिट्टी-पिट्टी गुम। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में एटार्नी जनरल जी.ई. वाहनवती ने दो-टूक झूठ कह दिया- थॉमस की नियुक्ति करने वाले पैनल के सामने चार्जशीट का मामला संज्ञान में नहीं लाया गया। सो बतौर नेता प्रतिपक्ष पैनल में शामिल सुषमा स्वराज ने फौरन मोर्चा खोल दिया। सरकार पर झूठ बोलने का आरोप लगा, खुद हलफनामा दाखिल करने का एलान कर दिया। पर अगले दिन कांग्रेस ने नया पैंतरा आजमाया। दलील दी- मिनिट्स में चार्जशीट की चर्चा नहीं। पर हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। सुषमा स्वराज ने थॉमस की नियुक्ति के फैसले पर दस्तखत के साथ ही लिख दिया था- आई डिसएग्री। यानी बिना चर्चा के कोई ऐसा क्यों लिखेगा। अब सोमवार को खुद होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने खुलासा कर दिया- सुषमा स्वराज ने जो कहा, वह सोलह आने सही। पैनल ने थॉमस के चार्जशीट पर चर्चा की थी। पर बहुमत से थॉमस की नियुक्ति का फैसला लिया गया। चिदंबरम ने एक और बात कही- स्वाभाविक रूप से कोई महत्वपूर्ण बात हुई होगी। जिस पर सुषमा असहमत रही होंगी। जब चर्चा हुई होगी, तभी असहमति की बात आई। याद रखिए, बिना चर्चा के असहमति का सवाल ही नहीं उठता। अब होम मिनिस्टर के इस बयान के बाद कांग्रेस क्या कहेगी? चिदंबरम ने तो मिनिट्स की दलील भी खारिज कर दी। कहा- मिनिट्स में चर्चा का ब्यौरा नहीं, सिर्फ फैसला लिखा होता। पर चिदंबरम ने एक बार फिर थॉमस की नियुक्ति को जायज ठहराया। अब एटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा, उसे किसकी दलील मानें? अगर सुषमा ने कोर्ट में हलफनामा दाखिल करने का एलान न किया होता। तो सरकार अपने ही एटार्नी जनरल की राय को खारिज नहीं करती। सुषमा कोर्ट जाएं, उससे पहले ही सरकार ने सच कबूल लिया। पर झूठ बोलने वाले एटार्नी जनरल का क्या होना चाहिए? यों अब ए.जी. के बचाव में कहा जा रहा- उन ने यह नहीं कहा कि पैनल के सामने थॉमस के चार्जशीट की चर्चा नहीं हुई। अलबत्ता उन ने यह कहा कि पेपर और फाइल सर्कुलेट नहीं किए गए। सो फिर वही बात, एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ का सहारा। सोमवार को कांग्रेस ने थॉमस के  बचाव में कई फाइलें खंगाल डालीं। बीजेपी और लेफ्ट को आईना दिखाते हुए खुद पीछे खड़ी हो गई। कांग्रेस के कानूनदां युवा प्रवक्ता मनीष तिवारी खासे तेवर में बोले- थॉमस के खिलाफ चार्जशीट की बात करने वाली बीजेपी ने भी तो वाजपेयी सरकार के वक्त अयोध्या केस में चार्जशीटेड प्रभात कुमार को केबिनेट सैक्रेट्री बनाया था। जबकि आई.के. गुजराल के पीएम रहते जब प्रभात कुमार का मामला आया था, तो इसी चार्जशीट के आधार पर खारिज कर दिया गया था। फिर तिवारी ने केरल की वामपंथी सरकार को भी याद दिलाया- कैसे केरल सरकार ने अक्टूबर 2006 में थॉमस के खिलाफ मुकदमे की अनुमति मांगी थी। पर सितंबर 2007 में इसी वामपंथी सरकार ने थॉमस को केरल का चीफ सैक्रेट्री बना दिया। अब इसे मनीषियाई दलील कहें या खिसियाई? ऐसी दलीलों का साफ मतलब- अगर मैं चोर, तो तू डकैत। क्या यह लोकतंत्र की आड़ में मनमर्जी नहीं? आखिर सरकार क्या संदेश देना चाह रही? महंगाई, भ्रष्टाचार ने देश की साख पर बट्टा लगा दिया। स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा से फिर पूछताछ हुई। पर अभी तक ठोस कार्रवाई नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट में दस फरवरी को स्टेटस रिपोर्ट देने के लिए सीबीआई तेजी का दिखावा कर रही। इधर सिब्बल की बनाई जस्टिस पाटिल कमेटी ने प्रक्रिया की खामी पर अपनी रपट सौंप दी। राजा समेत कई अधिकारियों को जिम्मेदार बताया गया। पर अभी पूरी रपट का खुलासा होना बाकी। रपट सामने आएगी, तो राजनीति भी तय। पर सवाल, देश इस गर्त से कब निकलेगा? भ्रष्टाचार-महंगाई ने निवेश का माहौल बिगाड़ा। नरेगा के ढोल तो सुहाने, पर अब तक बंटे एक लाख छह हजार करोड़ में साठ फीसदी बांटने वाले ही खा गए। श्रम, बीमा, बैंकिंग सुधार अभी भी अधर में। सरकार और सोनिया की एनएसी में एक राय नहीं। रही-सही कसर पर्यावरण के नाम पर जयराम पूरी कर रहे।
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31/01/2011

Friday, January 28, 2011

मनमोहन नहीं, केरल कैडर की सरकार!

 सौ, लाख नहीं, अब खरबों टके का सवाल- पी.जे. थॉमस पर सरकार क्या रुख अपनाएगी? शुक्रवार को दिन भर कांग्रेस खेमे में मत्थापच्ची होती रही। देर शाम हाई-पॉवर वाली कोर ग्रुप की थॉमसाई मीटिंग तय थी। पर आखिरी वक्त में मीटिंग रद्द हो गई। वजह सोनिया गांधी का बीमार होना बताया गया। अस्वस्थता की वजह से ही सोनिया गणतंत्र दिवस समारोह में भी शिरकत नहीं कर पाई थीं। अब शायद सोनिया तो दो-चार दिन में भली-चंगी हो जाएंगी। पर सवाल- सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से बीमार मनमोहन सरकार स्वस्थ कैसे होगी? कोर ग्रुप की मीटिंग रद्द हुई। तो पीएम-प्रणव की अकेले में गुफ्तगू हुई। विधि मंत्री वीरप्पा मोइली तो गुरुवार रात ही पीएम से मिल आए। पर थॉमस मुद्दे का हल नहीं मिल रहा। सुषमा स्वराज ने मैदान में कूद सरकार की मुसीबत और बढ़ा दी। अब अगर सुषमा ने बतौर सिलेक्शन कमेटी मेंबर हलफनामा पेश कर दिया। तो सीधे पीएम और होम मिनिस्टर भी पक्षकार हो जाएंगे। सो शुक्रवार को कांग्रेस ने ऑफ द रिकार्ड नया झूठ बांचा। सुषमा ने पीएम-चिदंबरम के सामने थॉमस के खिलाफ चार्जशीट का मामला उठाया था। पर कांग्रेस की ताजा दलील- मीटिंग की मिनिट्स में चार्जशीट की कोई बात नहीं। सुषमा ने चार्जशीट की बात तब उठाई, जब कमेटी थॉमस का नाम एप्रूव कर चुकी थी। अब एक झूठ को छुपाने के लिए कांग्रेस कितना झूठ बोलेगी, आप अंदाजा लगा लें। सुषमा ने एप्रूवल लेटर पर दस्तखत करते हुए ऊपर लिख दिया- ‘आई डिसएग्री’। यानी सुषमा ने असहमति जताई। तो इसका आधार भी दस्तखत से पहले ही बताया होगा। यानी थॉमस के नाम पर मनमोहन-चिदंबरम की ओर से मोहर लगने के बाद सुषमा ने जो समझदारी दिखाई, कांग्रेस बचाव का रास्ता नहीं ढूंढ पा रही। अब आडवाणी ने भी खुलासा किया- जब मैं विपक्ष का नेता था, तभी ऐसे विवाद शुरू हो गए थे। तो मैंने सरकार से कहा था, जिस पैनल में विपक्ष के नेता को रखे जाने का नियम, उसमें किसी भी नियुक्ति के लिए एक से अधिक नाम होना चाहिए। पर सरकार ने सीवीसी के लिए तीन नाम जरूर रखे। फिर भी थॉमस के नाम पर ही अड़ी रही। जबकि सुषमा ने थॉमस को छोड़ बाकी दो नामों में से किसी को भी चुनने का सुझाव दिया था। ये सब बातें अब एक तथ्य, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। पर सवाल- सरकार ने थॉमस नाम पर हठधर्मिता क्यों अपनाई? अब थॉमस गले की फांस बन गए। तो कनफ्यूज्ड सरकार कभी बचाव में उतर आती, तो कभी कदम पीछे खींच लेती। थॉमस को सीवीसी बनाने के लिए सरकार ने खूंटा गाड़ दिया। पर खूंटा उखाडऩे की हिम्मत नहीं। थॉमस ठहरे नौकरशाह। सो नैतिकता को जेब में डाल कुर्सी छोडऩे को राजी नहीं। अब जब सैंया भए कोतवाल, तो भला थॉमस राजनीतिक फायदे के लिए सरकार का मोहरा क्यों बनें? पर थॉमस विवाद ने एक नई थ्योरी शुरू कर दी। आईएएस लॉबी में आजकल दावे के साथ एक गॉसिप चल रहा- थॉमस को हटाना मनमोहन सरकार के बूते में नहीं। वजह- थॉमस केरल कैडर के आईएएस। अब जरा केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर काबिज नौकरशाहों और उनके राजनीतिक संरक्षकों पर गौर करिए। कैबिनेट सैक्रेट्री के.एम. चंद्रशेखर केरल कैडर से। पीएम के प्रिंसीपल सैक्रेट्री टी.के.ए. नायर केरल कैडर से। देश के होम सैक्रेट्री जी.के. पिल्लई केरल कैडर से। देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन केरल से। सीवीसी पी.जे. थॉमस के बारे में तो दोहराने की जरूरत नहीं। देश के योजना आयोग में सैक्रेट्री सुधा पिल्लई केरल कैडर से, रिश्ते में होम सैक्रेट्री जी.के. पिल्लई की पत्नी। यानी देश की बागडोर भले राजनीतिक तौर से मनमोहन संभाल रहे। पर प्रशासन पूरी तरह से केरल कैडर के नौकरशाहों के हाथ। अब सवाल- राजनीतिक संरक्षण के बिना नौकरशाह इतने मजबूत कैसे? सरकार में इतने बड़े पदों पर नियुक्ति क्या बिना दस जनपथ की हरी झंडी के संभव? केरल में जब करुणाकरण ने ए.के. एंटनी के खिलाफ मोर्चा खोला था। तो सिर्फ सोनिया के कहने पर ही एंटनी ने सीएम की कुर्सी छोड़ी थी। अब एंटनी केंद्र में रक्षा मंत्री। पर सोनिया के सबसे विश्वस्त सिपहसालार। जिन बड़ी मीटिंगों में सोनिया शामिल नहीं हो सकतीं, उनकी ब्रीफिंग एंटनी ही सोनिया को करते। भले सरकार में कई जीओएम के मुखिया प्रणव दा हों। पर हर जीओएम में एंटनी जरूर मिल जाएंगे। सच्चाई यही, सोनिया कभी भी प्रणव-चिदंबरम जैसे नेताओं को फ्री हैंड नहीं छोड़तीं। सनद रहे, सो 2008 का एक वाकया भी याद दिलाते जाएं। जब एटमी डील पर लेफ्ट ने समर्थन वापसी का मन बना लिया था। प्रणव दा के घर सीताराम येचुरी फैसलाकुन मीटिंग करने पहुंचे। तो उस मीटिंग में एंटनी भी भेजे गए थे। सो मनमोहन लाख चाह लें, थॉमस को नहीं हटा सकते। बाबा रामदेव ने शुक्रवार को सही फरमाया- मनमोहन व्यक्तिगत तौर से ईमानदार। पर राजनीतिक तौर से नहीं। सचमुच थॉमस मामले पर हुई किरकिरी से अब यही लग रहा, देश में मनमोहन नहीं, केरल कैडर की सरकार चल रही।
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28/01/2011

Thursday, January 27, 2011

थॉमस पर और कितनी थू-थू कराएगी सरकार?

अब तो टमाटर-प्याज-अंडे महंगे हो गए। तो आम आदमी भला गुस्से में क्या खाक बरसाएगा? सो सरकार अपना जूता अपने ही सिर मारने लगी। अपने गणतंत्र दिवस के अगले दिन ही सुप्रीम कोर्ट में सीवीसी पी.जे. थॉमस मामले में सुनवाई हुई। तो मानो, सरकार को सांप सूंघ गया। यों 17 जनवरी को जब हलफनामा दाखिल किया। तो थॉमस को ईमानदार छवि का काबिल उम्मीदवार बताया। फिर थॉमस ने भी कोर्ट के नोटिस का जवाब दिया। तो अपने ऊपर लगे आरोपों को राजनीतिक षडयंत्र का हिस्सा बताया। पर गुरुवार को चीफ जस्टिस एस.एच. कपाडिय़ा की बैंच ने सिर्फ इतना भर पूछा- क्या सरकार को थॉमस के खिलाफ चार्जशीट की जानकारी थी? क्या सीवीसी की नियुक्ति में सही प्रक्रिया का पालन किया गया था? पर अटार्नी जनरल जी.ई. वाहनवती ने जवाब दिया- कोलेजियम के सामने यह मुद्दा नहीं लाया गया, न ही पेश किए गए बायोडाटा में ऐसा कोई पहलू था। यानी कुल मिलाकर सरकार ने थॉमस के खिलाफ चार्जशीट होने की जानकारी से इनकार कर दिया। अब सवाल- थॉमस की नियुक्ति पर कितना थू-थू कराएगी सरकार? सितंबर में जब थॉमस सीवीसी बनाए गए। तो तीन मेंबरी कोलेजियम में सुषमा स्वराज ने अपना विरोध जताया। उन ने केरल के पॉम ऑयल घोटाले में थॉमस के खिलाफ चार्जशीट का जिक्र किया। पर बाकी दो मेंबर यानी पीएम-होम मिनिस्टर ने तय कर लिया था। सो विपक्ष की नेता की ना के बावजूद थॉमस सीवीसी बनाए गए। बीजेपी ने बाकायदा राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाया। थॉमस की नियुक्ति पर दस्तखत न करने की गुहार लगाई। पर तब होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने थॉमस को क्लीन चिट दी थी। सो सात सितंबर को थॉमस की बतौर सीवीसी शपथ हो गई। फिर कांग्रेस ने तो किला फतह करने वाले अंदाज में बीजेपी पर कई दिनों तक लगातार हमले बोले। बीजेपी को संवैधानिक संस्था का मान गिराने वाली करार दिया। अब कांग्रेस बताए, सुप्रीम कोर्ट में वाहनवती ने सच बोला या झूठ? अगर सरकार के संज्ञान में थॉमस के खिलाफ चार्जशीट का मामला नहीं था। तो फिर सवाल सरकार की साख का। जब देश का पीएम और होम मिनिस्टर सीवीसी जैसे महत्वपूर्ण पद पर किसी व्यक्ति को तैनात कर रहे हों और उस व्यक्ति के भूत-वर्तमान का पता न हो। तो ऐसी सरकार से क्या उम्मीद। क्या पता कल को ताजमहल, लालकिला और कुतुब मीनार का टेंडर निकल जाए। फिर सरकार कहे- हमें पता नहीं था। किसी भी सरकारी नियुक्ति से पहले वैरीफिकेशन और सिक्युरिटी क्लीयरेंस की प्रक्रिया निभाई जाती। पर थॉमस के मामले में ऐसा क्यों नहीं किया? यों सीवीसी की नियुक्ति में चौतरफा घिरी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को जानबूझकर झूठ बोला। थॉमस की शपथ से पहले चिदंबरम क्लीन चिट दे चुके। तो शपथ के बाद मनमोहन-चिदंबरम ने खम ठोकते हुए कहा था- हमने सही कदम उठाया। तीन नामों के पैनल में से सबसे उम्दा उम्मीदवार चुना। अब पीएम-एचएम जवाब दें- जब सही कदम उठाया, उम्दा उम्मीदवार चुना। तो अब सुप्रीम कोर्ट में हेकड़ी क्यों नहीं दिखा पा रहे? नियुक्ति के वक्त क्लीन चिट दी। मामला सुप्रीम कोर्ट गया। पहली सुनवाई में ही 22 नवंबर को कोर्ट ने पूछा- एक अभियुक्त सीवीसी कैसे हो सकता? बैंच ने माना, आपराधिक मुकदमा झेल रहा व्यक्ति अगर सीवीसी होगा। तो हर कदम पर सवाल उठेंगे। ऐसा व्यक्ति दूसरे की आपराधिक फाइल को आगे कैसे बढ़ाएगा? पर तब अटार्नी जनरल वाहनवती ने दलील दी थी- अगर नियुक्ति के मूल मानदंड के मुताबिक सवाल उठने लगे, तो संवैधानिक पद पर किसी की भी नियुक्ति नहीं हो पाएगी। पर थॉमस ने तो बाद में निर्लज्जता की सारी हदें पार करते हुए कहा- तेल घोटाले में मेरे खिलाफ भ्रष्टाचार नहीं, सिर्फ आपराधिक मुकदमा। उन ने सुप्रीम कोर्ट की कई तल्ख टिप्पणियों के बावजूद इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। अब फिसल गए, तो हर-हर गंगे कर रही सरकार। सो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी थॉमस विवाद में सीधे कूद पड़ीं। सुप्रीम कोर्ट में अटार्नी जनरल की राय को सफेद झूठ करार देते हुए एफीडेविट डालने का एलान कर दिया। बोलीं- नियुक्ति के वक्त मैंने पॉम ऑयल घोटाले में थॉमस के खिलाफ चार्जशीट का मामला कोलीजियम में उठाया था। लेकिन सच सामने लाने को अब मैं खुद कोर्ट में एफीडेविट दूंगी। सुषमा की बात में दम, क्योंकि बीजेपी ने थॉमस की शपथ से पहले ही यह मुद्दा उछाल राष्ट्रपति से अपील की थी। सो अब कांग्रेस को काटो, तो खून नहीं। गुरुवार को शकील अहमद बोले- यह मामला सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच। पर सुषमा कोर्ट जाना चाहें, तो जा सकतीं। अब थॉमस मामले की सुनवाई अगले हफ्ते होगी। तो पता नहीं सरकार कौन सा नया राग सुनाएगी। थॉमस के खिलाफ चार्जशीट की जानकारी सरकार को शायद तब मिली, जब करुणाकरण का देहांत हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने पॉम ऑयल घोटाले में ट्रायल को हरी झंडी दिखा दी। अब जिस सरकार को अपने मुलाजिम की जानकारी नहीं। वह भला मजबूर जनता की क्या फिक्र करेगी?
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27/01/2011

Tuesday, January 25, 2011

अराजक होता ‘तंत्र’, लुटता-पिटता ‘गण’

अंधा बांटे रेवड़ी, अपनों-अपनों को देय। सचमुच नेताओं ने अपने गणतंत्र को सठियाने को मजबूर कर दिया। सो गणतंत्र के इकसठ साल पूरे होने की पूर्व संध्या पर हर साल की तरह पद्म अवार्ड का एलान हुआ। तो मनमोहन सरकार ने अंधा और रेवड़ी की कहावत फिर चरितार्थ कर दी। गांव के लोगों को पेटू बताकर महंगाई से मुंह चुराने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया पद्म विभूषण हो गए। यानी देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मनमोहन ने अपने दोस्त को नवाज दिया। क्या महंगाई का ठीकरा गांव के गरीबों पर फोडऩा नागरिक सेवा कहलाता? वाजपेयी सरकार में सत्ता की चाबी घुमाने वाले बृजेश मिश्र भी मनमोहन राज में पद्म विभूषण हो गए। एटमी डील पर बीजेपी की नैया डुबो, मनमोहन को पार लगाया। सो देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिल गया। अब नागरिक सम्मान ऐसे बंटेंगे, तो गणतंत्र का क्या सम्मान होगा? सो संकटों से जूझ रहा अपना देश गणतंत्र के बासठवें साल में प्रवेश कर रहा। पर चुनाव में बेरंग हुआ विपक्ष अब तिरंगे से राजनीति का रंग ढूंढ रहा। तो सरकार ब्लैकमनी के मामले में दिल से ब्लैक दिख रही। गणतंत्र की पूर्व संध्या पर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने ब्लैकमनी पर सफाई पेश की। तो एक बार फिर काले चोरों का नाम बताने से इनकार कर दिया। पर दलील दी- जब आयकर विभाग जांच के बाद मुकदमा दायर करेगा। तो नाम खुद-ब-खुद सामने आ जाएंगे। यों प्रणव दा ने माना, पिछले 18 महीने में 15,000 करोड़ रुपए काले धन का पता चला। जिनसे 34,601 करोड़ रुपए की कर वसूली हुई। पर सवाल- क्या सिर्फ टेक्स चोरी की कार्रवाई से ही काला धन सफेद हो जाएगा? काले चोरों ने देश का धन चुराकर विदेशों में जमा किया। तो क्या यह देश के साथ अपराध नहीं? आखिर समझौते की ओट में चोरों का नाम छुपाने का क्या मतलब? अब प्रणव दा ने पांच सूत्री कार्य योजना का एलान किया। पर बीजेपी का आरोप- नाम खुला, तो कांग्रेस को परेशानी होगी। सो सरकार में काले धन पर संकल्प का अभाव। अगर सरकारें ठान लें, तो क्या कुछ नहीं हो सकता। बीजेपी की तिरंगा यात्रा को रोकने की उमर अब्दुल्ला ने ठान ली। सो मंगलवार को लखनपुर बार्डर पर ही यात्रा को रोक दिया। तमाम छोटे-बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। पर गिरफ्तारी के बाद सुषमा-जेतली ने तिरंगे की आन की खातिर खूब तेवर दिखाए। जेतली बोले- आजादी से पहले तिरंगा उठाने वालों को गिरफ्तार किया जाता था। अब जम्मू-कश्मीर में फिर वैसा ही हुआ। सुषमा ने क्रोध का इजहार करते हुए पूछा- हमारा अपराध क्या? हम तो तिरंगा फहराने आए थे। अलगाववादियों की चुनौती स्वीकार की। सो हमें सुरक्षा नहीं चाहिए। भले तिरंगा फहरा कर लाल चौक से हम जिंदा लौटें या मुर्दा। पर सरकार ने तिरंगे पर पहरा लगा अलगाववादियों को संरक्षण दिया। यों सुषमा की दलील सोलह आने सही। पर अपना फिर वही सवाल- लाल चौक पर तिरंगा फहरा लेने से क्या अलगाववाद खत्म हो जाएगा? क्या कश्मीर समस्या सुलझ जाएगी? अगर बीजेपी का जवाब हां, तो फिर सवाल- जम्मू-कश्मीर की सत्ता में भागीदार और केंद्र के छह साल के राज में हर साल झंडा फहरा कर अलगाववाद खत्म क्यों नहीं कर लिया? क्यों आडवाणी हुर्रियत वालों को बुलाकर मेज गोल-गोल करते रहे? कभी कोई नेता आम आदमी के लिए जिंदा या मुर्दा का संकल्प क्यों नहीं लेता? पर बात तिरंगा यात्रा की। तो गिरफ्तारी के बाद सीएम उमर अब्दुल्ला ने भी संदेश दिया। बोले- लाल चौक भारत का हिस्सा। पर शांति भंग नहीं होने दी जाएगी। उमर ने न सिर्फ बीजेपी की यात्रा रोकी। अलबत्ता अलगाववादियों को भी रोकने का बंदोबस्त कर रखा। श्रीनगर के लाल चौक पर जबर्दस्त पहरा। पर चोरी-छिपे बीजेपी के कुछ वर्कर श्रीनगर पहुंच चुके। सुषमा ने खुद इस बात का एलान किया। सो सबकी निगाह गणतंत्र दिवस पर। दिल्ली में राजनाथ सिंह राजघाट पर भूखे पेट धरना दिए बैठे। पर देश का आम आदमी ने कितनी रात भूख में गुजारी, क्या किसी नेता को सही आंकड़ा मालूम? तिरंगे का सम्मान हो, पर तीन रंग के सही अर्थ की तरह। वोट बैंक के लिए रंगों का मतलब नहीं बदलना चाहिए। पर अफसोस, इकसठ साल में ही नेताओं ने गणतंत्र का बैंड बजा दिया। मंगलवार को प्रणव दा ने ब्लैकमनी पर सफाई दी। बीजेपी ने तिरंगे पर रंग दिखाया। महाराष्ट्र के मनमाड़ में तेल माफियाओं ने मिलावट से रोकने वाले एडीएम को जिंदा जला दिया। तो न्याय व्यवस्था की लेटलतीफी, बच्चियों पर जुल्म से आहत उत्सव शर्मा ने गाजियाबाद कोर्ट के बाहर आरुषि के पिता राजेश तलवार पर फरसे से हमला कर दिया। इसी शख्स ने रुचिका गिरहोत्रा कांड के दोषी एसपीएस राठौड़ पर भी हमला किया था। सो अब भले उत्सव शर्मा की मानसिक हालत खराब बताई जा रही। पर अपने गणतंत्र के लिए यह सबक, कैसे इकसठ साल में ही दम घुट रहा। भ्रष्टाचार हो या गरीबी, पानी सिर से निकलने के बाद नया कानून बनाने का सुर्रा भर छोड़ दिया जाता। सो नेताओं की वजह से आज व्यवस्था से भी लोगों का भरोसा उठता दिख रहा। पद्म अवार्ड ने भी मंगलवार को इसका नमूना दिखा दिया। पिछली बार ओलंपिक में जीतने वाले तमाम खिलाडिय़ों को पद्म अवार्ड मिल गए। पर गांव का छोरा और कुश्ती में बाजी मारने वाला सुशील छूट गया था। सो अबके सरकार ने भूल सुधार कर ली। यानी सचमुच आज गणराज्य तो लुट-पिट रहा। तंत्र में बैठने वाले मलाई मार रहे।
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25/01/2011

Monday, January 24, 2011

कर्नाटक से कश्मीर तक बीजेपी की कशमकश

कर्नाटक से कश्मीर तक सियासत का पारा चढ़ गया। गवर्नर की फूंक से कर्नाटक में परेशान बीजेपी कश्मीर में झंडा फहराने की ठान चुकी। सो फिलहाल श्रीनगर से पहले दिल्ली में राजनीतिक सरगर्मी। तिरंगे को लेकर टकराव तय हो चुका। पर तिरंगा विवाद से पहले बात कर्नाटक की। सोमवार को आडवाणी-सुषमा-जेतली संग कर्नाटक से बीजेपी के सभी सांसद राष्ट्रपति के दर पहुंचे। गवर्नर हंसराज भारद्वाज को वापस बुलाने की मांग की। अब तक की उनकी गवर्नरी का किस्सा बांच आडवाणी ने दलील दी- हंसराज भारद्वाज को वापस बुलाने से कर्नाटक, संविधान और लोकतंत्र की सेवा होगी। पर सवाल, क्या येदुरप्पा सरकार का भ्रष्टाचार संविधान और लोकतंत्र की सेवा? यों इसमें कोई शक नहीं, गवर्नर हंसराज भारद्वाज ने जेहादी गवर्नरी क्लब में शामिल होने की ठान रखी। एस.सी. जमीर, सिब्ते रजी, बूटा सिंह, रोमेश भंडारी, रामलाल जैसे गवर्नर इतिहास बना चुके। सो कर्नाटक का गवर्नर बनने के वक्त से ही हंसराज मिशन येदुरप्पा में जुटे हुए। पर अबके उन ने येदुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देकर कुछ गलत नहीं किया। आखिर देश की जनता में यह संदेश जाना चाहिए, सीएम हो या डीएम या पीएम, कानून में कोई विशेषाधिकार नहीं। अगर विशेषाधिकार की चादर ओढ़ सत्ता में बैठे नेता-नौकरशाह मुकदमे से बचने लगे, तो भ्रष्टाचार का खात्मा कैसे होगा? अब बीजेपी गवर्नर के संवैधानिक दायरे की दलील दे रही। गवर्नर को केबिनेट की सलाह पर काम करने को जरूरी बता रही। पर सुप्रीम कोर्ट पहले ही साफ कर चुका- ऐसे मामलों में गवर्नर विवेकाधिकार से फैसला कर सकते हैं। जिसके लिए केबिनेट की सलाह मानना जरूरी नहीं। सो अब कोर्ट से येदुरप्पा को कितनी राहत मिलेगी, यह तो बाद की बात। पर क्या कोई गवर्नर चुनी हुई सरकार के मुखिया के खिलाफ इतना बड़ा फैसला जनता की नब्ज भांपे बिना ले सकता? आंध्र में गवर्नर रामलाल ने एन.टी.आर. की सरकार बर्खास्त की थी। तब क्या हुआ था, यह इतिहास किसी से छुपा नहीं। एन.टी.आर. की सरकार जनदबाव में दुबारा बहाल हुई। अगर कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार की साख कमजोर न पड़ी होती। तो हंसराज ऐसा कदम उठाने से पहले सौ दफा सोचते। क्या बंगाल में तमाम प्रशासनिक विफलता के बाद भी गवर्नर वहां के सीएम के खिलाफ ऐसा कदम उठाने की सोच सकते? ममता बनर्जी यूपीए को समर्थन की एवज में कई बार राष्ट्रपति शासन की मांग कर चुकीं। पर केंद्र सरकार बयानबाजी के सिवा कुछ नहीं कर पा रही। सो असली वजह, बुद्धदेव की लोकप्रियता। पर कर्नाटक में क्या जनता सडक़ों पर उतरी? सचमुच येदुरप्पा सरकार राज्य में शासन के बजाए अपनों के झंझट से ही जूझ रही। सो जनता के बीच सहानुभूति खो चुके। राजनीति के घाघ गवर्नर हंसराज ने मौके की नजाकत भांप छक्का मार दिया। सो बीजेपी बाउंड्री से बाहर गई बाल को ढूंढ रही। कर्नाटक की किचकिच के बीच कश्मीर में तिरंगा फहराने का दांव भी उलटा पड़ रहा। कर्नाटक से जम्मू जा रही ट्रेन को रात के अंधेरे में ही अहमदनगर से वापस मोड़ दिया। जम्मू से लगी राज्य की सारी सीमाएं सील कर दी गईं। सोमवार को अरुण जेतली, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार जहाज से जम्मू पहुंचे। तो रन-वे पर ही रोक दिया गया। वापस जाने का दबाव डाला गया। तो तीनों नेता रन-वे पर ही धरना देकर बैठ गए। सो जब बात नहीं बनी, तो प्रशासन ने तीनों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। इधर दिल्ली में राजघाट पर रात नौ बजे राजनाथ सिंह भूख हड़ताल पर बैठ गए। यानी तिरंगे के लिए राजनीतिक के तरकश से तीर निकलने लगे। पीएम ने तिरंगे पर राजनीति न करने की सलाह दी। तो बीजेपी ने अपनी यात्रा को राष्ट्रभक्ति बताया। पर यह कैसी राष्ट्रभक्ति, जब अपने सहयोगी भी बीजेपी से सहमत नहीं? शरद यादव, नीतिश कुमार ने घाटी की संवेदनशीलता की दलील देते हुए यात्रा को रोकने की सलाह दी। सो सवाल बीजेपी से- अगर मनमोहन और उमर सरकार बीजेपी की कथित राष्ट्रभक्ति के खिलाफ, तो यादव-नीतिश को क्या कहेगी? क्या बीजेपी भूल गई, हाल ही में घाटी किस तरह साढ़े तीन महीने तक सुलग रही थी। अगर बीजेपी अलगाववादियों को मुंहतोड़ जवाब देना चाह रही। तो क्या झंडा फहराने से अलगाववाद दब जाएगा? लाल चौक पर 1992 में मुरली मनोहर जोशी, तो 2008 में बीजेपी के आर.पी. सिंह ने झंडा फहराया था। फिर अलगाववाद खत्म क्यों नहीं हुआ? अगर बीजेपी झंडा फहरा भी ले, तो क्या कश्मीर समस्या सुलझ जाएगी? कश्मीर की संवेदनशीलता और विवाद किसी से छुपे नहीं। सो उन्माद नहीं, राजनीतिक धैर्य से काम लेने की जरूरत। पर लाल चौक की यात्रा रोककर उमर अपना वोट बैंक साध रहे। तो बीजेपी को अपना उल्लू सीधा होता दिख रहा। पर बीजेपी यह भूल रही, आज का युवा राम-रहीम का विवाद नहीं चाहता। तिरंगे को लेकर अपने ही देश में हिंसा का वातावरण नहीं चाहता। सो कहीं ऐसा न हो, युवा वर्ग को जोडऩे की कवायद में बीजेपी की युवा एक्सप्रेस का ब्रेक डाउन हो जाए। अगर लाल चौक पर झंडा फहराना ही राष्ट्रभक्ति, तो जब कश्मीर में फारुक के साथ गठबंधन और केंद्र में छह साल के शासन के वक्त ऐसा क्यों नहीं किया। क्या विपक्ष में रहकर ही राष्ट्रभक्ति याद आती? राष्ट्रीय दल होने के नाते राज्य की संवेदनशीलता को समझना बीजेपी का फर्ज।
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24/01/2011

Friday, January 21, 2011

‘जिम्मेदारी’ तो नहीं, नेता सिर्फ ‘जिमदारी’ समझते

इसे कहते हैं, अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में कैग की रपट को कपिल सिब्बल जमकर कोस रहे थे। कैग के खिलाफ सिब्बल की चार्जशीट कांग्रेस को भी भा गई थी। सो संगठन और सरकार की जुगलबंदी कैग को झुठलाने में जुटी रहीं। पर शुक्र है, शुक्रवार को सिब्बल की शामत आ गई। सुप्रीम कोर्ट ने सिब्बल को कड़ी फटकार लगाई। तो संसद की पीएसी ने भी सवाल उठाए। बीजेपी को हमलावर होने का फिर मौका मिल गया। तो कांग्रेस की बोलती बंद हो गई। सिब्बल की तो सिट्टी-पिट्टी गुम। सो दिन भर सुप्रीम कोर्ट और पीएसी की नसीहत पर मंथन करने के बाद मीडिया से मुखातिब हुए। तो आवाज से हेकड़ी नदारद थी। बोले- हमने अपनी बात जनता के सामने रखी थी। किसी भी संवैधानिक संस्था का निरादर नहीं किया, न किसी के काम में दखल दिया। बतौर टेलीकॉम मंत्री मुझे मेरी जिम्मेदारी का अहसास। मुझे वकील की जिम्मेदारी भी पता। सो मैं संस्था के निरादर की बात सोच भी नहीं सकता। सिब्बल वाणी सुन एक और कहावत याद आई। चौबेजी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौट आए। पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी में वही आशंका, जो सिब्बल की सात जनवरी की प्रेस कांफ्रेंस के बाद हमने भी जताई थी। जस्टिस जे.एस. सिंघवी और ए.के. गांगुली की बैंच ने सिब्बल की टिप्पणी पर कहा- यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मंत्री को जिम्मेदारी का कुछ अहसास होना चाहिए। ताकि उनके बयानों से जांच पर कोई फर्क न पड़े। बैंच ने बाकायदा सीबीआई को हिदायत दी- किसी के भी बयानों से प्रभावित हुए बिना घोटाले की जांच करे। अब कोर्ट सीबीआई को भले लाख हिदायत दे, पर सीबीआई तो सरकार का जिन्न। आका जो हुक्म देता, उसे हर कीमत पर पूरा करता। सो सीबीआई की बात तो होती रहेगी। फिलहाल बात सिब्बल की। जिन ने बतौर टेलीकॉम मंत्री समूचे घोटाले पर परदा डालने की कोशिश की। जब सिब्बल ने सात जनवरी को कैग रपट को झुठलाया, तो मंत्री कम वकील अधिक दिखे। स्पेक्ट्रम घोटाले के आंकड़े पर भारी-भरकम प्रजेंटेशन के साथ खूब दलीलें दीं। और आखिर में जनता को समझाने की कोशिश की, स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ ही नहीं। तब सिब्बल सुप्रीम कोर्ट की कई तल्ख टिप्पणियों को नजरअंदाज कर चुके थे। कोर्ट ने एक बार कहा था- इस घोटाले में जितना दिख रहा, मामला उससे कहीं आगे है। पर पेशे से वकील सिब्बल ने कह दिया- जितना कहा जा रहा, उससे कई गुना कम क्या, कुछ नजर ही नहीं आ रहा। सचमुच सिब्बल ने आंकड़ों का ऐसा जाल बुना था, घोटालों को एक नील 76 खरब के बजाए, सीधा निल (शून्य) बता दिया। सो सिब्बल के अनाड़ीपन पर अब पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने स्पीकर को चिट्ठी लिख दी। मीरा कुमार को लिखी चिट्ठी में उन ने कई गंभीर सवाल उठाए। क्या संसद में रपट पेश हो जाने के बाद विभागीय मंत्री को टिप्पणी करने का हक है? जबकि मंत्रालय को अपना पक्ष रखने के लिए पूरा वक्त दिया गया। क्या कैग के खिलाफ बयान देने से पहले सिब्बल ने पीएम के संज्ञान में या अनुमति ली थी? अगर इसका जवाब हां है, तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाली सीबीआई जांच, पीएसी और कैग का कोई मतलब नहीं। इससे लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। जोशी ने स्पीकर से अनुरोध किया कि मंत्रियों को ऐसी बयानबाजी से रोका जाए। वरना मंत्री और संवैधानिक संस्थाओं में टकराव पैदा हो सकता है। पर क्या इतनी फजीहत के बाद सिब्बल, सरकार और कांग्रेस जिम्मेदारी समझेंगे? सुप्रीम कोर्ट ने जिम्मेदारी की बात की। पर बिहार के कुछ गांवों में जिमदारी शब्द का प्रचलन। जिसका मतलब बपौती से। सो सरकार अपनी जिम्मेदारी क्या समझेगी, यह तो वही जाने। पर इसमें कोई शक नहीं, सत्ता को नेतागण अपनी जिमदारी (बपौती) ही समझते। सो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद सरकार को शर्मिंदगी महसूस हो रही होगी, ऐसा नहीं लगता। जब सुप्रीम कोर्ट ने सीधे पीएम और पीएमओ पर सवाल उठाए। अल्टीमेटम देकर पीएमओ से हलफनामा लिया। सरकार और कांग्रेस को तब शर्म नहीं आई, तो भला अब कैसी उम्मीद? संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब कोर्ट ने सीधे पीएम पर टिप्पणी की। पर समूची कांग्रेस पीएम के बचाव में उतरी। राहुल गांधी ने पीएम से मुलाकात कर यहां तक कह दिया- कोर्ट की टिप्पणी से शर्मिंदगी वाली कोई बात नहीं। सो मौजूदा सरकार को तो जूते और प्याज खाने की आदत हो चुकी। वैसे भी कोर्ट की कितनी परवाह, यह तो ब्लैकमनी के मामले में भी साफ। स्पेक्ट्रम घोटाले में कोर्ट सख्त न होता, तो सरकार बैक फुट पर न होती। समझौतों की दलील देकर काले धन के चोरों का नाम लेने से परहेज। पर अबू सलेम के मामले में भी तो समझौता। तो क्या न्यायपालिका भी कार्यपालिका के समझौते के दायरे में होंगी? ट्रायल कोर्ट ने तो शुरुआत में ही कह दिया था- कोर्ट अपना काम करेगा, सरकार के समझौते से मतलब नहीं। अब शुक्रवार को सिब्बल पर कोर्ट की फटकार से कांग्रेस को सांप सूंघ गया। तो अभिषेक मनु सिंघवी बोले- मामला कोर्ट में, सो टिप्पणी नहीं करेंगे। फिर सवालों की बौछार हुई। तो बोले- मंत्री से पूछिए। पर क्या कांग्रेस अपना कहा भूल गई? आठ जनवरी को इसी मंच से कांग्रेस ने कैग को खरी-खरी सुना सिब्बल की सराहना की थी। पर अब भ्रष्टाचार से लडऩे का महज संदेश देने में जुटे मनमोहन। शुक्रवार को इधर सुप्रीम कोर्ट ने फटकारा। उधर जीओएम की मीटिंग शुरू हो गई।
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21/01/2011

Thursday, January 20, 2011

अब तो जरूरत ‘सरकार पोर्टेबिलिटी सेवा’ की भी

ना, ना करते मंत्रियों ने नई जिम्मेदारी संभाल ही ली। कल तक वीरभद्र सिंह नए मंत्रालय का पता पूछ रहे थे। गिल की आंखें गीली थीं। पर गुरुवार को सूरज खिला, तो मुरझाए चेहरे वाले मंत्री खिलखिलाते मंत्रालय पहुंच गए। भला कौन लाल बत्ती का रुतबा छोडऩा चाहेगा? रही बात महकमे की, तो कौन मंत्री काम करने के लिए बैठता? हां, इस बात का अफसोस हो सकता कि मलाई काटने वाला मंत्रालय नहीं मिला। वरना जो मंत्री या नेता देश व समाज की सेवा करना चाहे, तो किसी विभाग में रहकर कर सकता। पर जैसी राजा की सोच, वैसी दरबारियों की भी। सो जब महंगाई पर मनमोहन हताशा भरी टिप्पणी कर रहे। तो मंत्रियों से कैसी उम्मीद। सो सुषमा स्वराज ने चुटकी ली- अगर पीएम ज्योतिषी नहीं, तो कम से कम अर्थशास्त्री ही बन जाते। महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा। पर सरकार सिर्फ मुंहजोरी कर रही। यही हाल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी। जब तक सुप्रीम कोर्ट ने फटकार नहीं लगाई, मनमोहन को काला धन याद नहीं आया। तो गुरुवार को नए-नवेले केबिनेट की पहली मीटिंग में ही पीएम ने देश का मन मोहने की कोशिश की। काले धन पर केबिनेट मीटिंग में चिंता जताई। पर जरा चिंता के कारण देखिए। मीडिया में लगातार खबरें आ रहीं, इस बात से मनमोहन परेशान। सो प्रणव दा ने प्रेस कांफ्रेंस कर जल्द सफाई देने का भरोसा दिया। पर पीएम ने साफ कर दिया- विदेशी बैंकों के खातों से जुड़ी जानकारी वाले नाम का खुलासा सरकार नहीं करेगी। सरकार समझौते से बंधी हुई। अगर सार्वजनिक कर दिया, तो भविष्य में ऐसी जानकारी नहीं मिल पाएगी। यानी कोर्ट की फटकार से ही सही, कुछ ब्लैकमनी वापस ले आएगी सरकार। पर विदेशों में काला धन छुपाने वालों का काला चेहरा आम जनता कभी नहीं देख पाएगी। यानी राजनीतिक दलों की बल्ले-बल्ले। कुछ पैसा सरकारी खजाने में जाएगा, तो कुछ चुनावी चंदे में। अब नवनियुक्त पहली केबिनेट मीटिंग में काले धन पर कहानी गढ़ दी। पर वोटरों को रिझाने का नया नुस्खा अपना लिया। अब हर साल 25 जनवरी राष्ट्रीय मतदाता दिवस के तौर पर मनेगा। जिसका स्लोगन होगा- वोटर होने पर गर्व, वोट के लिए तैयार। भले देश के वोटरों को चुनाव के बाद सिर्फ झुनझुना मिले। पर अब हर साल झुनझुना बजाने का दिन भी मुकर्रर हो गया। काश, महंगाई-भ्रष्टाचार से निजात दिलाने की भी कोई तारीख मुकर्रर होती। तो देश का वोटर वोट देने के बाद कभी रोने को मजबूर न होता। यों मतदाता दिवस का मकसद वोटरों में जागरूकता पैदा करना। देश के मतदाता 2004 और 2009 के चुनाव में अपनी जागरूकता का परिचय दे चुके। पर क्या सियासत करने वालों का हथकंडा बदला? महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, किसानों की आत्महत्या, ब्लैकमनी पर तो वोट बैंक की राजनीति होती ही थी। अब तिरंगा भी वोट बैंक का हथियार बन गया। तिरंगे की ओट में शुरू हुई बीजेपी की राष्ट्रीय एकता यात्रा गुरुवार को दिल्ली पहुंच गई। तो बीजेपी के युवाओं ने देशभक्ति की हुंकार भरने में अपना गला बैठा लिया। पर बीजेपी के इस तिरंगा प्रेम पर अफसोस तब हुआ। जब मंच के ठीक सामने पहली पंक्ति में दो तिरंगे झंडे एक वर्कर के जूते के नीचे दबे दिखे। जोश में तिरंगे की कोई सुध नहीं। सो बीजेपी मीडिया सेल के एक वर्कर से कहना पड़ा। तब जाकर जूते के नीचे से तिरंगा हटा। अब बीजेपी की इस तिरंगा यात्रा का क्या मकसद? नाम एकता यात्रा, पर काम भावना भडक़ा कर अपना वोट बैंक साधना। सो मौका देख जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला भी मैदान में कूद चुके। उमर को अलगावादियों को साधना। सो बीजेपी की यात्रा को श्रीनगर के लालचौक पहुंचने से पहले ही रोकने की कोशिश करेंगे। बीजेपी दिल से यही चाहती। अगर बीजेपी सचमुच लाल चौक पर झंडा फहराना चाहती। तो इतनी बड़ी यात्रा के तामझाम की जरूरत नहीं थी। शायद बीजेपी वाले भूल चुके होंगे। तीन साल पहले ही बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और जम्मू-कश्मीर के सह प्रभारी सरदार आर.पी. सिंह ने भी लाल चौक पर झंडा फहराया था। आर.पी. सिंह ने राजबाग से लाल चौक तक 1200 मुस्लिम कार्यकर्ताओं के साथ भारत माता की जयकार करते हुए 26 जनवरी 2008 को झंडा फहराया। पर तब ऐसा तामझाम नहीं। सो मकसद तो साफ दिख रहा। अब राजनीति के ऐसे दौर में मतदाता दिवस मनाकर क्या कर लेंगे नेता? जब सुप्रीम कोर्ट चाबुक चलाता, तो भ्रष्टाचार और काले धन पर सरकार की नींद खुल जाती। भ्रष्टाचार का मुद्दा संसद का शीतकालीन सत्र लील चुका। सो 21 फरवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र के पहले मनमोहन ने लोगों को ऐसे संदेश देना शुरू किया। मानो, ब्लैकमनी वापस लाने की पहल अपनी मर्जी से कर रहे। आखिर जनता कब तक एक बार वोट डाल पांच साल की सजा भुगतती रहेगी? नए-नवेले ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख पर सुप्रीम कोर्ट ने दस लाख का जुर्माना लगाया था। एक किसान की खुदकुशी के मामले में बतौर सीएम देशमुख ने अपराधी को बचाने की कोशिश की थी। अब वही गांव-किसान का विकास करेंगे। सो गुरुवार को जब अपने मनमोहन ने देश भर में मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी सेवा लाँच की। तो जेहन में एक सवाल आया- क्या सरकार पोर्टेबिलिटी सेवा 19 रुपए में नहीं मिल सकती? अगर जनता की उम्मीद पर सरकार खरी न उतरे। तो पांच साल के भीतर सरकार बदलने का भी हक हो।
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20/01/2011




Wednesday, January 19, 2011

‘मनमोहिनी रैसिपी’ और जायकेदार केबिनेट!

जब दाल में नमक अधिक हो जाए, तो आप क्या करते हैं? यही ना, पानी गरम किया, दाल में डाला और घोंट दिया। अपने मनमोहन ने केबिनेट फेरबदल में यही काम किया। भ्रष्टाचार और महंगाई ने 20 महीने में ही मनमोहन की दूसरी पारी का जायका बिगाड़ दिया। सो केबिनेट को जायकेदार बनाने की रैसिपी सचमुच लाजवाब। मनमोहन केबिनेट में तीन नए चेहरे शामिल किए गए। तो 32 मंत्रियों के विभाग बदले गए। पांच का प्रमोशन हुआ। पर छुट्टी किसी की नहीं हुई। यानी इतने बड़े फेरबदल में सिर्फ छह के शपथ ग्रहण से ही समारोह निपट गया। अब जरा मनमोहन की ‘केबिनेट रैसिपी’ देखिए। फाइव स्टार मुंबइया कल्चर के विलास राव देशमुख अब गांव के विकास का काम देखेंगे। तो बीस महीने से गांव का काम देख रहे सी.पी. जोशी अब सडक़ नापेंगे। सडक़ वाले कमलनाथ शहर चले गए। शहर वाले जयपाल रेड्डी अब पेट्रोल का कुआं देखेंगे। तो पेट्रोलियम में रहते कंपनियों का प्रवक्ता बने मुरली देवड़ा अब देश की सभी कंपनियों के मामले देखेंगे। महंगाई पर ऊल-जलूल बयान देने वाले कांग्रेसी कोटे के राज्यमंत्री के.वी. थॉमस अब स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री हो गए। सोचो, जब पवार के जूनियर रहते इतना कैरा-कैरा बयान दिया। अब तो पवार नहीं, पॉवर एकला मिल गया। सो सोचो, क्या करेंगे थॉमस। प्याज की कीमत बढ़ी। तो थॉमस ने कहा था- इसमें कोई हैरानी की बात नहीं। इस साल प्याज की बढ़ी। पिछले साल आलू की बढ़ी थी। पर थॉमस ने यह नहीं बताया, अगले साल किसकी बढ़ेगी। सो मनमोहन ने फौरन प्रमोशन दे दिया। अब आप अपनी जेब को पकडक़र अगले साल का इंतजार करिए। यूपी चुनाव को फोकस कर अहम बदलाव हुए। स्वतंत्र प्रभार के दो राज्यमंत्री सलमान खुर्शीद और श्रीप्रकाश जायसवाल को अब केबिनेट रेंक मिल गया। तो केबिनेट मंत्री रह चुके बेनीप्रसाद वर्मा नए चेहरे के तौर पर शामिल किए गए। पर स्वतंत्र प्रभार का राज्यमंत्री बनाया गया। वर्मा पर सपा डोरे डाल रही थी। सो साधने के लिए कांग्रेस ने मंत्रालय को साधन बनाया। यों रुतबा घटने से बेनीप्रसाद वर्मा नाराज या खुश, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। पर फेरबदल में मनमोहन ने खेल मंत्री एम.एस. गिल की गिल्ली उड़ा दी। अब गिल खेल के मैदान से हटकर सांख्यिकीय आंकड़ों की गिनती करेंगे। क्षत्रिय नेता वीरभद्र सिंह की वीरता को धता बता फौलाद (इस्पात) से सूक्ष्म-लघु व मध्य उपक्रम मामलों का मंत्री बना दिया। कभी आंख दिखाने वाले करुणानिधि अबके करुण क्रंदन करते रह गए। मनमोहन ने सहयोगियों के साथ वैसा ही सलूक किया, जैसा कांग्रेस का डीएनए। केबिनेट फेरबदल में एनसीपी को ठगा, तो तृणमूल और डीएमके को ठेंगा दिखाया। गठबंधन में छोटे दलों को उल्लू कैसे बनाया जाता, यह कोई कांग्रेस से पूछे। तृणमूल-डीएमके को कुछ नहीं मिला। बेचारे टी.आर. बालू बाट जोहते रह गए। सहयोगियों के मामले में मनमोहन के तेवर ने उम्मीद दिखाई। शरद पवार का वजन कम किया। तो बदले में प्रफुल्ल पटेल को ठग लिया। नागरिक उड्डयन मंत्रालय से हटा नाम का भारी उद्योग मंत्रालय थमा दिया। अब जरा केबिनेट फेरबदल की राजनीतिक त्रिकोणमिति भी देखिए। अपनों को घोटा, सहयोगियों को लपेटा और यूपी का चुनावी कोटा। पंच सितारा कल्चर वाले विलासराव देशमुख गांव में विकास के साथ-साथ पंचायत भी करेंगे। पर इस दांव से पवार को साधने की भी रणनीति। रोजगार गारंटी का मॉडल यूपीए सरकार ने महाराष्ट्र से लिया। शरद पवार कृषि मंत्रालय संभाल रहे। सो अब गांव-गरीब के मामले पर महाराष्ट्र के दो क्षत्रप आमने-सामने। यानी गांव के विकास पर महाराष्ट्र की राजनीति भारी। पर इस भारी-भरकम खेल में हल्के पड़ गए सी.पी. जोशी। यों सडक़ परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय का रुतबा भी कम नहीं। पर सोनिया-राहुल के ड्रीम प्रोजैक्ट वाली मिनिस्ट्री से विदाई खुद में एक अहम सवाल। यों जोशी का गांव से सडक़ तक का सफर सिर्फ मराठा राजनीति का शिकार नहीं। अलबत्ता सी.पी. जोशी प्रचार में पिछड़ गए। यूपीए-वन में ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद ने नरेगा में जितना बांटा नहीं, उससे अधिक बांचा। पर यूपीए-टू में जोशी ने जितना बांटा, उसका आधा भी नहीं बांच पाए। सो गांव से सडक़ नापने की बारी आई। तो जोशी बोले- सोनिया-मनमोहन ने चुनौतीपूर्ण दायित्व सौंपा। सो आशा पर खरा उतरने का भरसक प्रयास करेंगे। देश में गुणवत्ता वाली सडक़ों का निर्माण मेरी प्राथमिकता होगी। अब सडक़ों की गुणवत्ता तो काम के बाद दिख ही जाएगी। फिलहाल सरकार की गुणवत्ता दिख गई। महंगाई-भ्रष्टाचार के महामौसम में मनमोहन ने केबिनेट बदलाव की पहल की। तो आस बंधी- कुछ ऐसा होगा, सब मोहित हो जाएंगे। पर मनमोहन के बदलाव से भी बीजेपी नहीं बदली। बोली- मनमोहन में किसी को हटाने की हिम्मत नहीं। सचमुच फिलहाल मनमोहन ने डीएमके के दबाव को दबा दिया। पर लगे हाथ भरोसा भी दिया- बजट सत्र के बाद फिर होगा फेरबदल। यानी तब तक तमिलनाडु चुनाव में डीएमके की औकात सामने आ जाएगी। फिर कांग्रेस तेल और तेल की धार देख तोल-मोल करेगी। सो मनमोहन-टू के पहले फेरबदल में परफोर्मेंस नहीं, पॉलिटिक्स हावी रही। अब सोनिया गांधी की टीम बनने के बाद मनमोहन की टीम की असली तस्वीर सामने आएगी। पर फिलहाल पहले फेरबदल में मजबूरी की मूरत साबित हुए मनमोहन। अब आगाज ऐसा, तो अंजाम क्या होगा?
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19/01/2011

Tuesday, January 18, 2011

ब्लैकमनी पर नेता नहीं, अब असांज से उम्मीद

मुझसे न पूछो, महंगाई कब कम होगी। यह कह आखिरकार शरद पवार ने सरेंडर कर दिया। मौका देख मनमोहन ने भी टेंडर जारी कर दिया। बुधवार शाम पांच बजे मनमोहन की दूसरी पारी का पहला फेरबदल होगा। वैसे भी प्याज के बाद टमाटर भी अपने लाल रंग पर इतराने लगा। सो बेफिक्र मनमोहन ने जनता को राहत देने के बजाए अपनों में रेवड़ी बांटने को तरजीह दी। पर मनमोहन सरकार झंझावात के जिस दौर से गुजर रही, केबिनेट में फेरबदल भी इम्तिहान से कम नहीं। देखने वाली बात होगी, मनमोहन साफ-सुथरी छवि वालों को मंत्री बना अपनी छवि सुधारते हैं या फिर वही मजबूरी। यों मंत्री बनाना या हटाना पीएम का विशेषाधिकार। पर अब तक छनकर जितने नाम आए, उनमें चौंकाने वाला नाम टीआर बालू का। डीएमके कोटे से राजा की विदाई के बाद एक मंत्रालय देना गठबंधन की जरूरत। पर इतनी भद्द पिटने के बाद भी बालू को केबिनेट में शामिल करना पड़ा। तो यूपीए-टू में मजबूत पीएम की छवि लेकर उभरे मनमोहन अबके निढाल नजर आएंगे। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। जब मनमोहन की दूसरी पारी में केबिनेट लिस्ट बनी, तो उन ने डीएमके को राजा-बालू छोड़ किसी और का नाम भेजने को कहा। पीएमओ की ओर से बाकायदा खबरें बांची गईं- मनमोहन अबके सिर्फ साफ छवि वालों को तरजीह देंगे। पर गठबंधन की मजबूरी की वजह से दोनों की बात रह गई। करुणानिधि ने बालू को ड्रॉप कर राजा को मंत्री बनवा लिया। पर जिस तरह राजा के कारनामे ने मनमोहन सरकार के मुंह पर कालिख पोत दी। भ्रष्टाचार आज ऐसा मुद्दा बन चुका, मनमोहन की गाड़ी हिचकोले खा रही। फिर भी राजा की जगह बालू आए, तो समझो, अब मनमोहन का ब्रेक फेल हो चुका। बाकी मंत्रियों का इतिहास शपथ ग्रहण समारोह के बाद बताएंगे। पर चौदह उद्योगपतियों की ओर से लिखी गई चिट्ठी सरकार की पोल खोल रही। इनमें कई राजनेता भी। पर चिट्ठी का लब्बोलुवाब- पहले सरकार के कामकाज से संतुष्टि का अहसास होता था। पर अब ऐसी भावना नहीं दिख रही। भ्रष्टाचार और महंगाई पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत। वरना अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा। सो मंगलवार को बीजेपी ने चिट्ठी को जरिया बना सवाल उठाया। इनमें से कई लोग सरकारी पदों पर काम कर चुके। सो मनमोहन बताएं, इस पीड़ा की क्या वजह? पर पीड़ा की वजह कोई तब बताए, जब पीड़ा का अहसास हो। सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद सरकार ने सीवीसी पी.जे. थॉमस का बचाव किया। तो सरकार से क्या उम्मीद रखेंगे आप। सो बीजेपी ने मौजूं सवाल उठाया। बोली- यह कैसी सरकार, जो एक दागदार सीवीसी को बचा रही। और एक ईमानदार सीएजी को कटघरे में खड़ा कर रही। सचमुच सरकार ने नीति, नैतिकता, शर्म-हया, आम आदमी की चिंता वगैरह सब ताक पर रख दिया। तभी तो विदेशों में ब्लैक मनी जमा करने वालों का नाम सार्वजनिक नहीं कर रही। अपना सुप्रीम कोर्ट भी दो दिन पहले टिप्पणी कर चुका- नाम का खुलासा करने में क्यों हिचकिचा रही सरकार? अब विपक्ष ने भी मंगलवार को वही सवाल दोहराया। पर भले विपक्ष के सवाल सरकार को असर न करते हों। पर अमेरिका को नाकों चने चबवाने वाले जूलियन असांज के हाथ लगी सीडी ने होश उड़ा दिए। मनमोहन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने विदेशों में काला धन जमा करने वालों का नाम सार्वजनिक नहीं किया। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट में दलील दी- हम सील बंद लिफाफे में आपको नाम दे सकते, पर सार्वजनिक नहीं कर सकते। आखिर यह सरकार की कैसी मजबूरी? पर दलील की हकीकत भी देख लो। जर्मनी से सरकार को 50 खाताधारियों के नाम मिले। पर सुप्रीम कोर्ट को बताए सिर्फ छब्बीस। अब देश की जनता को विकीलिक्स से उम्मीदें बंधीं। चार दशक से ब्लैकमनी का मामला उठ रहा। पर किसी सरकार ने ईमानदार पहल नहीं की। अनुमान को सच मानें, तो कुल जीडीपी का दुगुना ब्लैकमनी विदेशी बैंकों में जमा। स्विस बैंक के एक डायरेक्टर ने कुछ समय पहले खुलासा किया था। भारतीयों के 280 लाख करोड़ रुपए अकेले स्विस बैंक में जमा। जिससे तीस साल तक देश का टेक्सलैस बजट बन सकता। साठ करोड़ भारतीयों को रोजगार मिल सकते। देश के किसी गांव से राजधानी दिल्ली तक चार लेन की सडक़ें बनाई जा सकतीं। करीब 500 सामाजिक परियोजनाओं को हमेशा के लिए मुफ्त बिजली दी जा सकती। हर भारतीय को साठ साल तक दो हजार रुपए मासिक दिए जा सकते। ब्लैकमनी वापस आने के बाद भारत को न वल्र्ड बैंक न आईएमएफ के आगे झोली फैलाने की जरूरत। पर कौन करेगा ऐसी ईमानदार पहल? कोई साफ छवि का नेता नहीं दिख रहा। जिससे कोई उम्मीद रखी जाए। कांग्रेस की सरकार भ्रष्टाचार पर चौतरफा घिरी। मनमोहन उस आग में झुलस चुके। बोफोर्स पर आईटी ट्रिब्यूनल के फैसले ने सोनिया को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। विपक्ष तो अपनी ही विरासत से सवालों में। तभी तो आम आदमी के हित के नाम पर नेता ऐसे नाक-भौं सिकोड़ते, मानो आम आदमी के पसीने की दुर्गंध आ रही हो। सो अब विकीलिक्स ने उम्मीद की किरण दिखाई। अमेरिका के दबाव में भी नहीं झुकने वाला असांज ब्लैकमनी से कितना परदा उठा पाते, यह कौतूहल का विषय। तो क्या चार दशक में जो अपने नेता नहीं कर सके, असांज कर दिखाएगा? अगर कर दिया, तो क्या सरकार कार्रवाई करेगी?
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18/01/2011

Monday, January 17, 2011

गर हिटलर होता, तो हमारी सरकार को सलाम ठोकता!

मनमोहन सरकार आज-कल खूब धूम मचा रही। लाज-शर्म का परदा फाड़ सरकार भ्रष्टाचार के आरोपी सीवीसी पी.जे. थॉमस के बचाव में उतर आई। पर उसी परदे के कपड़े से केबिनेट मंत्री पद की शपथ लेने को कुछ नेता पतलून सिलवा रहे। पर आम आदमी की पतलून के चिथड़े-चिथड़े हो चुके। बीते मंगल-बुध को महंगाई पर काबू पाने के लिए पीएम ने हाई-लेवल मैराथन मीटिंगें कीं। पर आदत से मजबूर सरकार ने शनिवार को महंगाई की आग में पेट्रोल डाल दी। अब ऐसी सरकार को सरकार कहेंगे, या बिजनेसमैन? जिसे कंपनियों के कथित घाटे की चिंता, आम आदमी की नहीं। आखिर अर्थशास्त्र का यह कौन सा फार्मूला, जो दो दिन कीमतें काबू में करने की मीटिंग में बिताओ। तीसरे दिन कीमतें बढ़ा दो। ऐसे लोगों को अर्थशास्त्री कहेंगे या विनाश शास्त्री? एक वरिष्ठ नेता ने सोमवार को हरियाणा से जुड़ा मशहूर चुटकुला सुनाया। घर की बेटी छत से गिर गई। दर्द से कराह रही थी। सो घर के लोगों में किसी ने हल्दी-दूध पिलाने, तो किसी ने गर्म पानी से सेकने, तो किसी ने मालिश करने की सलाह दी। इसी सलाहबाजी के बीच घर का सबसे बुजुर्ग पहुंचा। तो उन ने सलाह दी- लडक़ी के नाक-कान छिदवा दो। एक साथ सारा दर्द झेल जाएगी और लगे हाथ सारा काम निपट जाएगा। मनमोहन सरकार ने शायद यही नुस्खा अपना लिया। जब आम आदमी महंगाई की मार झेल ही रहा। महंगाई काबू करने का कोई उपाय नहीं मिल रहा। तो अपनी नवरत्न कंपनियों को घाटे में क्यों जाने दें। सो ताबड़तोड़ पेट्रोल के दाम बढ़ाए जा रहे। थोड़े दिन का इंतजार करिए, डीजल भी डील-डौल दिखाएगा। रसोई गैस बदहजमी न करे, तो आप कहना। मनमोहन का करिश्मा देखिए, नेहरू-गांधी परिवार से इतर बतौर पीएम सातवें साल के सात महीने पूरे हुए। और पिछले सात महीने में सात बार पेट्रोल की कीमतें बढ़ चुकीं। अब तो मनमोहन सरकार ने असंवेदनशीलता की सारी हदें पार कर दीं। पहले तो पीएसयू यानी सरकारी नवरत्न कंपनियों को खुली लूट मचाने की छूट दी। अब नया ट्रेंड शुरू हो रहा। आम तौर पर आतंकवादी भीड़-भाड़ वाले बाजार में हमले के लिए शनिवार का दिन चुनते थे। ताकि अधिक से अधिक लोग शिकार हो सकें। अब उसी तर्ज पर शनिवार को महंगाई चोट करने लगी। सरकार ने शनिवार को पेट्रोल की कीमतों में ढाई रुपए से भी अधिक का इजाफा कर दिया। ताकि सोमवार को जब लोग-बाग गाड़ी लेकर घर से निकलें, तो कंपनियों को फायदा हो। पर सिर्फ गाड़ीवान ही नहीं, इस कीमत बढ़ोतरी का असर समूची आवाम पर पड़ेगा। सो यह सचमुच महंगाई रूपी आतंकवाद, जिसकी चोट आम आदमी को घुट-घुट कर मरने को मजबूर कर रही। आतंकवादी हमले में तो लोग मौके पर ही मर जाते। समूचा घटनास्थल लाल रंग में रंग जाता। पर महंगाई रूपी आतंकवाद का घाव इससे कहीं बढक़र। आम आदमी इस आतंकवाद से ठीक से नहीं मर पा रहा, जीना मुहाल जरूर हो चुका। महंगाई ने लोगों का खून निचोडऩा शुरू कर दिया। पर कीमत बढ़ाऊ मंत्री मुरली देवड़ा की तान ने सोमवार को सचमुच चौंका दिया। देवड़ा बोले- नवरत्न कंपनियां बेहद नुकसान झेल रही थीं। इन कंपनियों को हम घाटे से लहू-लुहान होने की अनुमति नहीं दे सकते। देवड़ा की मुरली की धुन समझ गए ना आप? मतलब, भले आम आदमी का खून महंगाई की चोट से थक्का बन जाए। पर कंपनियों को खरोंच भी नहीं आनी चाहिए। देवड़ा ने इसी बढ़ोतरी को अंतिम नहीं बताया। अलबत्ता अभी और चोट झेलने की चेतावनी दे दी। बोले- इस बढ़ोतरी के बाद भी पेट्रोलियम कंपनियां प्रति लीटर सवा से डेढ़ रुपया घाटा सह रहीं। यानी आम आदमी सरकार का अहसान माने, सिर्फ दो रुपए 52 पैसे की बढ़ोतरी की। सो बढ़ोतरी को ना देखो, सवा रुपए की राहत पर ध्यान दो। काश, हिटलर या मुसोलिनी जिंदा होता। तो आम आदमी के प्रति सरकार की इस नफरत भरी भावना को देख हमारे नेताओं को सलाम जरूर ठोकता। सरकार की हिम्मत देख हिटलर का वह कारनामा याद आ गया। जब यहूदियों और अपने विरोधियों को मौत के घाट उतारने के लिए गोलियां महंगी पडऩे लगीं। तो हिटलर ने उस महंगाई से बचने का नुस्खा अपनाया। एक ऐसी कोठरी बनवाई, जिसमें सिर्फ एक सुराख था, जिसके जरिए जहरीली गैस छोड़ी जाती थी। इस कवायद से हिटलर एक साथ सैकड़ों लोगों को तड़पा-तड़पा कर मौत के घाट उतारता था। अब महंगाई और अपनी सरकार का आलम देख यही लग रहा। आम आदमी महंगाई की जहरीली गैस से घुट-घुट कर मरने को मजबूर। यों दिखावा करने को ममता-पवार-करुणा ने मनमोहन सरकार को तेवर दिखाए। तो कांग्रेस ने मजबूरी की तान छेड़ कंपनियों से गुजारिश की- कम से कम कीमतें बढ़ाने की वजह भी जनता को बता दो। यानी कांग्रेस बचावी मुद्रा में। सो बीजेपी ने लूट करार दिया। पर अपनी जनता क्या कर रही? इस लूट पर बूट पहने जनता क्या यों पेट्रोल पंप पर लाइन लगाएगी? पेट्रोल के दाम जिस दिन बढ़ते, उस दिन हर पंप पर जाम लग जाता। आखिर ऐसी मानसिकता क्यों? क्या घंटों लाइन में लगकर एक दिन टंकी फुल करवा लेने से जिंदगी पर महंगाई असर नहीं करेगी? अब बहुत हो चुका। पेट्रोल पंप पर लाइन लगाने, चौक-चौराहों पर बैठ सरकार को कोसने के बजाए सडक़ों पर उतरे। भेड़चाल छोड़ आंदोलन का शंखनाद करे। तो देश का हर आदमी जेपी बन सकता। अगर आप जेपी न बनें, तो सरकार इतने 'पी.जे. थॉमस' खड़े कर देगी। हम-आप महंगाई के मकडज़ाल में उलझ कर मर जाएंगे। सो अब जागो, और आगे बढ़ो.., जब तक..।
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17/01/2011

Friday, January 14, 2011

गण तो हुआ गौण, तंत्र दिखा रहा तेवर

सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो गया। पर दक्षिण हो या उत्तर, पूरब हो या पश्चिम। न मनमोहन सरकार महंगाई रोक पाई, न भ्रष्टाचार पर सीबीआई चार्जशीट दाखिल कर पाई। यों सूर्य ने दिशा बदली, तो शुक्रवार को प्रणव दा भी तेवर में दिखे। बोले- सरकार यह महंगाई बर्दाश्त नहीं करेगी। प्रणव उवाच सोलह आने सही। महंगाई सरकार कहां बर्दाश्त कर रही, बर्दाश्त तो बेचारा आम आदमी कर रहा। कांग्रेसी कृषि राज्यमंत्री के.वी. थॉमस ने तो बेशर्मी की मखमली चादर ओढ़ ली। बोले- कीमतों में बढ़ोतरी कोई बड़ी बात नहीं। पिछले साल आलू की कीमतें बढ़ गई थीं। इस साल प्याज की बढ़ गईं। सो इसमें हायतौबा क्यों? तो आइए कांग्रेसी के.वी. थॉमस के इस प्रवचन पर जय हो का उद्घोष करें। साथ ही गांठ बांध लें, महंगाई से निजात नहीं मिलने वाली। दुआ इतनी करिए- महंगाई जहां पहुंची, वहीं ठहर जाए। अब महंगाई पर सरकारी तेवर के नतीजे दिख गए। भ्रष्टाचार पर कांग्रेस अधिवेशन में सोनिया के पांच मंत्रों का कितना असर, शुक्रवार को वह भी दिख गया। कॉमनवेल्थ घोटाले में गिरफ्तार टी.एस. दरबारी को आखिरकार जमानत मिल गई। सीबीआई साठ दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई। सो सरकार घोटालेबाजों पर कार्रवाई में कितनी फुर्ती दिखा रही, बताने की जरूरत नहीं। किसी परिवार का बच्चा अपनी जिम्मेदारी से भटक जाता। तो घर वाले उलाहना देते- काम का न काज का, सौ मन अनाज का। अब आप अपनी सरकार को क्या कहेंगे, आप खुद ही तय करिए। यों राजनीति में कोई एक दल ऐसा हो, तो कुछ कहें। यहां तो सबके सब मायावी। अब आप यूपी के मायाराज को ही देख लो। जबसे कानून-व्यवस्था के मामले में नीतिश कुमार का कमाल और चुनावी असर देखा। तबसे माया भी ऐसे राजनीतिक संदेश देने की कवायद कर रहीं। सो बांदा रेप कांड में बीएसपी एमएलए पुरुषोत्तम नरेश द््िववेदी को फौरन सस्पेंड किया। पर गिरफ्तारी में काफी देर लगा दी। सो शुक्रवार को कोर्ट में पेशी के बाद एमएलए के तेवर में कोई कमी नहीं। नाम से पुरुषोत्तम, यानी सबसे उत्तम पुरुष। उसके बाद भी नाम में नरेश लगा लिया। पर काम ऐसा घिनौना, फिर भी शर्म नहीं। सो आरोपी एमएलए बोला- राजनीतिक साजिश के तहत मुजे फंसाया गया, मैं बदला लूंगा। अब कोई आरोपी एमएलए पुलिस की गिरफ्त में रहते हुए ऐसा तेवर दिखाए, तो यह सत्ता के वरदहस्त के बिना मुमकिन नहीं। यानी सत्ता का मतलब ही अब गरीब-मजलुमों को सताओ, खास लोगों पर मेहरबानी दिखाओ। तभी तो शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने काले धन के मामले पर सख्ती दिखाई। मनमोहन सरकार से पूछा- जिन भारतीयों के काले धन विदेशी बैंक में जमा, उन नामों का खुलासा क्यों नहीं कर रही? आखिर खुलासा करने में क्या परेशानी है? सचमुच काला धन जमा करने वाले लोगों पर कार्रवाई से परहेज कर रही सरकार। पैसे वालों के लिए देश का कानून मुट्ठी में, और आम आदमी के लिए कानून के हाथ लंबे हो जाते। सो शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेड़ के आरोप के मामले में भी अहम टिप्पणी की। जुलाई 2010 में आंध्र-महाराष्ट्र के बार्डर पर आंध्र पुलिस ने माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडे को मार गिराया था। जिसके बाद पुलिस ने मुठभेड़ की कहानी रची। पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने पुलिसिया दावे पर सवाल खड़ा कर दिया। पुलिस का दावा था- करीब 20 नक्सलियों के जंगल में घूमने की सूचना मिली। जिसके बाद मौके पर पहुंच पुलिस ने रुकने को कहा। तो सामने से फायरिंग शुरू हुई। पुलिस ने जवाबी कार्रवाई की, तो आजाद और पांडे की मौत हो गई। सो सवाल उठा- बीस में से सिर्फ यही दो लोग कैसे मारे गए। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी स्पष्ट हो गया, आजाद और पांडे को प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी गई। सो मुठभेड़ की न्यायिक जांच कराने की मांग हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। तो पहली नजर में कोर्ट ने भी माना, कहीं कुछ गड़बड़ जरूर। सो केंद्र और आंध्र प्रदेश की सरकार को नोटिस जारी कर दिया। छह हफ्ते का वक्त देते हुए जस्टिस आफताब आलम और आर.एन. लोढ़ा की पीठ ने कहा- हमें उम्मीद है कि इसका जवाब मिलेगा, एक अच्छा और विश्वसनीय जवाब मिलेगा। पर बैंच ने एक एतिहासिक टिप्पणी की। कहा- हम गणराज्य को अपने ही बच्चों को मारने की अनुमति नहीं दे सकते। यानी कोर्ट ने लोकतंत्रीय गणतंत्र का हवाला दिया। पर आज की राजनीति की हकीकत यही- गण तो गौण हो गए, तंत्र की तानाशाही आम आदमी पर चल रही। अब सवाल दिग्विजय और उनकी कांग्रेस से। सिर्फ गुजरात की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ और दिल्ली की बटला हाउस मुठभेड़ पर ही जुबान क्यों खुलती? क्या कांग्रेसी मानवाधिकार के चश्मे से सिर्फ वोट बैंक ही दिखता? अब सुप्रीम कोर्ट ने तल्खी दिखाई, तो शुक्रवार को विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने हमेशा की तरह टिप्पणी का स्वागत किया। बोले- सचमुच ऐसा नहीं होना चाहिए। मोइली को ऐसी टिप्पणियों में महारत। हर बार कह देंगे- ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। पर करते-धरते कुछ नहीं। बांदा रेप कांड में पीडि़त लडक़ी को सुरक्षा दिए जाने और तेजी से इंसाफ की पैरवी की। पर कॉमनवेल्थ में सीबीआई की तेजी कहां गई? महंगाई पर प्रणव दा, चिदंबरम, मोंटेक जैसे धुरंधर प्रवचन दे रहे। पर अब जनता प्रवचन नहीं, जवाब मांग रही।
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14/01/2011

Thursday, January 13, 2011

चुनावी भोजन यानी, घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने

 तो इसे कहते हैं- 'घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने।' लोकसभा चुनाव के वक्त सोनिया गांधी ने मैनीफेस्टो में खाद्य सुरक्षा बिल का वादा तो कर दिया। पर अब वादा निभाने में सरकार को नानी याद आ रही। चुनावी वादों पर अक्सर बाद में यही कहानी देखने को मिलती। जब वोट बटोरने की होड़ मची थी। तब सोनिया ने चुनावी भोजन की झलक दिखा खूब वोट बटोरे। पर अब जब सत्ता में आने के बाद परोसने की बारी आई, तो पीएम की कमेटी ने पत्तल ही छीन ली। मनमोहन की बनाई एक्सपर्ट कमेटी ने सोनिया की एडवाइजरी काउंसिल के प्रस्ताव को बेहिचक नामंजूर कर दिया। रंगराजन कमेटी ने रपट में साफ कर दिया- जितना अनाज बांटने की योजना, उतना अनाज सरकार के पास नहीं। रपट के मुताबिक- एनएसी की सिफारिश मानी जाए, तो योजना के लिए पहले चरण में 66.76 मिलियन टन और अंतिम चरण में 71.98 मिलियन टन अनाज की जरूरत होगी। पर उत्पादन और प्रबंध के मौजूदा ट्रैंड के मुताबिक 2011-12 में 56.35 मिलियन टन और 2013-14 में 57.61 मिलियन टन का स्टॉक ही संभव। सो एनएसी के प्रस्ताव को चरणबद्ध तरीके से भी लागू करना मुमकिन नहीं। यानी चुनावी घोषणा पत्र अब कांग्रेस और सरकार के बीच सिर दर्द बन गया। सो सवाल- चुनावी वायदों से पहले नेता सोचते क्यों नहीं? जब सोनिया गांधी 2009 के लोकसभा चुनाव का मैनीफैस्टो जारी कर रही थीं, तो मंच पर मनमोहन भी मौजूद थे। उसी मंच से सोनिया ने पहली बार नेहरू-गांधी परिवार से इतर मनमोहन को पीएम के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजैक्ट किया था। सो मैनीफैस्टो में खाद्य सुरक्षा बिल का वादा कोई तुगलकी फरमान की तरह नहीं आया होगा। अलबत्ता कांग्रेस के धुरंधरों ने पूरा मंथन किया होगा। मनमोहन सरकार की दूसरी पारी के 20 महीने पूरे हो रहे। संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए दो बार भोजन के अधिकार वाले इस बिल का राग भी अलापा जा चुका। अब जरा बिल का इतिहास बता दें। शरद पवार की मिनिस्ट्री ने बिल का ड्राफ्ट तैयार किया। पर सरकारी ढर्रे वाले इस बिल को सोनिया की रहनुमाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल ने नामंजूर कर दिया। एनएसी ने बिल की महत्ता को ध्यान में रख अपना ड्राफ्ट तैयार कर पीएम को भेज दिया। पीएम ने अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन की रहनुमाई में एक्सपर्ट कमेटी बना दी। जिसकी रपट ने अब कांग्रेस और सरकार को आमने-सामने कर दिया। सोनिया की एनएसी ने बिल की ऐतिहासिकता और बारीकियों को ध्यान में रख संवेदना दिखाई। एनएसी ने दो चरणों में देश की 72 से 75 फीसदी आबादी तक सस्ता अनाज पहुंचाने का प्रस्ताव रखा। जिसमें बीपीएल परिवार को 35 किलो, तो एपीएल को 20 किलो अनाज प्रति माह दिए जाने का प्रावधान। पर सरकार 25 किलो अनाज देने के पक्ष में। सरकार की ओर से अनाज की जगह पैसे देने का भी प्रस्ताव था। पर भ्रष्टाचार की संभावना जता एनएसी ने खारिज कर दिया। अब जरा पीएम की एक्सपर्ट कमेटी के दो सुझाव भी देखिए। पहले सुझाव को तो कमेटी ने खुद ही मुश्किल बता दिया। सो आप दूसरा विकल्प देखिए- सिर्फ जरूरतमंद परिवारों को दो रुपए किलो गेहूं और तीन रुपए किलो चावल का कानूनी अधिकार दिया जाए। जबकि बाकी के लिए एक्जीक्यूटिव आर्डर निकाल कर स्टॉक में उपलब्धता के आधार पर बांटा जाए। यों कमेटी ने बीपीएल जनसंख्या की एनएसी की राय जरूर मान ली। सोनिया की एनएसी ने सचमुच संवेदना दिखाई। अर्जुन सेन गुप्त कमेटी ने रपट दी थी- देश में 84 करोड़ लोग ऐसे, जो महज 20 रुपए की दिहाड़ी पर गुजर-बसर कर रहे। सो एनएसी ने इस पूरी आबादी को भोजन का मौलिक हक देने का प्रस्ताव बनाया। खाद्य सुरक्षा बिल में कई बारीकियां। अब तक समाज बीपीएल-एपीएल में बंटा दिखता। पर बिल के मुताबिक तीन हिस्से दिखेंगे। बीपीएल-एपीएल के अलावा 25 फीसदी वह आबादी, जो बिल के दायरे से बाहर होगी। फिर अनाज का भंडारण भी कानूनी बाध्यता होगी। पर यहीं एक सवाल- क्या देश उत्पादन बढ़ाने की स्थिति में है? किसानों की सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म हो रही। न्यूनतम समर्थन मूल्य में हाल की बढ़ोतरी को छोड़ दें, तो आजादी के बाद से अब तक किसानों को सिर्फ झुनझुना थमाया जाता रहा। अब कानून लागू होगा, तो किसान भी समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग करेंगे। सस्ता अनाज पाने वाले परिवार कीमत बढ़ोतरी का विरोध करेंगे। ऐसे में सरकार की मुश्किल- या तो सब्सिडी दे, या फिर समाज में संघर्ष पैदा होने दे। सब्सिडी के मामले में मनमोहन सरकार का रवैया छुपा नहीं। ऐसे में न बिल का मकसद पूरा होगा, न सोनिया के महत्वाकांक्षी बिल का सपना। आम आदमी के हित में मनमोहन सरकार का हाथ कितना तंग, महंगाई ने दिखा दिया। महंगाई पर गुरुवार को कुछ कदम उठे। पर कोई कदम ऐसा नहीं, जो महंगाई को नीचे ला सके। यानी महंगाई पर तो सोनिया भी कुछ नहीं कर पाईं। अब खाद्य सुरक्षा बिल की बारी, जो नरेगा की तरह आसान नहीं। जैसे सूचना के हक बिल पर सोनिया-मनमोहन में मतभेद थे। अब भोजन के हक वाले बिल पर भी। सो चुनौती सोनिया के लिए, सरकार की दलील मानेंगी या मजबूर करेंगी। पर भोजन को मौलिक हक का वैधानिक दर्जा दिलाना सचमुच सोनिया गांधी के लिए लिटमस टेस्ट जैसा। अब सोनिया चुनावी वादा निभाएंगी या घर में नहीं दाने.. की सरकारी दलील मानेंगी, वक्त ही बताएगा।
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13/01/2011

Wednesday, January 12, 2011

गठबंधन नहीं, कांग्रेस के लिए सत्ता ही मजबूरी!

तो राहुल के बोल पर राहु सवार हो गया। महंगाई अब गठबंधन पर भी महंगी पड़ रही। सो बुधवार को एनसीपी ने राहुल और कांग्रेस को खरी-खरी सुनाने में कसर नहीं छोड़ी। महंगाई के लिए शरद पवार नहीं, सामूहिक जिम्मेदारी की दलील दी। एनसीपी के प्रवक्ता डी.पी. त्रिपाठी ने राहुल गांधी की टिप्पणी को तथ्यहीन और दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया। कांग्रेस को इतिहास याद करा बोले- 'राहुल का बयान जनमत पर हमला है। देश की जनता ने 2004 और 2009 में स्पष्ट कर दिया- बंधन नहीं, गठबंधन की सरकार चाहिए। अगर कांग्रेस एक दलीय शासन का सपना देख रही, तो अब यह मुमकिन नहीं। बिहार में नौ से चार सीट पर आ चुकी कांग्रेस एक दलीय शासन कैसे सोच रही?' त्रिपाठी ने इंदिरा राज के वक्त महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए जेपी आंदोलन की भी याद कराई। सवाल उठाया- तब महंगाई पर कंट्रोल क्यों नहीं कर पाई कांग्रेस? त्रिपाठी ने सोनिया गांधी पर भी निशाना साधा। बोले- 'दुनिया के 65 देशों में आज गठबंधन की सरकार चल रहीं, जिनमें इटली भी शामिल।' यों त्रिपाठी की दलील सोलह आने सही। पर सवाल- गठबंधन में सिर्फ एनसीपी को ही मिर्ची क्यों लगीं? पवार के बोल महंगाई को बढ़ाने में कितने असरदार रहे, यह दोहराने की जरूरत नहीं। सो एनसीपी के त्रिपाठी और तारिक अनवर ने राहु की भूमिका निभाई। तो कुछ देर बाद प्रफुल्ल पटेल ने राहु दोष से मुक्ति का मंत्र बांच दिया। यों राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा आम हो चुकी, एनसीपी की कमान पवार के बाद जैसे ही दूसरी पीढ़ी के हाथ गई, प्रफुल्ल कांग्रेस की राह पकड़ेंगे। सो बुधवार को प्रफुल्ल का बयान हैरत में डाल गया। उन ने राहुल को सही, अपनी पार्टी के प्रवक्ता को गलत ठहरा दिया। पर मुश्किल में बेचारी कांग्रेस फंस गई। सो कांग्रेस ने राहुल के बयान पर मचे बवाल का सारा ठीकरा मीडिया के सिर फोड़ दिया। अपने अभिषेक मनु सिंघवी बोले- राहुल ने ऐसा कुछ नहीं कहा, वह सिर्फ इतिहास का जिक्र कर रहे थे। पर मीडिया ने बात का बतंगड़ बना दिया। अब आप खुद ही देख लो, लखनऊ में राहुल ने क्या कहा था। एक छात्र का सवाल था- 'इंदिरा जी के राज में तो कांग्रेस की सरकार भ्रष्टाचार और महंगाई पर आसानी से काबू पा लेती थी, आज ऐसा क्यों नहीं कर पा रही?' अब राहुल गांधी का जवाब देखो- 'तब एक पार्टी की सरकार थी, जबकि आज गठबंधन की सरकार है। और गठबंधन की अपनी कुछ मजबूरियां होती हैं।' यानी कांग्रेस प्रवक्ता की भी दलील सही। राहुल ने न एनसीपी का नाम लिया, न महंगाई-भ्रष्टाचार का। पर राहुल की टिप्पणी का मतलब क्या था? उन ने महंगाई और भ्रष्टाचार पर लाचारी की वजह गठबंधन की राजनीति बताई। सो अभिषेक मनु सिंघवी ने बेहिचक कह दिया- हमारी गलती हो गई कि छात्रों और राहुल के बीच वन-टू-वन बातचीत में दो मिनट 50 सैकिंड के लिए मीडिया को जाने दिया। यानी सच का खुलासा हो गया, तो ठीकरा मीडिया के सिर। पर गठबंधन की लाचारी राहुल ही नहीं, मनमोहन भी जता चुके। कांग्रेस मंच से महंगाई का ठीकरा पवार के सिर कई बार फोड़ा जा चुका। सो सवाल- अगर महंगाई के लिए सिर्फ शरद पवार का मंत्रालय जिम्मेदार, तो मनमोहन-प्रणव-आनंद शर्मा-मुरली देवड़ा क्या कर रहे? क्या देश के पीएम, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री और पेट्रोलियम मंत्री की कोई जिम्मेदारी नहीं? पेट्रोल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त किसने किया? पेट्रोल-डीजल के दाम बजट में किसने बढ़ाए? पहली बार ऐसा हुआ, जब बढ़ी हुई पेट्रोल की कीमत पर पीएम ने राष्ट्र को संबोधित किया। यही हाल भ्रष्टाचार का। माना, ए. राजा गठबंधन की मजबूरी थे। पर कलमाड़ी कौन? भ्रष्टाचार के आरोपी पी.जे. थॉमस को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का मुखिया बनाने वाले पीएम किस पार्टी के? भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित प्रसार भारती के मुखिया बी.एस. लाली किसकी सलाह पर बनाए गए थे? महंगाई को सरकार के कंट्रोल से बाहर बताने वाले चिदंबरम किस पार्टी के? आम आदमी को कुत्ते का बिस्कुट खाने की सलाह देने वाले किस पार्टी के महानुभाव थे? क्या महंगाई ने आम आदमी की जेब की तरह सरकार का मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया? क्या यही है कांग्रेस की अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण? याद करिए यूपी विधानसभा चुनाव का वाकया। तो राहुल ने 20 मार्च 2007 को कहा था- 'अगर 1992 में नेहरू-गांधी परिवार का कोई सत्ता में होता, तो बाबरी ढांचा न गिरता।' फिर कुछ दिन बाद 16 अप्रैल को पाकिस्तान तोडक़र बांग्लादेश बनाने का श्रेय इंदिरा गांधी को दिया था। तब राहुल ने कहा था- 'गांधी परिवार जो ठान लेता है, उसे पूरा करके ही दम लेता है। चाहे वह आजादी की लड़ाई हो, चाहे पाकिस्तान तोडक़र बांगलादेश का निर्माण, चाहे भारत को 21वीं सदी में ले जाना, सब नेहरू-गांधी परिवार ने किया।' अब महंगाई के लिए गठबंधन को जिम्मेदार ठहरा रहे। तो सवाल- कांग्रेस के लिए आम आदमी का दर्द बड़ा या सत्ता में बैठकर मलाई काटना? अगर कांग्रेस सच में आम आदमी की हितैशी, तो पवार को क्यों झेल रही? चढ़ जाने के गठबंधन की बलि और महंगाई पर काबू करके दिखाए। तो अतीत की नींव पर भविष्य की बुलंद इमारत दिखे। पर 20 मार्च 2007 को राहुल के बयान पर सुषमा स्वराज की टिप्पणी में अब दम नजर आ रहा। उन ने कहा था- 'जब मनमोहन पीएम नहीं होंगे, तो महंगाई का ठीकरा कांग्रेस उनके सिर फोड़ेगी।' अब तो मनमोहन के विकास का ढोल भी फूट रहा। औद्योगिक विकास दर में साढ़े आठ फीसदी की गिरावट दर्ज हुई।
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12/01/2011

Tuesday, January 11, 2011

...सुना है महंगाई पर फिर मीटिंग हुई थी!

सुना है कि महंगाई पर फिर मीटिंग हुई थी। बुधवार को फिर मीटिंग होगी। सो आम आदमी उम्मीद की डोर न छोड़े। मीटिंग कोई ऐरे-गैरे नत्थूखैरे ने नहीं, अलबत्ता खुद पीएम मनमोहन ने ली। अपने मनमोहन ने कांग्रेस अधिवेशन में खम ठोककर कहा था- महंगाई दर मार्च तक साढ़े पांच फीसदी तक ले आएंगे। पर पीएम के दावे का उल्टा असर हुआ। महंगाई दर 18.32 फीसदी के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई। सो बेकाबू महंगाई पर काबू करने की नौटंकी दिखाने का सिलसिला शुरू हो गया। पी. चिदंबरम तो पहले ही कह चुके- महंगाई पर काबू पाना सरकार के बूते में नहीं। लोगों की बढ़ी आमदनी महंगाई ही खा रही। अब केबिनेट मंत्री ने जब सच कबूल लिया। तो पीएम के घर मीटिंग का क्या मतलब? आखिर कितनी मीटिंग के बाद महंगाई कम होगी? मनमोहन ने 22 मई 2004 को पीएम पद की शपथ ली। तो अर्थव्यवस्था ने सलामी दी। लोगों की उम्मीद जगी, नई आर्थिक नीति के जनक, देश में खुशहाली भर देंगे। पर महज छह महीने के भीतर ही महंगाई ने अर्थशास्त्री पीएम की पोलपट्टी खोल दी। नवंबर 2004 से महंगाई ने जो रफ्तार भरी, आज तक रुकने का नाम नहीं। अगर कांग्रेस ने तभी अपने सिर पर सत्ता का नशा न चढऩे दिया होता, तो शायद महंगाई बेलगाम न होती। विपक्ष ने महंगाई पर तभी प्रदर्शन किया था। एसपीजी के सुरक्षा घेरे में खुद पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने गिरफ्तारी दी थी। पर तब भी कांग्रेस ने बेशर्मी दिखाई। चार दिसंबर 2004 को कांग्रेस ने तो यहां तक कह दिया- महंगाई नहीं बढ़ रही। फिर एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ की कहावत चरितार्थ कर दी। शुरुआती दौर में कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई को राजग सरकार से मिली विरासत बताया। तो कभी बीजिंग ओलंपिक की तैयारियों के सर ठीकरा फोड़ा। कभी राज्यों की नाकामी, तो कभी कुछ कारण गिनाए। बात सिर्फ कारण तक ही सीमित होती, तो आम आदमी कराह कर बैठ जाता। पर बढ़ती महंगाई ने मनमोहन के मंत्रियों का दिमागी संतुलन ऐसा बिगाड़ा, किसी ने कुत्ते का बिस्किट खाने की सलाह दे दी। जिसे चिदंबरम ने बजट में सस्ता कर दिया था। किसी ने जादुई छड़ी न होने के खीझ भरे बयान दिए। रही-सही कसर तो शरद पवार निकालते ही रहते। सो संसद से सडक़ तक महंगाई पर नेताओं ने खूब गाल बजाए। पर सरकार महंगाई का बाल बांका न कर सकी। संसद में अब तक दर्जनों बार बहस हो चुकी। पर आखिर में निचोड़- हरि अनंत, हरि कथा अनंता ही निकला। कभी सीसीपी, तो कभी कांग्रेस कोर ग्रुप की मीटिंग होती रहीं। पर मार्केट में बैठे चोर ग्रुप की हमेशा चांदी रही। शरद पवार ने दूध, चीनी, चावल, आटा, जिसका नाम लिया, वही अगले दिन महंगा हो गया। सो किससे उम्मीद करे आम आदमी? शरद पवार से महंगाई पर सवाल पूछ लो। तो कह देंगे- मैं कोई ज्योतिषी नहीं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया से पूछ लो। तो कह देंगे- गांव वाले पेटू हो चुके, सो महंगाई बढ़ी। प्रणव दा चार अगस्त को संसद में कबूल चुके- वाजपेयी राज के छह साल कीमतें काबू में रहीं। पर दलील दी- तब विकास दर, निवेश दर और निर्यात दर नहीं बढ़ीं। अब यूपीए राज में विकास दर बढ़ी, सो महंगाई बढ़ी। लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी। यानी सरकार ने भरी संसद में इशारा कर दिया- महंगाई में जीने की आदत डाल लो। प्रणव दा ने तो प्रवचन के अंदाज में यहां तक कह दिया- अपने बजाए आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचें। यानी अगर आज पेट्रोल-डीजल महंगा हो रहा। तो आने वाली पीढ़ी के लिए भी शेष बचेगा और बढ़ी विकास दर से सबका विकास होगा। पर कोई पूछे- अगर इस विकास दर से देश के करीबन सवा-एक सौ अरब-खरबपति बाहर कर दो, तो विकास की दर क्या होगी? आखिर यह कैसा विकास, जो आम आदमी को भूखा मार रहा। खुद सोनिया गांधी मान चुकीं, विकास से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। तो क्या कांग्रेस राज में सिर्फ राजाओं, कलमाडिय़ों का विकास हुआ? अगर कांग्रेस ऐसा मान रही, तो आम आदमी की फिक्र क्यों नहीं? संसद में वेतन-भत्ते बढऩे की बात हो। तो राजनीतिक एका का अद्भुत नजारा दिखेगा। पर महंगाई के इस दौर में संसद की केंटीन का रेट थोड़ा क्या बढ़ गया। एक रुपए में पांच रोटी तोडऩे वाले सांसदों को बदहजमी होने लगी। सो अब न संसद के पास जवाब, न सरकार के पास। मंगलवार को युवाओं के बीच यूपी पहुंचे राहुल गांधी से तमाम ज्वलंत मुद्दों पर सवाल हुए। तो जवाब में रटंत विद्या ही दिखी। सो बाहर छात्रों में जबर्दस्त रोष दिखा। दलील- जब सीधा जवाब नहीं देना था, तो आए क्यों? पर यह कोई हैरानी में डालने वाली भावना नहीं। मंगलवार को पीएम के घर महंगाई पर डेढ़ घंटे की मीटिंग बेनतीजा रही। तो इंटरनेट पर सरकार के खिलाफ ऐसी-ऐसी गालियां, जिन्हें लिखना भी मुनासिब नहीं। अब फिर मीटिंग होगी। पर मंगलवार की मीटिंग के बीच ही प्रणव मुखर्जी और शरद पवार दूसरे काम के लिए निकल गए। सो सरकार की गंभीरता सबके सामने। प्रणव ने उद्योगपतियों के साथ मीटिंग को तरजीह दी। पर सवाल- जब देश के पीएम ने महंगाई पर डेढ़ घंटे मीटिंग ली। तो भी कोई नतीजा नहीं निकला। पर मनमोहन के सहयोगी रहे ए. राजा ने तो महज 45 मिनट में स्पेक्ट्रम का ऐसा खेल कर दिया। देश एक नील 76 खरब रुपए की गिनती में ही उलझ गया। यानी आम आदमी की बात हो, तो डेढ़ घंटे क्या, छह साल में मनमोहन कुछ नहीं कर सके। पर भ्रष्टाचार करने में सरकार के मंत्रियों ने कुछ पल में सब निपटा दिया। अब महंगाई पर सिर्फ चिंता होगी। कुछ दिन बाद फिर महंगाई बढ़ाकर चिंता जताएंगे। यह खेल तब तक चलेगा, जब तक आम आदमी की चिता न सज जाए।
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11/01/2011

Monday, January 10, 2011

उम्मीद की डोर कहीं टूट गई.... तो?

तो सवाल भरोसे का। आखिर देश की जनता किस पर भरोसा करे? पीएम मनमोहन प्रवासियों के सामने व्यवस्था में बदलाव की बात कर रहे। पर जब व्यवस्था के रहनुमा ही आपस में सांप-नेवले का खेल खेल रहे। तो जनता की फिक्र कैसे होगी? भ्रष्टाचार हो या आतंकवाद, किसी भी व्यवस्था की जड़ को खोखला करने के लिए काफी। पर इक्कीसवीं सदी का भारत यही विडंबना ढो रहा। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पहले टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल ने काबिलियत का प्रदर्शन कर सीएजी की रपट झुठला दी। अपनी ही संवैधानिक संस्था की क्षमता पर सवाल उठा दिए। तो सोमवार को सीएजी ने भी पलटवार कर सिब्बल को न सिर्फ संवैधानिक हद दिखाई। अलबत्ता घोटाले के अपने आंकड़े पर भी दृढ़। सीएजी ने दो-टूक कह दिया- संसदीय नियमों के तहत जब तक पीएसी रपट पर सुनवाई कर रही, किसी को भी सवाल उठाने का हक नहीं। सिब्बल के दावे पर पीएसी के मुखिया मुरली मनोहर जोशी भी सवाल उठा चुके। कांग्रेस ने फिर दोहरी चाल चली। सिब्बल के बयान से पहले किनारा किया, अब पार्टी मंच से सीएजी की रपट पर सवाल उठाए जा रहे। सो सवाल, कांग्रेस इतनी हताशा में क्यों? जब सुप्रीम कोर्ट जांच की मॉनीटरिंग कर रहा। पीएसी के सामने सीएजी विनोद राय पेश होकर आंकड़ों का आधार बता चुके। तो क्या जांच के नतीजों से पहले विभागीय मंत्री का दावा जांच को प्रभावित करने की कोशिश नहीं? अगर सिब्बल को सचमुच संवैधानिक संस्था पर भरोसा। तो जैसे खुद पीएम ने पीएसी के सामने पेश होने का ऑफर रखा, सिब्बल भी कर सकते थे। पर शायद सिब्बल ने दस जनपथ में अपना नंबर बढ़ाने की खातिर अति उत्साह दिखा दिया। सो सुब्रहमण्यम स्वामी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। जांच से पहले सिब्बल पर राजा को बरी करने का आरोप लगाया। पर सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया रपट के बजाए हलफनामा दाखिल करने के निर्देश दिए। सो अब सुप्रीम कोर्ट का रुख देखना होगा। पर जब जांच एजेंसियां अपना काम कर रहीं, तो सिब्बलनामे का क्या मकसद? सीबीआई वैसे भी अपने आका के हुक्म की गुलाम। सो लाइन आका तय करेगा, सीबीआई उसे पुष्ट करने का आधार। तभी तो सीबीआई सीएजी की रपट से पहले तक सोई हुई थी। अब भी कोर्ट का डंडा और सरकार की फजीहत न होती, तो जांच में फुर्ती नहीं आती। यही किस्सा आतंकवाद का। समझौता, मालेगांव और अजमेर ब्लास्ट में हिंदू कट्टरपंथियों की साजिश उजागर हो रही। तो कार्रवाई के बजाए कांग्रेस-बीजेपी में आरोप-प्रत्यारोप चल रहा। संघ प्रमुख मोहन भागवत एक तरफ कांग्रेस पर साजिश का आरोप मढ़ रहे। तो दूसरी तरफ माना- जितने लोगों के नाम आ रहे, उनका संघ से कोई नाता नहीं। भागवत बोले- कुछ तो खुद ही संघ छोड़ गए। कुछ को संघ ने यह कहते हुए जाने के लिए कह दिया कि यहां उग्रता नहीं चलेगी। तो क्या संघ को कट्टरपंथियों की साजिश की भनक थी? भागवत का बयान तो यही इशारा कर रहा। पर भ्रष्टाचार को लेकर आईसीयू में पहुंची कांग्रेस को इन ताजा खुलासों से आक्सीजन मिल रही। विपक्ष भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शंखनाद करता, तो कांग्रेस इसे संघ पर लगे आरोप की बौखलाहट बता कन्नी काट लेती। गुवाहाटी से बीजेपी ने बोफोर्स की तोप सोनिया पर तानी। क्वात्रोची से पारिवारिक रिश्ते को उछाल हमले की धार तेज की। तो सोमवार को कांग्रेस ने भी बदजुबानी की चेतावनी दे दी। जनार्दन द्विवेदी बोले- सार्वजनिक जीवन में शीर्ष नेता निजी आक्षेप से बचें। वरना हम भी वही काम शुरू कर दें, तो न जाने कौन-कहां होगा। अब अगर ऐसी ही राजनीति, तो कांग्रेस हो या बीजेपी, 26/11 के बाद देश में पैदा हुए माहौल को न भूलें। कैसे दलगत भावना का चोगा फेंक जनता ने समूची राजनीतिक व्यवस्था को आड़े हाथों लिया था। जनता सडक़ों पर उतरी थी। तो नेताओं के होश फाख्ता हो गए थे। अब जनता भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चोचलेबाजी नहीं, ठोस कार्रवाई चाह रही। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में भले कोई एक-दूसरे से बढ़त ले ले। पर कहीं जनता के दिल की चिंगारी शला बन गई, तो क्या होगा? ताजा किस्सा बिहार के बीजेपी विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या का ही लो। आम आदमी हत्या करने वाली रुपम पाठक की हरकत को जायज ठहरा रहा। सब यह मानकर चल रहे, विधायकी के रुआब में महिला का शोषण हुआ होगा। तभी प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला भडक़ी। सो जनदबाव में आखिर नीतिश कुमार को सीबीआई जांच की सिफारिश करनी पड़ी। पर जांच और न्याय से पहले जनता का निष्कर्ष निकालना अपनी व्यवस्था के प्रति भरोसे का स्पष्ट संकेत। अब नेताओं के प्रति जनता की ऐसी सोच भले पहली नजर में दिल को भाए। पर लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत। सो नेताओं के लिए आत्म मंथन का वक्त आ गया। आखिर इस छवि को कैसे बदलें? अपने पास 2007 का एक सर्वे, जिसमें पाया गया था- 79 फीसदी लोग नेताओं से नफरत करते। ताजा भ्रष्टाचार और आतंकवाद के मामलों को जोडक़र देखिए। तो नतीजे इससे आगे ही दिखेंगे। ऐसा क्यों न हो। महंगाई पर सिर्फ जुबानी भरोसा मिल रहा। कभी नेता कबूतरबाजी में पाए जाते। कभी चारित्रिक पतन में। लाखों में बिकने वाले सांसद अब करोड़ों में बिक रहे। कोई ऐसा नेता नहीं, जिसका जनता अनुशरण करे। पर हर बार उम्मीद की डोर बांधे जनता वोट डालने पहुंच जाती। सो नेता अब जरूर सोचें- कहीं उम्मीद की डोर टूट गई.... तो?
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10/01/2011

Friday, January 7, 2011

सवाल सीएजी पर या कांग्रेस खुद ही सवाल?

तो कपिल सिब्बल ने अपनी ‘काबिलियत’ दिखा ही दी। ए. राजा के इस्तीफे के बाद संचार मंत्रालय संभाला। सो पेशे से वकील सिब्बल ने चार्ज लेने के साठ दिन के भीतर ही ‘चार्जशीट’ पेश कर दी। सिब्बल को मंत्रालय संभाले अभी 53 दिन ही हुए। पर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ऐसी परतें उधेड़ीं। मानो, कोई घोटाला ही नहीं हुआ। सीएजी रपट और विपक्ष की खटिया खड़ी करते सिब्बल ऐसे मुस्करा-मुस्करा कर चुस्की ले रहे थे। मानो, अदालती फैसले से पहले ही केस जीत गए हों। सिब्बल तय एजंडे के साथ पूरे महकमे को लेकर पॉवर प्रजेंटेशन देने पहुंचे। तो सारा फोकस घोटाले के आंकड़े पर ही रखा। सीएजी की रपट में अधिकतम एक नील 76 खरब यानी 1.76 लाख करोड़ का नुकसान बताया गया। पर अपनी 53 दिन की मेहनत में सिब्बल ने न सिर्फ सीएजी के आंकड़ों को झुठलाया। अलबत्ता सीएजी की क्षमता पर भी सवाल उठा दिए। तकनीकी मामलों के आकलन में सीएजी को अनाड़ी बता आंकड़ों की झड़ी लगा दी। अपने सुप्रीम कोर्ट ने तो जांच का दायरा 2001 तक बढ़ाया। पर सिब्बल ने टेलीकॉम पॉलिसी की शुरुआत यानी 1994 से अब तक की जांच कर निष्कर्ष भी दे दिया। सुप्रीम कोर्ट अपनी टिप्पणी में कई बार कह चुका- इस घोटाले में जितना दिख रहा, मामला उससे कहीं आगे है। पर सिब्बल को स्पेक्ट्रम घोटाले में जितना कहा जा रहा, उससे कई गुना कम नजर आ रहा। सो सुप्रीम कोर्ट सही या सिब्बल, यह तो वक्त ही बताएगा। पर सिब्बल ने तो सारा ठीकरा सीएजी और विपक्ष के सिर फोड़, फास्ट ट्रैक कोर्ट के अंदाज में फौरन मामला रफा-दफा कर दिया। सिब्बल ने शुरुआत ही विपक्ष पर हमले से की। जेपीसी पर जाना-पहचाना राग दोहराया। बोले- विपक्ष ने संसद में बोलने का मौका नहीं दिया। सो हम जनता को अपनी बात कहने आए। उन ने सीएजी के अनुमान के तरीके पर सवाल उठाए। घोटाले के आंकड़े 1.76 लाख करोड़ को पूरी तरह गलत बताया। बोले- अगर सीएजी के इस मापदंड को मान लें। तो यह आंकड़ा 1.76 लाख करोड़ ही नहीं, 2.6 लाख करोड़ पहुंच जाएगा। सो सिब्बल ने सीएजी की समझ का मखौल उड़ाते हुए जमकर वकालत झाड़ी। बोले- ए. राजा की ओर से बांटे गए 122 स्पेक्ट्रम के लाइसेंस 4.4 मैगाहार्ट्ज के थे। पर सीएजी ने 6.2 मैगाहार्ट्ज से आकलन किया। यानी 37,154 करोड़ यहीं फालतू जोड़ा। फिर सीएजी ने 2010 के मार्केट रेट के आधार पर जनवरी 2008 में बांटे गए टू-जी स्पेक्ट्रम का आकलन कर दिया। सो 56,000 करोड़ यहीं कम हो गए। इतना ही नहीं, थ्री-जी स्पेक्ट्रम की कीमत को ध्यान में रख भी आकलन हुआ। सो 17,755 करोड़ और कम हुए। फिर टू-जी का लाइसेंस 20 साल के लिए दिया जाना था। लेकिन एक साल देरी हुई, सो 19 साल के लिए ही मिला। यानी 53,000 करोड़ यहीं कम हो गए। कुछ इसी तरह गुणा-भाग करते हुए सिब्बल ने आखिर में कह दिया- टू-जी स्पेक्ट्रम में देश के राजस्व का नुकसान निल रहा। पर सीएजी ने इस मामले में खुद के साथ अन्याय किया, विपक्ष ने आम आदमी के साथ। लगे हाथ सिब्बल 1994 और अब की फोन दरों का जिक्र करना नहीं भूले। बोले- 1994 में 32 रुपए मिनट, तो 1998-99 में 16 रुपए, 2004 में तीन रुपए और अब 30 पैसे प्रति मिनट की दर से फोन हो रहे। टेरिफ में इस कटौती से उपभोक्ताओं को सालाना मिलने वाला फायदा 1,50,000 करोड़ से भी अधिक। सो हमारी नीतियों का सबसे अधिक फायदा आम आदमी को हो रहा। यानी कुल मिलाकर कपिल सिब्बल ने विपक्ष को घेरने और सीएजी को अक्षम साबित करने में सारी काबिलियत लगा दी। एनडीए काल में संचार मंत्री रहे रामविलास पासवान, प्रमोद महाजन, अरुण शौरी की ओर से बांटे गए लाइसेंस का हवाला दिया। एनडीए की ओर से बनाई पहले आओ, पहले पाओ की नीति पर पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन, पूर्व पीएम चंद्रशेखर और बाल ठाकरे के विरोध का जिक्र किया। सिब्बल ने 1999 में बदली गई टेलीकॉम पॉलिसी के लिए वाजपेयी को कटघरे में खड़ा किया। फिर बोले- स्पेक्ट्रम आवंटन में हमने एनडीए की ही नीति का अनुसरण किया। तो 1.76 लाख करोड़ के राजस्व नुकसान की बात कही जा रही, जो जनता के बीच भ्रम फैलाने का प्रयास। अब सवाल- जब सिब्बल एनडीए की नीति को कटघरे में खड़ा कर रहे। तो यूपीए ने क्यों जारी रखी? क्या मंत्री के पास कोई अपनी समझ नहीं? आखिर यह कैसी दलील, जब एक तरफ सिब्बल सीएजी की क्षमता पर सवाल उठा रहे। तो दूसरी तरफ सीएजी की ओर से उठाई कुछ गड़बड़ी की बात कबूल भी कर रहे। खुद सीबीआई भ्रष्टाचार पर मचे इस हंगामे से पहले 22,000 करोड़ के नुकसान का आकलन कर चुकी। पर सिब्बल ने सीएजी की रपट कितनी पढ़ी, आप खुद अंदाजा लगाओ। रपट में घोटाले के आकलन के तीन मापदंड। सबसे कम 58,000 करोड़ का। फिर 66,000 करोड़ और आखिरी आंकड़ा 1.76 लाख करोड़ का। यानी घोटाला 58,000 करोड़ से 1.76 लाख करोड़ के बीच का ही। पर भ्रष्टाचार के मुद्दे ने कांग्रेस की चूलें हिला रखीं। सो अपनी ही एजेंसी पर सवाल उठाने लगी सरकार। वैसे भी कांग्रेस की फितरत, अगर कोई संवैधानिक संस्था या नौकरशाह ‘जो तुमको हो पसंद, वही बात न करे’ तो ऐसे ही सवाल उठाती। जो सुर में सुर मिलाते, नवीन चावला और पी.जे. थॉमस की तरह आंखों के नूर बने रहते। तभी तो इनकम टेक्स ट्रिब्यूनल का फैसला मंजूर नहीं, सीएजी की रपट भी नहीं। सो कहीं सवाल खड़ा करते-करते कांग्रेस एक दिन देश के लिए ही सवाल न बन जाए।
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07/01/2011

Thursday, January 6, 2011

रास्ते तो छह सुझाए, पर मंजिल नहीं तेलंगाना की!

तो बोफोर्स केस की फाइल फिलहाल बंद नहीं होगी। कोर्ट ने सीबीआई की नीयत पर शक जाहिर करते हुए अब दस फरवरी की तारीख तय कर दी। यों शर्म का परदा फाड़ चुकी कांग्रेस ने हर हाल में क्वात्रोची को राहत दिलाने की ठान रखी। सो अब इनकम टेक्स ट्रिब्यूनल के फैसले को ही अप्रासंगिक ठहराना शुरू कर दिया। कांग्रेस की ओर से कोई ऐसे बयान आएं, तो बोलने वाले का नाम बताने की जरूरत नहीं। बटला हाउस एनकाउंटर में अपने सुरक्षा बल की शहादत को भुला मारे गए आतंकवादी के प्रति सहानुभूति जतानी हो। आतंकी के घर वालों को दिलासा दिलाने आजमगढ़ जाने की बात हो। नक्सलवादियों से प्यार करने की बात हो। या आतंकवाद पर वोट बैंक की सियासत। सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता का काम। सो जो भी मामला कांग्रेस के खिलाफ जाता हो, अपने दिग्विजय सिंह सिर्फ सवाल उठाना ही जानते। अब उनने ट्रिब्यूनल के फैसले के समय पर ही सवाल उठा दिए। दलील दी- फैसला 31 दिसंबर को ही क्यों आया, इसकी जांच हो। अब आप क्या कहेंगे? ट्रिब्यूनल ने जो सबूत दिए, उन पर कांग्रेस गौर नहीं कर रही। सो कहीं ऐसा न हो, हर मुद्दे पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले दिग्विजय देश के लिए ही प्रश्न बन जाएं। कोई भी नागरिक यह सवाल पूछ सकता- आखिर क्वात्रोची के लिए ऐसी जिद क्यों ठान रही कांग्रेस? क्वात्रोची तो एक दलाल। फिर पूरी सरकार ऐसे बचाने में क्यों जुटी, मानो सगा हो। अब भले सरकार ‘फोर्स’ लगाकर बोफोर्स की फाइल बंद करवा ले। पर सवाल फिर भी रहेगा, आखिर दलाली की रकम गई कहां? क्वात्रोची पर इतनी मेहरबानी की क्या वजह रही? यों कांग्रेस ने जितनी क्वात्रोची की फिक्र की। उसकी आधी फिक्र भी आम आदमी के लिए की होती। तो महंगाई की मारी जनता आज खून के आंसू नहीं रोती। चिदंबरम तो कह ही चुके- महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। सोनिया-मनमोहन-प्रणव जुबानी चिंता जता रहे। सो खाने-पीने की चीजों की महंगाई दर 18.32 फीसदी पहुंच गई। आखिर यह आम आदमी के साथ कैसी दिल्लगी, जो सीधे दिल को लग रही। पर जनता के साथ वादाखिलाफी शासकों की फितरत बन चुकी। तभी तो तेलंगाना की आग थमने का नाम नहीं ले रही। पिछले साल नौ दिसंबर को केबिनेट ने आनन-फानन में फैसला लिया। चिदंबरम ने तेलंगाना गठन का सार्वजनिक एलान कर दिया। पर ऐसी आग लगी, कांग्रेस दोधारी तलवार पर खड़ी दिखी। सो आम सहमति के नाम पर पल्ला झाडऩे की कोशिश हुई। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बी. श्रीकृष्ण की रहनुमाई में कमेटी बना दी। अब साल भर बाद कमेटी की रपट आ गई। गुरुवार को आंध्र से जुड़े सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग में रपट सार्वजनिक हुई। कमेटी ने मसले के समाधान के लिए छह विकल्प सुझाए। पर विकल्प देखकर बचपन की कुछ यादें ताजा हो गईं। गांव का कोई बच्चा शहर से पढक़र छुट्टियों में घर आता। तो दो-चार लोग घेरकर उसकी परीक्षा लेने लगते। अक्सर यह सवाल पूछकर उसकी परीक्षा ली जाती। इसका अंग्रेजी में अनुवाद करो- छब्बू की छत पर छह छछूंदर छह दिनों से छछुआ रहे थे। अब कोई भी व्यक्ति ऐसे सवाल से सिर धुनने लगे। अब आप खुद ही श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के छह सुझाव देखिए। पहला- संयुक्त आंध्र प्रदेश कायम रखा जाए। दूसरा- आंध्र प्रदेश को तीन हिस्सों में बांटा जाए। तीसरा- आंध्र प्रदेश को रायल तेलंगाना और तटीय आंध्र, दो राज्यों में बांट दिया जाए। चौथा- आंध्र को दो राज्यों में बांटकर वृहत हैदराबाद को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए। पांचवां- मौजूदा भौगोलिक सीमा के आधार पर ही सीमांध्र और तेलंगाना राज्य का निर्माण हो, साथ ही हैदराबाद को तेलंगाना की राजधानी बना दिया जाए। सीमांध्र अपनी नई राजधानी अलग बना ले। छठवां- आंध्र प्रदेश को संयुक्त रख तेलंगाना क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए वैधानिक रूप से अलग रीजनल काउंसिल बनाई जाए। अब कोई पूछे- कमेटी ने क्या नया सुझाव दिया? कमेटी ने अपनी छह सिफारिशों में से तीन तो खुद ही अव्यवहारिक बता दीं। सो कमेटी की साल भर की एक्सरसाइज का क्या फायदा मिला? तेलंगाना का मुद्दा जहां था, वहीं अटका पड़ा। तेलंगाना को लेकर ऐसे फार्मूले पहले भी आ चुके। सो कुल मिलाकर कमेटी ने सभी फार्मूलों का संकलन कर रपट सौंप दी। पर रपट आते ही विरोध शुरू हो गया। टीआरएस ने हैदराबाद के साथ तेलंगाना से कम कुछ भी मंजूर न करने का एलान कर दिया। तो अब दोधारी तलवार पर चल रही कांग्रेस और चिदंबरम ने छठे विकल्प को कारगर बताना शुरू कर दिया। यानी रीजनल काउंसिल बना क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने की कोशिश। पर क्या यह फार्मूला भी कारगर होगा? तेलंगाना का आंदोलन 1960 के दशक में शुरू हुआ। तो कांग्रेस से अलग होकर डा. चेन्ना रेड्डी ने तेलंगाना प्रजा समिति बनाई। पर तभी जवाब में जय आंध्र का गठन हुआ। फिर विकास और रोजगार के असंतुलन को दूर करने के लिए 1967 में तेलंगाना के लिए पब्लिक एंप्लायमेंट एक्ट में संरक्षण की व्यवस्था की गई। पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक ठहरा दिया। अगर तभी सरकार जाग गई होती, तो छठा फार्मूला आज सचमुच कारगर दिखता। पर अब बहुत देर हो चुकी। सो तेलंगाना की खातिर निकली तलवार अब म्यान में वापस पहुंचाना संभव नहीं। शरद यादव ने तो सोलह आने सही कहा- कमेटी की रिपोर्ट दिशाहीन। हम जहां थे, वहीं खड़े हैं। सचमुच कमेटी ने रास्ते तो छह सुझाए। पर मंजिल नहीं मिल रही।
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06/01/2011

Wednesday, January 5, 2011

‘महंगाई टैक्स’ से लुटी प्रजा, ‘राजाओं’ का हुआ ‘विकास’!

इधर भ्रष्टाचार का घड़ा बोफोर्स से ओवर-फ्लो हुआ। उधर स्पेक्ट्रम घोटाले ने करुणानिधि के घर में कोहराम मचा दिया। करुणा के बड़े बेटे एम.के. अझागिरी ने बुधवार को केबिनेट मंत्री समेत पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। ए. राजा और कनीमोझी को डीएमके से बर्खास्त करने की मांग की। साथ ही शर्त रख दी, विधानसभा चुनाव में सीएम के लिए किसी का नाम प्रोजैक्ट न हो। और स्टालिन या उनमें से जिसका पलड़ा चुनाव बाद भारी हो, वही सीएम बने। यों फिलहाल अझागिरी ने इस्तीफा अपने पिता करुणा को भेजा। सो समकालीन भारत के शाहजहां अब संकट में फंस गए। राजा तो रिश्तेदारी से बाहर, पर कनीमोझी तो उनकी तीसरी बीवी रजाथी से पैदा सांसद बेटी। करुणा सीएम के तौर पर स्टालिन को प्रोजैक्ट करना चाह रहे। पर बड़ा भाई अझागिरी दावा छोडऩे को राजी नहीं। सो तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके के पारिवारिक फिल्म का क्लाइमैक्स क्या होगा, यह तो वक्त बताएगा। पर फिलहाल भ्रष्टाचारियों के वक्त सही नहीं चल रहे। ना-नुकर करते आखिरकार बुधवार को सुरेश कलमाड़ी को सीबीआई दफ्तर पहुंचना ही पड़ा। कॉमनवेल्थ घोटाले में घंटों कड़ी पूछताछ हुई। पर सीबीआई ने सजा दिलाने के लिए कड़ी से कड़ी जोड़ी या बचाने के लिए, यह तो भविष्य के गर्भ में। कलमाड़ी-राजा के बाद अब बोफोर्स ने कांग्रेस को मुश्किल में डाल रखा। सो बीजेपी ने भी बुधवार को कोर ग्रुप की मीटिंग कर हमले की धार और तेज करने की रणनीति बनाई। यानी भ्रष्टाचारियों का भले कुछ न बिगड़े। पर भ्रष्टाचार को मुद्दा बना वोटों का हिसाब-किताब हो रहा। सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं, अब तो गणतंत्र दिवस से बीस दिन पहले तिरंगे पर तकरार शुरू हो गई। बीजेपी की यूथ विंग के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर कोलकाता से श्रीनगर तक की एकता यात्रा पर निकले हुए। पर युवा नेतृत्व की आड़ में बीजेपी के घाघों ने रणनीति बनाई। सो मकसद समझना कोई बड़ी बात नहीं। श्रीनगर में तिरंगा फहराने को लेकर हमेशा विवाद रहा। अलगाववादी ताकतें 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन हमेशा पाकिस्तानी झंडा लहराती दिखतीं। सो बीजेपी ने तिरंगे की आड़ में भावनात्मक लहर पैदा करने का मंसूबा बनाया। रही-सही कसर बुधवार को खुद जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला ने पूरी कर दी। उमर ने ऐसा बयान दिया, ‘वैद्या फरमाए वही, जो रोगी चाहे’ वाली कहावत चरितार्थ कर दी। तिरंगे पर तकरार बीजेपी को भी राजनीतिक लिहाज से शूट करती। घाटी के हालात के लिहाज से उमर को भी मुफीद। सो बीजेपी ने उमर के बयान पर फौरन खम ठोका। सीधे अरुण जेतली मैदान में कूदे। कहा- तिरंगा फहराने के लिए किसी की इजाजत की जरूरत नहीं। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। पर उमर ने कहा- अब घाटी में हालात बिगड़े, तो बीजेपी जिम्मेदार होगी। अब गुरुवार को तेलंगाना पर सर्वदलीय मीटिंग में भी कांग्रेस का तेल निकलना तय। बीजेपी-टीआरएस पहले ही मीटिंग के बॉयकाट का एलान कर चुकीं। अब आप खुद ही देखिए, राजनीति का यह कैसा स्तर? आखिर अपने नेता देश को कहां ले जाना चाहते? आखिर किसी भी एक मुद्दे पर कभी राजनीतिक एका क्यों नहीं दिखता? हर मुद्दे में वोट बैंक की राजनीति क्यों घुस जाती? सचमुच नजीर पेश करने वाले नेता राजनीति के बियाबां में कहीं खो चुके। अब नेताओं में सिर्फ एक ही बात का एका दिखता। वह है- जनता की गाढ़ी कमाई को लूट-खसोट कर पांच साल में ही अपनी संपदा पचास गुना बढ़ा लेना। ऐसे मामलों में कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं। क्या आज कोई भी ऐसा दल है- जिसकी चाल टेढ़ी न हो, चरित्र में दाग न हो, चेहरा कुरूप न हो? कोई एक बार नेतागिरी में घुसा, खुदा न खास्ते एमपी-एमएलए-पार्षद बन गया। तो शायद दिल-ओ-दिमाग में यह नारा घर कर जाता- कर लो दुनिया मुट्ठी में। सो राजनीति से लोगों का भरोसा उठ रहा। आखिर जनता का भरोसा क्यों न उठे? महंगाई छह साल से आम आदमी को मुंह चिढ़ा रही। पर मनमोहन हों या सोनिया, सिर्फ जुबानी भरोसा दिला रहे। अब बुधवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने महंगाई को एक टैक्स बता दिया। बोले- महंगाई से बड़ा कोई टैक्स नहीं। अगर आपकी आमदनी काफी अधिक है, तो उसे महंगाई खा जाती है। उन ने पहली बार कबूला- हमें पक्का विश्वास नहीं है कि खाने-पीने की चीजों की कीमत नियंत्रित करने के लिए हमारे पास सभी तरह के उपाय हैं। अब बोफोर्स पर इनकम टेक्स ट्रिब्यूनल के ताजा फैसले के बाद यह प्रणव मुखर्जी पर हमला या कुछ और। पर सवाल, जब चिदंबरम खुद वित्त मंत्री थे, तब सोचने की शक्ति कहां थी? अब जो भी हो, चिदंबरम के बयान से साफ हो गया। मनमोहन सरकार की विकास दर आम आदमी की छाती पर मूंग दलकर बढ़ी। आम आदमी तो कंगाल ही रह गया। राजाओं-कलमाडिय़ों ने विकास का भरपूर फायदा उठाया। सचमुच विकास दर का ही नमूना, जब मनमोहन वित्तमंत्री थे, तो लाख रुपए में सांसद बिक जाते थे। जब पीएम बने, तो कीमत 25 करोड़ पहुंच गई। अब तो मनमोहन का दावा फिर फेल होता दिख रहा। महंगाई फिर कहर बरपा रही। मनमोहन ने कांग्रेस अधिवेशन में मार्च तक महंगाई दर साढ़े पांच फीसदी लाने का भरोसा दिया था। पर जिस तरह कीमतें बढ़ रहीं, आम आदमी का राम ही राखा। पेट्रोल में तो पहले ही आग लग चुकी। बस महीने-दो महीने का इंतजार करिए। डीजल और रसोई गैस में भी ‘मनमोहिनी विस्फोट’ होंगे।
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05/01/2011

Tuesday, January 4, 2011

भ्रष्टाचारियों से घिरे पीएम, सोनिया पर तना ‘बोफोर्स’

अब विजयी मुद्रा में दिग्विजय इतरा रहे। सो मंगलवार को सिर्फ विपक्ष नहीं, अपने सहयोगियों पर भी निशाना साधा। हेमंत करकरे पर दिए अपने बयान को पुष्ट करने के लिए दिग्विजय ने आखिर बीएसएनएल से रिकार्ड निकलवा ही लिया। फिर खम ठोककर मैदान में कूदे। तो कॉल डिटेल की प्रति बंटवाईं। जिसमें दिग्विजय के मोबाइल से महाराष्ट्र एटीएस के दफ्तर के नंबर पर फोन किए जाने का रिकार्ड। यानी मुंबई हमले के दिन पांच बजकर 44 मिनट पर दिग्विजय के मोबाइल से हेमंत करकरे के दफ्तर में फोन हुआ। सो तेवर दिखा दिग्विजय बोले- मुझे झूठा, देशद्रोही कहने वाले मेरी निष्ठा और ईमानदारी पर सवाल उठाने वाले अब तो मुझसे माफी मांगो। अगर माफी नहीं मांग सकते, तो कम से कम खेद जता दो। पर सबूत के बाद भी कांग्रेस दिग्विजय के साथ नहीं खड़ी। तो भला देश कैसे भरोसा करे। कांग्रेस ने तो इसे दिग्गी का निजी मसला बता दिया। पर दिग्विजय ने बाकायदा महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर. पाटिल को चिट्ठी लिख माफी मांगने को कहा। पाटिल ने विधानसभा में दिग्विजय को झूठा बताया था। करकरे-दिग्विजय की बातचीत के किसी रिकार्ड से इनकार किया था। अब आर.आर. पाटिल क्या सफाई देंगे, यह बाद की बात। पर सवाल वही, दिग्विजय के सबूत को कैसे सच मान लें? जिस नंबर पर बात हुई, वह एटीएस दफ्तर का जनरल नंबर। खुद दिग्विजय की मानें, तो वह कभी करकरे से मिले नहीं। ना दिग्विजय देश के गृहमंत्री, ना पुलिस के आफीसर। तो सवाल, करकरे ने अपनी पीड़ा पत्नी को न बता दिग्विजय को ही क्यों बताई? हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने तो मंगलवार को भी दोहराया- जब मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकी हमले की जांच में पकड़े जा रहे थे। तब भी करकरे को धमकी मिलती थी। सो मालेगांव की जांच में हिंदू कट्टरपंथियों से धमकी कोई हैरानी की बात नहीं थी। पुलिस वालों की जिंदगी में यह साधारण सी बात। पर दिग्विजय की मानें, तो करकरे बेहद व्यथित थे। धमकियों से परेशान थे। पर सवाल हुआ- क्या दिग्विजय ने यह सूचना देश के गृहमंत्री को दी? आखिर दिग्विजय से ही करकरे ने ऐसा कहा। तो कोई झक मारने के लिए नहीं कहा होगा। अगर मध्य प्रदेश की पैदाइश होने के नाते करकरे-दिग्विजय करीब आए। तो दिग्विजय ने उनकी मदद क्यों नहीं की? अगर इन पहलुओं को छोड़ भी दें। तो सवाल- इस बात का सबूत नहीं कि दिग्विजय ने करकरे से ही बात की। अगर की भी, तो क्या वही बात हुई। जो दिग्विजय कह रहे। जब से दिग्विजय ने यह खुलासा किया, तबसे खुद कई रंग बदल चुके। पहले हेमंत करकरे की ओर से फोन आने की बात कही थी। पर बवाल मचा, तो अगले दिन ही अपनी ओर से फोन करने का दावा किया। अब कह रहे- पहले एटीएस के दफ्तर के नंबर से मिस्ड कॉल आई, फिर उन ने पलटकर फोन किया। सवाल और भी, कुछ दिन पहले ही दिग्विजय ने कहा था- मैंने बीएसएनएल से रिकार्ड मांगा है। पर भोपाल बीएसएनएल ने यह कहते हुए मना कर दिया कि एक साल से अधिक का रिकार्ड नहीं रखते। पर अब कोई पूछे- उसी भोपाल बीएसएनएल ने रिकार्ड कैसे मुहैया करा दिया। अब चाहे जो भी हो, पर दिग्विजय कांग्रेसी एजंडे को बखूबी अंजाम दे रहे। जैसे पाकिस्तान अपने ही कथित इस्लामिक आतंकवाद का शिकार, दिग्विजय भारत को कथित हिंदू आतंकवाद का शिकार साबित करने में जुटे हुए दिख रहे। मंगलवार को पाकिस्तान के पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर को इंदिरा गांधी की तर्ज पर ही उनके कमांडो ने मार डाला। सो बीजेपी ने तो दिग्विजय पर फौरन पलटवार किया। बोली- ऐसे बयानों से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कमजोर हो रही। पर अपने नेताओं को इससे क्या फर्क पड़ता। आतंकवाद हो या भ्रष्टाचार जैसी बीमारी, सबको वोट बैंक की आलमारी में सहेज लेते। सो आतंकी जेल में बैठ आराम की रोटी तोड़ते। तो भ्रष्टाचार सत्ता में बैठ खुद को कुबेर समझते। अब भ्रष्टाचार के ताजा किस्सों को छोड़ दें। तो बोफोर्स ने कलई खोल दी। कैसे एक आरोपी को बचाने के लिए समूचा सिस्टम खड़ा था, यह इनकम टेक्स ट्रिब्यूनल और सीबीआई की अलग-अलग दलीलों से साफ हो गया। ट्रिब्यूनल में बोफोर्स दलाली की बात साबित हो गई। पर सीबीआई को आका का हुक्म नहीं मिला। सो मंगलवार को तीस हजारी कोर्ट में क्वात्रोची को क्लीन चिट दिलवाने की ही दलील देती रही। पर जज ने पूछ लिया- ट्रिब्यूनल के फैसले के बाद कानून मंत्री के बयान के बारे में सीबीआई का क्या रुख है? पर सीबीआई के वकील ने दो-टूक कह दिया- क्वात्रोची से मामला वापस लेने की अर्जी सभी पहलुओं को गहराई से विचार करने के बाद दी गई थी। पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने कोई फैसला नहीं दिया। अलबत्ता सुनवाई की अगली तारीख छह जनवरी मुकर्रर कर दी। उसी दिन तेलंगाना पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट भी सार्वजनिक होनी। पर बात बोफोर्स की, तो मंगलवार को बीजेपी हो या बाकी विपक्ष। भ्रष्टाचार के मुद्दे की चपेट में दस जनपथ को भी घसीट लिया। टू-जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ और आदर्श पर हुई मनमोहन की किरकिरी। जेपीसी-पीएसी के झमेले में मनमोहन उलझ चुके। विपक्ष भ्रष्टाचार के घेरे में पीएम को ले चुका। अब ट्रिब्यूनल के फैसले से सीधे सोनिया गांधी पर ‘बोफोर्स’ तान दी। रविशंकर प्रसाद बोले- गांधी परिवार से करीबी रिश्ते की वजह से कांग्रेस और उसकी समर्थित सरकारों ने क्वात्रोची को बचाने का ही प्रयास किया। क्वात्रोची बचाओ मुहिम में एक बेहद शक्तिशाली छुपा हुआ हाथ काम कर रहा।
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04/01/2011

Monday, January 3, 2011

बोफोर्स पर सीबीआई का साथ, ट्रिब्यूनल का तमाचा

 बीते साल के साये ने नए साल को भी दबोच लिया। नए साल के चौथे दिन ही सूर्य ग्रहण। अब यह ग्रहण किसके लिए शुभ या अशुभ, यह तो कोई ज्योतिषी ही बताएगा। पर अपना देश तो अरसे से राजनीतिक ग्रहण का शिकार। जनता लुटती जा रही, नेताओं के घर भरते जा रहे। तभी तो भ्रष्टाचार सुरसा की तरह मुंह फैला चुका। सो 2010 के आखिर में भ्रष्टाचार का जो हवन शुरू हुआ, थम नहीं रहा। अब ग्रहण से पहले भ्रष्टाचार के हवन में बोफोर्स का भी घी टपक गया। बोफोर्स मामले में इनकम टेक्स ट्रिब्यूनल ने क्वात्रोची और बिन चड्ढा को रिश्वत दिए जाने का दावा किया। ट्रिब्यूनल ने माना- बोफोर्स सौदे के लिए क्वात्रोची और चड्ढा को दलाली दी गई। ट्रिब्यूनल ने बाकायदा भुगतान की प्रक्रिया का भी ब्यौरा दिया। अब इतना बड़ा खुलासा हो, तो विरोध की आग धधकनी तय थी। सो बीजेपी के अरुण जेतली ने हमेशा की तरह बोफोर्स पर कमान संभाली। बोले- सरकारी नीति का उल्लंघन कर बोफोर्स सौदे में दलाली दी गई। सच्चाई दब नहीं सकती, सो ट्रिब्यूनल के फैसले से सच सामने आ गया। पर उन ने नया राग छेड़ा- सीबीआई की ईमानदारी पर भरोसा नहीं। सो अब बोफोर्स दलाली की जांच एसआईटी से हो। पर राजनीति की असली जंग मंगलवार को दिखेगी। बोफोर्स की जांच कर रही सीबीआई पिछले साल ही क्वात्रोची के खिलाफ मुकदमे की फाइल बंद करने की अर्जी डाल चुकी। जिस पर दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट मंगलवार को अपना फैसला सुनाएगी। सीबीआई ने अर्जी में कहा था- क्वात्रोची के खिलाफ कोई सबूत नहीं। सो केस को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं। पर अब इस नए खुलासे के बाद सीबीआई क्या कहेगी? आखिर सीबीआई को क्या हो गया? कभी सिख विरोधी दंगे के आरोपी जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दिला रही। तो सीबीआई कभी तेरह साल की मासूम बच्ची आरुषि का हत्यारा नहीं ढूंढ पा रही। राजनीतिक आकाओं के इशारे पर कभी ये फाइल बंद, कभी वो फाइल बंद, यही सीबीआई का ढर्रा बन गया। अगर सीबीआई के पास क्वात्रोची के खिलाफ कोई सबूत नहीं। तो आईटी ट्रिब्यूनल ने कैसे इतना बड़ा खुलासा किया? अब कांग्रेस को सांप सूंघना लाजिमी। सो ट्रिब्यूनल के फैसले के बाद अभिषेक मनु सिंघवी बोले- पढ़ेंगे, सोचेंगे, फिर बोलेंगे। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने तो सफाई देने के बजाए विपक्ष के नेता अरुण जेतली पर ही निशाना साध दिया। बोले- जेतली ने खुद कानून मंत्री रहते क्या कर लिया? इसे कहते हैं- नाच ना जाने, आंगन टेढ़ा। एनडीए काल में क्या हुआ, यह 29 अप्रैल 2009 को कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की टिप्पणी से स्पष्ट। जब सीबीआई ने क्वात्रोची पर मेहरबानी दिखाते हुए रेड कार्नर नोटिस वापस लेना तय किया था। तब सिंघवी ने कहा था- बोफोर्स मामले में सिर्फ अदालती कार्रवाई पर 200 करोड़ खर्च हो चुके। जिनमें 150 करोड़ तो सिर्फ एनडीए राज में खर्च हुए। फिर भी हाथ कुछ नहीं लगा। सो क्वात्रोची के खिलाफ रैड कॉर्नर नोटिस के अब कोई मायने नहीं थे। पर सिंघवी को अपना यह बयान याद होगा या नहीं, यह तो वही जानें। पर सवाल वही, आखिर ट्रिब्यूनल को सबूत कैसे मिल गए? अब भले कांग्रेस सीबीआई के बेजा इस्तेमाल से इनकार करे। पर बोफोर्स दस्तावेज देश में लाने वाले सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर जोगिंदर सिंह की एक टिप्पणी भी बताते जाएं। उन ने कहा था- सीबीआई स्वतंत्र एजेंसी नहीं है। हो सकता है, आप इससे सहमत नहीं हों। पर क्वात्रोची को 73.2 लाख डालर मिले थे। वह दस्तावेज स्विटजरलैंड के अधिकारियों ने खुद मुझे दिए थे। अब जोगिंदर सिंह की बात छोड़ भी दें। तो बोफोर्स घोटाले का समूचा घटनाक्रम अपनी कहानी खुद बयां कर रहा। तेईस साल हो चुके, पर न दलाली की रकम वापस लौटी, न दलाल क्वात्रोची हत्थे चढ़ा। अलबत्ता 64 करोड़ की दलाली की जांच में अब तक 300 करोड़ खर्च हो चुके। अब अगर पुराने मामले छोड़ दें, तो यूपीए के वक्त हुए खेल को ही देखो। फरवरी 2007 में अर्जेंटीना में क्वात्रोची गिरफ्तार हुआ। सीबीआई के पास आठ फरवरी को खबर आ चुकी थी। पर खुलासा 23 फरवरी को हुआ। जब तक अपने सीबीआई वाले पहुंचते, छब्बीस फरवरी को क्वात्रोची जमानत पर छूट चुका था। अपनी सुप्रीम कोर्ट ने क्वात्रोची के लंदन खाते से पैसा न निकले, यह सुनिश्चित करने की हिदायत सरकार को दी। पर आदेश से पहले ही लीगल ओपीनियन की आड़ में एडीशनल सोलीसीटर जनरल बी. दत्ता लंदन जाकर खाते खुलवा चुके थे। क्वात्रोची अपनी दलाली की रकम निकाल चुका था। फिर 2008 में लीगल ओपीनियन के जरिए क्वात्रोची से रेड कार्नर नोटिस हटाने की बात हुई। तो अप्रैल 2009 में वह भी हट गया। अब कोई पूछे, सीबीआई क्वात्रोची के खिलाफ जांच कर रही थी या बचाने की कोशिश? सो 29 अप्रैल 2009 को यहीं पर एक सवाल उठाया था- क्वात्रोची को क्लीन चिट के बाद क्या मानहानि भी देगी सरकार? सीबीआई और कांग्रेस की रहनुमाई वाली सरकार को शायद ऐसा करने में भी गुरेज न होता, गर देश में लोकतंत्र न होता। सो सोमवार को ट्रिब्यूनल ने तमाचा मारा। अब मंगलवार को आंशिक सूर्य ग्रहण का कांग्रेस पर कितना असर पड़ा, यह कोर्ट के फैसले से ही मालूम पड़ेगा।
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03/01/2011