Monday, October 4, 2010

कहीं बीजेपी ‘अल्जाइमर’ की शिकार तो नहीं?

तो देश की जनता ने अपना दम दिखा दिया। राजनीतिबाजों की भडक़ाऊ दाल नहीं गली। अलबत्ता रोटी सेकने वाले मुलायमों को ही फटकार लगा दी। सो अब केंद्र सरकार ने मान लिया, कठिन दौर गुजर गया। एहतियात के तौर पर तैनात सुरक्षा बलों की वापसी शुरू हो गई। केंद्र के लिए सचमुच सुकून का पल, अयोध्या पर अमन बना रहा। तो दूसरी तरफ कॉमनवेल्थ की सुहानी शुरुआत हो गई। दुनिया को भी अपने रंगारंग उदघाटन समारोह की दिल खोलकर तारीफ करनी पड़ी। पर देश के लिए गौरव का यह पल खासतौर से दिल्ली वालों के लिए गाज रहा। समूची दिल्ली मानो बाड़ में बंद कर दी गई हो। गर यह कॉमन लोगों का खेल, तो दिल्ली में अघोषित कफ्र्यू क्यों? आम लोगों को घरों में बंद कर पीठ थपथपाना कोई बहादुरी नहीं। पर उदघाटन समारोह की चमक-दमक में कहीं भ्रष्टाचार का असली मुद्दा दफन न हो जाए। और गेम्स के बाद आयोजक वाहवाही लूट लें। ऐसी चालबाजी को ही तो जुगाड़ की राजनीति कहते हैं। पर अयोध्या और गेम्स के बाद अब नेता सीधे चुनावी समर में कूदेंगे। बिहार विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी। पर चुनाव में धन बल, बाहुबल और ई.वी.एम. को लेकर चुनाव आयोग ने दिल्ली में सर्वदलीय मीटिंग की। तो सबने धनबल, बाहुबल और पेड न्यूज को लेकर चिंता जताई। पर सबसे अहम बात यह कि ई.वी.एम. को लेकर बीजेपी ने भी एतराज नहीं किया। अलबत्ता बीजेपी अब यह कह रही, कभी ई.वी.एम. का विरोध नहीं किया। बीजेपी के रविशंकर प्रसाद बोले- भाजपा ने कभी ईवीएम का विरोध नहीं किया। राव ने ईवीएम के दुरुपयोग पर सवाल खड़े किए थे। जो बीजेपी के मेंबर नहीं, बल्कि सैफोलॉजिस्ट हैं। अब कोई पूछे, तीस साल की जवान पार्टी को छह-आठ महीने पुरानी बात भी याद क्यों नहीं रहती? कहीं बीजेपी शिबू सोरेन के अल्जाइमर वाले रोग की शिकार तो नहीं हो गई? हो न हो संगत का कुछ तो असर होगा ही। तभी तो रविशंकर प्रसाद जीवीएल नरसिम्हा राव को अपना नहीं मान रहे। और न ही आडवाणी सरीखे नेताओं के बयान और ब्लॉग याद आ रहे। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। जब लोकसभा चुनाव में बीजेपी के वेटिंग पीएम का टिकट कनफर्म नहीं हुआ। तो बीजेपी आपस में ही सिर-फुटव्वल करने लगी। किसी को हार की वजह समझ नहीं आ रही थी। तभी दिल्ली के पूर्व चीफ सैक्रेट्री ओमेश सहगल ने एक सुर्रा छोड़ दिया। ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। मशीन से टेंपरिंग को संभव बताया। तो अपने लालकृष्ण आडवाणी को यही लगा, तमाम विरोधाभासी मुद्दों के बावजूद मनमोहन को जनता ने नहीं जिताया होगा। सो उन ने फौरन सवाल उठाए। चार जुलाई 2009 को आडवाणी ने कहा था- अगर चुनाव आयोग ईवीएम का फूल प्रूफ होना सुनिश्चित नहीं करता, तो बैलेट पेपर प्रणाली शुरू की जानी चाहिए। उन ने अक्टूबर 2009 में होने वाले महाराष्ट्र चुनाव में बैलेट की मांग की थी। जर्मनी और अमेरिका की नजरी भी दी। तब यहीं पर हमने भी लिखा था- अगर विपक्ष को एतराज है, तो आयोग परीक्षण होने दे। फिर आयोग ने सचमुच तीन दिन की खुली चुनौती दी। पर न सुर्रा छेडऩे वाले सहगल और न ही कोई और ईवीएम को झुठलाने चुनाव आयोग पहुंचे। फिर इसी साल 25 जनवरी को जब चुनाव आयोग ने अपने साठ साल पूरे होने पर हीरक जयंती मनाई। तो आडवाणी ने फौरन ब्लॉग लिख मारा। फिर भी कोई बहस शुरू नहीं हुई। तो तब बीजेपी वर्किंग कमेटी के मेंबर जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब लिखी। किताब का नाम रखा- ‘डैमोक्रेसी एट रिस्क!’। जिसकी प्रस्तावना खुद आडवाणी ने लिखी। बारह फरवरी 2010 को नितिन गडकरी ने लोकार्पण किया था। तब मौके पर तीन-तीन विदेशी एक्सपर्ट ईवीएम झुठलाने को बुलाए थे। जर्मनी, नीदरलैंड और यूएसए के एक्सपर्टों का लब्बोलुवाब यही रहा। ईवीएम के साथ पेपर बैकअप भी हो। पर बीजेपी की असली पोल तो समारोह के अहम गैस्ट पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने खोलकर रख दी थी। जब वह बीजेपी को ही सुझाव दे गए। उन ने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब था- ‘ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव होनी चाहिए। पर यह आरोप लगाना सही नहीं होगा कि कांग्रेस शासित राज्यों में ही ईवीएम का दुरुपयोग हो रहा। बीजेपी शासित राज्यों में भी दुरुपयोग संभव। सो बेहतर यही होगा, आरोप-प्रत्यारोप के बजाए ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव करने के लिए सभी पार्टियों की कमेटी बने और फिर व्यापक चर्चा हो।’ लगता है देर से ही सही, कृष्णमूर्ति की बात बीजेपी के पल्ले पड़ गई। अगर बीजेपी हार वाली जगहों पर ईवीएम के दुरुपयोग की बात करे। तो दूसरा पक्ष भी बीजेपी शासित राज्यों में जीत पर यही सवाल उठा सकता। सो बीजेपी अब सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव से दूरी दिखा रही। उन्हीं राव से जिन्हें लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुए नागपुर अधिवेशन में बीजेपी वर्किंग कमेटी का मेंबर बनाया गया था। बीजेपी में आने से पहले तक राव के सर्वेक्षण सटीक होते थे। पर पार्टी में आते ही दशा-दिशा बिगड़ गई। सो उन ने भी सारा दोष ईवीएम के सिर ही फोड़ दिया। ऐसी किताब लिखी, जिसमें लोकतंत्र को जोखिम में बता दिया। पर जनता का खोया भरोसा हासिल करने को कोई प्रयास नहीं। अब बीजेपी खुद ही बताए, हारे तो ईवीएम को दोष दिया। अब बिहार चुनाव में बयार खुद के पक्ष में दिख रही। तो अपने रुख को ही क्यों झुठला रही। याददाश्त अब गोल क्यों हो गई? छह महीने पहले मुखालफत, छह महीने बाद भूलना, क्या सचमुच कोई बीमारी?
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04/10/2010