Tuesday, November 30, 2010

संसद ठप हो या सडक़ें जाम, भुगतेगी जनता ही

‘मुझसे कहा गया कि संसद देश की धडक़न को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है। जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है। लेकिन क्या यह सच है?’ संसद का ताजा हाल देख प्रख्यात कवि सुदामा पांडे धूमिल की ये पंक्तियां बिलकुल सटीक। शीत सत्र की शुरुआत नौ नवंबर को हुई। पर भ्रष्टाचार का जिन्न न सिर्फ सरकारी खजाने को, अलबत्ता संसद सत्र का पूरा महीना निगल गया। अब दिसंबर में छुट्टियों समेत तेरह दिन बचे। पर वक्त से पहले सत्र की तेरहवीं मानकर चलिए। गतिरोध तोडऩे को तीसरी मीटिंग भी नाकाम रही। या यों कहें, मीटिंग जहां से शुरू हुई, वहीं आकर खत्म हो गई। सरकार की ओर से प्रणव मुखर्जी तीन दफा प्रयास कर चुके। पहली मीटिंग रस्म अदायगी। दूसरी मेंं पीएसी के साथ बहुआयामी जांच एजेंसी का प्रस्ताव। तो तीसरी बार फोन पर सुषमा-आडवाणी को सुप्रीम कोर्ट की मॉनीटरिंग में सीबीआई जांच का प्रस्ताव रखा। पर विपक्ष ने सरकार के कामचलाऊ प्रस्तावों को सुनते ही नकार दिया। सो अब मंगलवार को स्पीकर मीरा कुमार ने पहल की। पर मीटिंग में कोई नया प्रस्ताव नहीं। अलबत्ता सरकार ने एक बार फिर अपने पुराने नुस्खे ही परोस दिए। तो विपक्ष ने भी अपनी वही धुन सुना दी। जिस पर सरकार थिरकने को राजी नहीं। यानी बैताल वापस पेड़ पर लटक गया। अब इतना बड़ा घोटाला, जिसमें न सिर्फ करने वाला, अलबत्ता गिनती भी हांफने लगे। और सरकार जेपीसी न बनाने की जिद ठान ले। तो क्या संसद को देश की धडक़न को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण मानेंगे? क्या जनता को जनता के नैतिक विचारों का समर्पण कहेंगे? जब समूचा विपक्ष विचारधारा की राजनीति से परे हट एक सुर में जेपीसी की मांग कर रहा। तो सत्तापक्ष को इतना गुरेज क्यों? क्या भ्रष्टाचार कांग्रेस या सरकार के लिए कोई बड़ी बात नहीं? ग्लोबल करप्शन इंडैक्स में भारत 84वें से 87वें स्थान पर पहुंच गया। तो सवाल, क्या जब तक नेता देश को न बेच दें, तब तक भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं? आखिर कांग्रेस और सरकार को कब बात समझ आएगी? सुप्रीम कोर्ट लगातार टिप्पणियां कर रहा। पर सरकार को शर्म है कि आती नहीं। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को महाघोटाला, सीबीआई को फटकार, पीएमओ से सवाल जैसी बातें हो चुकीं। अब तो मंगलवार को सीवीसी पी.जे. थॉमस की नियुक्ति पर भी आईना दिखा दिया। थॉमस पूर्व संचार मंत्री ए. राजा के साथ सैक्रेट्री रह चुके। केरल के पॉम ऑयल घोटाले में चार्जशीट। सो नियुक्ति संबंधी पैनल में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने थॉमस का विरोध किया था। पर पैनल के दो अन्य मेंबर पीएम और होम मिनिस्टर ने सत्ता की धौंस दिखाई। बहुमत से थॉमस को सीवीसी की कमान थमा दी। पर अब सुप्रीम कोर्ट ने लताड़ा, तो खुद की सांस थमी हुई। थॉमस को थेंक यू कहने का इशारा भी हो गया। थॉमस ने होम मिनिस्टर चिदंबरम से मुलाकात की। तो अब थॉमस का इस्तीफा महज औपचारिकता। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दो-टूक कहा- सीबीआई कुल मिलाकर सीवीसी की निगरानी में काम करती। ऐसे में थॉमस के लिए स्पेक्ट्रम घोटाले की निष्पक्ष तरीके से जांच की निगरानी करना मुश्किल होगा। क्योंकि जब थॉमस टेलीकॉम सैक्रेट्री थे, तब उन ने स्पेक्ट्रम आवंटन के उस फैसले को सही ठहराया था। जिसकी आज कोर्ट और सीबीआई समीक्षा कर रही। अब ऐसी कठोर टिप्पणी के बाद फौरन थॉमस का इस्तीफा नहीं हुआ। तो यह कांग्रेस राज में ही संभव। बूटा सिंह के बिहार विधानसभा भंग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया था। फिर भी कांग्रेस ने फौरन बूटा को रवाना नहीं किया। तभी तो मंगलवार को वनवास से लौटे कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कानूनी तुर्रा दिखाया। बोले- थॉमस इस्तीफा देंगे या नहीं, यह पता नहीं। लेकिन वह पद की सभी योग्यताएं पूरी करते हैं और सीवीसी की जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर सकते हैं। अब कांग्रेस की इस दलील को सच मानेंगे या सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को? पर सवाल, जेपीसी से कन्नी क्यों काट रही कांग्रेस? सर्वदलीय मीटिंग में सरकार की ओर से फारुख अब्दुल्ला ने दलील दी- पिछली चार जेपीसी का कोई नतीजा नहीं निकला। सो इस मांग का कोई औचित्य नहीं। पर विपक्ष की नेता सुषमा ने दलील दी- अगर सरकार की यही सोच, तो क्यों न रूल बुक से जेपीसी निकाल दे। ताकि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मीटिंग में स्पीकर ने सिर्फ प्रश्नकाल चलने देने की भी अपील की। पर विपक्ष ने दो-टूक कह दिया- प्रश्नकाल ही नहीं, सारा काम होगा, पर पहले जेपीसी। फिर भी सरकार ने मीटिंग में जेपीसी से इनकार कर दिया। अब सरकार के पास दो ही विकल्प- या तो जेपीसी माने, वरना हंगामे में ही जरूरी विधायी कामकाज निपटा सत्रावसान करे। सत्ताधारी खेमे से विपक्ष पर संसद न चलने देने का ठीकरा फोडऩे की मुहिम पहले ही शुरू हो चुकी। सो अब एनडीए ने संसद से सडक़ तक की रणनीति बना ली। दिल्ली या मुंबई में भ्रष्टाचार पर विराट रैली कर सरकार को बेनकाब करने का फैसला किया। पर एनडीए के साथ समूचा विपक्ष एक मंच पर आए, इसका बीड़ा शरद यादव को सौंप दिया। यों इसी बीजेपी ने महंगाई पर संसद की विपक्षी एकता को सडक़ पर दिखाने से इनकार कर दिया था। पर अब बोफोर्स दोहराने और तख्ता पलट का मंसूबा पाल समूचे विपक्ष को मंच पर लाना चाह रही। पर इस राजनीति में कहीं स्पेक्ट्रम का भ्रष्टाचार भी बोफोर्स जैसी जांच बनकर न रह जाए। वैसे भी जेपीसी से संसद ठप हो या रैली से सडक़ें जाम, नुकसान तो आम जनता ही झेलेगी।
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30/11/2010

Monday, November 29, 2010

तो क्या जेपीसी की जिद पर अब सौदेबाजी होगी?

विकीलिक्स के खुलासों ने अमेरिका के प्रति दुनिया की सोच को पुख्ता कर दिया। अमेरिका ने विकीलिक्स को रोकने की तमाम कोशिशें कीं, पर नहीं रोक पाया। सो गुप्त दस्तावेज जारी हुए। तो अमेरिका की कथनी और करनी का भेद खुल गया। सामने तो हर देश की तारीफ, पर पीठ पीछे ब्लादीमिर पुतिन से लेकर हामिद करजई, निकोलस सरकोजी, गॉर्डन ब्राउन, कर्नल गद्दाफी आदि नेताओं के लिए गाली की भाषा का इस्तेमाल। किसी को कुत्ता, किसी को सनकी, चरित्रहीन, किसी को मंदबुद्धि और कई अभद्र शब्दों से उद्बोधन। यहां तक कि अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मुखिया तक की जासूसी कराने में कोताही नहीं बरती। यानी अमेरिका को अपने सिवा किसी पर भरोसा नहीं। सो खुलासों ने अमेरिका की बोलती बंद कर दी। खुद हिलेरी क्लिंटन दुनिया के देशों को फोन घुमा खुलासे पर भरोसा न करने की अपील करती रहीं। हिलेरी ने भारत से भी अपील की। यों अभी भारत के बारे में खुलासा आना बाकी। जॉर्ज बुश हों या बराक ओबामा, अपने मनमोहन की तारीफ में खुब कसीदे पढ़ चुके। पर अंदरूनी सोच क्या, यह तो आने वाले खुलासों में ही मालूम पड़ेगा। वैसे भी अमेरिका की फितरत कौन नहीं जानता। सो दुनिया में विकीलिक्स के खुलासों से खलबली, तो अपने देश में भ्रष्टाचार की रोज नई परतें उधड़ रहीं। संसद के शीत सत्र को तो पाला मार चुका। अब शायद मंगलवार को लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार सर्वदलीय मीटिंग कर आखिरी पहल करेंगी। पर कोई नतीजा निकलेगा, आसार नजर नहीं आ रहे। सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों में से कोई अपना पतनाला हटाने को राजी नहीं। सो अब बहती गंगा में सुरेश कलमाड़ी भी हाथ धोने आ गए। सोमवार को स्पीकर मीरा कुमार से मिल सीधे मीडिया स्टैंड पहुंच गए। बोले- कॉमनवेल्थ घोटाले में मैंने कुछ गलत नहीं किया। किसी भी जांच को तैयार। सो मैंने स्पीकर से मिलकर संसद में बयान देने की अनुमति मांगी। पर कोई पूछे, जब संसद न चल रही और ना ही चलने के कोई आसार। तो बयान क्या खाक देंगे। अगर कलमाड़ी सचमुच इतने ईमानदार, तो मानसून सत्र में बहस के दौरान चुप क्यों रहे? तब शरद यादव जैसे नेता ने शेरू, मोटी चमड़ी जैसे तमगे दिए। पर सचमुच कलमाड़ी पर कोई असर नहीं दिखा। सचमुच घोटालेबाज किस हद तक गिर सकते, इसकी मिसाल मुंबई में दिख रही। आदर्श सोसायटी घोटाले में अशोक चव्हाण की कुर्सी गई। तो अब अहम दस्तावेज गायब हो रहे। पहले महाराष्ट्र के शहरी विकास विभाग में रखी आदर्श सोसायटी की फाइल से चार अहम पन्ने गायब हुए। जिनमें नेताओं-अफसरों की सिफारिश से लेकर सोसायटी की खातिर सडक़ की चौड़ाई कम करने के आदेश। यों कंप्यूटर में रखी सॉफ्ट कॉपी सीबीआई को मिल गई। पर सोचिए, ऐसी ‘आदर्श’ चोरी किसने की होगी? अब सोमवार को खुलासा हुआ, डिफेंस इस्टेट से एनओसी देने वाले दस्तावेज गायब हो गए। आखिर घोटाला करने वाले अपने देश के महानुभाव क्या दिखाना चाहते? क्या सचमुच सत्य, अहिंसा और बापू के दिखाए आदर्श की भी तीस जनवरी 1948 को हत्या हो गई? आखिर अपने सरकारी तंत्र में ऐसा कौन सा दीमक। जो कभी भोपाल त्रासदी के मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन को भगाने के रिकार्ड गृह मंत्रालय में नहीं मिलते। तो कभी बोफोर्स दलाली के आरोपी ओतावियो क्वात्रोची के भगाने वालों का पता नहीं चलता। कभी सिख विरोधी नरसंहार के दोषियों का पता नहीं चलता। आखिर अपनी व्यवस्था को चलाने वाले देश में कौन सा ‘आदर्श’ स्थापित करना चाहते? क्या लूट-खसोट, इधर का माल उधर, दूसरों की जेब साफ कर अपनी भरना यही अपनी व्यवस्था का आदर्श? फिर भी कोई भ्रष्टाचार पर हेकड़ी दिखाए। तो उसे क्या कहेंगे आप? कांग्रेस ने एक बार फिर एलान कर दिया- न जेपीसी मानेंगे, न सत्रावसान करेंगे। पर अंदरखाने कांग्रेस कैसे लकीर पीट रही, सबको मालूम। मुसीबतों का सिलसिला थम नहीं रहा। आंध्र में नेतृत्व परिवर्तन भी काम नहीं कर पाया। आखिर जगन मोहन रेड्डी और पूर्व सीएम वाएसआर की पत्नी लक्ष्मी ने इस्तीफा दे दिया। मां-बेटे ने कुर्सी और कांग्रेस दोनों छोड़ दीं। सो कांग्रेस की बोलती बंद हो गई। जगन ने सोनिया गांधी को भेजी चिट्ठी में खूब आरोप लगाए। पर कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया से परहेज किया। अब कांग्रेस को जगन के अगले कदम का इंतजार। सो फिलहाल संसद में विपक्ष का तोड़ ढूंढ रही। बीजेपी नेता अरुण शौरी के बयान ने सहारा दिया। शौरी ने खुलासा किया- मुकेश अंबानी के खिलाफ संसद में न बोल सकूं, सो आखिरी वक्त में पार्टी ने मेरा नाम हटा वेंकैया को मौका दिया। सो कांग्रेस को मौका मिल गया। अब कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने पूछ लिया- अब तक तो सिर्फ मैच फिक्स हुआ करते थे। बीजेपी की नैतिकता देखिए, संसद की बहस भी फिक्स होने लगी। पर शौरी का खुलासा तो कांग्रेस के लिए महज सीढ़ी। असली तोड़ तो छत्तीसगढ़ में जाकर मिला। दिल्ली के वरिष्ठ नेता की सिफारिश पर रमन सरकार ने पुष्प स्टील को माइनिंग का लाइसेंस दे दिया। जिसे बाद में हाईकोर्ट ने अवैध ठहरा दिया। पर अब कांग्रेस का दावा, सिफारिश करने वाले बीजेपी के बड़े नेता का नाम उसे मालूम। सो मनीष तिवारी बोले- रमन सिंह उस बड़े नेता का नाम बताएं, वरना हम बताएंगे। सचमुच सिफारिश करने वाले में जिस बीजेपी नेता का नाम, गर खुलासा हो जाए, तो बीजेपी की जड़ें हिल जाएंगी। सो कांग्रेस ने इशारा कर दिया, ताकि जेपीसी की जिद छोड़ विपक्ष किसी और समझौते पर राजी हो जाए। यानी ‘आदर्श’ बनाने में बीजेपी-कांग्रेस चोर-चोर सगे भाई।
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29/11/2010

Friday, November 26, 2010

लो हजार रुपए के घोटाले में 35 पैसे की नैतिकता

26/11 की दूसरी बरसी भी बीत गई। पर अपनी सरकार आज भी वही राग अलाप रही, जो दो साल पहले अलापा था। दोषियों को नहीं बख्शेंगे.. पाक ने गुनहगारों पर ठोस कार्रवाई नहीं की। पर सिर्फ यह कहते-कहते कब तक श्रद्धांजलि देंगे नेता? मुंबई में श्रद्धांजलि के कई कार्यक्रम हुए। अपनी संसद ने भी श्रद्धांजलि की रस्म अदा कर हंगामा शुरू कर दिया। सो 11वें दिन भी संसद नहीं चली। प्रणव मुखर्जी ने संसद न चलने का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ दिया। कांग्रेसी खेमे से लगातार यही संदेश देने की कोशिश हो रही। ताकि जनता विपक्ष को संसद के कामकाज में रुकावट का जिम्मेदार माने। पर विपक्ष भी कम नहीं। विपक्ष का मानना यही, अगर संसद भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही, तो कांग्रेस की मंशा ही सवालों के घेरे में होगी। यानी पक्ष-विपक्ष की अपनी-अपनी रणनीति में संसद रण बन गई। शुक्रवार को लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने सरकारी पक्ष से बातचीत के बाद आडवाणी-सुषमा को फोन घुमाया। बिहार में नीतिश कुमार के शपथ ग्रहण में गए आडवाणी-सुषमा ने स्पीकर को अपना पुराना स्टैंड दोहरा दिया। स्पीकर ने सरकार की ओर से बहस के प्रस्ताव पर राजी होने की अपील की थी। पर आडवाणी-सुषमा ने जेपीसी के सिवा कोई अन्य प्रस्ताव मानने से इनकार कर दिया। सचमुच भ्रष्टाचार के जितने बड़े खुलासे हो रहे, संसद में बहस का कोई औचित्य नहीं। अगर संसद में बहस हो भी, तो क्या होगा। यही ना, सभी दलों को संख्या बल के आधार पर भाषण देने का टाइम दिया जाएगा। फिर आखिर में संबंधित विभाग के मंत्री अपना जवाब दे देंगे। बस अथ श्री भ्रष्टाचार कथा का शीतकालीन अध्याय खत्म। सो कांग्रेस बिना किसी लोकलाज के खम ठोककर कह रही- सरकार चलाने का जनादेश हमको मिला। सो विपक्ष हमें डिक्टेट न करे। अब कोई पूछे, कांग्रेस को अगर सरकार चलाने का जनादेश मिला, तो क्या विपक्ष का गला घोंट देगी? कांग्रेस यह भूल रही, किसी देश में लोकतंत्र तभी तक जिंदा, जब तक विपक्ष की अलग हैसियत हो। यह नहीं कि सत्ता के नशे में सत्ताधारी दल विपक्ष की हर आवाज को जनादेश की आड़ में कुचल दे। सो फिर वही सवाल- टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या कॉमनवेल्थ घोटाले या आदर्श सोसायटी के बाद अब फर्जी हाउसिंग लोन घोटाला। अगर कांग्रेस का दामन पाक-साफ, तो किसी भी जांच से परहेज क्यों? कांग्रेस और सरकार की ओर से दलील दी जा रही- जेपीसी बन गई, तो कभी पीएम, तो कभी मंत्री को तलब कर विपक्ष अखबारबाजी करेगा। जिससे सरकार की किरकिरी होगी। पर अगर कांग्रेस एक कदम आगे बढक़र सोचे। तो यह भी संभव, जेपीसी की जांच में कांग्रेस और सरकार के खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए। तो अखबारबाजी करने वाले विपक्ष का मुंह कैसा रह जाएगा। पक्ष हो या विपक्ष, अब जनता राजनीति के हर दांव-पेच बखूबी समझने लगी। बिहार का जनादेश इसकी ताजा मिसाल। फिर भी राजनीतिक दल सबक नहीं ले रहे। अलबत्ता सरकार और विपक्ष की जिद में ठप संसद को भी अपनी नैतिक जीत बताने की कोशिश हो रही। बीजेपी ने कर्नाटक में येदुरप्पा को न हटाकर सरकार बचा ली। तो येदुरप्पा ने नैतिकता का ढिंढोरा पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले तो अपने बेटे-बेटियों को मुख्यमंत्री के सरकारी आवास से बाहर कर दिया। फिर देश भर के अखबारों में बड़े-बड़े इश्तिहार छापकर कर्नाटक में सुशासन का संकल्प जताया। यानी कर्नाटक एपीसोड तो निपट चुका। फिलहाल संसद में धारावाहिक चल रहा, जो एक-दो ब्रेक के साथ ही खत्म हो जाता। शुक्रवार को तीन ब्रेक लिए। फिर भी संसद नहीं चली। सो अब कांग्रेस ने नैतिकता-नैतिकता खेलना शुरू कर दिया। विपक्ष को कोसने के बाद खुद को नैतिक दिखाने के लिए संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने एलान कर दिया। जब तक संसद में गतिरोध रहेगा, कांग्रेस के सांसद भत्ता नहीं लेंगे। पर माकपाई सीताराम येचुरी बोले- कांग्रेस संसद में कामकाज नहीं चाहती। हम तो यहां काम करने आते हैं। अब किसकी मंशा कैसा, यह आप जानो। पर कांग्रेस की नैतिकता का अंकगणित भी देखते जाओ। स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ पौने दो लाख करोड़ का। यानी हिंदी में एक नील 76 खरब, तो अंग्रेजी में 1.76 ट्रिलियन। अपने देश में अरब-खरब के बाद लोग गिनती भूल जाते। पर यहां घोटाला शंख तक पहुंचने वाला था। अब अगर सिर्फ स्पेक्ट्रम घोटाले से कांग्रेस की नैतिकता को भाग दें। तो 11 दिन में कांग्रेस को लोकसभा के 208 और राज्यसभा के 72 सांसदों के भत्ते मिला दें। तो रोजाना 2000 रुपए के हिसाब से बने कुल 61लाख 60 हजार। यानी एक नील 76 खरब रुपए के घोटाले का महज 0.000035 फीसदी। आम भाषा में समझें, तो एक हजार रुपए के घोटाले में महज 35 पैसे की नैतिकता। इस अंकगणित में कॉमनवेल्थ के 70 हजार करोड़ के घोटाले शामिल नहीं। कांग्रेस भूल गई, तहलका में बंगारू लक्ष्मण ने सिर्फ एक लाख रुपए रिश्वत ली थी। तो कांग्रेस ने सत्रह दिन संसद ठप किया था। पर अबके तो इतना बड़ा घोटाला कि अपना नंबरिंग सिस्टम भी छोटा पड़ रहा। फिर भी कांग्रेस जेपीसी को राजी नहीं। अलबत्ता 35 पैसे की नैतिकता का झंडा फहरा रही। ये तो वही बात हो गई, जैसे भ्रष्टाचार के समंदर से एक बाल्टी नैतिकता का निकालना।
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26/11/2010

Thursday, November 25, 2010

संविधान नहीं, पक्ष-विपक्ष की जिद संसद पर हावी

आंध्र में कांग्रेस को आशा की किरण मिल गई। नल्लारी किरण कुमार रेड्डी ने सीएम की कुर्सी संभाल ली। तो अब शुक्रवार को नीतिश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। बिहार में जेडीयू-बीजेपी दोनों की सीटें छप्पर फाड़ कर बढ़ीं। पर जनादेश के निहितार्थ को दोनों नेतृत्व ने बखूबी समझा। सो तय हो गया, पुराने फार्मूले पर ही सरकार का गठन होगा। अगर एक ने भी अपनी बढ़ी ताकत को सौदेबाजी का हथियार बनाया होता। तो गठबंधन में दरार लाजिमी थी। पर जनता के समझदारी भरे फैसले को जितनी सौम्यता से नीतिश ने कबूला, उतना ही संयम बीजेपी ने भी दिखाया। पर कांग्रेस को राहुल का फेल होना हजम नहीं हो रहा। यों सोनिया गांधी ने पहले दिन ही कमान संभाल लाइन दे दी। सो गुरुवार को कांग्रेस ने बिहार में राहुल के फेल होने को मीडिया की गलत धारणा बताया। जयंती नटराजन बोलीं- राहुल युवाओं के आदर्श हैं। कांग्रेस का चेहरा हैं, उन ने पार्टी महासचिव की हैसियत से प्रचार किया। जिससे कांग्रेस का काडर भविष्य के लिए प्रेरित हुआ। अब कांग्रेस की ऐसी टिप्पणी कोई चौकाने वाली बात नहीं। जीत का सेहरा हमेशा गांधी परिवार के सिर बांधने की परंपरा। हार का ठीकरा स्थानीय नेतृत्व पर। वैसे भी बिहार के नतीजों के दूसरे दिन ही इलाहाबाद की रैली में चाटुकार कांग्रेसियों ने अपनी भक्ति का भोंडा प्रदर्शन कर दिया। जब पोस्टरों में सोनिया को भारत माता, तो राहुल गांधी को कृष्ण दिखाया। अब कांग्रेसी चाहे जितनी दलीलें दें, पर बिहार की जनता ने काम को जनादेश देकर अपना संदेश दे दिया। सो जनता की उम्मीदों को पूरा करने हनक के साथ नीतिश शुक्रवार को फिर कमान संभालेंगे। तो विकास की पटरी पर लौटा बिहार अब रफ्तार भरेगा। पर दुर्भाग्य, लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में दस दिन से कोई काम नहीं हो रहा। अलबत्ता पक्ष-विपक्ष की रार यही संदेश दे रही। भले संसद का सत्र भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाए, पर किसी भ्रष्टाचारी को बलि चढ़ाने वाली जेपीसी नहीं बनेगी। सो अब सत्रावसान की खबरें जोर पकडऩे लगीं। तो सरकार और कांग्रेस पर भ्रष्टाचार से भागने का आरोप न लगे, सो विपक्ष को हंगामाई साबित करने की मुहिम तेज हो गई। गुरुवार को राज्यसभा के चेयरमैन हामिद अंसारी ने मीटिंग बुलाई। पर संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने दोहरा दिया, जेपीसी नहीं मानेंगे। सरकार और कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी ने भी हाथ खड़े कर दिए। बोले- मैं नहीं जानता यह गतिरोध कैसे खत्म होगा। मैं समाधान नहीं ढूंढ पा रहा, फिर भी कोशिश कर रहा हूं। लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने एक बार फिर गतिरोध दूर करने और सदन चलने देने की अपील की। यानी सरकार की ओर से यह संदेश देने की कोशिश तेज हो गई कि वह संसद चलाने के पक्ष में। पर विपक्ष अड़ंगा डाल रहा। प्रणव दा और बंसल ने बाकायदा विपक्ष को चुनौती दी, अगर पीएसी की जांच और सरकार पर भरोसा नहीं। तो अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए। बंसल ने तेरह दिसंबर तक सत्र चलाने की मंशा का इजहार किया। पर भ्रष्टाचार की जांच में अविश्वास प्रस्ताव का क्या मतलब? विपक्ष ने सरकार को अल्पमत में नहीं बताया। अलबत्ता भ्रष्टाचारियों को शिकंजे में लाने के लिए जेपीसी की मांग की। अगर सरकार के मन में कोई खोट न होता, तो जेपीसी पर ऐसी रार न ठनती। अब भले सरकार जुबां से तेरह दिसंबर तक सत्र चलाने का एलान कर रही। पर गुरुवार की सारी बयानबाजियों में मंशा समय पूर्व सत्रावसान की ही। सो सत्तापक्ष की रणनीति भांप विपक्ष भी अब अपना नंबर बढ़ाने में जुट गया। गुरुवार को सारे मुलायमवादी जेपीसी की मांग को लेकर संसद के परिसर में धरने पर बैठ गए। अगर 1962, 1965, 1971 और कारगलि युद्ध को छोड़ दें। तो विपक्ष के बारे में हमेशा अवसरवादी होने की धारणा बनी हुई। विपक्ष की भूमिका का मतलब सिर्फ यहीं तक सीमित रह गया कि हमेशा ऐसे मौकों की तलाश करो, जिससे सरकार पर छींटाकशी की जा सके। चरित्र हनन कर जनता में छवि बिगाड़ी जा सके। कुल मिलाकर सत्तापक्ष को बदनाम कर ही विपक्ष अपनी भूमिका की इतिश्री मान लेता। पर सत्तापक्ष को भी संसद की फिक्र नहीं रही। संसद को हमेशा ऐसे घुमाने की कोशिश की, मानो बपौती हो। वरना भ्रष्टाचार के इतने बड़े-बड़े खुलासे हो रहे। सुप्रीम कोर्ट से आए दिन ऐसी टिप्पणियां आ रहीं, जो सरकार को शर्मसार कर रहीं। फिर भी ऐसे बर्ताव कर रही, मानो, शर्म-हया बेच खाई हो। गुरुवार को भी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को लताड़ा। पूछा, अब तक स्पेक्ट्रम घोटाले में पूर्व संचार मंत्री ए. राजा से पूछताछ क्यों नहीं हुई। कोर्ट एक दिन पहले ही इस घोटाले को महाघोटाला करार दे चुकी। फिर भी सरकार का गुरूर देखिए, जेपीसी नहीं मान रही। अब पक्ष-विपक्ष की इसी कटुता के बीच 26/11 की दूसरी बरसी का वक्त आ गया। पर क्या श्रद्धांजलि महज औपचारिकता भर होगी या संसद एकजुट होकर आतंकवाद को कुचलने का सच्चा संकल्प लेगा? सिर्फ मुंबई हमला ही नहीं, 26/11 की तारीख अपने संविधान के लिए भी अहम। इकसठ साल पहले 26/11 को ही संविधान सभा ने देश के संविधान को मंजूरी दी थी। पर अफसोस, आज संविधान नहीं, सत्तापक्ष और विपक्ष की जिद संसद पर हावी।
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25/11/2010

Wednesday, November 24, 2010

तो अब लफ्फाजी नहीं, सिर्फ विकास मांग रही जनता

बिहार में विकास ने लालू-पासवान का बंटाधार किया। आंध्र में के. रोसैया की अकर्मण्यता ने सीएम की कुर्सी छीन ली। तो कर्नाटक में नैतिकता पर ब्लैकमेल भारी पड़ा। बीजेपी ने येदुरप्पा को सीएम बनाए रखने का एलान कर दिया। पर बुधवार के दो विलेनों की बात फिर कभी। फिलहाल बात सिर्फ हीरो की। बिहार चुनाव में नीतिश कुमार की ऐसी आंधी चली, लालू की लालटेन बुझ गई। पासवान का झोंपड़ा उड़ गया। अब ऐसी आंधी हो, तो कांग्रेस के पंजे की क्या बिसात। देश के इतिहास में किसी गठबंधन को मिली अब तक की सबसे बड़ी जीत एनडीए के नाम दर्ज हुई। जेडीयू और बीजेपी दोनों का स्ट्राइक रेट इतना जबर्दस्त, मान्यता प्राप्त विपक्ष के लिए भी मोहताज होगी बिहार विधानसभा। एकला किसी भी दल को विपक्ष के लिए जरूरी दस फीसदी सीटें नहीं मिलीं। सो लालू-पासवान खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोंच रहे। लोकसभा के बाद विधानसभा में भी पिटे लालू जनादेश पचा नहीं पा रहे। अलबत्ता लालू-पासवान ने नीतिश को मिले तीन चौथाई बहुमत को जादुई और रहस्यमयी नतीजा करार दिया। बाकायदा ताल ठोकी- महीने भर में तथाकथित जनादेश से रहस्य का परदा उठाएंगे। लालू-पासवान की हताशा ऐसी, नीतिश को तो बधाई दी, बीजेपी को नहीं। अब विकास की ऐसी जीत हो, तो पंद्रह साल तक बिहार का बेड़ा गर्क करने वालों के पेट में दर्द लाजिमी। वह भी तब, जब लालू की बीवी राबड़ी दोनों सीटों से चुनाव हार गई हों। पासवान के दोनों भाई बिना किसी मशक्कत के निपट गए हों। तो चुनाव नतीजों पर ऐसी बौखलाहट को सांत्वना के नजरिए से ही देखना चाहिए। अब लालू-पासवान भी कहीं बेजुबान ईवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ें, तो कोई हैरानी नहीं। लालू ने यही कहा- अभी बोलूंगा, तो आप लोग कहोगे, हार से भन्नाकर बोल रहे। इसलिए एक महीने बाद बोलूंगा। लालू को शायद अपने दिन याद आ रहे, जब बैलेट बॉक्स से जिन निकला करते थे। पर सही मायने में लालू-पासवान के लिए यह गंभीर मंथन का वक्त। पासवान युग का तो लोकसभा में ही अंत हो चुका। अब विधानसभा के नतीजे लालू युग के अवसान के द्योतक। यों राजनीति में उठने-गिरने का दौर चलता रहता। लालू-पासवान ने अपनी तुलना इंदिरा गांधी से की। जब इमरजेंसी के बाद इंदिरा का सफाया हो गया था। पर दो साल बाद दमखम से इंदिरा लौटीं। हार के बाद लौटने का ऐसा जज्बा काबिल-ए-तारीफ। पर लालू-पासवान भूल गए, इंदिरा लौटीं, तो जनता पार्टी की कलह की वजह से। अगर लालू सचमुच राजनीतिक वापसी चाहते, तो ईमानदार ही नहीं, समझदार विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। यों ही हार पर लकीर पीटते रहे, तो फकीर बन घूमते रह जाएंगे। नीतिश कुमार को प्रचंड बहुमत मिलना, जितना गदगद करने वाला, उतना ही चिंता का भी विषय। इतिहास साक्षी, जब-जब जनता ने किसी दल को प्रचंड बहुमत दिया, तो अगला चुनाव उसके लिए घातक साबित हुआ। नीतिश कुमार को जनता के हर तबके का वोट मिला। तो सबके मन में सिर्फ यही, विकास की रफ्तार से उसका इलाका महरूम न हो। अगर नीतिश उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, तो जनता खुद जवाब देगी। सो नतीजों में छुपे संदेश को भांप चुके नीतिश ने भी पूरी सौम्यता दिखाई। माना, इतनी बड़ी जीत से चिंता बढ़ी। उनके पास कोई जादुई छड़ी नहीं। पर जनता के विश्वास और अपनी लगन से कामयाबी हासिल करेंगे। सचमुच नीतिश को मिले जनादेश में बदलते बिहार की महक ही नहीं, और भी उम्मीदें। बिहार की जनता ने विकास का खांचा देखा, जिसमें लालू कहीं फिट नहीं। सो नीतिश को ऐसा जनादेश दिया, जिसमें अब कोई इफ एंड बट की गुंजाइश नहीं। लोगों ने माना, नीतिश के पांच साल में भले रामराज नहीं, पर नीतिश के इरादे नेक। सो लोगों ने जात-पांत से ऊपर उठकर नीतिश को सामाजिक समरसता का हीरो बनाया। भले बिहार की राजनीति से जात-पांत अभी दूर नहीं हुआ। पर विकास के मुद्दे ने जातीय राजनीति की दीवार को कमजोर जरूर किया। यूपी के बाद बिहार में सामाजिक समरसता की लहर चली। मायावती के सोशल इंजीनियरिंग ने यूपी में मिसाल पेश की थी। तो अब पेशे से इलैक्ट्रॉनिक इंजीनियर नीतिश कुमार ने ऐसा शॉक दिया, लालू-पासवान ठीक से बोल नहीं पा रहे। रही बात कांग्रेस की, तो सीधे सोनिया गांधी ने बयान दे दिया, बिहार से अधिक उम्मीद नहीं थी। पर कोई पूछे, नौ सीट से चार पर आने की उम्मीद थी? बीजेपी नेता अरुण जेतली ने सही फरमाया, बिहार की जनता ने परिवारवाद की राजनीति को नकार विकास को अपनाया। सो बिहार में न राहुल चले, न लालू की बीवी राबड़ी जीतीं। न पासवान के भाई, न लालू को छोड़ गए दोनों साले साधु-सुभाष। सो नीतिश का जादू देख बाकी नेताओं में बधाई देने की होड़ मच गई। बीजेपी के तमाम दिग्गजों ने तो बधाई दी ही। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने कहा- बिहार की जनता ने विकास का मुद्दा स्वीकार किया। अब सवाल कांग्रेस से- फिर सोनिया-राहुल चुनावी सभाओं में नीतिश के विकास का मखौल क्यों उड़ा रहे थे? पर कांग्रेस की जैसी परंपरा, चाटुकारों ने राहुल फैक्टर को अगले चुनाव की तैयारी बताया। पीएम, सोनिया, मोदी सब बुधवार को नीतिश के मुरीद दिखे। पर चुनाव नतीजों में जितनी जनता की उम्मीद, उतनी ही आशंका भी पैदा कर रही। बीजेपी-जेडीयू दोनों मजबूत हुईं, पर जेडीयू अपने बूते बहुमत से महज आठ-दस सीट दूर। सो गठबंधन के रिश्तों पर भी सबकी निगाह होगी। पर फिलहाल तो बिहार में लुट गए लालू, पिट गए पासवान। कांग्रेस का तो क्रिया-कर्म हो गया।
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24/11/2010

Tuesday, November 23, 2010

तो ‘जेपीसी’ का मतलब, जनता ही पहचाने चोर

न येदुरप्पा गए, न जेपीसी बनी और न संसद में शांति हुई। पीएम से मुलाकात के बाद प्रणव दा ने विपक्ष को बता दिया, जेपीसी नहीं बनाएंगे। सो नौवें दिन भी संसद नहीं चली। अब कब तक संसद ऐसे ही ठप होने को बैठती रहेगी, यह सत्तापक्ष और विपक्ष को भी मालूम नहीं। भ्रष्टाचार के भंवर में जैसी कांग्रेस, वैसी बीजेपी भी उलझी हुई। सो गैर कांग्रेस, गैर बीजेपी दलों के नेता जमकर चुटकियां ले रहे। इतिहास का जिक्र कर फरमा रहे- जेपीसी बनने से पहले बोफोर्स पर 45 दिन, हर्षद मेहता घोटाले पर 17 दिन और यूटीआई घोटाले पर 14 दिन संसद ठप रही थी। सो स्पेक्ट्रम मामले में अभी तो सिर्फ नौ दिन ही हुए। यानी इतिहास गवाह, ऐसे मामलों में सरकार को घुटने टेकने ही पड़े। पर अबके हमाम में बीजेपी-कांग्रेस एक साथ नंगी खड़ीं। अगर जेपीसी बनी और येदुरप्पा ने इस्तीफा नहीं दिया, तो भी संसद में गतिरोध बना रहेगा। यानी नैतिकता की सौदेबाजी में संसद सिसक रही। बीजेपी को जैसे ही सरकार ने जेपीसी न बनाने का इशारा किया। येदुरप्पा के इस्तीफे का मामला टाल दिया। बड़े जतन के बाद अरुण जेतली, वेंकैया ने येदुरप्पा को पार्टी का आदेश मानने के लिए राजी किया। पर मंगलवार तडक़े बीजेपी को असली नैतिकता का अहसास हुआ। बीजेपी के सूरमाओं की दलील, जब स्पेक्ट्रम मामले में जेपीसी नहीं बन रही। दो हफ्ते के हंगामे के बावजूद पीएम के कान पर जूं नहीं रेंग रही। तो बेमतलब येदुरप्पा का इस्तीफा लेकर कर्नाटक में चल रही अपनी सरकार को खतरे में क्यों डाले। येदुरप्पा ने बगावती तेवर दिखा ऐसे ही आलाकमान के माथे पर पसीने ला दिए। येदुरप्पा के समर्थन में नरेंद्र मोदी भी उतर आए। सो बीजेपी ने भविष्य के चक्कर में वर्तमान की परवाह नहीं की। कर्नाटक में अगले महीने ही पंचायत चुनाव होने। और तो और, येदुरप्पा का लिंगायत समाज पर ऐसा प्रभाव। अगर बीजेपी सख्ती से हटाने का फैसला करे, तो कर्नाटक में बीजेपी का बंटाधार तय। मंगलवार को पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग में कई येदुरप्पाई सांसदों ने आडवाणी के सामने येदुरप्पा को न हटाने की मांग की। यानी कुल मिलाकर येदुरप्पा की ताकत और जेपीसी पर केंद्र के रवैये को देख बीजेपी ने फिलहाल येदुरप्पा को अभयदान दे दिया। पर कर्नाटक बीजेपी में इतनी कलह, यह शांति अधिक लंबी नहीं। अब कर्नाटक से बेफिक्र आडवाणी ने सांसदों को इशारा कर दिया। सरकार पहली बार इस कदर घिरी, सो जेपीसी की मांग नहीं छोडऩी। पर कांग्रेस भी कम नहीं। भ्रष्टाचार पर भले जूते और प्याज वाली कहावत चरितार्थ। फिर भी जेपीसी को राजी नहीं। कांग्रेस को डर, अगर जेपीसी ने पीएम को तलब कर लिया, तब क्या होगा। सचमुच कांग्रेस ईमानदार होती, तो जेपीसी से न डरती। वैसे भी इतना बड़ा घोटाला कोई राजा अकेले नहीं कर सकता। राजा की हालत तो वैसी ही, जैसी झारखंड के पूर्व सीएम मधु कोड़ा की। खाया-पीया चार आना, गिलास तोड़ा बारह आना। कांग्रेस के एक वरिष्ठतम नामी-गिरामी नेता तो येदुरप्पा की कुर्सी न जाने से बेहद खफा दिखे। बोले- एक फ्लैट की वजह से हमारे सीएम की कुर्सी ले ली। और बीजेपी अपना सीएम नहीं हटा रही। अगर यही फार्मूला चला, तो हमारी तो पूरी केबिनेट ही खाली हो जाएगी। यानी भ्रष्टाचार के इस खेल में सब हिस्सेदार, यह मजाक में ही सही, पर कांग्रेसी नेता भी कबूल रहे। फिर भी शर्म है कि आती नहीं। सीवीसी के तौर पर थॉमस की नियुक्ति न्यायिक सवालों के घेरे में आई। तो कांग्रेस नेताओं से सुप्रीम कोर्ट जैसा ही सवाल हुआ। आखिर आरोपी को ही सीवीसी क्यों बनाया? तो कांग्रेस नेता की हद देखिए। बोले- अगर किसी डाक्टर को डायबिटीज हो जाए, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दूसरे डायबिटिक मरीज का इलाज नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर जब कांग्रेस नेता ऐसे मजाक बनाएं। तो फिर नैतिकता की उम्मीद करना मूर्खता ही। पर कुल मिलाकर कांग्रेस ने मन बना लिया, जेपीसी नहीं मानेंगे। सुप्रीम कोर्ट में भी पीएमओ के हलफनामे पर सुनवाई अभी पूरी नहीं हुई। बुधवार को कोई उम्मीद। पर कोर्ट की जिस टिप्पणी को लेकर पीएम सवालों के घेरे में आए। उस बैंच ने मीडिया को खरी-खोटी सुना दी। बैंच के मुताबिक उन ने पीएम का नाम नहीं लिया। पर मीडिया ने गलत ढंग से पेश कर इसे राजनीतिक रंग दे दिया। मंगलवार को कोर्ट में अटार्नी जनरल और याचिकाकर्ता सुब्रह्मण्यम स्वामी के बीच दलीलों का दौर चला। तो अटार्नी जनरल ने साफ कर दिया, मुकदमा दायर करने के लिए मंजूरी की जरूरत ही नहीं थी। पर स्वामी ने दलील दी, मुकदमा दायर करने के बाद मंजूरी की बात आती। सो उन ने पहले ही यह मांग कर दी। अब कांग्रेस जेपीसी न मानने के पीछे संवैधानिक वजह गिना रही। ताकि लोगों में यह संदेश न जाए कि भ्रष्टाचार की जांच से कांग्रेस भाग रही। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने दलील दी, संवैधानिक परंपरा के मुताबिक सीएजी रपट की जांच पीएसी ही करती। यानी जेपीसी और येदुरप्पा के चक्कर में संसद का तो राम ही राखा। वैसे भी बुधवार को सबकी नजर बिहार पर होगी। सो जेपीसी का गठन होगा या नहीं, यह तो बाद की बात। पर सत्तापक्ष और विपक्ष के इस नैतिक खेल में अब जनता ही जेपीसी। संसद चलाने को भले दोनों के बीच कोई सौदेबाजी हो जाए। पर असली जेपीसी तो तब होगी, जब जनता पहचानेगी चोर।
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23/11/2010

Monday, November 22, 2010

अब बने जेपीसी और जाएं येदुरप्पा, तो ही संसद में शांति

कहते हैं आदतें बदली जा सकतीं, पर लत नहीं छूट सकती। शायद कांग्रेस को जूते और प्याज खाने की लत पड़ चुकी। सो न सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां असर कर रहीं, न नैतिकता झकझोर पा रही। अभी टू-जी स्पेक्ट्रम का पेच सुलझा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी पी.जे. थॉमस की नियुक्ति पर सवाल उठा दिए। मनमोहन सरकार ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्ति को ताक पर रखकर थॉमस के लिए वीटो लगा दिया। तब कांग्रेस ने बीजेपी को खूब खरी-खोटी सुनाई थीं। अब सुप्रीम कोर्ट ने हू-ब-हू वही कहा, जो विपक्ष की नेता ने कहा था। थॉमस के खिलाफ पॉम आयल घोटाले में चार्जशीट दाखिल हो चुकी। पर तब होम मिनिस्टर चिदंबरम ने भी थॉमस को क्लीन चिट दी थी। अब चीफ जस्टिस एस.एच. कपाडिय़ा की रहनुमाई वाली बैंच ने सीधा पूछ लिया- एक अभियुक्त सतर्कता आयुक्त कैसे हो सकता? बैंच ने माना, आपराधिक मुकदमा झेल रहा व्यक्ति अगर सीवीसी होगा, तो हर कदम पर सवाल उठेंगे। जब वह खुद आपराधिक मामले में अभियुक्त होगा, तो दूसरे की फाइल कैसे बढ़ाएगा? कोर्ट ने केंद्र सरकार को याद दिलाया, सीबीआई भी सीवीसी को रिपोर्ट करती। पर अटार्नी जनरल ने अपने आका की बेशर्मी भरी भाषा का इस्तेमाल किया। दलील दी, अगर नियुक्ति के मूल मानदंड के मुताबिक सवाल उठने लगे। तो संवैधानिक पद पर किसी की भी नियुक्ति नहीं हो पाएगी। क्योंकि किसी की भी नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है। यों अटार्नी जनरल तो महज सरकारी मुलाजिम। पर कांग्रेस ने टू-जी की तर्ज पर सीवीसी के मामले में भी कह दिया- शर्मिंदगी जैसी कोई बात नहीं। यों कांग्रेस की दलील भी सही। जब शर्म को कोई स्पेक्ट्रम बनाकर बेच खाए, तो शर्मिंदगी कैसी। गवर्नरों का मामला हो या मुख्य चुनाव आयुक्त का। कांग्रेस ने कभी लोक-लाज की परवाह नहीं की। विपक्ष ने एड़ी-चोटी एक कर ली। पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला का क्या बिगड़ा? बूटा सिंह, सिब्ते रजी, एससी जमीर जैसे जेहादी गवर्नरों ने कैसी संवैधानिक निष्ठा दिखाई, किसी से छुपी नहीं। पर सवाल कांग्रेस से, क्या संवैधानिक पदों पर बूटाओं, चावलाओं से दूर नजर क्यों नहीं दौड़ा पाती? ताकि विपक्ष की हर धार भोंथरी हो सके। याद करिए, वाजपेयी राज में हुए राष्ट्रपति चुनाव का वक्त। कैसे वाजपेयी ने गुजरात दंगों की स्याह हटाने के लिए राष्ट्रपति पद पर एपीजे अब्दुल कलाम का नाम प्रस्तावित किया। कैसे कलाम के नाम पर ऐतिहासिक राजनीतिक एकता बन गई। पर कांग्रेस कभी बूटाओं, चावलाओं से ऊपर नहीं उठती। लोकतंत्र की मर्यादा की फिक्र होती। तो इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने चावला का जो इतिहास लिखा। उसके बाद किसी राजनीतिक दल से ऐसी जिद की उम्मीद नहीं। पर कांग्रेस ने मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी की सिफारिश के बावजूद चावला को बरकरार रखा। कांग्रेस की ऐसी राजनीतिक धौंस की कहानी अनेक। पर पाप का घड़ा कभी न कभी तो फूटता ही है। सो स्पेक्ट्रम, आदर्श, कॉमनवेल्थ और अब सीवीसी का मामला। कांग्रेस पर एक साथ लाठियां बरस रहीं। सो बेचारी कांग्रेस किस-किस का जवाब दे। संसद की कार्यवाही तो तीसरे हफ्ते भी लकवाग्रस्त। पर भ्रष्टाचार के भूचाल को थामने के लिए कांग्रेस जेपीसी तक को राजी नहीं। जब कांग्रेस खुद को ईमानदार मान रही। तो कोई और जांच हो या जेपीसी, परहेज क्यों? पर सोमवार को भी संसद के गतिरोध पर कोई फैसला नहीं हो सका। अलबत्ता पिछले मंगलवार और अब सोमवार को हुई सर्वदलीय मीटिंग के बीच कांग्रेस बुरी तरह घिर गई। सोमवार को विपक्ष के साथ-साथ लेफ्ट और सरकार की सहयोगी तृणमूल ने भी जेपीसी की मांग कर दी। पर प्रणव दा ने पीएसी के साथ बहुउद्देश्यीय जांच एजेंसी का प्रस्ताव रखा। सो नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। सुषमा स्वराज ने रिलायंस से जुड़ी नीरा राडिया के टेप को आधार बनाकर दो-टूक कह दिया- अब जेपीसी के बिना कुछ भी संभव नहीं। उन ने कहा- ताजा खुलासे से अब ऐसा लग रहा, लोकतंत्र के चारों स्तंभ लडख़ड़ा गए। मीडिया और कारॅपोरेट जगत की सांठगांठ से मंत्री बनाने और विभाग देने की बात का खुलासा हो रहा। यानी अब सरकार का जेपीसी से बचकर भागना मुमकिन नहीं। पर चेहरा बचाने को अब बीजेपी से गुहार लगा रही। बीजेपी ने कर्नाटक के सीएम येदुरप्पा को विदा करने का मन बना लिया। पर येदुरप्पा की बगावत से परेशान। फिर भी बीजेपी नेताओं को उम्मीद, मान-मनोव्वल कर येदुरप्पा को हटाएंगे। ताकि संसद में बीजेपी निशाने पर न आ जाए। सरकार ने जेपीसी का इशारा विपक्ष को कर दिया। पर येदुरप्पा की वजह से मुश्किलें होंगी। सो माना जा रहा, मंगलवार को पहले बीजेपी की ओर से येदुरप्पा के इस्तीफे का एलान होगा। फिर सरकार जेपीसी को हरी झंडी दिखाएगी। सो कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने सोमवार को साफ कहा- हमारी नजर कर्नाटक पर। यानी मंगलवार को संसद का गतिरोध टूटने और सब कुछ मंगलमय होने की उम्मीद। सरकार के पास अब कोई विकल्प भी नहीं। मंगलवार को ही पीएम के हलफनामे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई। सो कोर्ट का रुख सत्र का भविष्य तय करेगा। फिलहाल सोमवार को पीएम मनमोहन और सीएम येदुरप्पा पुट्टापार्थी जाकर सत्य साईंबाबा का आशीर्वाद ले आए। मनमोहन के इस्तीफे की तो कोई बात नहीं। येदुरप्पा मुद्दे पर बीजेपी में राजस्थान दोहरा रहा।
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22/11/2010

Saturday, November 20, 2010

तो पीएम कागज से, राजा खजाने से खेलते रहे!

'चुप-चुप खड़े हो, जरूर कोई बात है...।' घोटालों पर खामोशी को विपक्ष ने मौन स्वीकृति करार दिया। तो पहले सोनिया गांधी और अब खुद मनमोहन ने भी लंबी चुप्पी तोड़ दी। जब एटमी डील पर मनमोहन चौतरफा घिर गए थे। तो एचटी समिट में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने लाचारी भरी टिप्पणी की थी। तब दोनों ने एक सुर में कहा था, एक डील न होने से जिंदगी खत्म नहीं होती। पर जब मनमोहन ने डील को अपनी आन का मुद्दा बना लिया। तो लेफ्ट की समर्थन वापसी के बावजूद पूरा करके दम लिया। भले सरकार बचाने को सांसदों की जमकर खरीद-फरोख्त हुई। सत्ता की खातिर नैतिकता को ठेंगा दिखा दिया। लोकसभा में करोड़ों की गड्डियां लहराई गईं। तब मनमोहन ने सरकार बचाने की खातिर हुए इस भ्रष्टाचार पर आंखें मूंद लीं। अब भ्रष्टाचार के मौसम की चपेट में खुद पीएम आ गए। तो दो हफ्ते तक संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढऩे के बाद एचटी समिट में ही पीएम ने जुबान खोली। तो जैसी लाचारगी एटमी डील के वक्त मनमोहन के बयान में थी। अबके उससे कुछ अलग नहीं। भ्रष्टाचार के मुद्दे ने सरकार को इस कदर घेर लिया। अब बाहर निकलने का रास्ता नहीं दिख रहा। सो पीएम ने न सिर्फ विपक्ष से संसद चलने देने की अपील की। अलबत्ता घोटाले के दोषियों को न बख्शने का भरोसा भी दिलाया। पर संसद आखिर कैसे चलेगी, जब विपक्ष की जेपीसी की मांग को न नकारा, न स्वीकारा। बोले- संसद का सत्र चल रहा। सो जेपीसी पर यहां बोलना सही नहीं। अब आप खुद अंदाजा लगा लें, अगर सरकार बैकफुट पर न होती, तो किसी भी मंच से जेपीसी खारिज कर देते। प्रणव दा तो लगातार इस मांग को खारिज कर रहे। पर जैसे पीएम ने तेल और तेल की धार देखते हुए जेपीसी पर चतुराई भरा बयान दिया। प्रणव दा भी कुछ ऐसा ही करते। बाहर इनकार, पर उन ने अब तक विपक्ष को जेपीसी न मानने का औपचारिक जवाब नहीं दिया। यानी सरकार की हालत कितनी पतली, बतलाने की जरूरत नहीं। सो विपक्ष भी आक्रामक हो चुका। अब सीधे पीएम पर निशाना साधा। तो इशारों में ही पीएम के इस्तीफे की भी मांग कर दी। पर अपनों का कुकर्म बीजेपी को कर्म ही पूजा नजर आ रहा। कर्नाटक के सीएम येदुरप्पा का पाप जगजाहिर। फिर भी बीजेपी ने अभय दान दे दिया। शुक्रवार की आधी रात तक मीटिंग चली। पर बीजेपी के भ्रष्टाचार का पैमाना देखिए। दलील दी गई, जब केंद्र में सरकार न जेपीसी मान रही, न पीएम के इस्तीफे की हलचल। सो येदुरप्पा की बलि लेकर थोथी नैतिकता दिखाने का कोई मतलब नहीं। यानी नैतिकता की राजनीतिक परिभाषा यही, पहले तुम, फिर हम। येदुरप्पा ने तो बेंगलुरु पहुंच कर बेशर्मी भरा बयान भी दे दिया। बोले- आरोप लगने वाले कितने मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों ने अब तक इस्तीफा दिया। खुद को पाक-साफ बता इस्तीफे से इनकार किया। पर कोई पूछे, जब इतने पाक-साफ थे। तो जमीन लौटाई क्यों? पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी की आड़ में फिलहाल बीजेपी की तोप गोले दाग रही। सो अब सबकी निगाह मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई पर। सुप्रीम कोर्ट ने पीएम की चुप्पी पर सवाल उठाए थे। तो शनिवार को हलफनामा देकर पीएमओ ने सफाई दे दी। टू-जी स्पेक्ट्रम मामले में पूरी क्रोनोलॉजी यानी तारीखवार ब्यौरा सौंप दिया। सुब्रहमण्यम स्वामी की सभी छह चिट्ठियों पर पीएमओ में हुए विचार और संबंधित विभाग को भेजने का हवाला दिया। यानी पीएमओ ने सरकारी प्रक्रिया के तहत अपनी जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह किया। अब कोर्ट पीएमओ के हलफनामे से संतुष्ट होगा या नहीं, यह मंगलवार को मालूम पड़ेगा। पर याचिका कर्ता स्वामी ने भी कबूला, पूरे मामले में पीएम गुनहगार नहीं। पर सवाल, देश का मुखिया सिर्फ कागजी कार्रवाई ही करता रहा? लूटने वाले अपनी जेब भरते रहे। पर पीएम ने सब कुछ जानकर भी अनजान होने का रुख क्यों अपनाया? हलफमाने का निचोड़ यही, पीएमओ कभी चुप नहीं रहा। अलबत्ता लेटरबाजी करता रहा। अब मनमोहन इम्तिहान की घड़ी बता रहे। पर इस चुनौती के लिए जिम्मेदार कौन?
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20/11/2010

Friday, November 19, 2010

तो दूसरी पारी में कांग्रेस बढ़ी, नैतिकता सिकुड़ी!

तो जेपीसी पर संसद का दंगल नहीं थमा। टू-जी ने सरकार का ऐसा वन-टू का फोर किया, पीएम की जुबां नहीं खुल रही। कांग्रेसी अब बेबाक कह रहे, सिर्फ कोर्ट में जवाब देंगे। सचमुच सुप्रीम कोर्ट ने दिन में तारे न दिखाए होते। तो विपक्ष के तेवर कांग्रेस कबका पस्त कर चुकी होती। पर कोर्ट का डंडा ऐसा चला, कांग्रेस की सांस उखड़ रही। तो विपक्ष को मानो संजीवनी मिल गई। सो विपक्ष ने खम ठोक दिया- जेपीसी नहीं, तो संसद की कार्यवाही भी नहीं। पर सत्तापक्ष से प्रणव मुखर्जी भी पीछे नहीं रहे। एलान कर दिया- जेपीसी मंजूर नहीं। विपक्ष पहले पीएसी की रपट का इंतजार करे। प्रणव दा ने विपक्ष से एक बार फिर संसद चलने देने की अपील की। सोमवार से पहले एक और कोशिश करेंगे। फिर भी बात न बनी, तो शीत सत्र को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ाने का विकल्प भी खुला। सो सरकार के साथ-साथ विपक्ष भी पसोपेश में, आखिर बाकी मुद्दों का क्या होगा। पर फिलहाल जैसी रार ठनी, गतिरोध खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे। भ्रष्टाचार की बयार ऐसी चल रही, कोई बच नहीं पा रहा। विपक्ष संसद में हावी, पर कर्नाटक में बीजेपी का कुकर्म परेशान कर रहा। यों शुक्रवार को सीएम येदुरप्पा के परिजनों ने सरकारी जमीन वापस लौटा दी। पर बीजेपी अभी भी कार्रवाई से बच रही। येदुरप्पा दिल्ली तलब किए गए। पर न्यायिक जांच की आड़ में कुर्सी बचाने की कोशिश हो रही। अब आप खुद ही देख लो। जमीन डिनोटीफाई कर अपनों को रेवड़ी बांटने के मामले की जांच का एलान हुआ। पर पिछले दस साल तक के मामले जांच के दायरे में होंगे। यानी सरकारी जमीन को कौडिय़ों के भाव लुटाने के मामले में बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस-जेडीएस भी शामिल। पर सवाल, क्या बीजेपी को नैतिकता नहीं दिख रही? यों शुक्रवार को एसएस आहलूवालिया ने एलान कर दिया- हमारा सीएम दोषी पाया गया, तो निकाल बाहर करेंगे। पर बीजेपी भूल रही, अशोक चव्हाण अभी दोषी पाए नहीं गए थे। नैतिकता तो सचमुच सिर्फ कहने की बात। सत्ता के लिए सब कुछ करेगा का फार्मूला ही सबके लिए। राजनीति में तो नैतिकता अब कहने भर की भी नहीं रही। सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए किसी को शिबू सोरेन से हाथ मिलाने में हिचक नहीं। तो कोई रेड्डी बंधुओं के नखरे सहने को तैयार। कभी राजीव हत्याकांड पर बने जैन कमीशन की रिपोर्ट में डीएमके पर उंगली उठी। तो कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा की सरकार गिराने में देर नहीं की। फिर डीएमके ने सत्ता के शिखर तक पहुंची बीजेपी का दामन थाम मलाई काटी। फिर 2004 में वही डीएमके कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई। यूपीए-टू में मनमोहन और कांग्रेस थोड़ी मजबूत हुई। तो मनमोहन ने ए. राजा और टीआर बालू को मंत्रालय में न लेने का विचार रखा। पर मनमोहन की नहीं चली। मनमोहन तो सिर्फ कांग्रेस की ओर से पीएम पद पर मनोनीत व्यक्ति। असल में नेता तो सोनिया गांधी। सो सत्ता के लिए सोनिया गांधी ने तब जो समझौता किया, आज उसके काले छींटे मनमोहन पर पड़ रहे। सो टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कर्ताधर्ता ए. राजा के मामले में पीएम मनमोहन से बड़ी जवाबदेही सोनिया गांधी की। पर सरकार के मुखिया होने के नाते विपक्ष और न्यायपालिका की तोप मनमोहन की ओर घूमी हुई। सो सवालों के लपेटे में कांग्रेस का राज दरबार न आ जाए, इसलिए कांग्रेस का शीर्ष ब्रिगेड मनमोहन के बचाव में उतर आया। जनार्दन द्विवेदी ने तो पहले ही एलान कर दिया- पीएम के साथ थे, हैं और रहेंगे। अब शुक्रवार को राहुल गांधी ने भी बचाव किया। तो बोले- पीएम पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी में शर्म की कोई बात नहीं और ना ही पीएम के लिए कोई असहज स्थिति। अब अगर राहुल की बात छोड़ दें। तो राजनीति में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं। अगर शर्म की बात होती, तो ए. राजा की जगह संचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल यह नहीं कहते, दुनिया में हर जगह भ्रष्टाचार है। उन ने पीएमओ की कलई खोलने वाले सुब्रहमण्यम स्वामी की हैसियत पर भी सवाल उठा दिए। पर सवाल, क्या किसी हैसियत वाले आदमी को ही पीएम से सवाल पूछने का हक? अब शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में पीएम के जवाब पर सबकी निगाह होगी। पर फर्क देखिए, शुक्रवार को जहां राहुल ने कोर्ट की टिप्पणी से शर्मिंदगी को अलग कर दिया। वहां मां सोनिया गांधी राजनेता कम, दार्शनिक अंदाज में प्रवचन देतीं दिखीं। इंदिरा गांधी की जयंती पर तीन मूर्ति भवन में समारोह हुआ। तो उन ने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब देखिए। आर्थिक तरक्की के बीच नैतिकता का पतन हुआ। लालच और भ्रष्टाचार बढ़ा और नैतिकता सिकुड़ी। देश में करोड़पति बढ़े, तो गरीबी भी बढ़ी। करोड़ों लोग दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे। विकास ही सब कुछ नहीं। हम कैसा समाज चाहते हैं, यह सोचना होगा। आजादी के सिद्धांतों से खिलवाड़ हुआ। यानी कुल मिलाकर सोनिया ने तरक्की का सेहरा मनमोहन के सिर बांधने की कोशिश की। भ्रष्टाचार का सेहरा राजा के सिर। पर सवाल, पिछले छह-सात साल से कांग्रेस की ही सरकार। फिर गरीबी-अमीरी का फासला क्यों बढ़ा। नैतिकता के पतन पर नकेल क्यों नहीं कसी? देश में महंगाई हुई, तो विकास की चादर में ढक दिया। अब भ्रष्टाचार को भी विकास की चादर में ढांपने की कोशिश। तो ऐसे प्रवचन को अपना नमन।
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19/11/2010

Thursday, November 18, 2010

तो कांग्रेसी पाप का घड़ा कब तक ढोएंगे मिस्टर क्लीन?

देश से गांव, गांव से देश की यात्रा यों तो महज हफ्ते-दस दिन की रही। पर इस बीच देश में बहुत कुछ घट गया। अभी भी अपना गांव राजनीतिक कोलाहलों से अनजान त्योहारी मौसम में ही रमा हुआ। गांव में कार्तिक स्नान का दौर चल रहा। पर देश का मौसम स्कैम, स्कैंडल और करप्शन के रंग में ऐसा डूबा हुआ, मानो घोटालों की सेल लगी हो। हर कोई भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाता दिख रहा। क्या डीएम, क्या सीएम और क्या पीएम, कोई अछूता नहीं। ‘आदर्शवादी’ अशोक चव्हाण को कांग्रेस ने सचमुच का आदर्श बना दिया। जिस दिन बराक ओबामा ‘इंडिया’ को स्थायी सीट की झप्पी दे ‘भारत’ में अपना माल खपाने का जुगाड़ कर गए। उसी शाम अशोक का ताज छीन शोक मनाने के लिए छोड़ दिया। कांग्रेस ने नजीर पेश करने की कोशिश की। फौरन राहुल गांधी का बयान आ गया- अब साफ छवि का व्यक्ति ही सीएम होगा। सो एक चव्हाण चूके, तो इतिहास नहीं, वर्तमान के पृथ्वीराज चव्हाण को राज मिल गया। पर भ्रष्टाचार की अम्मा कांग्रेस कब तक खैर मनाती। महाराष्ट्र में आदर्श सोसायटी घोटाला और कॉमनवेल्थ घोटाले का शोर अभी थमा भी नहीं। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की परतें तेजी से उधड़ीं। तो सबसे पहले घोटालों के राजा केबिनेट मंत्री ए. राजा की छुट्टी हुई। बकरीद से पहले सुप्रीम कोर्ट ने पीएम पर ऐसी तल्ख टिप्पणी की। कांग्रेस हलाल हुई, पर उफ तक नहीं कर पाई। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में देश को पौने दो लाख करोड़ का चूना लगा। पर तमाम घटनाक्रम में पीएम की चुप्पी को लेकर कोर्ट ने सवाल उठाए। तो राजनीतिक भूचाल आ गया। सो बीजेपी ही नहीं, समूचे विपक्ष ने मोर्चा खोल दिया। सभी घोटालों की जांच के लिए जेपीसी की मांग कर दी। पर कांग्रेस जेपीसी के लिए राजी नहीं। सो संसद के शीत सत्र को मानो (शीत) ठंड लग गई। लगातार छठे दिन भी संसद नहीं चली। गतिरोध खत्म करने की कोशिशें हो चुकीं। पर दोनों पक्षों ने रार ठान ली। सो गतिरोध जस का तस बरकरार। यों भले छठवें दिन भी संसद नहीं चली। पर हालात इतनी तेजी से बदले कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों के छक्के छूट रहे। नैतिकता और लोकतंत्र की दुहाई दे रही बीजेपी को अपनी करनी और कथनी परेशान कर रही। केंद्र में बीजेपी जेपीसी की मांग कर रही। तो कर्नाटक में बीजेपी की येदुरप्पा सरकार जमीन घोटाले में फंस गई। पहले तो येदुरप्पा ने दस्तावेज जारी कर सफाई दी। जमीन डिनोटीफाई करने का काम पहले के भी सीएम करते रहे। यानी उनने मान लिया, हमाम में सभी नंगे। फिर भी नितिन गडकरी ने येदुरप्पा को क्लीन चिट दे दी। पर नैतिकता के भूत ने बीजेपी की लंगोटी पकड़ ली। तो अब येदुरप्पा ने अपने परिजनों की ओर से कौडिय़ों के भाव खरीदी गई सरकारी जमीन लौटाने का एलान कर दिया। पर यही काम तो आदर्श घोटालेबाज अशोक चव्हाण ने भी किया था। तब बीजेपी क्यों नहीं मानी। यों कर्नाटक की सियासत में जितने भी ट्विस्ट आ रहे, सब बीजेपी की अंदरूनी खींचतान का ही नतीजा। पर बात दिल्ली के राजनीतिक धमाल की। सुप्रीम कोर्ट ने भले पीएमओ को नोटिस जारी नहीं किया। पर पीएम को जवाब दाखिल करने के लिए शनिवार तक का वक्त देना भी किसी नोटिस से कम नहीं। सो सरकार ही नहीं, समूची कांग्रेस की सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी। बात सिर्फ ए. राजा तक सीमित रहती, तो कांग्रेस मोर्चा संभाल लेती। पर मनमोहन की चुप्पी को लेकर सीधे सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठा दिए। जो बात जनता के दिल में थी, कोर्ट ने जुबान से कह दी। सो मामला सिर्फ राजनीतिक नहीं, अब न्यायिक हो गया। पीएमओ की ओर से शनिवार को हलफनामा दाखिल होगा। जिसमें टू-जी स्पेक्ट्रम के बारे में पूरा ब्यौरा होगा। ताकि पीएम की चुप्पी पर सवाल न उठे। पर स्पेक्ट्रम घोटाले में कोर्ट की टिप्पणी के बाद मनमोहन पर राजनीतिक हमले भी तेज हो चुके। आडवाणी ने पीएम से सफाई मांगी। तो गुरुवार को सीताराम येचुरी ने भी कहा- जब इस्तीफा देने वाला मंत्री कह रहा, सब कुछ पीएम की जानकारी में हुआ। तो पीएम को संसद में सफाई देनी होगी। अब मनमोहन की छवि दांव पर। मिस्टर क्लीन कहलाने वाले मनमोहन आखिर क्या करें। राजनीति में छवि बनाने से बड़ी चुनौती उसे बरकरार रखने की। वाजपेयी ने छह दशक में जो छवि बनाई। बतौर पीएम गुजरात दंगे ने एक कलंक लगा दिया। वाजपेयी तो तभी नरेंद्र मोदी को हटाना चाहते थे। पर पार्टी की वजह से चुप रहना पड़ गया। यही हाल मनमोहन का, जिन ने पहले टर्म में न सही, पर दूसरे टर्म में डीएमके कोटे से टीआर बालू और ए. राजा को केबिनेट में शामिल न करने का खम ठोक दिया था। पर पार्टी नेतृत्व की वजह से समझौता करना पड़ा। तो बालू न सही, राजा की ताजपोशी हो गई। अब राजनीतिक मजबूरी की वजह से सत्ता में कई लुटेरे हिस्सेदार हो गए। सो मनमोहन चुप रहे। अब पार्टी के पाप का ठीकरा मनमोहन की पगड़ी पर फूट रहा। पर इस छवि के साथ क्या मनमोहन पीएम रहना पसंद करेंगे? अगर रहेंगे, तो हंसी के पात्र ही बनेंगे। हो न हो, मनमोहन ने इस्तीफे की पेशकश भी कर दी हो। पर कांग्रेस की मजबूरी, अभी राहुल कुर्सी के लिए पूरी तरह तैयार नहीं। गर मनमोहन हटे, तो फिर जबर्दस्त सफाई अभियान चलाना पड़ेगा। पर मनमोहन ने अंतरात्मा की मान कुर्सी छोड़ी, तो छवि सचमुच बनी रहेगी। पर फिलहाल अपने राजनीतिक गुरु नरसिंह राव की तरह मनमोहन भी मौनी बाबा बने हुए।
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18/11/2010

Thursday, November 4, 2010

गरीबों को ‘दीया’ छीन कब तक जलेगा चिराग?

त्योहारी सीजन का यही अनोखापन, कब वक्त बीत जाता, पता भी नहीं चलता। अपने नेताओं के झूठे वादों की तरह नहीं, जिसके इंतजार में उम्र निकल जाती। पर वादा निभाने का दिन कभी नहीं आता। तभी तो गरीबी के अभिशाप को मिटाने की कभी ईमानदार कोशिश नहीं हुई। अगर गरीबी दूर हो गई, तो फिर राजनेताओं को तो वोट के लाले पड़ जाएंगे। सो गरीबी ऐसा पटाखा हो गई, जिसे चुनावों में हर नेता फोड़ जश्न मनाता। एक चुनाव में हाथ अगर गरीब के साथ होता, तो अगले चुनाव में नारा बदल आम आदमी के साथ हो जाता। कोई दल कभी हिंदुत्व का झंडा उठाता। तो अगले चुनाव में राष्ट्रवाद का नारा। यानी शब्दों की जुगाली तो कोई नेताओं से सीखे। सो आम आदमी कहो या गरीब, अब महंगाई पर सरकार से किसी करिश्मे की उम्मीद नहीं कर रहा। अलबत्ता महंगाई को आत्मसात कर त्योहार मना रहा। आखिर जनता निकम्मी सरकारों से उम्मीद भी क्या करे। जब चुनावी मौसम होता, तो तोहफों की बारिश कर देते। पर जैसे ही सत्ता मिल जाती, नशा सिर चढक़र बोलने लगता। वैसे भी अबके दिवाली के मौके पर मनमोहन सरकार को त्योहार से अधिक बराक ओबामा दौरे की फिक्र। सो सरकारी अमला त्योहारी छुट्टी के बावजूद दौरे की तैयारी में जुटा। बीजेपी ने ओबामा की संरक्षणवादी नीति पर विरोध दर्ज कराने का एलान कर दिया। तो विदेश सचिव निरुपमा राव ने भोपाल त्रासदी के गुनहगार वारेन एंडरसन को छोटा मुद्दा बता दिया। निरुपमा बोलीं, एंडरसन से भी बड़े मुद्दे हैं, जिन पर राष्ट्रपति ओबामा से बात होगी। अब इसे संवेदनाशून्य बयान न कहें, तो क्या कहें। जिस त्रासदी ने भोपाल के लोगों की कई पीढी तबाह कर दी। उसके मुख्य गुनहगार को भारत लाने की बात अपने विदेश मंत्रालय की नजर में ऐरा-गैरा मुद्दा। वैसे कांग्रेसी सरकार से उम्मीद भी क्या। जब भरी संसद में वारेन एंडरसन को भगाने के रिकार्ड नहीं होने का एलान कर दिया गया। तो अब क्या उम्मीद? पर पिछली दिवाली से इस दिवाली राजनीतिक उथल-पुथल इस बात का सबूत कि वक्त हमेशा एक जैसा नहीं होता। पिछले साल दिवाली के वक्त बीजेपी तमाम झंझावातों से गुजर रही थी। महंगाई, आर्थिक मंदी और आतंकवाद जैसे मुद्दों के बावजूद लोकसभा चुनाव की हार ने बीजेपी को इतना हिला दिया था कि नींव हिलने लगी थी। राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से वसुंधरा राजे के इस्तीफे को लेकर तबके अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने घोड़े खोल रखे थे। याद करिए, 17 अक्टूबर की दिवाली से ठीक पहले धनतेरस के दिन 15 अक्टूबर को पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग में कैसे लालकृष्ण आडवाणी ने वसुंधरा से इस्तीफा लेने का फैसला वापस लेने की अपील की। पर राजनाथ सिंह ने आडवाणी तक की अपील खारिज कर दी थी। बोर्ड की मीटिंग में तनाव इस कदर बढ गया कि चार घंटे तक मंथन चलता रहा। पर धनतेरस के दिन बीजेपी अब महिला नेत्रियों पर कोई अहम फैसले से परहेज करती। उमा भारती को 10 नवंबर 2004 को धनतेरस के दिन ही सस्पेंड किया था। यानी पिछली दिवाली बीजेपी अपना ही दिवाला निकालने में लगी थी। पर कैडर बेस पार्टी होने का यही फर्क होता। साल भर बाद ही दिवाली में बीजेपी में शांति का माहौल। बीजेपी नेताओं ने बड़े इत्मिनान के साथ दिवाली मनाई। पर पिछले साल सत्ता में वापसी के बाद दिवाली पर घी का दीया जलाने वाली कांग्रेस इस बार फटेहाल। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी तक आ चुकी। पर ए. राजा को संचार मंत्रालय से हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही कांग्रेस। कॉमनवेल्थ घोटाले और मुंबई आदर्श सोसायटी घोटाले के तो वाकई क्या कहने। भ्रष्टाचार के मुद्दे ने कांग्रेस को इस कदर घेर रखा कि अब कांग्रेस कुछ कहने के बजाए, दबी जुबान कहती फिर रही- भ्रष्टाचार को जिंदगी का हिस्सा हो चुका। अब दबी जुबान ही सही, कोई सत्ताधारी पार्टी ऐसी सोच रखती हो। तो आप उससे देश हित की क्या उम्मीद रखेंगे? पर वक्त का पहिया घूमने में देर नहीं लगती। तभी तो पिछली दिवाली बीजेपी टेंशन मेें थी। तो अबके कांग्रेस फटेहाल दिख रही। भ्रष्टाचार से धन तो जुटा लिए। आम आदमी का पैसा अपनी जेब में भर लिया। जनता गरीबी और महंगाई के बोझ तले दबी। पर कांग्रेस भ्रष्टाचार को पनाह देने में लगी हुई। अब सवाल, आम आदमी का ‘दीया’ छीन कांग्रेस कब तक अपना ‘चिराग’ जलाएगी? भ्रष्टाचार की हांडी तो एक-न-एक दिन फूटेगी ही। चारा घोटाले वाले लालू आज किस कदर पानी मांग रहे। बोफोर्स ने कैसे देश में तख्ता पलट कर दिया। यह किसी को भी नहीं भूलना चाहिए। पर राजनीति की बातें तो होती रहेंगी। फिलहाल दीपावली की आप सबको ढेर सारी शुभकामनाएं।
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04/11/2010

Wednesday, November 3, 2010

लुटे-पिटे ओबामा से भला कैसी उम्मीद?

तो धनतेरस भी बीत गया। बाजारों में खूब रौनक रही, लोगों ने दिल खोलकर खरीददारी की। भले भारत दो हिस्सों दिखता हो, जैसा खुद राहुल गांधी कह रहे। पर अपने भारत की यही बड़ी खासियत, त्योहार के रंग में लोग इस कदर रंग जाते। अमीरी-गरीबी का फर्क भले कुछ पल के लिए ही सही, पर मिट सा जाता। अपनी संस्कृति में यही अनोखापन, जो विविधता से भरे भारत को एक सूत्र में पिरोए रखता। पर देखिए, जहां त्योहार हमारी एकता का आदर्श बन जाता। वहां आदर्श के नाम पर नेता-नौकरशाह कितनी लूट मचाते। बुधवार को नौ सेना ने रक्षा मंत्रालय को अपनी अंतरिम रपट दी। तो साफ कर दिया, सोसायटी की जमीन पर सेना का हक। पर महाराष्ट्र सरकार भी अपना दावा जताती रही है। नौ सेना ने सोसायटी को एनओसी नहीं दी। सुरक्षा के लिहाज से मौजूदा इमारत को खतरा भी बताया। अब सवाल अपनी नौ सेना से भी। नेताओं-नौकरशाहों की नीयत तो हमेशा ही रेवडियों की खातिर लपलपाई रहती। पर नौ सेना के अहम ठिकानों के बिलकुल पास में 31 मंजिला इमारत खड़ी हो गई। तो नौ सेना को तब क्यों नहीं दिखा। इतनी बड़ी इमारत कोई रातों-रात तो खड़ी नहीं हो गई। सो सवाल, नौ सेना ने पहले ही इस इमारत का निर्माण रुकवाने को कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए? अपना इरादा नौ सेना की क्षमता पर संदेह का नहीं। पर सेना की रपट से ही यह सवाल निकल रहा। आखिर नौ सेना किस तरह से सुरक्षा का जिम्मा संभाल रही थी, जो इतनी बड़ी इमारत बन गई और उसे पता भी नहीं चला? यानी इस आदर्श घोटाले में सबके सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे निकले। अगर सेना के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत नहीं होती। तो इतनी बड़ी भ्रष्ट इमारत खड़ी नहीं हो पाती। सो आदर्श फ्लैट धारको में नेताओं-नौकरशाहों के साथ-साथ सेना के नामी-गिरामी हस्तियों की भी कलई खुल गई। अब तक खुद को पाक बताने वाले विलासराव देशमुख के भी चेहरे से नकाब उतर गया। जब कानूनी सीमा से बाहर जाकर आदर्श सोसायटी को फायदा दिलाया। सो आदर्श के चक्कर में फर्श घिस रही कांग्रेस। ऊपर से कॉमनवेल्थ करप्शन पर बीजेपी लगातार परतें उधेडऩे में जुटी। नितिन गडकरी ने केबिनेट के फैसलों के नोट जारी कर दिया। तो शाहनवाज हुसैन ने आरोप लगाया, घोटाले में कांग्रेस खुद चोर और चौकीदार बनी बैठी। सो कांग्रेस अबके भ्रष्टाचार के जाल में बुरी तरह फंस चुकी। मंगलवार के कांग्रेस अधिवेशन में भ्रष्टाचार पर चुप्पी मीडिया की सुर्खियां बनी। तो बुधवार को कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी सफाई देने मैदान में आए। उनने मीडिया की समझ पर सवाल उठा अपनी समझनदानी बड़ी बता दी। बोले- आपलोग सोनिया गांधी के भाषण को सही ढंग से समझ नहीं पाए। उन्होंने वर्करों को बुनियादी मूल्य न भूलने और संयम-सादगी का मंत्र दिया था, जिसमें संदेश साफ निहित है। यानी कांग्रेस भ्रष्टाचार के सिवा बाकी सभी मुद्दो पर सीधा-सीधा बोलती है। अब इसे राजनीतिक बेशर्मी नहीं, तो और क्या कहेंगे? भ्रष्टाचार का इतना बड़ा मुद्दा, पर कांग्रेस सीधा बोलने से बच रही। अब अगर मनीष तिवारी की दलील मान भी लें। तो क्या मंगलवार को सोनिया का भाषण दिग्वििजय सिंह को भी समझ नहीं आया। उन ने तो मंगलवार को ही कहा था, जरुरी नहीं हर मंच से भ्रष्टाचार की बात हो। सो कांग्रेस के वाकई क्या कहने। अब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे के बाद फिर हंगामा बरपेगा। बीजेपी ने संसद में घेरने की पुख्ता रणनीति बना ली। पर उससे पहले बराक ओबामा के स्वागत की तैयारी में मनमोहन सरकार बिछ चुकी। दिवाली के मौके पर मुंबई छावनी में तब्दील हो गई। ओबामा के संग तीन हजार से अधिक लोग आ रहे। सो अमेरिका मुंबई विजिट पर रोजाना 900 करोड़ खर्च करेगा। अब आप ही सोचिए, ओबामा का सीधे भारत की आर्थिक नगरी मुंबई में आना। सारा फोकस मुंबई पर करना, क्या यों ही। सही मायने में भारत में दिवाली का जश्न, तो उधर अमेरिका में बराक ओबामा का दिवाला निकल गया। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच जिस तरह अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति होने का गौरव हासिल किया। अब धराशायी मार्केट की तरह लोकप्रियता भी गिर गई। मध्यावधि चुनाव में ओबामा की पार्टी डेमोक्रेटिक का हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में बहुमत खत्म हो गया। अब रिपब्लिकन ने बहुमत हासिल कर लिया। सीनेट में भी रिपब्लिकन डेमोक्रेट के करीब आ गई। यानी 21 महीने में ही ओबामा लुट गए। यों व्यक्तिगत तौर पर लोग ओबामा को पसंद करते, पर उनकी नीतियां बेअसर साबित हुई। आर्थिक मंदी से उबरने में नाकाम ओबामा अब भारत दौरे से खुद उम्मीद लगाए बैठे। सो दौरे से पहले ही कह दिया, सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता, दोहरी टेक्नोलॉजी का मामला बेहद जटिल। पर एक पते की बात कह गए ओबामा। उनने पाक को मुंबई हमले के दोषियों पर जिम्मेदार कार्रवाई की नसीहत दी। तो लगे हाथ, रणनीतिक साझेदारी के लिए भारत को अपनी टॉप पालिसी बताया। आखिर में कहा, दुनिया में बहुत नेताओं से मिला। पर उनमें मनमोहन सर्वाधिक अदभूत नेता। यानी कुल मिलाकर अमेरिका हमें जुबानी सराहना देगा, बदले में भारत के बाजार में अपना माल खपाने का बंदोबस्त कर जाएगा। वैसे भी लुटे-पिटे ओबामा से भारत भला उम्मीद भी क्या करे।
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03/11/2010

Tuesday, November 2, 2010

तो भ्रष्टाचार पर चुप्पी भी कांग्रेसी ‘आदर्श’

तो कांग्रेस की एक दिनी चौपाल आधे दिन में ही निपट गई। एआईसीसी मेंबरों का चुनाव न होना था, न हुआ। अलबत्ता परंपरा के मुताबिक सोनिया गांधी को ही मनोनयन का हक मिल गया। सो सोनिया बोलीं, मनोनयन की डगर इतनी आसान नहीं। सो कुछ लोगों को घाटा उठाने को तैयार रहना होगा। पर लगे हाथ उन ने यह भी कह दिया, धीरज रखने से कांग्रेस में कभी-न-कभी नंबर आ ही जाता है। यों यह कितना सच, आप प्रणव दा से ही पूछ लो। अब सोनिया गांधी सीडब्लूसी का एलान चाहे जब करें। पर अधिवेशन में राहुल गांधी का जादू खूब चला। कांग्रेसियों ने तालकटोरा स्टेडियम को राहुलमय कर दिया। अब भले राहुल का बोलना एजंडे में नहीं था। पर राहुल बोलेंगे, ऐसा तय ही था। आप पुराना इतिहास पलट कर देख लें। पर हमेशा राहुल को वर्करों के अनुरोध पर बुलवाने की परंपरा। सो अबके भी राहुल ने उसी तरह माइक संभाला। पर फर्क, अब राहुल राजनीति के माहिर खिलाड़ी हो चुके। सो उन ने कांग्रेस को एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी और गरीबों का रहनुमा बताया। पिछले छह साल में राहुल ने जिस भरत की खोज की। उसकी कहानी सुन सभी कांग्रेसी गदगद दिखे। मां सोनिया का चेहरा तो गर्व से दमक उठा। राहुल ने दोहराया- ‘आज दो हिंदुस्तान। एक गरीब, तो दूसरा खुशहाल। अब दोनों हिंदुस्तान को जोडऩे की जरुरत और यह काम सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही कर सकती।’ यों राहुल की दो हिंदुस्तान वाली थ्योरी सोलह आने सही। पर कांग्रेस ही देश का गरीबों का उद्धार कर सकती, यह समझना मुश्किल। आजादी के 63 साल में करीब 50-55 साल कांग्रेस का ही राज रहा। चौथी लोकसभा तक तो करीब-करीब पूरे देश में कांग्रेस ही शासन में बनी रही। फिर राज्यों में थोड़ी-बहुत तस्वीर जरुर बदली। तो अब सवाल उठना लाजिमी, क्या देश से गरीबी दूर करने के लिए कांग्रेस को फिर से 50-55 साल चाहिए। खुद इंदिरा गांधी ने 1971 में गरीबी हटाओ का नारा देकर चुनावी जीत का डंका बजाया था। पर 40 साल बाद भी कांग्रेस वही चुनावी नारे दोहरा रही। तो इसके क्या मायने? अधिवेशन में राहुल के कसीदे सिर्फ मेंबरों ने ही नहीं, खुद सोनिया ने भी पढ़े। उन ने युवा कांग्रेस और एनएसयूआई में लोकतांत्रित तरीके से नेता चुनने को सराहा। राहुल का नाम लिए बिना बोलीं, युवाओं का रूझान तेजी से कांग्रेस की ओर हो रहा। पर जिस लोकतंत्र की दुहाई सोनिया ने दी। जरा उसका एक नमूना भी देख लें। यूपी में युवा कांग्रेस के चुनाव में महज एक वोट पाने वाले शैफ अली नकवी अब उपचुनाव में लखीमपुर सदर से कांग्रेस उम्मीदवार हो गए। नकवी के अब्बा जफर अली लखीमपुर से कांग्रेसी सांसद। सो राहुल गांधी की लोकतांत्रिक पहल की कलई तो ताजा उदाहरण ही खोल रहा। पर कांग्रेस की कथनी और करनी हमेशा से जुदा रही। तभी तो घोटालों नहीं, महाघोटालों के साए में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। सोनिया-मनमोहन-राहुल-प्रणव ने भाषण तो खूब दिए। पर घोटालों-भ्रष्टाचार के आगे जुबां बंद ही रहे। अधिवेशन में कॉमनवेल्थ करप्शन के सिरमौर सुरेश कलमाड़ी और आदर्शवादी अशोक चव्हाण भी मौजूद थे। पर मंच से कोई संदेश नहीं आया। अपने मनमोहन तो सिर्फ सोनिया का गुणगान ही करते रह गए। यानी भ्रष्टाचार के मसले पर कांग्रेस ने अधिवेशन में ‘आदर्श’ चुप्पी साध ली। यों सोनिया ने अपने संबोधन में पर्यावरण पर राजीव गांधी के एक कथन को उद्धृत जरुर किया। जिसके मुताबिक, जब कभी पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है, तब भारत के एक अंश का विनाश होता है। सो पर्यावरण का जिक्र आया, तो लगा, अब चव्हाण का आदर्श भी बताएंगी। अपने जयराम रमेश ने सोमवार को ही कह दिया था। आदर्श सोसायटी में पर्यावरण मानकों की अनदेखी हुई, सो कुछ फ्लोर ढहाए जा सकते। सचमुच आदर्श सोसायटी के कुछ फ्लोर नहीं, पूरी इमारत ढहा देनी चाहिए। कारगिल के वक्त सेनाध्यक्ष रहे वीपी मलिक ने तो इसे शर्म की इमारत करार दे यही सुझाव दिया। सेना अधिकारियों की मिलीभगत से मलिक बेहद व्यथित दिखे। पर क्या नेता ऐसा होने देंगे? शायद नहीं, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार तो राजनीति की जड़। सो कोई अपनी जड़े भला क्यों खोदेगा? आम आदमी की दुहाई तो सिर्फ वोट बटोरने का जरिया। सो सोनिया ने भ्रष्टाचार पर मौन साधा, तो महंगाई पर वही पहले जैसी चिंता। राज्यों के सिर ठीकरा फोड़ा। बोलीं- ‘कालाबाजारियों पर कार्रवाई करना राज्य की जिम्मेदारी।’ अब अगर सोनिया की दलील मान भी लें। तो सवाल, कांग्रेस शासित दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, असम, आंध्र जैसे राज्यों में महंगाई कम क्यों नहीं हो रहे? क्या वहां की सरकारें भी कालाबाजारियों से मिली हुई? यह सवाल खुद सोनिया के भाषण से उठ रहा। पर कांग्रेस हमेशा से अपनी ठसक भरी राजनीति के लिए जानी जाती। तभी तो सोनिया ने अयोध्या फैसले के मद्देनजर शांति समाधान की बात नहीं की। अलबत्ता बाबरी विध्वंस की याद दिला मुस्लिम वोट बैंक को साधने की कोशिश की। पर ताजा फैसला तो जमीन विवाद में आया। कांग्रेस दोनों पक्षों में एकता के प्रयास कर सकती थी। पर हाईकोर्ट के फैसले से कांग्रेस को राजनीतिक उल्लू सीधा होता नहीं दिख रहा। सो दोनों मामलों को जोडक़र बयानबाजी कर रही। पर भ्रष्टाचार का मुद्दा कांग्रेस के लिए गंभीर नहीं, क्योंकि इसमें कांग्रेसी झुलस रहे। सो भ्रष्टाचार पर अधिवेशन में चुप्पी मुद्दा बनी। बीजेपी ने हमला बोला। तो दिग्वििजय सिंह ने बेहिचक कह दिया। जरुरी नहीं हर मंच से भ्रष्टाचार की चर्चा हो। यानी कांग्रेस की जय हो। इतने बड़े अधिवेशन में भ्रष्टाचार पर न बोलना भी एक ‘आदर्श।’
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02/11/2010

Monday, November 1, 2010

‘आदर्श’ साए में कांग्रेस का आदर्श अधिवेशन!

तो घो’टाले का मतलब, जिसे घुमा-फिराकर टाल दिया जाए। सो कांग्रेस अब सभी ‘आदर्शवादियों’ को बचाने में जुट गई। हनुमान भक्त बराक ओबामा सचमुच अशोक चव्हाण के लिए हनुमान साबित हुए। सो ‘ओबामा संजीवनी’ पाकर सोमवार को चव्हाण मुंबई लौट गए। पर जाते-जाते कह गए, और भी बहुत सारे काम हैं आदर्श सोसायटी घोटाले के सिवा। इधर चव्हाण की किस्मत की रिपोर्ट बनाने में जुटे प्रणव मुखर्जी ने भी एलान कर दिया, अभी जांच में और वक्त लगेगा। यानी कम से कम दिवाली और ओबामा विजिट तक चव्हाण की कुर्सी को कोई खतरा नहीं। दबी जुबान में अब कांग्रेसी भी कह रहे, राहुल की पसंद को हटाना आसान नहीं। अब चव्हाण की कुर्सी बचेगी या खिसकेगी, यह ओबामा विजिट के बाद ही तय होगा। पर राहुल गांधी की पसंद का हश्र देखिए। जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला भी राहुल की पसंद। तमाम झंझावातों के बीच भी राहुल ने उमर का समर्थन किया था। पर उमर का राजनीतिक अनाड़ीपन अब किसी से छुपा नहीं। महाराष्ट्र के सीएम पद पर अशोक चव्हाण भी राहुल की ही पसंद। पर संयोग देखिए, जब दीपावली के मौके पर सोना कुलांचे मार रहा। तभी राहुल के दोनों खरा सोना उमर-अशोक सही मायने में खोटा सिक्का साबित हुए। अब कोई पूछे, आदर्श घोटाले पर राहुल गांधी ने खामोशी की चादर क्यों ओढ़ रखी है? यानी पूरे घटनाक्रम में चव्हाण की कुर्सी बचती दिख रही। विलासराव देशमुख को अपनी मंशा पर पानी फिरता दिखा। तो फौरन अशोक चव्हाण पर हमला बोल दिया। खुद के इरादे को पाक, चव्हाण को नापाक बताने की कोशिश की। कहा- ‘मैंने सीएम रहते आदर्श सोसायटी सिर्फ सेना से जुड़े मौजूदा और रिटायर्ड लोगों के लिए मंजूरी दी थी। पर अशोक चव्हाण ने बतौर राजस्व मंत्री इसके प्रावधान बदल सिविलियन के लिए भी खोल दिया। अगर सोसायटी सिर्फ फौजियों के लिए होती। तो इतनी हाय-तौबा न मचती।’ यानी देशमुख ने सारा ठीकरा चव्हाण के सिर फोड़ दिया। पर सभी ‘आदर्शवादी नंगों’ को कांग्रेस पहचान चुकी। सो जांच कमेटी के सदस्य और महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रभारी एके एंटनी ने विलासराव को कड़ी फटकार लगाई। महाराष्ट्र के सभी कांग्रेसियों को भी जुबान बंद रखने की हिदायत दे दी गई। कांग्रेस की मुश्किल सिर्फ चव्हाण का घोटाले में नाम आना नहीं, अलबत्ता राज्य के सभी बड़े कांग्रेसी फंस रहे। अब अगर चव्हाण की बलि ली गई। तो फिर आदर्श लूट में उछल रहे नामों देशमुख-शिंदे-नारायण राणे कैसे बचेंगे? सचमुच आदर्श सोसायटी घोटाले के हमाम में सभी नंगे हो गए। आदर्श लूट का सिलसिला 2000 से ही शुरु हुआ। जब केंद्र में एनडीए का, तो महाराष्ट्र में शिवसेना के नारायण राणे सीएम थे। सो आदर्श फ्लैट धारकों में नारायण राणे के सिफारिशी और तबके केंद्रीय पर्यावरण मंत्री सुरेश प्रभु का भी नाम सामने आ रहा। यानी आदर्श सोसायटी फ्लैट की फाइल जहां-जहां गई, वही फ्लैट का मालिक बन बैठा। सो धीरे-धीरे इमारत छह मंजिला से इकत्तीस मंजिला बन गई। डीएम से लेकर सीएम तक, सबने ‘आदर्श’ स्थापित कर दिया। अब सबके सब फंस रहे। तो स्थानीय प्रशासन चुस्त हो गया। बीएमसी ने सोसायटी में कारगिल से जुड़े परिवारों को छोडक़र बाकी सभी के पानी के कनेक्शन काट दिए। बिजली विभाग ने 24 घंटे का अल्टीमेटम दे रखा। सो मानवाधिकार और ऑक्यूपेशन सर्टिफिकेट पर रोक लगाने के खिलाफ सोसायटी के कुछ लोग अब बांबे हाईकोर्ट पहुंच गए। अब अगर मामला कानूनी पचड़े में फंसा। तो कांग्रेस को संसद में बचाव का मौका मिल जाएगा। बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने तो सोमवार को एलान कर दिया, संसद में इस घोटाले को जोर-शोर से उठाया जाएगा। पर कांग्रेस अभी इस पड़ताल में जुटी कि एनडीए के समय के कुछ ऐसे कागज हाथ लग जाए, जिससे विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब दे सके। कांग्रेस की मुसीबत यह कि आदर्श सोसायटी को कारगिल शहीद के परिवारों से जुड़ा बताया जा रहा। ताबूत घोटाले में कांग्रेस ने कैसे जार्ज फर्नांडिस का तीन साल तक बायकॉट किया और नारे लगाए, खुद नहीं भूली। अब कांग्रेस को डर, कहीं विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाने में सफलता हासिल कर ली। तो कांग्रेस को बेभाव की पड़ेगी। पर अभी यह साबित होना बाकी। अब अगर जमीन महाराष्ट्र सरकार की निकली। कारगिल परिवारों की बात नहीं आई। तो चव्हाण की कुर्सी सलामत रहेगी। कांग्रेस नेता और आदर्श सोसायटी के अहम कर्ताधर्ता कन्हैया लाल गिडवानी तो मीडिया पर ही भडक़े हुए। दावा किया- जमीन महाराष्ट्र सरकार की, खुद सेना ने भी सर्टिफिकेट दिया। हमारे पास लिखित में किसी कांग्रेसी नेता ने सिफारिश नहीं की। पर गिडवानी भूल रहे, खुद तबके सीएम विलासराव देशमुख ने कबूला- आदर्श सोसायटी सेना के लिए मंजूरी दी। अब जरा गिडवानी का एक और बयान देखिए। आदर्श सोसायटी के सी-फेसिंग होने और हाई-फाई होने पर टिप्पणियां हो रही। सो गिडवानी बोले- समुद्र के किनारे बसी झोपड़ट्टी वाले तो चौबीसों घंटे सी-फेसिंग ही रहते, पर कोई सवाल नहीं उठता। अब गिडवानी के बोल को आप क्या कहेंगे? अपनी नजर में चोरी और सीनाजोरी इसे ही कहते हैं। पर आदर्श घोटाले के साए में कांग्रेस का अधिवेशन तीन साल बाद मंगलवार को होने जा रहा। पर क्या लगातार चौथी बार कांग्रेस की कमान संभालने वालीं सोनिया गांधी से कोई नए आदर्श की उम्मीद करें? सचमुच ऐसे ‘आदर्श’ को तो भ्रष्टाचार भी सलाम ठोकती।
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01/11/2010