Thursday, December 31, 2009

लोकतंत्र की परिपक्वता की मिसाल रहेगा बीता साल

इंडिया गेट से
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लोकतंत्र की परिपक्वता की
मिसाल रहेगा बीता साल
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 संतोष कुमार
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     समय और लहरें किसी का इंतजार नहीं करतीं। सो 2009 आया और नौ-दो-ग्यारह हो गया। अब समय का चक्र 2010 में। सो नूतन वर्ष की आपको शुभकामना। पर बीता साल रोजमर्रा की जिंदगी में ग्रहण लगाता रहा। अबके नए साल की शुरुआत ही चंद्र ग्रहण से। चांद पर यों दाग बहुतेरे। सो विज्ञान के दौर में शुभ-अशुभ के फेर में पड़ हम-आप क्यों वक्त गंवाएं। अब चंद्र ग्रहण लगे या सूर्य ग्रहण, कोई फर्क नहीं पड़ता। बीते साल अपना चंद्रयान चांद पर पहुंच गया। तो ऐसा रहस्योद्घाटन। दुनिया ताकती रह गई। भले अपना चंद्रयान नाकाम हो गया। पर नाकामी से भी भारत ने नई इबारत लिख दी। चांद पर पानी की खोज करने वाला देश बन गया भारत। पर अमेरिका की नासा को लगा, बादशाहत टूट रही। तो चांद पर और धब्बा लगाने क्रेटर भेज दिया। क्रेटर ने चांद पर जोरदार टक्कर मारी। ताकि पानी की थाह विस्तार से लगा सके। वैसे भी अमेरिका अब जुगाड़ में माहिर हो चुका। तभी तो 2009 में ही बराक ओबामा पहले अश्वेत राष्टï्रपति बने। उसी साल शांति का नोबल भी मिल गया। शायद यही कमाल की बात रही। सो जहां 2008 में भारत औसतन हर महीने आतंकी हमले का शिकार रहा। वहां 2009 में कोई हमला नहीं। अपने होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने क्रेडिट किस्मत को दिया, खुफिया विभाग को नहीं। सो किस्मत की चाबी किसके हाथ, आप खुद समझ लो। पर आतंकी हमले न सही, नक्सलियों ने नाक में दम कर दिया। पुलिस बल की नाक में घुसकर बाल नोंच डाले। लालगढ़ से लेकर राजधानी एक्सप्रेस नक्सली कब्जे में गया। अब चिदंबरम नक्सलियों से निपटने में दो-तीन साल का वक्त लगने की बात कर रहे। सो सिर्फ साल बीता, संकट नहीं। चुनौतियां 2010 में भी मुंह बाए खड़ीं। बीते साल देश की गरीबी पर अंग्रेज डायरेक्टर ने 'स्लमडॉग मिलेनियर'  फिल्म बनाई। तो ऑस्कर मिल गया। ऑस्कर से सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को हुई। फिल्म के गाने का पेटेंट करा लिया। पर गरीबी के प्रदर्शन पर काहे की खुशी। सो जब मनमोहन दुबारा सत्ता में लौटे। तो राष्टï्रपति अभिभाषण में वादा किया। पांच साल में देश स्लम मुक्त होगा। पर गाड़ी कितनी आगे बढ़ी, अपने को मालूम नहीं। अकेले मुंबई की 54 फीसदी आबादी झुग्गियों में रहती। गरीबी के मामले में भी देश पीछे नहीं। सो कहीं पांच साल बाद मनमोहन यही वादा न दोहरा दें। महंगाई और मंदी पर तो यही हुआ। महंगाई बढ़ती रही, मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेक और अब प्रणव दिलासा देते रहे। विदा लेते साल में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 20 फीसदी तक पहुंच गई। भले जनता ने समस्या देने वाली कांग्रेस पर ही एतबार किया। पर शेक्सपीयर ने कहा था- 'जिसने एक बार धोखा दे दिया हो, उसका विश्वास नहीं करना चाहिए।'  फिर भी जनता ने मनमोहन पर भरोसा जताया। तो अबके हिसाब-किताब चाहिए। पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया अब महंगाई शब्द सुनकर ही कुर्सी से खड़े हो जाते। अब मोंटेक कुर्सी से खड़े हों या बैठे रहें। पर आम आदमी की तो खाट खड़ी हो चुकी। सो अब कांग्रेस और सरकार के पास कोई बहानेबाजी नहीं। जनता एक सीमा तक ही धैर्य रख सकती। जिसकी मिसाल 26/11 के हमले के बाद राजनेताओं को मिल चुकी। वाकई 2009 अपने लोकतंत्र की परिपक्वता का साल रहा। जनता ने तमाम रणनीतिकारों और क्षत्रपों को ऐसी धूल चटाई। लालू-पासवान-मुलायम-माया-चंद्रबाबू-जयललिता-कारत-वर्धन-देवगौड़ा जैसे क्षत्रप घर-घर जाकर पानी मांग रहे। मार्च 2009 तक जिन लेफ्टियों-लालुओं को महंगाई नहीं दिखती थी। अब महंगाई पर आंदोलन कर रहे। क्षेत्रीय ताकतें कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ से इस कदर सहमीं। सबको जमीन दिखने लगी। सो 2009 में जनता ने कमाल दिखाया। तो दिग्गज अब जमीन पर जड़ें जमाने में जुटे। इसी साल अक्टूबर में बिहार के चुनाव। फिर कई और चुनाव आएंगे। सो क्षेत्रीय दल फिर पैर जमाने में लग गए। यानी 2009 समूची राजनीति के लिए सबक। भले जनता बीती ताहि बिसार देगी। पर आगे की सुध नहीं ली। तो जनता की लाठी में आवाज नहीं, सिर्फ चोट होती। अगर चोट का असली दर्द पूछना हो। तो बीजेपी से पूछ लो। सो 2010 में बीजेपी नई शुरुआत की सोच रही। नितिन गडकरी ने फिल्मी गीत गुनगुना दिया- 'छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी।'  पर बीजेपी को सिर्फ संगठन की फिक्र। सरकार के सामने 2010 में कई बड़ी चुनौतियां। महंगाई पर नकेल हो। तेलंगाना की सुलगी आग पर पानी डालना। संसद पर हमले का दोषी अफजल तिहाड़ में। मुंबई हमले का एकमात्र जिंदा आतंकी कसाब पर फैसला आना बाकी। सो सरकार को आतंकवाद पर वोट की फिक्र किए बिना मजबूत जिगरा दिखाना होगा। बीते साल में महिला बिल पर स्टेंडिंग कमेटी की रपट आ चुकी। सो 2010 में बिल पारित कराने की चुनौती। पर सबसे अहम, देश की साख बचाना। जो नेतागिरी के जाल में उलझ चुकी। जी हां, बात कॉमन वैल्थ गेम्स की। जिसकी तैयारी पर 2009 में खूब सवाल उठे। नए साल के आखिरी महीनों में खेल होना। पर कहीं ऐसा न हो, अपने राजनेता देश की साख को भी 'खेल'  बना दें। जैसे 2009 के आखिर में क्रिकेट के कोटला मैदान ने कलंकित किया। पर नया साल है। तो सोच पुरानी क्यों रहे। सो 2010 में उम्मीद यही। व्यवस्था की जड़ों में पहुंचे खाद-पानी। तो कम हो आम आदमी की समस्या। पर कहीं ऐसा न हो, नए साल की उमंग मौसम के करबट लेते ही हवा हो जाए।
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31/12/2009