Monday, February 28, 2011

तो चतुर सुजान निकले बाबू मोशाय!

काला जादू तो चला। पर न आंख बंद हुई, न डिब्बा गायब। पिछले साल सिर्फ बिहार में चुनाव था। सो बजट में ही पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा प्रणव दा ने दादागिरी दिखाई। तो बिहार में सूपड़ासाफ हो गया। पर अबके बंगाल में चुनाव। सो दादा ने आम आदमी से दिल्लगी की। उद्योग जगत को दिखाई दरियादिली। सो उद्योग जगत ने भी दरिया मेें डूब-डूब कर सराहना की। आखिर करे भी क्यों नहीं, प्रणव दा ने अबके सिर्फ जादूगरी दिखाई। बजट को लोक-लुभावन और खजाने के बीच तालमेल बिठाने वाला बनाया। टेक्स ढांचा हर बजट के लिए रीढ़ की हड्डी। सो एक तरफ आम करदाताओं की टेक्स छूट सीमा बढ़ाकर 1.80 लाख की। तो महिलाओं का अलग स्लैब ही खत्म कर दिया। बुजुर्गों को मिलने वाली राहत में भी चतुराई दिखाई। अस्सी पार के बुजुर्गों की नई कैटेगरी बना अति वरिष्ठ कहा। वरिष्ठ नागरिकों की उम्र सीमा घटा साठ साल कर दी। पर छूट के नाम पर दस हजार का ठेंगा थमा दिया। अति वरिष्ठों की छूट पांच लाख कर वाहवाही लूटी। पर आंकड़ों का गोल-मोल देखिए। टेक्स देने वाले अति वरिष्ठों की संख्या एक फीसदी भी नहीं होगी। यानी प्रणव दा ने इस हाथ से छूट दी, उस हाथ से खजाना भर लिया। सो महिलाओं में नाराजगी लाजिमी। सुषमा स्वराज से लेकर गिरिजा व्यास तक खफा दिखीं। दादा के बजट में महंगाई की फिक्र तो थी। पर नहीं था निपटने का उपाय। पिछले कुछ साल में हर मध्यम वर्गीय गृहिणी का किचिन कॉस्ट ढाई से तीन हजार रुपए महीना बढ़ गया। पर दादा ने मध्यम वर्गीय महिलाओं से विशेष टेक्स छूट छीन ली। सो महिलाओं की टेक्स छूट जस की तस रही। यानी महज सालाना दो हजार। अब कोई पूछे- टेक्स सीमा के मुताबिक मिडिल क्लास की मासिक आय हुई 15 हजार रुपए। तो क्या दिल्ली जैसे महानगर में इस वेतन से परिवार का सहज भरण-पोषण संभव? यों आंगनबाड़ी की महिलाओं को दादा ने निहाल कर दिया। सेविका-सहायिका दोनों के वेतन पहली अप्रैल से दुगुने हो जाएंगे। सेल्फ हैल्प ग्रुप बना 500 करोड़ का फंड भी तय कर दिया। सो दादा के बजट से गांव की महिलाओं में खुशी, तो शहरी महिलाओं में गम। अब जरा गरीबों की फिक्र में बजट का हाल देखिए। सरकार की मजबूरी आवंटन में साफ हो गई। पिछली दफा जोर-जोर से मनरेगा का आवंटन बता रहे थे कांग्रेसी। पर अबके सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी सारी परियोजनाओं का एकमुश्त आवंटन हुआ, जो पिछले बजट से 17 फीसदी अधिक। भारत निर्माण में भी एकमुश्त आवंटन कर 48 से 58 हजार करोड़ कर दिया। सामाजिक क्षेत्र के आवंटन में सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षी योजना राइट टू फूड भी शामिल। इसी साल राइट टू फूड को संसद से पारित करा लागू करने का एलान। सो बजट में 17 फीसदी बढ़ोतरी और सरकारी खजाने की मजबूरी का अंदाजा लगा लीजिए। यों महंगाई की मदद से बढ़ी विकास दर की खुशी भी छलकी। राजकोषीय घाटा 5.5 से घटकर 5.1 फीसदी होने पर दादा गदगद दिखे। एफआरबीएम एक्ट में संशोधन कर इसे और कम करने का दावा किया। पर महंगाई की मार झेल रही आम जनता का घाटा कैसे कम हो, बजट में कुछ नहीं। अलबत्ता प्रणव दा ने पिछले साल भी बजट भाषण में इंद्र देवता के सामने हाथ फैलाए थे। अबके भी उन ने पिछले साल की तरह इंद्र की कृपा मांगी। यानी महंगाई फिर इंद्र के भरोसे। पर जब पिछले साल इंद्र मेहरबान हुए, तो महंगाई कम क्यों नहीं हुई? प्रणव दा ने इंद्र से मानसूनी वर्षा का वरदान मांगा। तो धन की देवी लक्ष्मी से भी अरज लगाई। यानी मानसून के सहारे महंगाई रोकने की उम्मीद। तो विकास के लिए लक्ष्मी से प्रार्थना। पर महज मानसूनी बारिश से क्या होगा, गर किसानों को सहूलियत न मिले। सो दादा ने किसानों के साथ भी आंकड़ों के खूब करतब दिखाए। किसानों के लिए कर्ज लक्ष्य की सीमा 3,75,000 करोड़ से बढ़ाकर 4,75,000 करोड़ कर दी। पर जब राधा ही न नाचे, तो नौ मन तेल का क्या होगा? किसानों को दस्तावेज की आड़ में कभी आसानी से कर्ज मिलते ही नहीं। सो लिमिट बढ़ाकर पूरा बजट ही रख दो, क्या हो जाएगा? बैंकों के पास किसानों के लिए हुआ आवंटन यों ही पड़ा रहेगा। अब किसान कर्ज की ब्याज दर को सात फीसदी बरकरार रखा गया। पर समय पर कर्ज अदा करने वाले किसान को सात की बजाए चार फीसदी ही ब्याज देना होगा। अब कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति के लिए ऊंट के मुंह में जीरा के समान 400 करोड़ दिए। कृषि क्षेत्र में समुचित विकास का बजट 37,500 से बढ़ाकर 47,500 करोड़ कर दिया। पर आप आंकड़ों का पुराना खाक देख लो। कृषि मद के करीबन 90 फीसदी पैसे कृषि आधारित उद्योग में खप जाते। सो कैसे होगी कृषि आत्मनिर्भरता? अब प्रणव के बजट में इस साल किसानों को कितना मिला, यह देखना होगा। यों पेंशन में भी नई कैटेगरी बना दादा ने राहत दी। पर कुल मिलाकर काला धन हो या महंगाई, भ्रष्टाचार हो या सब्सिडी, तस्वीर साफ नहीं। कैरोसिन, एलपीजी, खाद पर सब्सिडी के बदले मार्च 2012 से कैश मिलेगा। तो क्या बाकी देश में एलपीजी की सब्सिडी खत्म होगी? यानी पूरे बजट में आम आदमी, गरीब और गांव से जुड़े मुद्दों पर खूब चिंता जताई। उद्योग जगत को वाहवाह कर दिया। मंदी से उबरने के बावजूद 2008 से मिल रही उद्योग जगत की छूट को दादा ने कंटीन्यू कर दिया। अरबपति देश में बढ़ गए। पर बजट की चपेट में कोई उद्योगपति नहीं, ना ही कोई नया कर। सो सोचिए, अब अगर पेट्रोल की कीमतें बढ़ी, तो महंगाई पर भविष्यवाणी का क्या होगा?
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28/02/2011

 

Friday, February 25, 2011

तो बदहाल रेलवे का बेहाल बजट

रेत की इमारत आखिर कब तक बुलंदी को छुएगी। लालू यादव ने चिकनी-चुपड़ी चकल्लसबाजी खूब की। तो शीशे की चमक में सब चौंधिया गए। लालू इतने मशहूर हुए, हार्वर्ड तक मैनेजमेंट का पाठ पढ़ा आए। पर राज छिना, तो लालू के काज की पोल भी खुल गई। ममता बनर्जी ने व्हाइट पेपर लाकर रेलवे का बदरंग चेहरा देश को दिखा दिया। पर 90 के दशक से भला कौन रेल मंत्री देश की सोच बजट पेश करता? हर रेल मंत्री ने रेलवे को चुनावी हथकंडा ही बनाया। सो शुक्रवार को ममता बनर्जी यूपीए राज का तीसरा रेल बजट पेश करने पहुंचीं। तो बजट से पहले बंगाल चुनाव का प्रोमो प्रणव दा ने ही दिखा दिया। लोकसभा में अपने किरोड़ीलाल मीणा ने ब्लैकमनी पर पूरक सवाल पूछा। तो कुछ टीका-टिप्पणी के बाद प्रणव दा आग-बबूला हो उठे। वामपंथियों को निशाने पर ले लिया। बोले- ब्लैकमनी वालों की लिस्ट में एक वामपंथी नेता का भी नाम। पर बताऊंगा नहीं। सो हंगामा मचा। फिर प्रणव दा ने माफी मांग ली। पर बंगाल चुनाव में वामपंथी किला उखाडऩे का बीड़ा प्रणव-ममता ने उठा रखा। सो प्रणव के प्रोमो के बाद ममता ने बजट पेश किया। तो देश को दुलार मिला, सारी ममता बंगाल पर उड़ेल दी। यों बजट में 88 एक्सप्रेस ट्रेनों का एलान। न यात्री किराया बढ़ाया, न माल-भाड़ा। पर रियायतों का पिटारा भी खूब खोला। विकलांगों और कीर्ति-शौर्य चक्र विजेताओं को अब राजधानी-शताब्दी में छूट। अपने पत्रकारों को अब साल में दो बार बीवी संग बाहर जाने में छूट। पुरुष सीनियर सिटीजन की छूट भी 30 से 40 फीसदी हो गई। महिला सीनियर सिटीजन की उम्र अब 58 होगी। पर बात ममता के बंगाल प्रेम की। तो इसमें कुछ नया नहीं दिखा। ममता ने भी वही किया, जो हर रेल मंत्री करता आ रहा। इस बार से अधिक तो ममता पिछले बजट में बंगाल को दे चुकीं। पिछले साल 54 नई ट्रेनों में से 28 बंगाल के खाते में गई थीं। मल्टी फंक्शनल कांप्लेक्स 93 में से आधा दर्जन बंगाल को दिए थे। विश्व स्तरीय दस स्टेशन में दो बंगाल से थे। टेगोर जयंती के नाम पर हावड़ा-बोलपुर में म्यूजियम, संगीत अकादमी, सांस्कृतिक परिसर आदि-आदि कई योजनाओं के जरिए ममता ने बंगाल चुनाव की बिसात बिछा दी थी। अबके तो उन ने थोड़ा कम किया। पर जितना किया, उसमें भी बंगाल ही अव्वल। वैसे रेलवे की हालत खस्ता। सो बजट में कुछ नया या उत्साहवर्धक नहीं दिखा। बंगाल के दार्जिलिंग में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस, सिंगूर में कोच फैक्ट्री, सियालदाह में सुखी गृह योजना, नए यात्री टर्मिनल, हावड़ा राजधानी एक्सप्रेस में इंटरनेट सुविधा, खडग़पुर में प्रशिक्षण केंद्र, कोलकाता मैट्रो में 34 नई सेवाएं, कोलकाता रेल विकास निगम की स्थापना, कोलकाता क्षेत्र में 50 नई लोकल सेवा, गुरु रवींद्रनाथ टेगोर की याद में चार कवि गुरु ट्रेन, कोलकाता में परियोजना क्रियान्वयन के लिए एक केंद्रीय संगठन की सौगात ममता ने दी। कुल 36 ट्रेनें, 32 परियोजनाएं और 14 मल्टी फंक्शनल कांप्लेक्स बंगाल गए। सो लोकसभा में जमकर हंगामा मचा। हालात ऐसे बन गए, मानो, बिहार और बंगाल के ममतावादी सांसद अब भिड़े-तब भिड़े। संसदीय कार्यमंत्री को दखल देना पड़ा। सो ममता भी सदन में तमतमा उठीं। गुस्से में यहां तक कह दिया- बिहार को हिंदुस्तान बना दो। सदन में ही पूछ लिया- जब मैंने बजट में मणिपुर-केरल का नाम लिया, तो क्यों नहीं चिल्लाए? बंगाल के नाम पर क्यों चिल्लाते हो। मैं अपने राज्य के लिए करूंगी और पूरे देश के लिए करूंगी। यानी ममता ने इशारों में ही कबूल लिया- जो ट्रैंड चला, वह भी दोहरा रहीं। सो सचमुच ममता चुनावी दूरंतो पर सवार होकर रायटर्स बिल्डिंग के सफर को निकल पड़ीं। रायटर्स बिल्डिंग में रेल का यार्ड तो ममता ने पिछले बजट में ही तैयार कर दिया था। सो अब ममता भले रायटर्स बिल्डिंग जाने की तैयारी करें। पर रेलवे का चुनावी दोहन कब तक चलेगा? खुद ममता ने बजट में माना- ऑपरेटिंग रेश्यो 84 फीसदी। टेक्स फ्री बॉंड के जरिए पैसा जुटाने की कोशिश होगी। पर जब 1924 में अंग्रेजों ने अलग से रेल बजट की व्यवस्था शुरू की। तो मकसद था- रेलवे इतना बड़ा उद्योग, जो अपने आप में सक्षम। पर आज हालात ऐसे हो चुके, हर साल बजटीय सहायता की जरूरत हो रही। बाजार से ब्याज पर कर्ज लिए जा रहे। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की मुहिम सिरे नहीं चढ़ रही। रेलवे का प्रोजैक्ट टाइम बाउंड नहीं। सो प्राइवेट लोग जोखिम नहीं ले रहे। खुद ममता के पिछले और ताजा बजट का फर्क देखिए। विश्व स्तरीय स्टेशन का बनना तो दूर, कागजी ढांचा भी नहीं बन सका। आदर्श स्टेशन अभी भी पूरे नहीं हुए। टक्कर रोधी उपकरण लगाने की बात कोंकण रेलवे के समय से हर बजट में होती आ रही। पर उपकरण इतना महंगा, कोई मंत्री अमल का साहस नहीं दिखाता। यों ममता इस उपकरण को लगाने का दावा कर रहीं। पर फिर वही कमजोरी, रेलवे में कोई टाइम बाउंड प्रोग्राम नहीं। रेलवे का विकास नहीं हो रहा। पर बजट के जरिए लोक-लुभावन घोषणाएं खूब होतीं। अबके भी ममता ने कुल सौ से भी अधिक ट्रेन का एलान किया। पर रेलवे का लदान घट रहा। नई पटरियां नहीं। सो जब यात्री ट्रेनें चलेंगी, तो माल ढुलाई का अनुपात और घटेगा। अब कोई पूछे- क्या इसी ढर्रे पर रेलवे का कायाकल्प होगा? ममता ने पिछली बार भी लता मंगेशकर के गाए गीत- जरा याद करो कुर्बानी, को बजट भाषण में जोड़ा। अबके भी वही दोहराया। पर सवाल- खस्ता हाल रेलवे कब तक चुनावी पटरी पर दौड़ेगी। सो शुक्रवार को जब ममता ने बजट पेश किया। तो बदहाल रेलवे का बेहाल बजट ही दिखा।
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25/02/2011

Thursday, February 24, 2011

तो क्या पक्ष-विपक्ष में बैठने से बदलती सोच?

कुछ ऐसे भी मंजर हैं तारीख की नजरों में, लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई है। आखिर मनमोहन की जुबां से दर्द फिर छलक ही पड़ा। तीन महीने के गतिरोध के बाद संसद में बहाल हुई शांति का सुकून भी दिखा। पर शायरी में लम्हा किसके लिए और सदियां किसके लिए? कहीं पीएम का मतलब यह तो नहीं- गठबंधन की मजबूरी का फायदा उठा राजा ने खता की। सजा कांग्रेस को भुगतनी पड़ रही? यों कांग्रेस गाहे-ब-गाहे यही साबित करने में जुटी। सो गुरुवार को लोकसभा में जेपीसी का औपचारिक प्रस्ताव आया। तो टर्म एंड रेफरेंस की आड़ में झुनझुना थमा दिया। लोकसभा से जेपीसी के 20 मेंबरों के नाम का एलान हो गया। अब राज्यसभा दस नामों का एलान करेगी। पर जेपीसी को सिर्फ टेलीकॉम लाइसेंस तक सिमटा दिया। यों स्पेक्ट्रम आवंटन में गड़बड़ी की जांच अब 1998 से होगी। सो जेपीसी पर राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई। लोकसभा में प्रणव दा ने प्रस्ताव पेश किया। तो जेपीसी के गठन के पीछे ईमानदार सोच नदारद। अलबत्ता उन ने भी वही राग अलापा, जो पीएम ने कहा था। जेपीसी का गठन सिर्फ इसलिए, क्योंकि संसद की कार्यवाही चल सके। सो प्रणव दा ने विपक्ष को खूब खरी-खोटी सुनाईं। दलील दी- 543 के सदन में 20, 50 या 200 सांसदों की ओर से संसद को बंधक बनाने का क्या मतलब? संसद को ठप करना लोकतंत्र को मजबूत बनाना नहीं। हमें संविधान के प्रति अपनी शपथ को याद रखना होगा। उन ने पाकिस्तान के मिलिट्री रूल की भी याद दिलाई। कैसे दस अक्टूबर 1958 को पाकिस्तान मार्शल लॉ का शिकार हुआ। चार दिन में तीन पीएम बने, सदन का उपाध्यक्ष सदन में ही मार दिया गया। फिर संसदीय संस्थाओं के प्रति नफरत की भावना पैदा हुई और आखिरकार उसकी जगह एक संविधानेत्तर संस्था ने ली। यों प्रणव दा ने भारत में ऐसे हालात को बेमानी बताया। पर क्या यह एक अडिय़ल सरकार की विपक्ष और देश की जनता को धमकी नहीं? आखिर भ्रष्टाचार पर जेपीसी के गठन में मिलिट्री रूल जैसे उदाहरण की क्या जरूरत थी? यही प्रणव दा कुछ हफ्ते पहले विपक्ष की जेपीसी की मांग को माओवादी हरकत करार दे चुके। सो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी सरकार को घेरने में कसर नहीं छोड़ी। पीएम को आत्मचिंतन की सलाह दी। कहा- अगर जेपीसी की मांग करना माओवाद, तो विपक्ष में रहते कांग्रेस भी ऐसा कर चुकी। सो सदन में जमकर नोंकझोंक हुई। सुषमा ने गुस्से में 2001 के हंगामे का रिकार्ड मार्शल के हाथ बंसल को भिजवा दिया। बोलीं- जिनके घर शीशे के हों, दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। सचमुच भ्रष्टाचार के इस हमाम में सब एक जैसे। भ्रष्टाचार पर किसी भी सरकार का रुख ईमानदार नहीं रहा। इंदिरा राज में भ्रष्टाचार का मुद्दा गूंजा। जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को नया मुकाम दिया। तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को वैश्विक मुद्दा करार दिया। यही हाल राजीव गांधी के शासन में भी। यही हाल वाजपेयी राज में भी। तहलका कांड और ताबूत घोटाले पर एनडीए ने विपक्षी कांग्रेस को कितनी तवज्जो दी? जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा लिया। पर रपट आने से पहले मंत्री बना दिया। तब एनडीए ने जेपीसी की मांग नहीं मानी। प्रणव मुखर्जी ने विपक्ष को याद दिलाया। कैसे तबके विधि मंत्री अरुण जेतली ने कहा था- जेपीसी जांच नहीं हो सकती। इस मुद्दे पर सदन में चर्चा कराना अधिक महत्वपूर्ण। बकौल प्रणव दा, कांग्रेस भी अबके पहले सदन में बहस चाहती थी, फिर कोई फैसला। यों प्रणव दा की यह दलील डैमेज कंट्रोल की कवायद। पर उन ने बीजेपी को सही याद दिलाई। पर सुषमा ने पेप्सी-कोला में पेस्टीसाइड के मुद्दे पर गठित जेपीसी की नजीर दी। कहा- मैंने दो घंटे में जेपीसी मान ली थी। विपक्ष के सदस्य शरद पवार को अध्यक्ष बनाया था। पर सुषमा भूल रहीं, पेप्सी-कोला विवाद राजनीतिक मुद्दा नहीं था। सो जब कपिल सिब्बल ने बहस में हिस्सा लिया। तो मुंह खोलते ही पहले मुंह की खा गए। सुषमा को झूठी साबित करने की कोशिश की। पर फौरन सॉरी बोल शब्द वापस लेने पड़े। फिर भी सिब्बल हमले से बाज नहीं आए। पहले तो स्पेक्ट्रम घोटाले में जीरो नुकसान का राग अलापा। हंगामा हुआ, तो बैठ गए। पर सदन में विपक्षी सांसदों ने पूछ ही लिया- जब कोई नुकसान नहीं हुआ। तो जेपीसी का क्या मतलब? यों सिब्बल ने बीजेपी को याद दिलाया, कैसे तहलका कांड के वक्त पीएम वाजपेयी ने देश के नाम संदेश दिया। तो कहा था- संसद ही सही फोरम, जहां चर्चा हो सकती। पर विपक्ष हंगामा कर सदन रोक रहा। सचमुच विपक्ष और सत्तापक्ष में रहते राजनीतिक दलों की सोच बदल जाती। सत्ताधारी तानाशाही तेवर दिखाते। तो विपक्ष भी हाईजैक करने की फिराक में रहता। सुषमा ने तो खुद कबूला- जब-जब भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा, तबकी विपक्ष ने जेपीसी की मांग की। अबके माहौल बना, कांग्रेस मजबूर हुई। तो कांग्रेसियों के चेहरों पर खिन्नता साफ झलक रही। प्रणव का सैन्य शासन का भय दिखाना। पक्ष-विपक्ष की वही लड़ाई- तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे। सो बीजेपी ने पीएम को मंथन की सलाह दी। पर जब खुद का इतिहास दिखाया गया। तो तिलमिला उठी।
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24/02/2011

Wednesday, February 23, 2011

अफजल की याचिका बता रही कसाब का भविष्य

तो तीस मेंबरी जेपीसी का खाका तय हो गया। अध्यक्ष समेत कांग्रेस के दर्जन तो बीजेपी के आधा दर्जन मेंबर होंगे। लेफ्ट, बीएसपी, जेडीयू, डीएमके के दो-दो। सपा, अन्ना द्रमुक, तृणमूल, बीजद, एनसीपी के एक-एक मेंबर होंगे। बीजेपी अपने आधा दर्जन में से ही एनडीए का भी पेट भरेगी। बीजेपी ने अपने कोटे के छह में से पांच नामों का एलान कर दिया। जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, हरेन पाठक लोकसभा से। तो एस.एस. आहलूवालिया और रविशंकर प्रसाद राज्यसभा से जेपीसी में होंगे। छठी सीट बीजेपी ने शिवसेना को दे दी। अब गुरुवार को कपिल सिब्बल प्रस्ताव लाएंगे। तो बहस में नोंकझोंक भी जमकर होगी। पर गतिरोध का औपचारिक पटाक्षेप हो जाएगा। फिर जेपीसी की जांच सुर्खियों में रहेगी। सो बात संसद के बजट सत्र की। गतिरोध टूटा, तो संसद फिर अपनी रौ में लौट आया। गुरुवार को तेलंगाना ने तीन बार लोकसभा की कार्यवाही ठप कराई। तेलंगाना को लेकर हंगामे में टीआरएस ही नहीं, कांग्रेसी सांसद भी आगे। सो सुषमा स्वराज ने टीआरएस के प्रति खूब सहानुभूति जताई। लोकसभा में उन ने पीएम से अपील की- इसी सत्र में बिल लाने का भरोसा दे दें। पर दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता। सो कांग्रेस हड़बड़ी से बच रही। पर तेलंगाना से जुड़े कांग्रेसी सांसदों ने अब खम ठोक दिया- तेलंगाना की हमारी मांग पूरी नहीं हुई, तो हम संसद भवन परिसर में ही आत्महत्या कर लेंगे। सो कांग्रेस अपने सांसदों को मनाएगी या तेलंगाना की मांग मानेगी, यह अभी देखना होगा। पर गुरुवार को धन्यवाद प्रस्ताव की बहस में शरद यादव ने भ्रष्टाचार को अफीम बता सरकार की खूब बखिया उधेड़ी। तो कांग्रेसियों ने कर्नाटक का सुर्रा छोड़ दिया। पर असली नोंकझोंक राज्यसभा में हुई। पहला सवाल संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की दया याचिका से जुड़ा था। सो विपक्षी सूरमाओं ने होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम को घेरने की कोशिश की। पर चालाक चिदंबरम चतुराई दिखा गए। उन ने साफ कह दिया- बतौर गृहमंत्री उन ने दया याचिकाओं के निपटान में कोई देरी नहीं की। पर चिदंबरम पुरानी देरी और अफजल की याचिका के भविष्य का कोई समयबद्ध भरोसा नहीं दे सके। तो शिवसेना के मनोहर जोशी ने आरोप मढ़ दिया- अल्पसंख्यक समुदाय का होने की वजह से अफजल गुरु की दया याचिका पर फैसले में देरी की जा रही। जोशी के इस आरोप से सत्तापक्ष ही नहीं, वामपंथी भी भडक़ गए। पर चिदंबरम ने सफाई दी- दया याचिका राष्ट्रपति के पास भेजते समय धर्म-जाति या संप्रदाय के बारे में नहीं सोचता। मैं किसी भय, पक्षपात, पूर्वाग्रह और भेदभाव के बिना अपना काम करता हूं। उन ने विपक्ष को कोई ठोस जवाब देने के बजाए अपनी पीठ जमकर ठोकी। चिदंबरम ने याद दिलाया कि कैसे एनडीए काल में 14 याचिकाएं आईं और यूपीए-वन में उनके गृहमंत्री बनने से पहले 14 केस आए। यानी कुल 28 केस में सिर्फ दो का निपटान हुआ। जबकि उनके गृहमंत्री रहते 13 केस आए, जिनमें सात का निपटारा हो चुका। चिदंबरम ने बाकायदा स्ट्राइक रेट बताया। जिसके मुताबिक एनडीए ने 14 में एक भी केस नहीं सुलझाया। शिवराज पाटिल ने 28 में दो सुलझाए। और खुद उन ने 13 में सात केस। यानी चिदंबरम का दावा- उनका स्ट्राइक रेट पचास फीसदी के करीब। चिदंबरम ने इस बात से भी इनकार कर दिया कि दया याचिकाओं के निपटान को समय सीमा में बांधने के लिए कोई संविधान संशोधन होगा। सो अब सवाल- क्या आतंकवादियों की याचिका भी कतार से ही सुनी जाएगी? क्या स्ट्राइक रेट उम्दा होने से अफजल जैसे आतंकियों को और वक्त दिया जाए? गृहमंत्री ने बेहिचक कह दिया- अफजल का फैसला कतार से ही होगा। अभी मामला गृह मंत्रालय में लंबित। सो मंत्रालय से राष्ट्रपति के पास जाने और वहां कितना वक्त लगेगा, यह नहीं कह सकते। उन ने इशारा कर दिया- दया याचिका के निपटान में सबसे कम 18 दिन, तो सबसे अधिक 11 साल 11 महीने 18 दिन का रिकार्ड। अफजल की याचिका को तो अभी साढ़े पांच साल ही हुए। अगर अभी भी सरकार ऐसी दलील दे रही। तो मुंबई हमले के दोषी कसाब का क्या होगा? कसाब ने तो सुप्रीम कोर्ट जाने का इरादा जता दिया। सो अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सजा बरकरार रखी। तो कसाब राष्ट्रपति के सामने भी जाएगा। यानी दया याचिकाओं का ऐसे ही निपटान होता रहा। तो मुंबई में मौत का तांडव करने वाला कसाब अभी एक दशक और भारत का अनाज तोड़ेगा। वैसे भी ताजा 25 दया याचिकाओं की सूची में अफजल का नंबर अठारहवां। सो राम जेठमलानी ने सरकार को याद दिलाया- सुप्रीम कोर्ट तय कर चुका कि किसी दोषी की सजा के अमल में दो साल से अधिक की देरी हो। तो मानसिक यातना को आधार बना सजा में बदलाव किया जा सकता। यानी अफजल अपनी दया याचिका के निपटान से पहले भी कोर्ट का दरवाजा खटखटा दे। तो राहत मिलने के पूरे आसार। तब सरकार क्या कहेगी? चिदंबरम ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया- देरी उनके या मंत्रालय के स्तर पर नहीं हुई। अफजल की याचिका पर दिल्ली सरकार ने देर की। पर सवाल- दिल्ली के उपराज्यपाल ने तो जून 2010 में ही गृह मंत्रालय को फाइल भेज दी। फिर सात महीने से गृह मंत्रालय क्या कर रहा? सरकार शायद भूल रही, जब मुंबई हमले के बाद जनता सडक़ों पर उतरी। तो राजनेताओं की सांसें अटक गई थीं।
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23/02/2011

 

Tuesday, February 22, 2011

जेपीसी हो या गोधरा: रस्सी जल गई, बल नहीं गया

रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया। मनमोहन सरकार की अकड़ जेपीसी का एलान करने में भी दिख गई। पीएम ने संसद के दोनों सदनों में बयान पढ़ जेपीसी का इरादा जताया। पर जरा इरादे की नेकनीयती भी देख लीजिए। बकौल पीएम, संसद को पंगु बनाना देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार का जड़ से खात्मा सरकार की प्रतिबद्धता। सो टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच सुप्रीम कोर्ट की मॉनीटरिंग में सीबीआई कर रही। संसद की पीएसी मामला देख रही। जस्टिस शिवराज पाटिल कमेटी की जांच रपट आ चुकी। सरकार ने सभी प्रभावशाली कदम उठाए। ताकि विपक्ष को जेपीसी पर जोर न देने के लिए मना लिया जाए। पर सफलता नहीं मिली। अब अगर बजट सत्र भी विपक्ष नहीं चलने देता। तो लोकतंत्र के हित में नहीं होता। सो हम विशेष परिस्थितियों में जेपीसी गठन को राजी हो रहे। यानी पीएम के बयान का एक पंक्ति में निचोड़- लोकतंत्र बचाने को झुकी सरकार। यों दिल बहलाने को मनमोहन-ए-खयाल अच्छा है। पर सवाल- हुजूर लोकतंत्र की याद आने में इतनी देर क्यों लगी? शीत सत्र में क्या लोकतंत्र टूर पर था? असलियत तो मनमोहन ही नहीं, पूरी कांग्रेस जानती। टू-जी घोटाले में जब राजा का बाजा बज गया। सीबीआई ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। नए टेलीकॉम मिनिस्टर कपिल सिब्बल ने बचाव के तमाम पैंतरे आजमाए। पर खुद की सांस उखड़ गई। सुप्रीम कोर्ट से लेकर समूचे विपक्ष ने हमले की धार बरकरार रखी। तो लोकतंत्र याद आने लगा। पहले मनमोहन और कांग्रेस ने लोकतंत्र को बपौती समझ चलाना चाहा। पर बात नहीं जमी, तो लोकतंत्र की दुहाई दे रहे। अगर लोकतंत्र की दुहाई, तो साथ में विपक्ष की जिद के आगे मजबूर होने का राग क्यों? आखिर शीत सत्र में ऐसी क्या जिद, जो जेपीसी नहीं मानी? सचमुच शुरुआत में कांग्रेस और सरकार ने राजा को जमकर बचाया था। बचाने में हाल तक कपिल सिब्बल भी लगे रहे। जिन ने तो घोटाले को ही झुठला दिया। पर जब मिस्र की जनता ने सडक़ों पर उतर लोकतंत्र की अलख जगाई। अपने देश की जनभावना में मिस्र जैसा उबाल नहीं। पर जुबां और आंखें मिस्र के आंदोलन की दुहाई देते दिखे। सो मनमोहन को लोकतंत्र दिख गया। अब देर से ही सही, मनमोहन सरकार दुरुस्त आई। तो लोकसभा में सुषमा स्वराज ने स्वागत किया। बोलीं- जेपीसी का गठन सत्तापक्ष या विपक्ष की जय-पराजय नहीं, अलबत्ता लोकतंत्र की जीत। पर राज्यसभा में अरुण जेतली ने पीएम के बयान को खेदजनक करार दिया। यों गुरुदास दासगुप्त और मुलायम सिंह ने सही फरमाया। दासगुप्त बोले- जेपीसी गठन पर सरकार आभार या बधाई की पात्र नहीं। सरकार की बुद्धि जागी, सो अपना फर्ज निभाया। मुलायम ने तो पीएम से कह दिया- आपको न खुदा मिला, न बिसाल-ए-सनम। शीत सत्र में जेपीसी बना लेते, तो जनता में गलत संदेश न जाता। पर अब तो जनता भी जान गई, सरकार भ्रष्टाचार दबाना चाह रही। यों सत्ता के नशे में भला जनता की फिक्र कौन सी सरकार करती। वोट बैंक की राजनीति ही पार्टियों का एजंडा। तभी तो मंगलवार को ही यूपी विधानसभा के मुद्दे पर माया-मुलायमवादी लोकसभा में भिड़ गए। पर बात कांग्रेसी अकड़ की। तो मंगलवार को जेपीसी का एलान करना ही पड़ा। गुजरात की स्पेशल कोर्ट ने कांग्रेसी सेक्युलरिज्म की हवा निकाल दी। गोधरा कांड पर नौ साल बाद फैसला आया। तो साबित हो गया, साबरमती ट्रेन के एस-6 कोच में साजिश के तहत आग लगाई गई। यों अदालत ने 63 आरोपियों को बरी कर दिया। जबकि 31 को साजिश का दोषी पाया। सो तीस्ता सीतलवाड़ जैसे एक्टिविस्टों को सांप सूंघ गया। कांग्रेस, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली, पी. चिदंबरम, सलमान खुर्शीद जैसों ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी। जबकि बीजेपी की तो बांछें खिल गईं। सचमुच गोधरा कांड और उसके बाद हुए गुजरात दंगों पर खूब राजनीति हुई। बतौर रेल मंत्री लालू यादव ने जस्टिस यू.सी. बनर्जी कमेटी बनाई। तो बनर्जी ने लालू के मनमाफिक रपट दी। साबरमती ट्रेन अग्निकांड दुर्घटना करार दे दिया। पूरी थ्योरी गढ़ दी- कैसे एस-6 कोच में बैठे कारसेवकों ने स्टोव जलाया और आग लग गई। जिसमें 59 कार सेवक मारे गए। यों गुजरात हाईकोर्ट ने पहले बनर्जी रपट पर रोक लगाई। फिर कमेटी के गठन को असंवैधानिक ठहरा दिया। अब जब विशेष अदालत ने भले 63 को बरी कर दिया। पर साजिश की बात साबित हो गई। अब इसमें कोई बदलाव की संभावना नहीं, भले कुछ और आरोपी छूट जाएं। पर मंगलवार को विशेष अदालत के फैसले के बाद भी खास संप्रदाय की बात को सेक्युलरिज्म मानने वाले यही साबित करने में जुटे रहे। कोर्ट ने 63 लोगों को बरी कर दिया। नरेंद्र मोदी सरकार ने लोगों को टार्गेट किया था। पर मुंबई हमले के केस में भी तो कई रिहा हुए। फिर भी साजिश की बात कबूलने में झोला छाप वाले हिचकिचाते दिखे। पुलिस जांच में कई बार निर्दोष पकड़े जाते। पर विशेष अदालत का फैसला उन लोगों के लिए सबक, जो सेक्युलरिज्म को एक विशेष समुदाय से जोडक़र जस्टिफाई करने में लगे रहते। कांग्रेसी दिग्विजय सिंह का बटला राग भी इसी कड़ी में। अब चाहे ऊपरी अदालत में दोषी छूटे या सजा पर मुहर लगे, यह अलग बात। पर गुजरात की स्पेशल कोर्ट का फैसला छद्म धर्मनिरपेक्षता के मुंह पर करारा तमाचा। यानी मंगलवार को जेपीसी हो या गोधरा का फैसला, बात वही- रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया।
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22/02/2011

Monday, February 21, 2011

जेपीसी मानी, पर सब कुछ लुटाने के बाद

आतंकी कसाब की फांसी हाईकोर्ट से कनफर्म हो गई। तो इधर संसद की उलझी डोर भी सुलझ गई। सो अब इसे जूते और प्याज खाना कहें या लौट कर बुद्धू घर को आया, यह आप ही तय करें। पर सरकार अब जेपीसी को राजी। मंगलवार को खुद पीएम मनमोहन जेपीसी का इरादा जताएंगे। फिर गुरुवार को दोपहर दो बजे टेलीकॉम मिनिस्टर कपिल सिब्बल मोशन लाएंगे। जिसमें सभी मेंबरों के नाम और टर्म एंड रेफरेंस भी होंगे। बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की मीटिंग में जेपीसी पर बहस के लिए चार घंटे का वक्त तय हो गया। सो सवाल- जब जेपीसी माननी ही थी, तो शीत सत्र हंगामे में व्यर्थ क्यों जाने दिया। कांग्रेस और सरकार के तमाम दांव धरे रह गए। अब टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की चौतरफा जांच हो रही। सुप्रीम कोर्ट की मॉनीटरिंग में सीबीआई, तो पीएसी भी जांच कर रही। जस्टिस शिवराज पाटिल कमेटी अपनी जांच पूरी कर चुकी। यानी तमाम हथकंडों के बावजूद अब जेपीसी माननी ही पड़ी। सो अब टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की सारी जांच एक साथ चलेगी। पर कांग्रेस अब भी न तुम जीते, न हम हारे वाले अंदाज में इतरा रही। जेपीसी पर दोनों पक्षों में सहमति बन चुकी। पर कांग्रेस कह रही- अभी तक जेपीसी का एलान नहीं हुआ, सो टिप्पणी नहीं। यों दिल बहलाने को गालिब-ए-खयाल अच्छा। पर शीत सत्र से अब तक कांग्रेस अपनी फजीहत खूब करा चुकी। घोटालों पर बचाव के हर पेंतरा उलटा पड़ा। ए. राजा अपने राजदारों समेत गिरफ्तार हुए। नए-नवेले संचार मंत्री कपिल सिब्बल की काबिलियत भी धरी रह गई। पहले तो उन ने घोटाले को निल बता दिया। फिर ठीकरा ट्राई और एनडीए सरकार के सिर फोड़ा। सीएजी के गणित पर भी उंगली उठाई। पर सिब्बल की वकालत भी नहीं चली। उलटा सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली। पीएसी ने भी आंखें दिखा स्पीकर से शिकायत कर दी। फिर हाल ही में पीएम ने टीवी संपादकों के जरिए मोर्चा संभाला। पर गठबंधन की मजबूरी के राग ने पीएम को और कमजोर साबित कर दिया। सो अब कांग्रेस और सरकार जेपीसी को राजी। तो सवाल- सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया। दिन में गर चिराग जलाया, तो क्या किया? अगर कांग्रेस शीत सत्र में ही जेपीसी को राजी हो जाती। तो सुप्रीम कोर्ट मॉनीटरिंग वाली सीबीआई जांच का झमेला न होता। पर अब जेपीसी का एलान होने जा रहा। तो काबीना मंत्री दलील दे रहे- अब बाकी जांच के कोई मायने नहीं। पर हकीकत इसके उलट। सो कहीं कई जांच के चक्कर में निचोड़ देश को घनचक्कर न बना दे। संसदीय इतिहास में अब तक चार जेपीसी बन चुकीं। कांग्रेस राज में बोफोर्स और हर्षद मेहता दलाली कांड पर जेपीसी बनी। तो एनडीए राज में मार्केट घोटाले और शीतल पेय में पेस्टीसाइड के मुद्दे पर। अब टू-जी स्पेक्ट्रम पर पांचवीं जेपीसी बनने जा रही। पर इतिहास यही इशारा कर रहा- जेपीसी अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब नहीं रही। यों पांचवीं जेपीसी कितनी सफल, रपट आने के बाद ही पता चलेगा। पर जेपीसी के गठन की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। विपक्ष ने स्पेक्ट्रम, आदर्श, कॉमनवेल्थ और इसरो-देवास डील समेत जेपीसी मांगी। पर सरकार ने सिर्फ राजा से जुड़े स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी मानी। तो सुषमा स्वराज दलील दे रहीं- विपक्षी एकता बरकरार रखने और गतिरोध तोडऩे के लिए हमने टू-जी स्पेक्ट्रम पर ही जेपीसी मान ली। यों राजनीतिक हलकों में चर्चाएं कई और। बीजेपी के एक बड़े नेता का रिश्तेदार कॉमनवेल्थ में जुड़ा। तो दूसरे का आदर्श से जुड़े लोगों से बेहतर संबंध। सो गतिरोध तोडऩे के बहाने दोनों ने आदर्श, कॉमनवेल्थ को जेपीसी से बाहर होने दिया। अब देर से ही सही, पक्ष-विपक्ष ने संसद में बना गतिरोध तोड़ा। तो मंगलवार से संसद की कार्यवाही चलेगी। सो सोमवार को परंपरा के मुताबिक नए साल के पहले सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का अभिभाषण हुआ। सरकार ने अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा। पर सरकार के एक साल के एजंडे में कुछ नया नहीं। अलबत्ता महंगाई पर काबू पाना सरकार की प्राथमिकता में। पर इसके लिए सरकार ने एक साल मांग लिया। यानी वित्तीय वर्ष 2011-12 में महंगाई पर काबू पाना सरकार की पहली प्राथमिकता। पर विकास से भी समझौता नहीं करेगी। सो राष्ट्रपति का अभिभाषण उत्साह पैदा करने वाला नहीं रहा। करीब 50 मिनट के अभिभाषण में महज दो बार ताली बजीं, वह भी मद्धिम। मिस्र में लोकतंत्र का स्वागत और महिला बिल की उम्मीद पर कुछ सांसदों ने ताली बजाई। बाकी अभिभाषण में कहीं ऐसा दमखम नहीं, जहां सांसद मेजें थपथपाने को मजबूर हुए हों। अलबत्ता कांग्रेस को पहले दिन अपने ही सांसदों से शर्मसार होना पड़ा। अभिभाषण में तेलंगाना का जिक्र नहीं था। सो कांग्रेसी सांसद राष्ट्रपति के सामने ही सोनिया के फोटू के साथ जय तेलंगाना के बैनर लहराने लगे। फिर भी बजट सत्र में पक्ष-विपक्ष की सहमति संसद ही नहीं, लोकतंत्र के लिए सुकून की बात। आखिरकार आवाम की जिद के आगे सरकार को झुकना पड़ा। मनमोहन ने तो पिछले हफ्ते की प्रेस कांफ्रेंस में भी यहां तक कह दिया था- शीत सत्र हंगामे में क्यों बरबाद हुआ, इसकी वजह मैं समझ नहीं पा रहा। पर अब सवाल- क्या पीएम को वजह समझ आ गई? सचमुच टू-जी घोटाला और इसके लिए जेपीसी का विवाद संसद का नया इतिहास रच गया। सो सरकार को जवाब देना होगा- शीत सत्र में ही जेपीसी क्यों नहीं मान गई?
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21/02/2011

Friday, February 18, 2011

तो क्या क्रिकेट के शोर में दबाएंगे भ्रष्टाचार?

संसद में घोटाला कप की गूंज होगी। तो बाहर क्रिकेट वल्र्ड कप की। सो कांग्रेसी अब बड़ी आस लगाए बैठे, भ्रष्टाचार का घेरा कुछ कमजोर होगा। शुक्रवार को कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद से लेकर राजीव शुक्ल तक यही दुआएं करते दिखे। शकील बोले- मीडिया अब क्रिकेट की अधिक खबरें दिखाएगा। सो लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दे से हट जाएगा। राजीव शुक्ल भी करीब-करीब यही बोले। संसद का बजट सत्र और वल्र्ड कप साथ-साथ, देखते हैं लोग किसको देखेंगे। पर दोनों के चेहरों पर अजीब सी मुर्दनी हंसी दिखी। अब वल्र्ड कप के उत्साह से कोई भ्रष्टाचार को ढांपना चाहे, तो ऐसे नेताओं को क्या कहेंगे। यों कई बार अति उत्साह के चक्कर में गड़बड़झाले हो जाते। कांग्रेस तो इस दौर से गुजर अब जेपीसी को झुक गई। मंगलवार को लोकसभा में शायद खुद पीएम जेपीसी का प्रस्ताव रखेंगे। बहस की औपचारिकता निभा एलान हो जाएगा। सो शुक्रवार को संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने कह दिया- बुधवार से पहले जेपीसी पर फैसला हो जाएगा। यानी मंगलवार को संसद में मंगल की उम्मीद करिए। पर बात अति उत्साह के मारों की। तो भला लालकृष्ण आडवाणी को कैसे भूल सकते। आडवाणी पीएम नहीं बन सके, पीएम इन वेटिंग ही रह गए। पर कामकाज का ढर्रा पीएम जैसा ही अपना रखा। याद होगा, चुनावी समर के बीच कैसे आडवाणी हर क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ मीटिंग कर एजंडा पेश करते थे। अभी भी वही ढर्रा जारी। सो ब्लैक मनी के मामले पर विशेषज्ञों की टास्क फोर्स बना दी। टास्क फोर्स ने पता नहीं कहां से टास्क लिया। सोनिया-राजीव के भी स्विस बैंक में अकाउंट बता दिए। आडवाणी ने डेढ़ घंटे की प्रेस कांफ्रेंस में टास्क फोर्स की पूरी रपट को खूब बांचा। पर सोनिया गांधी ने चिट्ठी लिख एतराज जताया। तो आडवाणी ने फौरन चिट्ठी लिख सोनिया से माफी मांग ली। दलील दी- अगर आपने पहले खंडन कर दिया होता, तो टास्क फोर्स इस खंडन को ध्यान में रखती। अब इसका क्या मतलब? मान लो, हम-आप खंडन न करें, तो आडवाणी की टास्क फोर्स हमारा-आपका भी नाम ले देगी? सवाल- टास्क फोर्स ने किस आधार पर सोनिया-राजीव का नाम लिया? महज सोनिया के खंडन से ही आडवाणी ने कैसे मान लिया? यों ऐसी गलतियां आडवाणी कई दफा कर चुके। जब आडवाणी ने लोकसभा चुनाव से पहले अपनी आत्मकथा- माई कंट्री, माई लाइफ लिखी। तो ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और एक-दो मुद्दे ऐसे, जिन पर बाद में माफी मांगनी पड़ी। पर कांग्रेस को आडवाणी की माफी राजनीतिक चाल नजर आ रही। जब आडवाणी ने अपनी किताब लिखी थी, तब होली के दिन पत्नी कमला के साथ सोनिया के घर गए थे। किताब के बहाने मेल-जोल बढ़ाने की कोशिश की थी। पर कांग्रेस ने किताब को आधार बना आडवाणी को कई दफा घेरा। अबके होली करीब, तो आडवाणी ने सिर्फ सोनिया के खंडन से ही माफी मांग ली। सो सवाल- जब सोनिया का खंडन मान रहे, तो आडवाणी कभी मनमोहन सिंह की बात को सच क्यों नहीं मानते? सो एक कांग्रेसी ने चुटकी ली- सीबीआई के पचड़े से बचने की कोशिश हो रही। सीबीआई ने बाबरी ढांचा केस में आडवाणी समेत आठ लोगों पर मुकदमा वापस लेने के हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। सो मामला फिर खुला, तो कांग्रेस के खिलाफ तनी बीजेपी की तोपें फुस्स हो जाएंगी। पर दबी जुबान में ही सही, कांग्रेस ने सीबीआई के बेजा इस्तेमाल की बात मान ली। सो बजट सत्र में सरकार और विपक्ष की बांसुरी खूब बजेगी। बैंड तो बेचारे आम आदमी का बज रहा। सरकार की चालाकी कहें या बेशर्मी, शुक्रवार को महंगाई दर पीएम के अनुमान से भी नीचे आ गई। हुआ यों कि सरकार ने अब महंगाई दर मापने का नया सूचकांक जारी कर दिया। सो नए सूचकांक के मुताबिक अब महंगाई दर महज छह फीसदी। तो महंगाई नीचे लाने का मनमोहिनी-प्रणवी फार्मूला आप खुद देख लो। यों विशेषज्ञों ने तो पहले ही बता दिया- नई पैदावार का मौसम आ गया, सो महंगाई तो खुद-ब-खुद नीचे आएगी। सरकार भी बजट में कुछ लोक-लुभावन एलान करने की सोच रही। पिछले बजट में प्रणव दा ने पेट्रोल के दाम बढ़ा इतिहास रचा। तो अबके घटाकर रचेंगे। सचमुच संसद का बजट सत्र सरकार के लिए इम्तिहान जैसा। महंगाई-भ्रष्टाचार-ब्लैकमनी और माननीय सीवीसी पी.जे. थॉमस का मामला फोकस में रहेगा। सोमवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण में पूरे साल का एजंडा झलकेगा। तो भ्रष्टाचार से लडऩे के सोनिया मंत्र का जाप होगा। पर ए. राजा ने तो थम ठोककर कह दिया- मैं जल्द बेदाग होकर लौटूंगा। सचमुच नेताओं के मामले में जनता को अभी भी ठोस कार्रवाई का भरोसा नहीं। पर बजट सत्र अबके सचमुच इतिहास रचने जा रहा। जेपीसी जांच का एलान होगा। जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर वोटिंग होगी। सभापति हामिद अंसारी ने महाभियोग को मंजूरी दे दी। पर बजट सत्र में जहां सरकार को खुद को साबित करने की चुनौती। तो विपक्ष पर भी कर्नाटक-गुजरात जैसे मामलों में दिखाने का दबाव। पर नीयत किसी की साफ नहीं। तभी तो कांग्रेसी क्रिकेट के शोर में भ्रष्टाचार दबाने की कोशिश कर रहे।
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18/02/2011

Thursday, February 17, 2011

‘घोटाला कप’ हो, तो कौन मारेगा बाजी?

क्रिकेट के महाकुंभ का रंगारंग आगाज हो गया। सो वल्र्ड कप की खुमारी अब सिर चढऩे लगी। पर अफसोस, ए. राजा अब तिहाड़ जेल से ही मैच का लुत्फ उठाएंगे। कुछ परेशानी हुई, तो अस्पताल में भरती होकर मैच देखेंगे। पर फूटी किस्मत कांग्रेस की, घोटालों ने सारा मजा किरकिरा कर दिया। जब दुनिया मैच का मजा ले रही होगी। कांग्रेस और सरकार घोटालों का हिसाब-किताब करने में मशगूल होगी। सचमुच घोटालों ने ऐसा बैंड बजाया, गुरुवार को एस-बैंड स्पेक्ट्रम की इसरो-देवास डील रद्द करनी पड़ी। सीसीएस यानी सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी की मीटिंग के बाद विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने एलान कर दिया। डील सामरिक हित में नहीं, सो इसे तत्काल रद्द किया जाता है। पर देवास मल्टीमीडिया सरकार को लगातार आंखें दिखा रहा। सो मोइली ने दो-टूक कह दिया- जब सामरिक जरूरत का सवाल हो। तो निजी कंपनी को छोडि़ए, सरकार व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए एंट्रिक्स को भी स्पेक्ट्रम नहीं दे सकती। मोइली ने कंपनी की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए साफ कर दिया- डील रद्द करने के खिलाफ कंंपनी अदालत गई, तो भी सफल नहीं होगी। हमने मामले की पूरी पड़ताल की और डील के प्रावधानों व कानून के मुताबिक इसे रद्द किया जा सकता। माना, सरकार को सामरिक हित में डील रद्द करने का हक। पर क्या डील रद्द करने से घोटाला छुप जाएगा? सरकार की हताशा का अंदाजा इसी बात से लगाइए, पीएमओ ने पिछले गुरुवार ही इसरो-देवास डील की जांच के लिए बी.के. चतुर्वेदी कमीशन बनाया था। एक महीने में रपट देने को कहा गया। पर रपट का इंतजार किए बिना, महज हफ्ते भर बाद ही डील क्यों रद्द कर दी? यानी सामरिक हित को आधार बना भले डील रद्द कर दी। पर घोटाले की पूरी तैयारी थी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सो बीजेपी ने तो सवाल उठाए ही, पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने देर से की गई छोटी कार्रवाई करार दिया। बोले- डील रद्द करना ही पर्याप्त नहीं। मामले की गंभीरता से जांच हो और जिसने डील की, उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की जाए। बीजेपी ने तो जेपीसी के दायरे में इसरो डील को भी लाने की शर्त रख दी। सो मुश्किल में मनमोहन अब क्या करेंगे? यों बुधवार को उन ने जो सफाई दी, कांग्रेसी खेमे में ही दोहरे अर्थ निकाले जा रहे। सो क्रिकेट वल्र्ड कप की ओपिनिंग सेरेमनी देखने के बजाए कांग्रेसी संसद की रणनीति और पीएम उवाच के मंथन में ही जुटे दिखे। यों औपचारिक तौर पर कांग्रेस ने गुरुवार को दोहराया- पीएम अपने मकसद में सफल हुए। वह मध्यम वर्ग को संदेश देना चाह रहे थे। सो टीवी के जरिए जनता को बताया- उतने बड़े दोषी नहीं, जितना प्रचार हो रहा। पर जरा अंदरखाने कांग्रेस की चुटीली चर्चाएं भी सुनिए। मनमोहन उवाच को कांग्रेसी रणनीतिक हिस्सा बता रहे। जिसमें पीएम ने अपनी मजबूरी बता यह जतलाने की कोशिश की, उन ने निजी तौर पर कुछ ऐसा नहीं किया, जो उन पर उंगली उठाई जा रही। यानी कांग्रेसी खेमे में मनमोहन के खिलाफ सुर उठ रहे। पीएम की पूरी प्रेस कांफ्रेंस का निचोड़ यही माना जा रहा। भले मनमोहन सरकार के मुखिया, पर राजनीतिक फैसलों में उनकी भूमिका नहीं। जितने भी गलत फैसले हुए, वह सब गठबंधन के नेताओं और मुखिया स्तर पर लिए गए। यानी मनमोहन विरोधियों की नजर में सीधे सोनिया गांधी पर उंगली उठाई गई। सचमुच मनमोहन ने बड़ी बेबाकी से मजबूरी का इकरार किया। मिजाज के मुताबिक काम न होने का अफसोस भी जताया। यानी मतलब साफ- मनमोहन अगर पीएम की कुर्सी पर बैठ अपना काम कर रहे। तो सिर्फ सोनिया गांधी की वजह से। सो पीएम ने प्रेस कांफ्रेंस में खुद को ऐसे ही पेश किया, मानो, सीईओ की भूमिका निभा रहे। यों सरकार हो या संगठन, सचमुच मनमोहन की भूमिका यही। हर जगह सोनिया की पसंद के लोग तैनात। सो मनमोहन कार्यकारी की ही भूमिका निभा रहे। यूपीए की दूसरी पारी में उन ने ए. राजा और टीआर बालू को केबिनेट में न लेने का खम ठोका। पर मजबूरी में राजा को लेना पड़ा। टू-जी घोटाले में वित्त मंत्रालय की भी सहमति रही। सो मनमोहन ने अधिक दखल नहीं दिया। यानी राजा की वजह से जो छींटे मनमोहन पर पड़ रहे, असल में उसकी जवाबदेही सोनिया गांधी की। राजनीतिक फैसले सोनिया ही करतीं। पर बतौर पीएम कांग्रेसी पाप का ठीकरा मनमोहन के सिर फूट रहा। आज भी देश की जनता निजी तौर पर मनमोहन को क्लीन मान रही। पर दस जनपथ को खुश रखने के चक्कर में मनमोहन अपनी छवि दागदार कर रहे। मनमोहन का मजबूरी गान मजाक का विषय बन चुका। पर मनमोहन कब तक मजबूरी गान गाएंगे और देश में घोटाले दर घोटाले होते रहेंगे? सो वल्र्ड कप के इस मौसम में घोटालों की बारिश देख ख्याल आ रहा- गर देश में घोटाला कप का आयोजन हो, तो कौन जीतेगा? देश में इतने घोटाले और घोटालेबाज हो चुके, घोटाला कप के लिए कई प्रायोजक मिल जाएंगे। अपने टमाटर-प्याज के किसान भाई भी राहत महसूस करेंगे। शायद खपत बढ़ेगी, तो प्याज-टमाटर की पैदावार भी बढ़े। मुर्गियां भी अधिक अंडे देने लगें।
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17/02/2011

Wednesday, February 16, 2011

मजबूरी गिना, माटी की मूरत ही दिखे मनमोहन

पीएम मनमोहन ने आवाम का कितना मन मोहा, बुधवार के ऑन लाइन कमेंट्स में ही उजागर हो गया। किसी ने मनमोहन को धृतराष्ट्र कहा, किसी ने कार्टून। किसी ने कहा- बहुत हो चुका मनमोहन जी, बोलिए नहीं, अब तो गद्दी छोडि़ए। पर मनमोहन ने पहले ही गद्दी छोडऩे से इनकार कर दिया। बतौर पीएम नैतिक जिम्मेदारी कबूली, पर पद छोडऩे का सवाल हुआ। तो बोले- न ऐसा कोई ख्याल दिमाग में आया, न टर्म पूरा होने से पहले ऐसा सोचूंगा। अगर ऐसे पीएम इस्तीफा देने लगे, तो देश में हर छह महीने में चुनाव कराने पड़ेंगे। यानी मनमोहन ने एक तरफ कुर्सी के लिए खूंटा गाड़ा। तो दूसरी तरफ सरकार की गिरती साख का ठीकरा गठबंधन के सिर फोड़ दिया। गठबंधन सरकार की मजबूरियां गिनाईं। अब ए. राजा को दुबारा संचार मंत्री बनाना भले गठबंधन की मजबूरी। पर भ्रष्टाचार को न रोक पाना भी क्या गठबंधन की मजबूरी? मनमोहन ने बड़ी चतुराई से अपना दामन पाक-साफ बताया। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा को लिखी चिट्ठी और फिर राजा के जवाब को अपनी ढाल बनाया। बोले- राजा ने पारदर्शिता का भरोसा दिलाया था। ट्राई और टेलीकॉम कमीशन की ओर से नीलामी का सुझाव न देने की दलील दी थी। संचार मंत्रालय के साथ वित्त मंत्रालय भी सहमत था। सो विशेषज्ञों की वजह से मैंने बार-बार सलाह देना उचित नहीं समझा। यानी पीएम ने एक और खुलासा किया- स्पेक्ट्रम घोटाले की कड़ी में तबके वित्त मंत्री की भी भूमिका। तो क्या अब जांच एजेंसी तबके वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से भी पूछताछ करेगी? पर मनमोहन ने भ्रष्टाचारियों को सख्त सजा देने की बात कही। सच सामने लाने का दावा किया। पर सवाल हुआ- कॉमनवेल्थ घोटाले पर 90 दिन में जांच पूरी कर दोषियों को सामने लाने के दावे का क्या हुआ? तो मनमोहन बोले- देश में कानून का शासन। सो कानून अपना काम करेगा। पीएम ने सोलह आने सही कहा। पर गठबंधन की आड़ में भ्रष्टाचार की अनुमति क्या कानून का राज कहलाएगा? गठबंधन धर्म सत्ता में बने रहने के लिए भले मजबूरी हो। पर कानून के शासन में गठबंधन कोई मजबूरी नहीं होती। सो लोकतंत्र में कोई भी नेता गठबंधन को अपनी ढाल नहीं बना सकता। सो पीएम की 69 मिनट चली प्रेस कांफ्रेंस देश की आवाम को कोई खास संदेश नहीं दे सकी। पीएम कभी लाचार तो कभी बेबस दिखे। फिर भी हम होंगे कामयाब का संकल्प दोहराया। अब जरा पीएम की बेबाकी भी देखिए। उन ने अपना इरादा साफ कर दिया। विकास दर की कीमत पर महंगाई काबू नहीं करेंगे। यानी विकास दर को साढ़े आठ फीसदी से ऊपर रखने के लिए आवाम को महंगाई झेलनी होगी। यों मनमोहन ने मार्च तक सात फीसदी महंगाई दर लाने का दावा किया। पर भला देश की जनता पीएम के इस भरोसे को भी कैसे माने? पीएम ने 24 मई 2010 को भरोसा दिलाया था- दिसंबर तक महंगाई काबू कर लेंगे। फिर दो महीने पहले ही कांग्रेस महाधिवेशन के मंच से मनमोहन ने 20 दिसंबर को कहा- महंगाई दर मार्च तक साढ़े पांच फीसदी पर ले आएंगे। अब मार्च आने में महज बारह दिन बचे। तो मनमोहन सात फीसदी की बात कर रहे। सो हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पर बात भ्रष्टाचार की। तो मनमोहन ने जेपीसी के साफ संकेत दे दिए। बोले- जेपीसी समेत किसी भी एजेंसी के समक्ष पेश होने को तैयार। वैसे भी पीएम के तौर पर मेरा आचरण सीजर की पत्नी के संदेह से परे जैसा होना चाहिए। पीएम ने बीजेपी पर सरकार को बंधक बनाने का आरोप लगाया। गुजरात के पूर्व मंत्री अमित शाह और जीएसटी के मसले पर ब्लैकमेलिंग का खुलासा किया। देवास-इसरो डील में कुछ भी न छिपाने का दावा किया। भ्रष्टाचार पर नैतिक जिम्मेदारी कबूल की। बोले- मुझे मेरी जिम्मेदारी का अहसास है, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। पर गठबंधन की मजबूरियां हैं। सो गर पीएम ऐसे इस्तीफा देने लगे, तो हर छह महीने में चुनाव कराने पड़ेंगे। जो संभव नहीं। यानी पीएम ने माना, देश के हालात बदतर हो रहे। पर सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन जरूरी। सो भ्रष्टाचार को उसकी मजबूरी बता रहे। पीएम ने पहली बार बेबाकी के साथ माना, उनसे गलतियां हुई हैं। पर उतने बड़े दोषी नहीं, जितना प्रचारित किया जा रहा। यों पीएम ने मौजूदा यूपीए गठबंधन को मजबूत और प्रतिबद्ध करार दिया। पर सवाल- जब गठबंधन में कोई तनाव नहीं, तो मजबूरी गान क्यों गा रहे मनमोहन? सो बीजेपी के नितिन गडकरी ने पलटवार किया। पूछा- राजा के मामले में गठबंधन की मजबूरी। पर कॉमनवेल्थ, आदर्श और इसरो डील में क्या? उन ने आरोप लगाया- यूपीए सरकार लक्ष्मी की भक्त। जहां लक्ष्मी दर्शन के बिना कोई काम नहीं होता। सचमुच मनमोहन मैदान में उतर कर आवाम का मन तो नहीं मोह पाए। अलबत्ता जख्म को और गहरा कर दिया। सो आवाम की ओर से ऐसी-ऐसी टिप्पणियां आ रहीं, लिखना भी मुनासिब नहीं। फिर भी मनमोहन का दावा देखिए। मिस्र के हालात पर सवाल हुए। तो बोले- भारत में मिस्र नहीं दोहराएगा। पर जब देश का पीएम गठबंधन को मजबूरी बता देश के खजाने को लूटने दे। विकास के नाम पर महंगाई को बढऩे दे। गलती कबूल कर भी इस्तीफे से इनकार करे। तो शायद वह दिन दूर नहीं, जब अपना विजय चौक तहरीर स्क्वायर बन जाए।
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16/02/2011

Tuesday, February 15, 2011

अबके आवाम का कितना मन मोह पाएंगे मनमोहन?

हुस्नी मुबारक के कोमा में पहुंचने की खबर ने अपने नेताओं के भी कान खड़े कर दिए। सो संसद सत्र से पहले सुलह-सफाई का दौर शुरू हो गया। एक तरफ विपक्ष के साथ जेपीसी पर सहमति बनाने की कोशिशें हो रहीं। ताकि सदन में बहस के बाद ही जेपीसी का एलान हो। तो दूसरी तरफ छवि सुधारने के लिए पीएम मनमोहन सिंह ने खुद मोर्चा संभाल लिया। पीएम बुधवार को खबरिया चैनलों के संपादकों से रू-ब-रू होंगे। तो शायद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उठ रहे सवालों का सीधा जवाब देने की कोशिश करेंगे। पर भ्रष्टाचार के इस मौसम में पीएम अब भला क्या तीर मारेंगे? जब मौका था, तो पीएम ने घोटालों के राजा का पुरजोर बचाव किया। और तो और, पिछले साल 22 मई को जब मनमोहन ने बतौर पीएम सातवें साल में प्रवेश किया। तो दो दिन बाद यानी 24 मई 2010 को देश की आवाम से रू-ब-रू हुए। तब उन ने महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, विदेश नीति, मंत्रियों का बड़बोलापन, तेलंगाना, राहुल गांधी, रिटायरमेंट, सीबीआई का बेजा इस्तेमाल, अफजल की फांसी, सोनिया से मतभेद जैसे करीब दो दर्जन मुद्दों पर 75 मिनट तक सवालों के जवाब दिए। पर तब भी पीएम ने गांधी परिवार से जुड़े सवालों के सिवा कोई ऐसा जवाब नहीं दिया, जो देश को दिशा दे सके। तब उन ने दिसंबर तक महंगाई काबू में लाने की बात की थी। पर महंगाई ने पीएम की बात नहीं मानी। यों फिलहाल महंगाई से बड़ी मुसीबत भ्रष्टाचार। पर जरा गौर से देखिए, 24 मई को मनमोहन ने भ्रष्टाचार पर क्या कहा था। उन ने कहा था- मंत्री ए. राजा से बात हो चुकी। भ्रष्टाचार की कोई शिकायत मिलेगी, तो कार्रवाई करेंगे। अब सवाल- क्या टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला 24 मई के बाद हुआ? क्या स्पेक्ट्रम घोटाले की भनक पीएम को तभी लगी, जब नवंबर में सीएजी ने अपनी रपट दी? सीबीआई ने तो 2008 में ही स्पेक्ट्रम घोटाले की एफआईआर दर्ज कर ली थी। शुरुआती जांच में ही 22,000 करोड़ के राजस्व नुकसान का खुलासा हो गया था। पर तब ए. राजा मंत्री थे, पीएम गठबंधन की मजबूरी में कार्रवाई से बच रहे थे। सो पीएम ने गर तभी कदम उठा लिया होता। तो आज छवि सुधार मुहिम में न जुटना पड़ता। सो अब आप ही सोचिए, क्या बुधवार को पीएम के जवाबों से देश की अवाम में कोई उम्मीद जगेगी? पीएम का खुद बचाव में उतरना मुद्दे की गंभीरता को जगजाहिर कर रहा। सचमुच अब तक कांग्रेस या कोई मंत्री घोटालों पर सरकार का बचाव करने में सक्षम नहीं दिखा। ले-देकर कानूनदां कपिल सिब्बल ने वकालत झाडऩे की कोशिश जरूर की। पर हारे हुए पक्ष के वकील की तरह ही नजर आए। अब तो कपिल सिब्बल की मुश्किलें भी बढ़ती जा रहीं। सुप्रीम कोर्ट पहले ही लताड़ लगा चुका। रही-सही कसर मंगलवार को पीएसी के समक्ष पेश सीबीआई के डायरेक्टर ए.पी. सिंह ने पूरी कर दी। सीबीआई ने सीएजी की तरह स्पेक्ट्रम घोटाले में नुकसान का कोई आंकड़ा तो नहीं दिया। पर सीबीआई ने राजस्व नुकसान की बात कबूल ली। सो पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी बोले- सीबीआई घोटाले के आपराधिक पहलुओं की जांच कर रही। सो फिलहाल कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं। पर सीबीआई ने नुकसान की बात मानी। यानी सिब्बल एक बार फिर झूठे साबित हुए। सात जनवरी को सिब्बल ने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के साथ प्रेस कांफ्रेंस की थी। तो उन ने आंकड़ों और शब्दों का ऐसा मायाजाल बुना। एक नील 76 खरब के स्पेक्ट्रम घोटाले को निल बता दिया। पर अब सिब्बल की काबिलियत धरी रह गई। सो मनमोहन आवाम का मन मोहने खुद मैदान में उतर आए। मनमोहन की पीसी से पहले सरकारी तैयारियां भी खूब हो रहीं। जेपीसी गठन के साफ संकेत मिलने शुरू हो गए। कांग्रेस की महज एक ही शर्त- सदन में बहस हो जाए, ताकि थोड़ी लाज बची रहे। फिर भ्रष्टाचार से लडऩे के उपाय सुझाने वाली जीओएम की फैसलाकुन मीटिंग भी हो गई। जिसमें सोनिया गांधी के पंच मंत्र को जस का तस मान लिया। सरकार अपने मंत्रियों के विवेकाधीन कोटे को खत्म करने का मन बना रही। ताकि करीबियों को फायदा पहुंचाने का आरोप न लगे। भ्रष्ट नौकरशाही पर नकेल कसने के लिए तय समय में मुकदमे की अनुमति देने का भी प्रावधान। अगर कोई अदालत नौकरशाह के खिलाफ आरोप तय कर दे। तो 90 दिन के भीतर सरकार को मंजूरी का फैसला करना होगा। भ्रष्टाचार के मामले को फास्ट ट्रेक कोर्ट में चलाने, अनुशासनात्मक कार्रवाई साल भर में पूरी करने जैसी सिफारिशें भी जीओएम ने कीं। सो मनमोहन शायद बुधवार को यही तमाम कदम मीडिया को गिनाएं। पर मनमोहन के सिर मुसीबत अकेले नहीं आई। मंगलवार को बीजेपी ने कोलकाता में पदाधिकारियों की मीटिंग की। बंगाल चुनाव में जीरो से हीरो बनने के फार्मूले पर मंथन करने गई। पर सरकार को घेरने का एक और मुद्दा मिल गया। सो बीजेपी ने प्रस्ताव पारित कर चार सूत्री मांग रख दी। सरकार भ्रष्टाचार पर जेपीसी बनाए, इसरो-देवास डील पर सीधे मनमोहन सफाई दें, महंगाई पर काबू पाने को फौरी कदम उठाए जाएं। और नया मुद्दा फोन टेपिंग का, तो बीजेपी ने सरकार से आधिकारिक बयान की मांग रख दी। अभी तो टू-जी घोटाले में खिलाड़ी कंपनियों के किस्से सामने नहीं आए। सो जब पूरी कलई खुलेगी, तो क्या करेंगे मनमोहन और उनकी सरकार? अभी तो राजा की भी पीएसी के सामने पेशी बाकी।
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15/02/2011

Monday, February 14, 2011

फैसला ही नहीं, लकीर भी खींचे न्यायपालिका

कभी महंगाई तो कभी भ्रष्टाचार, आखिर सरकार कबूलने लगी। शासन के कामकाज में ही नहीं, नैतिकता में भी गिरावट। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने पहले महंगाई को सरकार के बूते से बाहर बताया। अब शासन और नैतिक स्तर पर गिरावट की बात मान ली। पर नेताओं की फितरत कैसी, यह भी दोहरा दी। चिदंबरम ने कहा- ऐसी गिरावट कोई नई बात नहीं। यानी सत्ता का नाजायज फायदा उठाने में कोई दल पीछे नहीं। पर भ्रष्टाचार के मुद्दे ने जनता के बीच जगह बना ली। उधर मिस्र में हुस्नी मुबारक का तीन दशक का राज खत्म हो गया। सो भारत में भी कुछ लोग वैसी ही क्रांति की बात कर रहे। ऑन लाइन चर्चाओं में लोग एक-दूसरे से पूछ रहे- क्या अपने यहां भी कोई तहरीर स्क्वायर है? पर क्या अब अपने देश में क्रांति की मानसिकता है? लोगबाग चौपालों पर चर्चा खूब करेंगे। पर मानसिकता वही- भगत सिंह पैदा हो, पर पड़ोसी के घर। सचमुच जनता में क्रांति की भावना नहीं रही। समाज सुविधा भोगी हो चुका। या यों कहें- जो सुविधा भोगी नहीं, वह दो जून की रोटी जुगाडऩे में ही दिन-रात बिता देता। सो क्रांति की अलख कैसे जगे? यों अब बीजेपी मिस्र की क्रांति से प्रभावित। सो देश में जेपी जैसा आंदोलन खड़ा करना चाहती। पर जेपी जैसा कौन, यह बीजेपी को मालूम नहीं। आखिर मालूम भी कैसे हो, जब राजनीति से लोगों का भरोसा उठ चुका। क्या आज देश में कोई ऐसा सर्वमान्य नेता, जिसे क्रांति का अगुआ बनाया जा सके? पर जनता के दिल की चिंगारी कब शोला बन जाए, पता नहीं चलता। सो महंगाई-भ्रष्टाचार से जूझ रही कांग्रेस ने बजट सत्र से पहले फिर मत्थापच्ची की। जेपीसी पर सर्वदलीय मीटिंग के बात कांग्रेस कोर ग्रुप की सोमवार को पहली मीटिंग हुई। तो जेपीसी के तौर-तरीकों पर चर्चा हुई। विपक्ष की धार भोंथरी करने के लिए कांग्रेस जेपीसी को तो राजी। पर संसद में बहस के बाद। राष्ट्र्पति अभिभाषण के अगले दिन ही विपक्ष जेपीसी का एलान चाह रहा। पर कांग्रेस ने सोमवार को बीजेपी को घेरा। मनीष तिवारी बोले- स्पेक्ट्रम पर एनडीए राज की कलई खुल रही, सो बीजेपी बहस से कतरा रही। यानी शौरीनामा से कांग्रेस को राहत की उम्मीद। बजट सत्र में जेपीसी की बहस होगी, तो अरुण शौरी का भी मामला आएगा। पर बीजेपी को घेरने की सोच रही कांग्रेस अपने बड़बोले मंत्रियों का क्या करेगी? विदेश मंत्री यूएन में जाकर पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ आते। चिदंबरम-सिब्बल-जयराम के तो बोल बड़े ही अनमोल। सोमवार को ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने नई ऊर्जा भर दी। कह दिया- पीएम 90 फीसदी विकास दर चाहते। अब इसे ऊर्जा मंत्री की ऊर्जा कहें या पॉवरकट। जब नौ फीसदी विकास दर लाने में खुद सरकार हांफ रही। इतनी विकास दर में ही महंगाई अपना तांडव नृत्य दिखा रही। तो सोचिए, 90 फीसदी में क्या हाल होगा। इतना ही नहीं जब आठ-नौ फीसदी विकास दर में एक नील 76 खरब तक के घोटाले हो रहे। जब 90 फीसदी होगा, तो सोचिए, इकाई-दहाई वाले अपने नंबरिंग सिस्टम का क्या होगा? पर फिलहाल बात संसद सत्र की तैयारी की। कांग्रेस अब जनता की नब्ज भांप जेपीसी को राजी दिख रही। तो बीजेपी को भी कर्नाटक मामले में सोमवार को थोड़ी राहत मिल गई। कर्नाटक हाईकोर्ट ने विधानसभा स्पीकर के फैसले पर मुहर लगा दी। पांच निर्दलीय एमएलए की याचिका खारिज कर दी। अब ये एमएलए सुप्रीम कोर्ट जाने का दावा कर रहे। पर गवर्नर हंसराज भारद्वाज अब क्या करेंगे। उन ने स्पीकर के फैसले की वजह से ही येदुरप्पा सरकार को दुबारा बहुमत हासिल करने की हिदायत दी थी। पर हाईकोर्ट ने स्पीकर के फैसले को जायज माना। मौकापरस्त निर्दलीय एमएलए पहले बीजेपी से जुड़े। पर बाद में पाला बदल लिया। यों विश्वासमत हासिल करने का येदुरप्पाई तरीका भी जायज नहीं। पर गवर्नर हंसराज ने भी मिशनरी क्लब में शामिल होने की ठान रखी। गवर्नरों के जेहादी तेवरों की कई कहानी। राजस्थान में चौथे चुनाव के बाद किसी को बहुमत नहीं मिला। तो विरोधी दलों ने संयुक्त मोर्चा बना महारावल लक्ष्मण सिंह को नेता चुना। पर तब गवर्नर संपूर्णानंद ने मोर्चे से कम सीट वाली कांग्रेस के नेता मोहनलाल सुखाडिय़ा को शपथ दिला दी। हरियाणा में 1982 में लोकदल-बीजेपी गठबंधन की सीटें सबसे अधिक थीं। राज्यपाल जी.डी. तपासे ने राजभवन में समर्थकों की परेड की हिदायत दी। पर परेड से एक दिन पहले ही तपासे ने तपाक से भजनलाल को सीएम पद की शपथ दिला दी। सिब्ते रजी, एस.सी. जमीर, रोमेश भंडारी, बूटा सिंह, रामलाल, वेंकट सुब्बैया जैसे कई गवर्नर अपने जेहादी तेवर दिखा इतिहास में नाम दर्ज करा चुके। पर गवर्नरों को ऐसा मौका पाला बदलू विधायकों की वजह से ही मिलता। सो कर्नाटक हाईकोर्ट ने तकनीकी आधार पर स्पीकर के फैसले को सही ठहराया। पर इतिहास साक्षी, गवर्नर और विधानसभा स्पीकरों ने मौका मिलने पर संविधान का मखौल उड़ाने में कभी कसर नहीं छोड़ी। सो मौकापरस्त नुमाइंदों को सजा भी मिलनी चाहिए। न्यायपालिका का फैसला सही। पर फिर कभी ऐसा न हो, ऐसी लकीर भी न्यायपालिका को ही खींचनी होगी। अपने नेताओं पर जनता को एतबार नहीं। सो शासन की कमजोरी हो या नैतिकता में गिरावट या लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन। न्यायपालिका को ही लकीर खींचनी होगी।
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14/02/2011

Friday, February 11, 2011

‘अर्थशास्त्र’ को क्यों चुभ रही ‘नैतिकता’?

हर घोटाले की तरह अब एस-बैंड घोटाले को भी झुठलाने की कोशिश हो रही। टू-जी स्पेक्ट्रम में कांग्रेस और पीएम ने शुरुआत में राजा को खूब बचाया। पर सीएजी ने बाजा बजाया, तो अब वही राजा जेल की हवा खा रहे। फिर कॉमनवेल्थ घोटाले में संसद से सडक़ तक जमकर लीपापोती की। पर कैसे धीरे-धीरे परतें उधड़ीं, कलमाड़ी एंड कंपनी के लोगबाग शिकंजे में आए। अब शुक्रवार को कलमाड़ी के ओएसडी शेखर देव गिरफ्तार कर लिए गए। अब ओएसडी अपने आका के हुक्म को बिना कोई काम तो करेगा नहीं। सो सवाल- जब पीए या ओएसडी गिरफ्तार हुआ, तो आका कलमाड़ी क्यों नहीं? अब इसरो से जुड़े घोटाले का खुलासा हुआ। सीधे पीएम तक आंच पहुंची। तो पहले पीएमओ ने कोई डील न होने की सफाई दी। फिर लीगल ओपीनियन के बाद बी.के. चतुर्वेदी की रहनुमाई में कमीशन बना दिया। अब शुक्रवार को संचार मंत्री कपिल सिब्बल बचाव में उतरे। बोले- जब इसरो का देवास के साथ कांट्रेक्ट लागू ही नहीं हुआ। तो स्पेक्ट्रम आवंटन का सवाल कहां से उठता? पर देवास मल्टीमीडिया ने तो शिकंजा कस दिया। देवास ने कहा- करार रद्द नहीं किया जा सकता। गुरुवार को ही कंपनी के अध्यक्ष रामचंद्रन विश्वनाथन ने कहा- उनकी कंपनी ने इस आवंटन को हासिल करने के लिए सभी योग्यता पूरी कीं और सरकार से सभी मंजूरी ली हैं। फरवरी 2006 में केबिनेट और अंतरिक्ष विभाग ने उसकी पुष्टि की थी। ऐसे में इस करार से कोई पक्ष अब पीछे नहीं हट सकता। हम स्पेक्ट्रम मिलने का इंतजार कर रहे हैं, जिसमें पहले ही दो साल की देर हो चुकी है। यानी अब सिब्बल चाहे जितनी सफाई दें या शब्दों का जाल बुनें। पर कंपनी ने दो-टूक कह दिया- स्पेक्ट्रम देना होगा। वरना कानूनी कार्रवाई होगी। अगर करार तोड़ा गया, तो सरकार को हर्जाना भी भरना पड़ेगा। अब कंपनी पुचकारने से मान गई, तो ठीक। वरना सरकार फिर सांसत में होगी। सो कपिल सिब्बल के खिलाफ अरुण शौरी ने मोर्चा खोला। टू-जी घोटाले पर जस्टिस पाटिल कमेटी की रपट खारिज कर दी। सिब्बल पर राजा को बचाने का आरोप मढ़ा। शौरी ने टू-जी घोटाले में पीएम की चुप्पी पर भी सवाल उठाए। पर कांग्रेस शौरी की दलील को बौखलाहट बता रही। यों बौखलाहट किस खेमे में, यह तो कांग्रेसी बेहतर जानते। तभी तो गाहे-ब-गाहे पीएम और कांग्रेसी नेता सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता पर सवाल उठा रहे। सो शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिर तल्खी दिखाई। सुनवाई तो अमर सिंह फोन टेपिंग मामले की हो रही थी। पर पीएम के बयान से खफा सुप्रीम कोर्ट ने कहा- कोई भी सरकार मजबूत न्यायपालिका नहीं चाहती। न्यायपालिका के लिए आवंटित बजट को ही देखिए, जो जीडीपी के एक फीसदी से भी कम है। कोर्ट ने निचली अदालतों में मामला लटके रहने पर चिंता जताई। पर कहा- देश में अदालतों और मैन पॉवर की कमी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सोलह आने सही। सरकार में कोई भी हो, सब-कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहता। संसद को तो सत्ताधारी अपनी बपौती बना ही चुके। जुडिशियरी को गिरफ्त में लेने की अंदरखाने खूब बिसातें बिछतीं। भले मनमोहन जुडिशियरी को दायरे में रहने की नसीहत दें। कार्यपालिका-विधायिका के काम-काज में दखलंदाजी पर एतराज जताएं। पर इतिहास साक्षी- नेताओं ने कैसे जुडिशियरी को प्रभावित करने की कोशिश की। संविधान लागू होने के बाद से 1972 तक परंपरा रही रिटायर होने वाले चीफ जस्टिस की सलाह से दूसरे वरिष्ठ जज को चीफ जस्टिस बनाने की। यों 1964 में स्वास्थ्य कारणों से जफर इमाम को वरिष्ठता के बावजूद चीफ जस्टिस नहीं बनाया गया। पर 1973 में जब चीफ जस्टिस सीकरी रिटायर हुए। तो जस्टिस शेलट, हेगड़े और ग्रोवर की वरिष्ठता लांघ अजीत नाथ रे को बना दिया गया। तब सीकरी ने कहा था- यह सरकारी निर्णय राजनीतिक था। जस्टिस छागला ने इसे न्यायिक इतिहास का सर्वाधिक अंधेरा दिन करार दिया। तब विधि के जानकार पालकीवाला ने कहा था- अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि राजनीति में न्याय के तत्वों का प्रवेश उचित, पर न्याय में राजनीति का प्रवेश विनाशकारी। इस नियुक्ति के विरोध में शेलट, हेगड़े और ग्रोवर ने इस्तीफा दे दिया था। यही प्रक्रिया जनवरी 1977 में भी दोहराई गई, जब जस्टिस रे रिटायर हुए, तो एच.आर. खन्ना का नंबर था। पर जस्टिस मिर्जा हमीदुल्ला बेग चीफ जस्टिस बनाए गए। सो खन्ना ने इस्तीफा दे दिया। अब मनमोहन से सवाल- क्या इंदिरा राज के ये दो उदाहरण जुडिशियरी में दखल नहीं थे? भ्रष्टाचार अपने चरम पर। फिर भी कोई कठोर संदेश देने के बजाए जुडिशियरी पर खीझ उतरना नकारापन नहीं, तो और क्या। कोर्ट ने सड़ते अनाज को मुफ्त बांटने की सलाह दी थी। तो पीएम ने नीतिगत मामलों में दखल बताया था। पर पीएम ने अभी तक देश को यह नहीं बताया, सड़ते अनाज, गरीबों की योजना में हो रहे भ्रष्टाचार, महंगाई, असुरक्षा, भूख को लेकर सरकार की क्या नीति? अर्थशास्त्री मनमोहन आखिर संतुलन क्यों नहीं बना पा रहे? सचमुच जब भी नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच झगड़ा हुआ। जीत हमेशा अर्थशास्त्र की हुई। स्वार्थ कभी भी खुद को पीछे नहीं हटाता, जब तक कि उसे मजबूर करने के लिए कोई और बड़ी ताकत मौजूद न हो। सो अर्थशास्त्री मनमोहन के राज में धूल फांक रही नैतिकता। सवाल- भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की कोर्ट की नैतिक टिप्पणी सरकार को क्यों चुभ रही?
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11/02/2011




Thursday, February 10, 2011

भ्रष्टाचार पर मनमोहन के बोल बड़े अनमोल

स्पेक्ट्रम से ऐसा ‘बैंड’ बजेगा, मनमोहन सरकार ने सोचा न होगा। टू-जी स्पेक्ट्रम की कहानी तो एकता कपूर के सीरियल की तरह, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही। पर सीरियल टू-जी से पहले इसरो के एस-बैंड की बात। मनमोहन ने एस-बैंड स्पेक्ट्रम को लेकर हुए करार की जांच के लिए हाई लेवल कमेटी गठित कर दी। पहले कानूनी सलाह ली थी। पर करार को सीधे रद्द करना मुमकिन नहीं। सो पूर्व केबिनेट सचिव बी.के. चतुर्वेदी की रहनुमाई में दो मेंबरी आयोग बन गया। आयोग एंट्रेक्स और देवास मल्टीमीडिया के बीच हुए करार के तकनीकी, वाणिज्यिक, प्रक्रियात्मक और वित्तीय पहलुओं की समीक्षा करेगा। आयोग को एक महीने में रपट सौंपने की हिदायत। पर चतुर्वेदी को आयोग का मुखिया बनाना विपक्ष को नहीं जमा। विपक्ष का एतराज, आवंटन प्रक्रिया में चतुर्वेदी खुद शामिल थे। तो अब उनसे निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती? पर लगातार घोटालों से कांग्रेसी अब खीझने लगे। गुरुवार को सवाल हुआ, तो खीझते हुए कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी बोले- अब सवाल न उठाएं, आयोग की रपट का इंतजार करें। सचमुच बेचारी कांग्रेस कितने सवालों का जवाब दे। टू-जी हो या एस, कांग्रेस का लगातार बैंड बज रहा। अब अगर देवास मल्टीमीडिया पुचकारने से राजी नहीं हुआ। तो पीएमओ तक पहुंच रही घोटालों की आंच को कांग्रेस शांत नहीं कर पाएगी। जांच के लिए बनने वाली ऐसी सरकारी कमेटियों का मकसद क्या होता, किसी से छुपा नहीं। सो चौतरफा घिरी कांग्रेस बजट सत्र में जेपीसी की ओर कदम बढ़ा चुकी। पर यहां तो घोटालों की पूरी काली बदरा सरकार के सिर घुमड़ रही। सीवीसी पी.जे. थॉमस पर गुरुवार को सुनवाई पूरी हो गई। पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया। आखिरी सुनवाई में कोर्ट ने नियुक्ति के दिशा-निर्देश बदलने के भी संकेत दिए। पूछा- क्या नियुक्ति पैनल में विपक्ष के नेता को वीटो दिया जा सकता? अब गाइड लाइंस क्या होंगी, यह तो बाद की बात। पर ऐसे पैनलों में नेता विपक्ष का अधिकार जरूर बढऩा चाहिए। वरना सरकार के दो नुमाइंदे और तीसरे विपक्ष के नेता हों। तो हमेशा सरकार अपनी मर्जी ही थोपेगी। विपक्ष का नेता हमेशा शृंगारिक ही रह जाएगा। सो आम सहमति के लिए तीनों के पास वीटो होना चाहिए। पर फिलहाल थॉमस को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार। यों थॉमस हों या टू-जी या काला धन, कोर्ट की हर टिप्पणी से सरकार के मन में छुपे काले चोर का ही आभास हो रहा। सो गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने काले धन के मामले में सरकार को फिर आगाह किया। विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वाला पुणे का व्यापारी हसन अली देश से फरार न हो, इसके लिए जरूरी कदम उठाने की हिदायत दी। कोर्ट ने सरकार से कहा- यह सुनिश्चित करना आपका कर्तव्य है कि हसन अली मुकदमा चलाए जाने के लिए देश में मौजूद रहे। कोर्ट की सख्ती का ही असर, अब सरकार ने औपचारिक तौर पर मुकदमा दर्ज करने के बाद काला धन जमा करने वालों का नाम सार्वजनिक करने का भरोसा दिया। यानी देर से ही सही, सरकार लाइन पर आने लगी। सचमुच अगर अपनी जुडिशियरी ने साख बनाकर न रखी होती, तो व्यवस्था का क्या हाल करते ये नेता। सो गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई की फिर नकेल कसी। कोर्ट ने इशारा कर दिया- चाहे जो भी हो, केस अंजाम तक पहुंचेगा। गुरुवार को ही टू-जी घोटाले के राजा की रिमांड चार दिन और बढ़ी। इसी केस में स्वान कंपनी के प्रमोटर शाहिद बलवा भी ट्रांजिट रिमांड पर सीबीआई के कब्जे में। अब राजा-बलवा को आमने-सामने पर सीबीआई तार जोड़ेगी। पर बात सुप्रीम कोर्ट की, जिसने मामले की अलग से सुनवाई के लिए विशेष अदालत गठित करने का आदेश दिया। देश की बाकी अदालतों को भी हिदायत- इस मामले में कोई ऐसा आदेश पारित न करे, जो जांच में खलल डालने वाला हो। कोर्ट ने दो-टूक कहा- इस मामले की जांच में सीबीआई पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए। ताकि वह खुलकर मामले की जांच कर सके। पर फिलहाल सीबीआई अभियुक्तों की रिमांड कम दिन के लिए ही मांग रही है, जिससे लगता है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं। सो सीबीआई ने फौरन भरोसा दिया- 31 मार्च को राजा के खिलाफ भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी का मामला दायर करेगी। पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पेक्ट्रम घोटाले की गंभीरता और व्यापकता की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘हमें लगता है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो समझते हैं कि वो ही कानून हैं। कानून इन लोगों को गिरप्तार करे, उनके नाम फोब्र्स या अरबपतियों की सूची में आने से कुछ नहीं होता है।’ सुप्रीम कोर्ट ने इशारा तो कर दिया। पर सीबीआई कितनी ईमानदारी से फर्ज निभाएगी, यह तो वक्त बताएगा। यों गुरुवार को ट्रेनी आईएएस को संबोधित करते हुए अपने पीएम ने जो ज्ञान बांचा, सचमुच ‘मनमोहन सार’ ही समझो। उन ने सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की अपील करते हुए कहा- जब नेता और नौकरशाह अपने कार्य और व्यवहार में ईमानदारी की राह से भटक जाते हैं, तो लोग आहत होते हैं। सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार की इजाजत नहीं दे सकते। हमें नहीं भूलना चाहिए, भारत अभी भी एक ऐसा देश, जहां लाखों लोगों को भूखे रहना पड़ता। पर सवाल- मनमोहन को यह बात इतनी देर के बाद ही क्यों समझ आई? स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ 2008 में। मनमोहन ने कार्रवाई की 2010 के आखिर में।
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10/02/2011

Wednesday, February 9, 2011

दुख की एक और दुखान्तिका!

क्या अपना तंत्र साठ साल में ही नाकारा हो चुका? क्या बदलते जमाने के साथ तंत्र कदमताल करने में सक्षम नहीं? या फिर तंत्र में बैठे लोग काम ही नहीं करना चाहते? मासूम आरुषि का मर्डर हुआ, पर किसने किया, मिस्ट्री बनी हुई। सो सवाल- क्या अब देश में अपराधी अपनी जांच एजेंसियां ही नहीं, सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई से भी अधिक शातिर हो गए? अगर सचमुच ऐसी बात, तो अपनी व्यवस्था की हालत वैसी ही, जैसे महाभारत काल में शर-शैया पर पड़े भीष्म पितामह की। सीबीआई ने आरुषि केस को बंद करने की अर्जी दी थी। पर बुधवार को गाजियाबाद की विशेष अदालत ने सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट तो नहीं मानी। अलबत्ता उसी रिपोर्ट को आधार बना आरुषि के मां-बाप यानी तलवार दंपति को आरोपी मान लिया। अदालत के फैसले से हताश तलवार परिवार अब ऊपरी अदालत में चुनौती देगा। ऊपरी अदालतों में केस क्या मोड़ लेगा, यह तो वक्त बताएगा। पर सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट कितनी भरोसेमंद? जब 15 मई 2008 को आरुषि की हत्या हुई, तो यूपी पुलिस ने शुरुआती जांच में ही पिता राजेश तलवार को मुजरिम ठहरा दिया। तलवार 23 मई को गिरफ्तार कर लिए गए। पर यूपी पुलिस की जांच में मीन-मेख निकाला जाने लगा। तो आजिज होकर मायावती सरकार ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी। पहली जून 2008 से सीबीआई की भारी-भरकम 25 मेंबरी टीम ने जांच शुरू कर दी। जांच टीम का मुखिया यूपी काडर से ही सीबीआई में पदस्थ अरुण कुमार को बनाया गया। शुरुआती जांच में ही यूपी पुलिस की परतें खुलने लगीं। सीबीआई ने आरुषि की मां नूपुर तलवार का दो बार लाई डिटेक्ट टेस्ट किया। राजेश तलवार का भी लाई डिटेक्शन टेस्ट हुआ। पर दोनों में ही कोई नतीजा नहीं निकला। फिर तीन नौकरों की गिरफ्तारी हुई। बारह जुलाई को राजेश तलवार जमानत पर रिहा हुए। चार सितंबर 2009 को सीएफएसएल हैदराबाद ने माना कि आरुषि के जांच सैंपल बदले गए हैं। लैबोरेट्री में भेजे गए कपड़े पर भी खून के धब्बे नहीं थे। अरुण कुमार की रहनुमाई वाली जांच टीम ने तलवार दंपति को क्लीन चिट दे दी। पर यूपी काडर के अरुण वापस बुला लिए गए। तो नई टीम ने जांच का जिम्मा संभाला। पर अंधेरे में अधिक तीर चलाने से बचते हुए सीबीआई ने यूपी पुलिस को ही आदर्श बना लिया। यानी लौटकर ‘सीबीआई’ घर को आ गई। यूपी पुलिस ने शुरुआती जांच में ही तलवार दंपति पर जो शक जताया, आखिरकार अल्टी-पल्टी मारते सीबीआई ने वही राग अलाप दिया। सो सीबीआई की पहली रिपोर्ट पर भरोसा करें या आखिरी रपट पर? सीबीआई ने रपट में परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर तलवार दंपति को आरोपी ठहराया। सो राजेश तलवार की भाभी वंदना तलवार ने बुधवार को सवाल उठाया। पूछा- राजेश-नूपुर का क्या कसूर? बेटी की हत्या के वक्त वे दोनों घर में थे, क्या यही कसूर? हमारा दर्द कोई नहीं समझता। क्या कोई मां-बाप ऐसा करेगा? वंदना तलवार ने मौजूं सवाल उठाया। अगर किसी परिवार में किसी व्यक्ति की हत्या हो जाए और अपराधी का पता न चले, तो क्या जांच एजेंसियां परिवार वालों को ही गुनहगार ठहराएंगी? अगर जांच एजेंसियां इसी ढर्रे पर चल पड़ीं। तो तो क्या अपराधियों के मनोबल नहीं बढ़ेंगे? तलवार दंपति को सीबीआई रपट के मुताबिक आरोपी मान भी लिया जाए। तो क्या ये दोनों पेशेवर अपराधी, जो सीबीआई के हर दांव को झूठा साबित कर दें? तलवार दंपति पर शक होना लाजिमी। पर सीबीआई ने तो केस दर्ज करने के बजाए केस बंद करने की सिफारिश की। यानी क्लोजर रिपोर्ट की वजह से सीबीआई के नकारेपन की खिल्ली न उड़े, सो मां-बाप को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। अब सीबीआई की दलील ऊपरी अदालतों में कितनी ठहर पाएगी, इसका इंतजार करना होगा। पर सवाल फिर वही- क्या देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी इतनी पंगु हो चुकी कि अपराधी को नहीं पकड़ सकती? जेसिका लाल केस में क्या हुआ था? निचली अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। तो मीडिया ने सवाल उठाया- क्या जेसिका को किसी ने नहीं मारा? तो अपना तंत्र नींद से जागा। अब केस का अंतिम पड़ाव सबके सामने। रुचिका गिरहोत्रा केस में 19 साल तक जांच एजेंसियों ने क्या किया? पर जब मीडिया में सवाल उठे, तो रुतबे वाला एसपीएस राठौड़ जेल की चारदीवारी में बैठा दिन गिन रहा। अब सीबीआई से एक और सवाल- जब आरुषि केस में परिस्थितिजन्य साक्ष्य तलवार दंपति के खिलाफ। तो निठारी कांड में मोनिंदर सिंह पंढेर के बजाए उसका नौकर सुरिंदर कोली को ही हर केस में उम्रकैद और फांसी क्यों मिल रही? निठारी की डी-5 कोठी में कोली ने जो कुछ भी किया, क्या सालों तक पंढेर को भनक नहीं लगी? अब तलवार परिवार दोहरे दुख के साथ आगे बढ़ेगा। पर कब तक, कहना मुश्किल। अपने तंत्र की यही खामी। कई बार निर्दोष कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाता मर जाता, अपराधी बेखौफ घूमता। ताजा उदाहरण 26/11 के गुनहगार आतंकी कसाब का ही लो। अपने तंत्र की इतनी बड़ी खामी, 26 महीने हो चुके। पर अभी तक कानूनी प्रक्रिया में ही केस फंसा हुआ। सो शहीद मेजर उन्नीकृष्णन के चाचा के. मोहनन ने पिछले हफ्ते संसद भवन के सामने आत्मदाह कर लिया। क्या यही है अपना तंत्र?
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09/02/2011

Tuesday, February 8, 2011

सरस्वती पूजा के दिन सबको आई सद्बुद्धि

घोटालों का मौसम विदा होने का नाम नहीं ले रहा। सो उधर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के राजा की रिमांड बढ़ी। तो इधर एस बैंड स्पेक्ट्रम पर पीएमओ को सफाई देनी पड़ी। पीएमओ की मानो, तो ऐसी किसी डील को मंजूरी नहीं दी गई। सो नुकसान की खबर गलत। पर पीएम के मातहत अंतरिक्ष विभाग का जिम्मा संभाल चुके पृथ्वीराज चव्हाण ने 2010 में ही घोटाला सामने आने की बात मानी। तो पीएम के अधीन अंतरिक्ष विभाग ने भी अपनी सफाई में माना- एंट्रिक्स और देवास के बीच 28 जनवरी 2005 को हुए करार की विभागीय समीक्षा हो रही है और जनता के हित में सरकार हर संभव कदम उठाएगी। सो दूसरे दिन भी विपक्ष ने पीएम पर निशाना साधा। बीजेपी के रविशंकर प्रसाद ने पूछा- मिस्टर पीएम, और कितने घोटाले होंगे। उन ने सोनिया गांधी की चुप्पी पर भी सवाल उठाए। विपक्षी खेमे से अब एस बैंड स्पेक्ट्रम को भी जेपीसी के दायरे में लाने की मांग होने लगी। सो बदलते मौसम, यानी सर्दी-गर्मी के बीच बसंत ऋतु का आगमन हुआ। तो सरकार की सोच भी बदलने लगी। राजा की तरह अगर पीएम पर भी विपक्षी बंदूकें तन गईं। तो मिड-टर्म पोल के सिवा कोई विकल्प नहीं। सो देर से ही सही, कांग्रेस दुरुस्त आ रही। बसंत पंचमी के दिन संसद का गतिरोध तोडऩे के लिए मीटिंग हुई। सो ज्ञान की देवी मां सरस्वती की कृपा ही कहिए, पक्ष-विपक्ष सबकी अक्ल के बल्ब जल उठे। संसद की गरिमा की सुध अब जुबां पर आने लगी। भ्रष्टाचार पर जेपीसी जांच की मांग ने संसद के शीत सत्र की बलि ली। अब तलवार बजट सत्र पर भी लटकती दिखी। सो सब-कुछ लुटाकर कांग्रेस होश में लौट आई। मंगलवार की सर्वदलीय मीटिंग में तुरत-फुरत फैसला तो नहीं हुआ। पर जेपीसी के आसार अब बनने लगे। मीटिंग में प्रणव मुखर्जी ने साफ इशारा कर दिया- संसद की कार्यवाही सुचारु ढंग से चले, इसके लिए कोई भी कीमत अधिक नहीं होगी। यानी जेपीसी पर अब तक सीधा ना कर रही कांग्रेस ने अपने कदम पीछे खींच लिए। विपक्ष ने भी मीटिंग के बाद गतिरोध खत्म होने की उम्मीद जताई। सुषमा स्वराज ने तो प्रणव दा से भी अधिक स्पष्ट कह दिया- शीत सत्र में भी जेपीसी नकारने की एक भी वजह सरकार स्पष्ट नहीं कर पाई। सहयोगी दल भी जेपीसी पर एतराज नहीं कर रहे थे। पर अब आज की मीटिंग से मुझे काफी से अधिक उम्मीद बंधी है कि सत्र शुरू होने पर सरकार जेपीसी मान जाएगी और संसद चलेगी। पर सरकार की ओर से औपचारिक जवाब आना अभी बाकी है। सुषमा के बयान का मतलब साफ, अनौपचारिक सहमति तो बन गई, पर औपचारिकता की चादर में सरकार अपनी खाल बचाएगी। सीताराम येचुरी ने भी कह दिया- सरकार जेपीसी के बारे में सदन में प्रस्ताव लाए, तो हम चर्चा को तैयार। पर हम चाहते हैं, संसद चले और जेपीसी भी हो। गुरुदास दासगुप्त ने तो तस्वीर ही साफ कर दी। बोले- जेपीसी को लेकर गतिरोध टूटने की पूरी उम्मीद। पर जेपीसी के गठन की घोषणा संसद के भीतर ही की जा सकती। वरना विशेषाधिकार हनन का मामला बनेगा। पर कांग्रेस सीधे जेपीसी की हामी भरने के बजाए संसद को ढाल बनाने की रणनीति अपना रही। सो विपक्ष के कड़े तेवर को देखते हुए कांग्रेस ने प्रस्ताव पर वोटिंग का फार्मूला छोड़ दिया। अब सत्र की शुरुआत तक सब ठीक-ठाक रहा, तो पहले दिन ही सरकार सदन में प्रस्ताव लाएगी। जिस पर सभी दल अपनी-अपनी बात रखेंगे। आखिर में सरकार की ओर से सदन की भावना का सम्मान करते हुए जेपीसी का एलान हो जाएगा। पर उससे पहले एक और फैसलाकुन सर्वदलीय मीटिंग होगी। जिसमें जेपीसी के टर्म एंड रिफरेंस से लेकर सदस्यों के नाम पर भी अनौपचारिक चर्चा होने के आसार। कांग्रेस ने तो मंगलवार को ही कह दिया- जेपीसी मानेंगे, पर अपनी शर्तें भी जोड़ेंगे। सो कहीं शर्त के चक्कर में फिर कोई गड़बड़झाला न हो जाए। वैसे भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तीन महीने तक सब-कुछ लुटा कांग्रेस अब होश में आ रही। जेपीसी न मानने के तमाम हथकंडे धरे रह गए। राजा के उत्तराधिकारी कपिल सिब्बल ने तो सीएजी को ही झुठला दिया था। पर अब राजा गिरफ्तार हो चुके। तो सिब्बल को कुछ नहीं सूझ रहा। सिब्बल ने जस्टिस शिवराज पाटिल कमेटी भी गठित की थी। जिसमें 2003 की एनडीए सरकार के वक्त से ही गड़बड़ी की रिपोर्ट। सो अब एनडीए सरकार में संचार मंत्री रहे अरुण शौरी ने मोर्चा खोला। सिब्बल को राजा का वकील बताया। बोले- सिब्बल हमेशा राजा को बचाने की कोशिश कर रहे। जस्टिस पाटिल की रिपोर्ट भी गलतबयानी और सरकार को मदद करने वाली। शौरी ने दावा किया- मेरे पास कुछ ऐसे दस्तावेज, जिन्हें दबाया गया और कैग के सामने पेश नहीं किया गया। यानी शौरी ने सिब्बल को चेतावनी दे दी। सो अपने हर मोहरे पिटवा चुकी कांग्रेस के पास अब जेपीसी के सिवा कोई रास्ता नहीं। विपक्ष ने मंगलवार को नरमी से ही सही, पर राग वही- संसद चलाना चाहते, पर पहले जेपीसी बने। सो कभी झुकती, कभी अकड़ती कांग्रेस अब लेटने को मजबूर हो गई। अब जेपीसी से भ्रष्टाचार का क्या बिगड़ेगा, यह तो पता नहीं। पर संसद के दिन जरूर बहुरेंगे।
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08/02/2011

Monday, February 7, 2011

‘हाथ’ में नहीं अपनी लगाम, न्यायपालिका को नसीहत

बजट सत्र का क्या होगा, तस्वीर अभी साफ नहीं। सोमवार को स्पीकर मीरा कुमार ने लोकसभा के नेताओं की मीटिंग ली। पर हालात जस के तस। सो अब निगाह मंगलवार की प्रणव दा वाली मीटिंग पर टिकीं। कांग्रेस जेपीसी की मांग पर सरेंडर नहीं दिखना चाहती। पर फिलहाल विपक्ष को लोकसभा में जेपीसी पर बहस और वोटिंग का फार्मूला भी नामंजूर। अब तो टू-जी के बाद इसरो से जुड़े एस बैंड स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले का खुलासा हो रहा। इसरो सीधे पीएम के मातहत। देवास मल्टीमीडिया के चेयरमैन एम.जी. चंद्रशेखर पीएम के वैज्ञानिक सलाहकार रह चुके। इसी कंपनी को 70 मैगाहार्ट्ज वाला एस बैंड महज एक हजार करोड़ रुपए में आवंटित हुआ। पर सरकारी कंपनी एमटीएनएल-बीएसएनएल को इसी की कीमत साढ़े बारह हजार करोड़ रुपए चुकानी पड़ी। सो सीएजी की रपट में अनियमितता का खुलासा हुआ। तो कहा जा रहा- यह घोटाला टू-जी से भी बड़ा। यानी टू-जी घोटाला 1.76 लाख करोड़ का। तो इसके बारे में अनुमान दो लाख करोड़ से अधिक का। अब संचार मंत्रालय के घोटाले में राजा कुर्सी छोड़ जेल गए। अगर इसरो से जुड़े मामले में कैग ने घोटाले को पुख्ता कर दिया। तो सवाल- पीएम मनमोहन का क्या होगा? सोमवार को विपक्ष ने सीधे पीएम से जवाब मांग लिया। लेफ्ट ने इस मामले में भी जेपीसी की मांग कर दी। सो क्या करे या ना करे, कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा। पर सुप्रीम कोर्ट और राजनीतिक मोर्चे से बेभाव की पड़ रही मार से कांग्रेस अब दर्द महसूस करने लगी। अपने पीएम मनमोहन सिंह ने इतवार को अपना सारा दर्द उड़ेल दिया। जब हैदराबाद में आयोजित कॉमनवेल्थ लॉ कांफ्रेंस में चीफ जस्टिस एस.एच. कपाडिय़ा की मौजूदगी में बोले- सरकार की जिम्मेदारी तय करने में न्यायिक समीक्षा की भूमिका अहम। पर इसका इस्तेमाल शासन के दो अन्य अंगों- कार्यपालिका और विधायिका में दखल के लिए नहीं होना चाहिए। यानी न्यायिक सक्रियता से मनमोहन सरकार की सांसें फूल रहीं। पर न्यायपालिका को नसीहत देने से पहले पीएम ने अपनी सरकार की दशा क्यों नहीं देखी? कैसे एक गरीब किसान की आत्महत्या के केस से रसूखदार साहूकार को बचाने वाला नेता केंद्र में ग्रामीण विकास मंत्री बन जाता। कैसे चार्जशीटेड नौकरशाह सीवीसी बन जाता। बोफोर्स मामले के दलाल के खाते खुलवा दिए जाते। सिख विरोधी नरसंहार के आरोपियों की फाइल बंद कर दी जाती। अनाज भले सड़ जाए, पर भुखमरी के शिकार लोगों तक नहीं पहुंचता। अगर कार्यपालिका-विधायिका में बैठे महानुभाव निष्ठा के साथ काम करें, तो न्यायपालिका क्यों दखल देगी? अपने संविधान में कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका की अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा। पर जब एक पलड़ा कमजोर पड़ता, तो दूसरा हावी दिखने लगता। सो मनमोहन को अपनी सरकार में न्यायपालिका का दखल नजर आ रहा। तो उसके जिम्मेदार खुद मनमोहन। आखिर सीवीसी पी.जे. थॉमस पर इतनी पंगु क्यों? कोर्ट में अलग-अलग स्टैंड लेकर खुद ही भद्द पिटवा रही। अब सोमवार को थॉमस के वकील ने ऐसी दलील दी, शर्म भी पानी मांगे। कहा- जब देश के 153 सांसद आपराधिक रिकार्ड वाले, तो सीवीसी थॉमस क्यों नहीं? यानी जब दागी लोग सांसद बन सकते, तो सीवीसी क्यों नहीं। थॉमस के वकील ने नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के समीक्षा दायरे से बाहर करार दिया। अगर न्यायपालिका गलत, तो आम लोगों का उस पर इतना भरोसा क्यों? गाहे-ब-गाहे मनमोहन कोर्ट को तो नसीहत दे रहे। कभी सड़े अनाज के मामले में, तो कभी स्पेक्ट्रम-थॉमस जैसे मामलों में। पर नेता कभी अपनी इमेज क्यों नहीं सुधारते? न्यायपालिका का इस्तेमाल सहूलियत के लिए नहीं। पीएम की नजर में कोर्ट की हाल की टिप्पणियां दखलंदाजी, तो सवाल- स्पेक्ट्रम घाटले में विपक्ष की धार कमजोर करने के लिए सीबीआई जांच को सुप्रीम कोर्ट ने मॉनीटर करवाने का फैसला किसने लिया? इतिहास तो यही इशारा कर रहा- जब नेताओं, मंत्रियों, अफसरों ने गठजोड़ कर लोकतंत्र के क्रियाकर्म का प्रोग्राम बना लिया, तब न्यायपालिका ने अपने दायरे के तहत सक्रिय और प्रभावी भूमिका का बीड़ा उठाया। जैन हवाला कांड हो या संचार टैंडर घोटाला। मकान आवंटन में भ्रष्टाचार हो या हवाला कांड में चार्जशीट का मामला। लक्खूभाई पाठक या सेंट किट्स मामले हों या चारा घोटाला। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या बोफोर्स घोटाला। सभी मामलों में तभी नई जान आई, जब अदालतों ने कदम उठाया। सीबीआई तो हमेशा आकाओं को बचाने में लगी रही। सो चीफ जस्टिस एम. एन. वेंकटचलैया ने तो जैन हवाला मामले में तत्कालीन सीबीआई डायरेक्टर विजय रामाराव को निजी तौर पर जवाबदेह बनाया। कई बार कोर्ट की जांच पर मॉनीटरिंग सवालों के घेरे में रही। पर जस्टिस जे.एस. वर्मा ने साफ कर दिया था- मॉनीटरिंग का मतलब कार्यपालिका का अधिकार हथियाना नहीं, उसके कर्तव्य निर्वहन का अहसास कराना। जस्टिस चेनप्पा रेड्डी ने कहा था- अदालतों को निगरानी का काम इसलिए हाथ में लेना पड़ा, क्योंकि उसके आदेशों को पूरा करने में कार्यपालिका का रिकार्ड खराब रहा है। सचमुच न्यायपालिका तो संविधान और कानून के दायरे में अपनी बात रखती। पर कार्यपालिका-विधायिका कैसे काम करतीं, किसी भी आम आदमी से पूछकर देखो।
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07/02/2011

Friday, February 4, 2011

मनमोहन, प्रणव और अलादीन का चिराग

मिस्र में हुस्नी मुबारक के खिलाफ अल्टीमेटम के आखिरी दिन यानी डे ऑफ डिपार्चर से जनता की ताकत दिख गई। आंदोलन से झुके मुबारक सत्ता छोडऩे को राजी। पर अव्यवस्था का हौव्वा दिखा रहे। अपनी कांग्रेस ने भी जेपीसी के मसले पर हमेशा ओछी राजनीति का डर दिखाया। पर इबके मार, इबके मार करते-करते कांग्रेस ने अपने सारे मोहरे पिटवा लिए। जेपीसी की मांग ठुकराने को नित-नए फार्मूले लाई। पर न कोर्ट से, न संसद में राहत मिली। सो शीत सत्र से अब तक चौतरफा पड़ी मार से कराह रही कांग्रेस ने आखिर जेपीसी पर सरेंडर कर दिया। जेपीसी की मांग सीधे-सीधे तो नहीं कबूली। पर संसद में बहस के बाद वोटिंग को राजी हो गई। यानी पहले विपक्ष के जेपीसी वाले प्रस्ताव पर बहस हो, फिर वोटिंग। अगर सदन का बहुमत जेपीसी के पक्ष में गया, तो सरकार राजी। कांग्रेस ने चेहरा बचाने को अब आखिरी पत्ता भी चल दिया। अब जेपीसी का प्रस्ताव लोकसभा में पारित हो गया। तो संसद के सम्मान में अपनी आन छुपा लेगी। अगर प्रस्ताव गिर गया, तो विपक्ष को हंगामाई साबित करने का मौका मिल जाएगा। यानी अब जेपीसी पर वही नंबर गेम होगा, जो 22 जुलाई 2008 को मनमोहन ने अपनी सरकार बचाने के लिए खेला था। सो इम्तिहान यूपीए के घटक दलों का। लोकसभा में ममता-पवार-करुणा का रुख ही जेपीसी का भविष्य तय करेगा। तीनों अब तक गाहे-ब-गाहे जेपीसी की मांग का समर्थन करते आए। सो अब संसद के बजट सत्र में तय होगा, सरकार सचमुच जेपीसी को राजी या फिर राजनीतिक पेंतरेबाजी। सरकार का भरोसा आखिर कोई कैसे करे। कपिल सिब्बल अभी भी एनडीए की नीति को स्पेक्ट्रम घोटाले की वजह बता रहे। शुक्रवार को सिब्बल ने फिर कहा- स्पेक्ट्रम आवंटन में 2003 के बाद सबने गलत फैसले लिए। एनडीए सरकार के मंत्री ने पहले आओ, पहले पाओ की नीति लागू कर दी। जो 31 अक्टूबर 2003 के केबिनेट फैसले का भी उल्लंघन। पर सवाल- अगर एनडीए की नीति गलत थी, तो यूपीए सरकार में बने नियंता कौन सी नींद में थे? एनडीए ने गलती की, तो जनता ने मई 2004 में सबक सिखा दिया। पर यूपीए सरकार भी अगर एनडीए के ढर्रे पर चली। तो सवाल- मंत्री के पास सोचने की क्षमता नहीं थी? चुनाव लडऩे के लिए अपने जनप्रतिनिधित्व कानून में बाकायदा यह शर्त- मानसिक रूप से दिवालिया व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता। सचमुच मंत्री को मानसिक दिवालिया नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इतना बड़ा घोटाला बिना दिमाग के संभव नहीं। अगर सिब्बल की दलील मान भी लें। तो तब करीब छह-आठ महीने विपक्ष में और पिछले छह साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस ने बीजेपी को कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया? जब खुद कांग्रेस की गर्दन फंसी, तो भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने के बजाए आरोप-प्रत्यारोप क्यों? और तो और, जब 2003 के बाद हुए सारे फैसले गलत, तो सात जनवरी को सिब्बल ने राजा को क्लीन चिट कैसे दी? सुविधा की राजनीति में देश का कितना बेड़ा गर्क करेगी सरकार? यों पहली बार मनमोहन ने भ्रष्टाचार पर जोरदार बातें कीं। बातें तो पहले भी करते रहे। पर अबके यह माना- भ्रष्टाचार से सुशासन की जड़ें खोखली हो रहीं। तेज विकास की राह में रोड़ा बन रहा। इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी छवि धूमिल होती है और यह हमें अपने लोगों के सामने शर्मिंदा करता है। सचमुच बात तो पीएम ने पते की कही। पर पता नहीं तीन साल से राजा का पता क्यों नहीं बदल पा रहे? जिस राजा को तीन साल पहले जेल में होना चाहिए था, वह मनमोहन के मंत्री बने रहे। मनमोहन की चिट्ठियों को भी नजरअंदाज कर दिया। पर मनमोहन की नजर-ए-इनायत रही। अगर पीएम ने तभी कार्रवाई का साहस दिखाया होता, तो शर्मिंदगी की नौबत न आती। पर मनमोहन ने शुक्रवार को जो कहा, क्या उस पर अमल भी करेंगे? या फिर सुविधा के मुताबिक महज बयान ही रह जाएगा। या फिर जैसे महंगाई पर छह साल से बयान दे रहे, वैसा ही होगा। मनमोहन ने भ्रष्टाचार के साथ-साथ शुक्रवार को महंगाई पर भी बात की। पर महंगाई से अधिक चिंता विकास दर को लेकर जताई। पीएम पूरी ताकत लगाकर बोले- महंगाई आर्थिक विकास की तीव्र गति के लिए गंभीर खतरा। इससे गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों पर असर पड़ रहा। सो महंगाई पर तत्काल काबू पाने की जरूरत। इधर माननीय पीएम ने तुरंत काबू की बात की। तो उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी बोले- हमारे पास कोई अलादीन का चिराग नहीं, जो महंगाई को तत्काल काबू में कर लिया जाए। आप ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते कि आपके पास अलादीन का चिराग है, जिसको रगड़ें और परेशानी छू-मंतर हो जाए। प्रणव दा ने सही कहा। भइया, जब महंगाई छह साल से बढ़वाते आ रहे, तो भला एक दिन में कैसे कम होगी? काश, जनता के पास वोट के बजाए अलादीन का चिराग होता। तो क्या पांच साल झेलने की नौबत आती? अब भी आम आदमी न समझे, तो कांग्रेस का क्या। एक तो महंगाई मार रही, ऊपर से सरकार की ऐसी भाषा। अकर्मण्यता को छिपाने के लिए अलादीन का चिराग ढूंढ रहे। पर प्रणव दा यह क्यों नहीं समझ रहे, गर सब-कुछ चिराग का जिन्न ही कर लेता। तो क्या अपने लिए आलीशान महल नहीं बनवा लेता, चिराग में ही क्यों रहता?
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04/02/2011

Thursday, February 3, 2011

कस्टडी में ‘श्री’ राजा, पर करवटें बदल रही कांग्रेस

मिस्र में हालात बद से बदतर हो गए। मुबारक विरोधी और समर्थकों के बीच हिंसक दौर शुरू हो गया। तो अब हताश हुस्नी मुबारक ने मीडिया पर निशाना साध लिया। मीडिया को ब्लैक आउट किया गया। कई मीडिया वालों पर जासूसी का आरोप लगा, पिटाई तक हो गई। तो संयुक्त राष्ट्र के सैक्रेट्री जनरल बान की मून ने दुनिया से अपील की। मिस्र में अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की जाए। अब मुबारक के रहते मीडिया की कितनी रक्षा होगी, यह तो बाद की बात। पर अपने देश में घोटालाधिराज ए. राजा की रक्षा में डीएमके जरूर उतर आई। कांग्रेस भी राजा की गिरफ्तारी से जेपीसी की वैतरिणी पार मान रही। पर पहले बात डीएमके की, जिसने पार्टी के प्रचार सचिव पद से राजा का इस्तीफा नामंजूर कर दिया। करुणानिधि ने सियासत का गुणा-भाग कर राजा को पार्टी से नहीं निकाला। अलबत्ता विपक्ष की हाय-तौबा पर बेशर्मी दिखा दी। डीएमके ने खम ठोककर कहा- गिरफ्तारी से यह साबित नहीं होता कि राजा दोषी। पर राजा ने किस तरह कट ऑफ डेट खिसका पसंदीदा कंपनियों को टैंडर दिए, एक कंपनी ने प्रावधान बदले जाने से एक दिन पहले ही ड्राफ्ट जमा कराए। बाकी राजा की चहेती नौ कंपनियां जेब में ड्राफ्ट लेकर पहुंची थीं। सो स्पेक्ट्रम की सही मायने में हकदार कंपनी ड्राफ्ट बनवाने में ही फंसी रही। रीयल एस्टेट वाले सस्ते दाम पर स्पेक्ट्रम लूट ले गए। बाद में कई गुना अधिक दाम पर विदेशी कंपनियों को बेच दिया। ये सारे ऐसे तथ्य, जिन्हें कोई अंधा भी आसानी से पढ़ ले। पर राजा डीएमके की मजबूरी, सो बचाव करना लाजिमी। गर राजा डीएमके से भी दर-ब-दर हुए, तो कलई खुलने का डर। साथ ही दलित वोट का समीकरण भी बिगड़ता। सो सही मायने में करुणानिधि राजा का नहीं, अलबत्ता खुद का बचाव कर रहे। यों करुणा की इस मजबूरी का राजनीतिक फायदा सीधे कांग्रेस को मिल रहा। डीएमके ने कांग्रेस की मांग के अनुरूप सीटें दे दीं। फिर भी कांग्रेस की मुश्किलें अभी कम नहीं। विपक्ष जेपीसी की मांग छोडऩे को राजी नहीं। पर अब कांग्रेस दलील दे रही- हमने जेपीसी को छोड़ पीएसी, मल्टी एजेंसी, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच, जस्टिस पाटिल कमेटी की जांच करा दी। विपक्ष की मांग के मुताबिक अब राजा की गिरफ्तारी भी हो गई। सो विपक्ष को और क्या चाहिए। अब पहले संसद में जेपीसी जांच के औचित्य पर बहस हो, फिर विचार होगा। पर अपनी ही दलील में कांग्रेस ने सवाल छोड़ दिया। जब सरकार इतनी तरह की जांच करा रही, तो सिर्फ जेपीसी से परहेज क्यों? क्या बाकी जांच में लीपापोती की गुंजाइश? जेपीसी में भी बहुमत सत्तापक्ष का होता। फिर परहेज का मतलब स्पष्ट। अब इस बात के आसार, अगर पीएसी खुद से जेपीसी जांच की सिफारिश कर दे। तो सरकार के पास कोई विकल्प नहीं बचेगा। सो विपक्ष को घेरने के लिए कांग्रेस का मिशन कर्नाटक जारी। गुरुवार को अभिषेक मनु सिंघवी ने पूछा- राजा मामले में पीएम पर सवाल उठाने वाले सुषमा-जेतली-आडवाणी-जसवंत कर्नाटक मुद्दे पर आंख मूंदे क्यों बैठे? हमने तो बिना दोष साबित हुए कार्रवाई की। पर कर्नाटक में गवर्नर की ओर से मुकदमे की सिफारिश के बावजूद येदुरप्पा को क्यों नहीं हटाया? अगर नैतिकता की शुरुआत करनी है, तो कर्नाटक-उत्तराखंड से हो। सो कांग्रेस ने दबी जुबान में ही कह दिया- क्रिकेट-फुटबाल के ग्राउंड तो होते हैं, पर सियासत में कोई मॉरल ग्राउंड नहीं। सो गुरुवार को सीवीसी मसले पर भी सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कह दिया- सीवीसी थॉमस पर चार्जशीट कोई धब्बा नहीं। ‘यानी दाग अच्छे हैं।’ पर सुप्रीम कोर्ट ने फिर लताड़ा। पूछा- क्या सिलेक्शन कमेटी के सामने थॉमस का सर्विस रिकार्ड रखा गया था? तो सरकार की ओर से जवाब दिया गया- तबके सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा ने थॉमस की नियुक्ति को हरी झंडी दी थी। पर कोर्ट ने दो-टूक कहा- नियुक्ति में सीवीसी आखिरी फैसले नहीं लेता। अब सरकार किस स्तर तक गिरेगी, पता नहीं। पर गुरुवार को ए. राजा जब पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किए गए। सीबीआई को पांच दिन की रिमांड मिल गई। पर उनके वकील ने इशारा कर दिया- टू-जी आवंटन पर सारे फैसले केबिनेट की सहमति से हुए। सो सिर्फ राजा पर कार्रवाई क्यों? यानी इस खेल में हाथ बहुतों का। सो कहीं ऐसा न हो, मामला ठंडा करने को अभी सीबीआई फुर्ती दिखा रही। पर जैसे ही राजनीतिक माहौल ठंडा हुआ, आकाओं का केस दबाने में माहिर सीबीआई अपना पैंतरा शुरू न कर दे। सिख विरोधी दंगे, पेट्रोल पंप आवंटन, बोफोर्स, चारा घोटाला, आय से अधिक संपत्ति के माया-मुलायम-लालू मुकदमे इस बात के साक्षी। सीबीआई की ओर से सत्ताधीशों को बचाने का प्रयास इतनी दफा हुआ, कोर्ट ने निगरानी तक का काम अपने हाथ में ले लिया। सो जुडिशियल एक्टीविज्म का मुद्दा हमेशा उठता रहा। अब भी घोटालों पर कार्रवाई हो रही, तो इसी एक्टीविज्म की वजह से। सो एक तरफ राजनीतिक हमलों से कांग्रेस बैक फुट पर। तो दूसरी तरफ कोर्ट की लगातार मिल रही फटकार। अब कोर्ट को जवाब देने से पहले सीबीआई ने राजा को कस्टडी में तो ले लिया। पर राजनीतिक-अदालती मोर्चे पर घिरी कांग्रेस करवटें बदल रही।
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03/02/2011

Wednesday, February 2, 2011

परिवर्तन की आहट से राजा की निकली ‘बारात’

आखिर घोटालाधिराज ए. राजा का बाजा बज गया। सीबीआई ने चौथी बार पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा की परछाईं रहे निजी सचिव आर.के. चंदोलिया और संचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरिया भी गिरफ्तार हो गए। तो कांग्रेस फ्रंट फुट पर खेलने लगी। बीजेपी ने राजनीतिक-जनदबाव का नतीजा बताया। जयललिता ने राजनीतिक हथकंडा। पर गिरफ्तारी के बाद भी विपक्ष ने एक सुर में जेपीसी की मांग दोहरा दी। यानी बजट सत्र में विपक्ष फिर हमलावर रुख अपनाने के मूड में। राजा की गिरफ्तारी से विपक्ष के आरोप सच साबित हुए। सो अब सवालों के घेरे में पीएम, जो तीन साल से राजा के राज को जानकर भी अनजान बने रहे। पर हुस्नी मुबारक की तरह जनता का भरोसा खो रही मनमोहन सरकार के लिए राजा की गिरफ्तारी ऑक्सीजन। सो कांग्रेस ने विपक्ष पर पलटवार किया। अपने अभिषेक मनु सिंघवी बोले- सीबीआई जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वालों को अब जवाब मिल गया। कानून अपना काम कर रहा, कांग्रेस कोई दखल नहीं दे रही। उन ने बीजेपी को फिर आईना दिखाया। बोले- अगर राजा की गिरफ्तारी राजनीतिक दबाव का नतीजा। तो यही दबाव बीजेपी कर्नाटक में क्यों नहीं दिखाती? सो बीजेपी ने कोर ग्रुप में मंथन किया। काले जादू से बचने के लिए येदुरप्पा आज-कल सूर्य नमस्कार कर रहे। पर बेचारी बीजेपी येदुरप्पा के काले जादू से परेशान। संसद में येदुरप्पा ही ऐसा मुद्दा, जो विपक्ष की एकता में दरार डाल दे। पर बीजेपी के लिए राहत की बात, राजा की गिरफ्तारी के बाद समूचे विपक्ष ने जेपीसी जांच की मांग को जायज ठहराया। सीताराम येचुरी, जयललिता, जेतली ने खम ठोककर कहा- जेपीसी की मांग और मजबूत हुई। जेपीसी जांच का दायरा बड़ा होता है। सिस्टम में क्या गड़बड़ी है, यह जेपीसी ही पता कर सकती। पर कांग्रेस और सरकार की रणनीति फिलहाल सुप्रीम कोर्ट को संतुष्ट करने की। अगले गुरुवार को सीबीआई स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करेगी। तो सरकार को उम्मीद, अब तक की कार्रवाई पर अदालत संतोष जताएगी। गर सचमुच ऐसा हुआ, तो कांग्रेस को बजट सत्र में मजबूत ढाल मिल जाएगी। सो राजा की गिरफ्तारी सीबीआई ने कोई मर्जी से नहीं की। अलबत्ता कांग्रेस और करुणानिधि की राजनीतिक डील का नतीजा। जब तक करुणा की कृपा नहीं थी, कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई। पर चुनावी मौसम में करुणा को भी मुश्किल, मनमोहन सरकार की छवि तो पूछो ही मत। सो भले कांग्रेस राजा की गिरफ्तारी करा इतराए। डीएमके से गठबंधन टूटने की आशंका खारिज करे। पर क्या कांग्रेस के पास इसके सिवा कोई चारा था? आखिर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती? आए दिन सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियां, राजनीतिक घेरेबंदी और जनमानस में उठ रहे सवालों ने सरकार को मजबूर कर दिया। पर अब गिरफ्तारी ने विपक्ष को और धारदार बना दिया। बीजेपी की प्रवक्ता निर्मला सीतारमन बोलीं- संसद का शीत सत्र कांग्रेस के अहंकार और जिद से हंगामे में खत्म हुआ, यह बात आज साबित हो गई। सो अब पीएम को बताना होगा, जिस राजा को चार पूछताछ में ही जांच एजेंसी ने गिरफ्तारी के लाइक समझा। पीएम तीन साल तक चुप क्यों रहे? हम जेपीसी की मांग पर अभी भी अड़े हुए। यों विपक्ष रेल और आम बजट की संवैधानिक औपचारिकता में खलल नहीं डालेगा। पर बाकी सत्र की तस्वीर अभी साफ नहीं। भ्रष्टाचार के मामले में राजा का पीएम ने कई बार बचाव किया। नवंबर 2010 में सीएजी की रपट के बाद राजा का इस्तीफा हुआ। जबकि इस घोटाले की एफआईआर दो साल पहले दर्ज हो चुकी। और तो और, तमाम खुलासों के बावजूद मौजूदा संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने सात जनवरी को प्रेस कांफ्रेंस कर यह साबित करने में रत्ती भर भी कसर नहीं छोड़ी कि राजा बेकसूर। सिब्बल ने घोटाले के आंकड़े को झुठलाते हुए निल बतलाया था। इससे पहले भी आठ दिसंबर को सिब्बल ने यह कहते हुए राजा का बचाव किया था- प्रमोद महाजन की बनाई नीति को राजा ने अपनाया। यानी सिब्बल ने राजा को निर्दोष बताया। पर अब सिब्बल महाराज क्या कहेंगे? जब सब-कुछ सही था, तो राजा गिरफ्तार क्यों हुए? कांग्रेस ने बजट सत्र से पहले राजा की गिरफ्तारी करा विपक्ष की धार कमजोर करने की कोशिश की। राजा को मधु कोड़ा बनाने की कोशिश की। पर सवाल- क्या एकला राजा ने प्रजा को इतना लूटा होगा? स्पेक्ट्रम यानी परछाईं के इस खेल में कितने बड़े खिलाड़ी, अभी खुलासा होना बाकी। सो राजा की गिरफ्तारी ही इति श्री नहीं। राजा तो सिर्फ मोहरा, असली राजदारों का पर्दा उठना बाकी। गिरफ्तारी तब तक सार्थक नहीं, जब तक भ्रष्टाचारियों को नजीर पेश करने वाली सजा न मिले। कहीं ऐसा न हो, हमेशा की तरह राजा की गिरफ्तारी भी राजनीतिक ड्रामा भर रह जाए। जमानत पर छूटकर राजा-प्रजा और सरकार मुकदमा-मुकदमा खेलते रह जाएं। पर फिलहाल सरकार और विपक्ष राजा की गिरफ्तारी से राजनीतिक समीकरण बनाने में जुटे। यों बिहार में डंका बजाने के बाद पहली बार दिल्ली पहुंचे नीतिश कुमार ने सोलह आने सही फरमाया। भ्रष्टाचार से बने माहौल में राजनीतिक परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही। सो सचमुच नीतिश उवाच से राजा की गिरफ्तारी के निहितार्थ निकल रहे।
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02/02/2011

Tuesday, February 1, 2011

उपदेशक तो बहुतेरे, कोई अनुकरणीय क्यों नहीं?

एक सुविचार है- उपदेश देने से बेहतर है उदाहरण बनना। पर मौजूदा हालात में अब ऐसे विचार सिर्फ सुनने-सुनाने को ही रह गए। समाज सुविधाभोगी बन रहा। सो जब तक खुद पर कुछ न बीते, जन चेतना जागृत नहीं होती। वरना महंगाई, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद की इस अंधाधुंध दौड़ में अपनी जनता शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर डाले न बैठती। चौक-चौराहे, गली-नुक्कड़ लोग व्यवस्था को कोसने में अब पानी भी नहीं पीते। पर व्यवस्था को बदबूदार बनाने वाले नेताओं को सबक सिखाने का जज्बा सो चुका। मिस्र के आंदोलन ने साबित कर दिया, गर जनता ठान ले, तो व्यवस्था को बपौती मानने वाले भागते फिरेंगे। सचमुच अब हुस्नी मुबारक के मुबारक भरे दिन खत्म होने को। मंगलवार को सेना ने एलान कर दिया- आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग नहीं होगा। करीब दस लाख लोगों ने काहिरा में एतिहासिक मार्च कर मुबारक को शुक्रवार तक का अल्टीमेटम दे दिया। पर भारत में दाल की कीमत तीस से सौ रुपए हो जाए, आटा आठ से बाईस रुपए हो जाए, चीनी सोलह से छत्तीस हो जाए, दूध तेरह से तीस हो जाए, पेट्रोल तीस से साठ हो जाए, प्याज दस से अस्सी रुपए हो जाए, फिर भी हम-आप सिर्फ आंसू बहाते रहते। काश, सत्ता में बैठे लोगों को आंसू बहाने के लिए जनता मजबूर करने लगे। तो व्यवस्था को बपौती समझने वालों का नशा काफूर हो जाए। आंदोलन की मानसिकता अगर जल्द नहीं जागी। तो सरकार एक तरफ महंगाई पर उपदेश देगी, दूसरी तरफ बढ़ाएगी। कॉमनवेल्थ गेम्स पर पीएम ने शुंगलू कमेटी बनाई थी। पर तीन महीने में रपट नहीं आनी थी, सो कमेटी को एक्सटेंशन मिल गया। यों अंतरिम रिपोर्ट दी, तो पीएम ने केबिनेट सैक्रेट्री को भेज दी। पर मांग ऐसे की, मानो, पीएम नहीं, विपक्ष के नेता हों। पीएम ने कहा- दोषियों पर सख्त कार्रवाई हो। पर कोई पूछे- कार्रवाई कौन करेगा? गेम्स के फौरन बाद कलमाड़ी को आयोजन समिति से क्यों नहीं हटाया गया? क्या अजय माकन के खेल मंत्री बनने का इंतजार हो रहा था? स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार जेपीसी न बनाने की जिद पर अड़ी। सो अब हंगामे का संकट बजट सत्र पर भी मंडरा रहा। यों मान लिया, कॉमनवेल्थ या स्पेक्ट्रम मामले में जांच चल रही। पर सीवीसी थॉमस के मामले में सरकार या कांग्रेस नजीर पेश क्यों नहीं कर रही? अब तो आईने की तरह साफ हो गया- चार्जशीटेड थॉमस जानबूझ कर सीवीसी बनाए गए। सरकार के इस कबूलनामे के बाद सुषमा स्वराज ने हलफनामा देने का फैसला वापस ले लिया। पर थॉमस ने कोर्ट में नया हलफनामा देकर खुद को निर्दोष और ईमानदार बताया। मीडिया पर छवि बिगाडऩे का आरोप मढ़ा। खुद को राजनीतिक लड़ाई का शिकार बता रहे। यानी अब थॉमस विवाद का पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट ही करेगा। पर तमाम झंझावातों से जूझ रही सरकार और कांग्रेस की हालत कैसी, मंगलवार को सोनिया गांधी ने फिर इजहार किया। चौधरी रणवीर सिंह की स्मृति में डाक टिकट जारी होने का समारोह था। पर सोनिया ने मौजूदा हालात पर चिंता जता सच कबूल लिया। उन ने माना, लोकतंत्र के नाम पर लूटतंत्र चल रहा। सोनिया बोलीं- सत्ता और धन ही सब-कुछ नहीं। सत्ता का सुख ही सब-कुछ नहीं। फिर उस सुख की भी एक सीमा है। एक सीमा तक ही उसका उपयोग हो सकता। उसके बाद यह सिर्फ लोभ और लालच है, एक भ्रम है, जिसके पीछे दुनिया भाग रही। यानी ‘सोनिया सार’ से स्पष्ट हो गया, मनमोहन सरकार कैसा काम कर रही। सोनिया ने चौधरी रणवीर सिंह को अनुकरणीय बताया। बोलीं- उन ने 64 साल की उम्र में राजनीति से रिटायरमेंट ले लिया था। ऐसे आदर्शों का आज महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि सत्ता और लालसा के लिए अंधी दौड़ मची है। अब चौंसठ पार के किन नेताओं पर इशारा, सबको मालूम। मनमोहन की एक्सपर्ट कमेटी ने सोनिया की एनएसी के फूड सीक्योरिटी बिल को नामंजूर कर दिया। पीएम से लेकर तमाम बड़े मंत्री चौंसठ पार के। यानी सोनिया ने अगले चुनाव तक सीनियरों के रिटायरमेंट का इशारा कर दिया। सोनिया ने आजादी के वक्त की सोच और आज की सोच में फर्क को भी कबूला। यानी कांग्रेस अब आजादी के वक्त जैसी सोच वाली पार्टी नहीं रही। सोनिया ने सार्वजनिक जीवन का अर्थ भी समझाया। बोलीं- सार्वजनिक जीवन का अर्थ यह है कि हम आम आदमी के दुख और दर्द को समझें, उसे दूर करने के लिए संघर्ष करें। पर खुद सोनिया सरकार की सुपर बॉस। कांग्रेस वर्किंग कमेटी महंगाई पर नकेल को कई दफा प्रस्ताव पास कर चुकी। भ्रष्टाचार से निपटने का संकल्पी अधिवेशन हो चुका। पर कितना असरकारक रहा ‘सोनिया सार’? मंगलवार को बरेली में आईटीबीपी के 416 पद की भर्ती के लिए सात लाख लोग पहुंचे। बरेली में अराजकता की स्थिति बन गई। क्या यही है मनमोहन सरकार की विकास दर? टमाटर-प्याज के बाद खाने के तेल के दाम बढ़ गए। मिस्र की घटना से पेट्रोल के दाम फिर बढ़ें, तो हैरानी नहीं। सो सवाल- उपदेश देना तो आसान, पर कोई उदाहरण क्यों नहीं बनता? राजनीति में अब ऐसा कोई व्यक्तित्व क्यों नहीं, जिसका अनुकरण किया जा सके। उपदेश तो जनता पिछले छह साल से सुन रही। क्या देश अब थॉमसों, पवारों, कलमाडिय़ों, राजाओं का अनुकरण करे?
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01/02/2011