Wednesday, March 31, 2010

तो आधुनिक ‘शाहजहां’ अभी नहीं छोडेंगे पद!

विरासत की राजनीति कहें या राजनीतिक विरासत। करुणानिधि परिवार में फिर जंग शुरु हो गई। करुणानिधि के बड़े बेटे अझागिरी ने फिर नेतृत्व का सुर्रा छोड़ा। करूणा के सिवा किसी को नेता न मानने का एलान कर दिया। तो इशारा साफ तौर से छोटे भाई स्टालिन के मंसूबों पर पानी फेरना था। सो बुधवार को खुद करुणा का बयान आया। कह दिया- नए नेतृत्व का फैसला पार्टी करेगी, यह उनका हक नहीं। अब क्षेत्रीय दलों में नेतृत्व कैसे तय होता, यह छुपाने की बात नहीं। पर मौका मुफीद न देख करुणा ने फिलहाल विवाद पर पानी डालना बेहतर समझा। यों कब तक विवाद को थामने की नाकाम कोशिश करेंगे करुणानिधि। वैसे करुणानिधि की इच्छा तमिलनाडु ही नहीं, देश के लोगों को भी मालूम। सो उनने केंद्र में मनमोहन सरकार को समर्थन की वसूली परिवार के झगड़े निपटाने में ही की। कभी भतीजे दयानिधि मारन को मंत्री बनाया। जून 2007 में अपनी बेटी कनीमोझी को राज्यसभा भिजवाया। मनमोहन की दूसरी पारी में अझागिरी को केबिनेट मंत्री बनवाया। ताकि राज्य में स्टालिन अपनी स्थिति और मजबूत कर सकें। पर अझागिरी का मन दिल्ली से ज्यादा चेन्नई में। सो तीन साल बाद उनने फिर उत्तराधिकार का सुर्रा छोड़ दिया। तीन साल पहले यानी मई 2007 की घटना। तब यहीं पर लिखा था- च्करुणानिधि कहीं दूसरे शाहजहां न बन जाएं।ज् अब सनद रहे, सो वही कहानी फिर बताते जाएं। तब जंग की शुरुआत ‘दिनाकरण’ अखबार में छपे सर्वेक्षण से हुई थी। सर्वेक्षण एसी नेल्सन एजेंसी के सहयोग से हुआ था। सर्वेक्षण का नाम था- ‘मक्कल मनासू’ यानी जनता की सोच। सर्वेक्षण में करुणानिधि के बड़े बेटे एमके अझगिरी को सिर्फ दो फीसदी जनता ने उत्तराधिकारी माना। जबकि छोटे बेटे एमके स्टालिन को 70 फीसदी ने। वैसे दयानिधि मारन को भी 20 फीसदी लोगों ने करुणानिधि का उत्तराधिकारी माना। पर सर्वेक्षण एमके अझगिरी को रास नहीं आया। सो अझगिरी समर्थकों ने मदुरई स्थित अखबार के दफ्तर पर धावा बोल दिया। पेट्रोल बम से आग लगा दी। दो कंप्यूटर आपरेटर और एक सुरक्षा गार्ड मारा गया। अखबार किसी बाहरी का नहीं। अलबत्ता मारन बंधुओं का ही था। सो सत्ता और परिवार के घालमेल में केस दब गया। करुणानिधि तभी रिटायरमेंट की जुगत में थे। पर बड़े बेटे के विद्रोह ने कुर्सी पर बिठाए रखा। यों बाद में करुणानिधि ने स्वास्थ्य वजहों को ही आधार बना स्टालिन को डिप्टी सीएम बना लिया। अझागिरी को केंद्र में मंत्री बनवा दिया। फिर भी उत्तराधिकार की जंग खत्म नहीं हो रही। अब अगर पार्टी के नाम पर या अपनी पसंद के नाम पर करुणानिधि ने स्टालिन को चुना। तो बगावत तय समझिए। विरासत की राजनीति का आखिर यही हश्र होता है। यही हुआ था मुगल शासक शाहजहां के साथ। वाकई शाहजहां और करुणानिधि में काफी चीजें ऐसी, जो मेल खाती। शाहजहां के भी चार बेटे थे। करुणानिधि के भी चार। वैसे करुणानिधि की दो बेटियां भी। करुणानिधि ने तीन शादियां कीं। पहली बीवी से एक बेटा एमके मुत्थू। दूसरी बीवी दयालू अम्मा से एक बेटी, तीन बेटे। तीसरी बीवी रजाथी से एक बेटी कनीमोझी जो अब राज्यसभा में। शाहजहां के भी चार बेटे थे- दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद। चारों में दारा सबसे बुद्धिमान। शाहजहां दारा को ही उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। पर जैसे अपने करुणानिधि एलान नहीं कर रहें, शाहजहां ने भी नहीं किया। वैसे जनता में दारा को ही युवराज माना जाता था। जैसे तमिलनाडु में स्टालिन माने जा रहे। करुणा ने भी अपने बेटे-बेटियों को राजनीति में अलग-अलग मुकाम दे रखा। जैसे शाहजहां ने चारों बेटों को चार प्रांतों की कमान सौंप रखी थी। उत्तर में दारा, पूर्व में शुजा, दक्षिण में औरंगजेब और पश्चिम में मुराद। सितंबर 1657 में शाहजहां बीमार पड़े। तो अफवाह फैली- शाहजहां की मृत्यु अवश्यंभावी। दारा उस वक्त पिता के पास था। सो शुजा, औरंगजेब और मुराद ने गोटियां भिड़ाई। सबसे पहले शुजा ने खुद को सम्राट घोषित कर दिल्ली कूच किया। फिर मुराद भी शुजा की राह पर चल पड़े। पर औरंगजेब ने खुद को सम्राट घोषित नहीं किया। दिल्ली कूच जरूर किया। शाहजहां ने इन तीनों बागी राजकुमारों को वापस लौटने का फरमान सुनाया। पर राजकुमार नहीं माने। मजबूरन शाहजहां ने शाही फरमान की अवज्ञा पर सैन्य कार्रवाई की। फरवरी 1658 में शाही सेना के हाथ बनारस के निकट शुजा पराजित हुए। इस बीच औरंगजेब ने तिकड़मी चाल चली। भाई मुराद से समझौता कर लिया। अब दोनों की मिलीजुली सेना ने शाही सेना का मुकाबला किया। अप्रैल 1658 में शाही सेना औरंगजेब से पराजित हुई। इतिहास में इसे ‘धरमत की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है। यही नहीं, औरंगजेब अब और आगे बढ़ा। अगले महीने ही अपने बड़े भाई दारा को युद्ध में परास्त किया। दारा-औरंगजेब की लड़ाई इतिहास में ‘सामूगढ़ का युद्ध’ के नाम से मशहूर। अब जब औरंगजेब के रास्ते साफ हो गए। तो उसने मुराद को बंदी बना लिया। दिल्ली पर औरंगजेब का कब्जा हो गया। सिंहासन में कोई कील न हो, सो औरंगजेब ने मुराद और दारा को मृत्यु दंड दे दिया। उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब ने किला फतह किया। पर तमिलनाडु में करुणानिधि के उत्तराधिकारी बनने की जंग कौन सा नया इतिहास रचेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
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31/03/2010

Monday, March 29, 2010

ब्रांड एंबेसडर बनाम राजनीति का टुच्चा ब्रांड

बांद्रा-वर्ली सी लिंक आखिर कुरुक्षेत्र बन गया। कांग्रेस ने तमाम आलोचनाएं तो सह लीं। पर जब नरेंद्र मोदी ने मोर्चा खोल दिया, तो पेट में गुडग़ुड़ी होनी ही थी। मोदी ने शनिवार को एसआईटी के सामने करीब दस घंटे बिताए। तो इतवार को आईपीएल मैच का लुत्फ उठाया। फिर देर रात सरकारी वेबसाइट पर बयान जारी हो गया। अमिताभ पर सवाल उठाने वाले तालिबानी मानसिकता के। यानी मोदी ने कांग्रेस की सोच को तालिबानी करार दिया। सो अब तक अमिताभ का सैद्धांतिक विरोध कर रही कांग्रेस ने सीधे बच्चन पर हल्ला बोल दिया। पहले अंबिका सोनी ने मोदी को हताश बताया। तो शाम को कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी पूरी तैयारी के साथ पहुंचे। अब कांग्रेस को मालूम, मोदी के मुंह लगे, तो मुंहजोरी होनी तय। सो अमिताभ से सवाल पूछा। कहा- च्पहले ब्रांड एंबेसडर के नाते अमिताभ बताएं, गुजरात दंगे पर उनकी क्या राय। क्या वह गुजरात दंगे की निंदा करते हैं या मोदी और उनकी सरकार की पीठ थपथपाते हैं?ज् अब अमिताभ हों या कोई और, दंगे की निंदा सभी करेंगे। पर कांग्रेस ने बतौर एंबेसडर सवाल पूछा, ताकि वाया अमिताभ फिर मोदी को घेर सके। वरना दंगे पर राय पूछने वाले सवाल का अभी क्या औचित्य। कांग्रेस शायद भूल रही, अमिताभ गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ब्रांड एंबेसडर बने। किसी दंगे को सही ठहराने के लिए नहीं। यों मोदी की वजह से कांग्रेस अमिताभ से भी खार खाए नहीं बैठी। दो दशक से भी ज्यादा हो चुके, बच्चन परिवार के प्रति कांग्रेस का नजरिया जगजाहिर। यों इस आधार पर ब्रांड एंबेसडर तय होने लगे। तो फिर किसी को भी कांग्रेस सरकार का ब्रांड एंबेसडर नहीं बनना चाहिए। अगर कांग्रेस राज में देश के कई हिस्सों में हुए दंगों को छोड़ दें। तो भी 1984 के सिख विरोधी दंगे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। खुद कांग्रेस के वर्करों ने सिखों के नरसंहार में भूमिका निभाई। तब पीएम राजीव गांधी ने जो कहा था, कोई नहीं भुला सकता। उन ने कहा था- जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है। कैसे सिख समुदाय को घरों से निकाल कर जिंदा जलाया जा रहा था। गले में जलते टायर डाले जा रहे थे। उस नरसंहार को 25 साल हो चुके। पर अब तक पीडि़तों को न्याय नहीं मिला। कांग्रेस ने माफी भी तब मांगी, जब देश का पीएम सिख समुदाय से बना। नानावती रपट के बाद जब जगदीश टाइटलर को केबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा। तो बहस के दौरान राज्यसभा में मनमोहन सिंह ने सिख समुदाय और देश से माफी मांगी। क्या प्रायश्चित के लिए कांग्रेस सिख पीएम का इंतजार कर रही थी? क्या 1984 के बाद और मनमोहन के पीएम बनने से पहले कांग्रेस का जमीर नहीं जागा? अब अगर कांग्रेस अमिताभ से सवाल पूछ रही, राजनीति में घसीटने की कोशिश कर रही। तो इतिहास के कुछ सवालों के जवाब कांग्रेस को भी देना चाहिए। ऑपरेशन ब्लू स्टार के वक्त कैप्टेन अमरेंद्र सिंह ने राज्यसभा की सांसदी और कांग्रेस क्यों छोड़ दी थी? प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह ने तो पद्मश्री भी लौटा दिया था। तो क्या यह मान लिया जाए, इन दोनों का विरोध आतंकवाद को समर्थन देने वाला था? या फिर इंदिरा गांधी का ऑपरेशन ब्लू स्टार गलत था? इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का नरसंहार किया गया। पर आज भी इंदिरा के हत्यारे सतवंत और बेअंत सिंह एसजीपीसी के म्यूजियम में शहीदों में शुमार। जिस भिंडरांवाला को देश विरोधी माना गया, खुद इंदिरा गांधी ने पंजाब विधानसभा चुनाव के वक्त मुकेरियां की एक जनसभा में मंच शेयर किया था। ऐसे सवाल तो कई होंगे, पर इतिहास से सबक लेकर आगे बढऩा चाहिए। ना कि इतिहास को ढाल बनाकर नाजायज को जायज ठहराया जाना चाहिए। अगर अमिताभ महाराष्ट्र सरकार के न्योते पर सी लिंक के दूसरे उद्घाटन समारोह में गए। तो इसमें मोदी कहां से आ गए। अगर मोदी के साथ अमिताभ के मंच शेयर करने पर कांग्रेस को एतराज। तो फिर इतवार को ही सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन ने भी मंच शेयर किया। अब मोदी के साथ खड़े अमिताभ कांग्रेस की नजर में गलत। तो क्या चीफ जस्टिस पर भी सवाल उठेंगे? अगर यही राजनीति का पैमाना, तो विरोध की जगह छुआछूत जगह लेगी। अपने संविधान में छुआछूत को दूर करने के लिए विशेष बंदोबस्त किए गए। पर राजनीति की छुआछूत कैसे दूर होगी? आखिर अमिताभ ने कुछ ऐसा नहीं किया, जो इतना बखेड़ा हो। पर बेवजह की राजनीति करना शायद कांग्रेस की फितरत हो गई। सो अब इसे टुच्चई की राजनीति कहें या राजनीति का टुच्चापन, आप ही तय करें। अब कांग्रेस अमिताभ के निजी व्यक्तित्व के सम्मान की दलील दे रही। तो सवाल, अमिताभ से दिक्कत थी, पर अर्थ ऑवर प्रोग्राम से अभिषेक कैसे गायब हो गए। अभिषेक तो गुजरात के ब्रांड एंबेसडर नहीं। फिर भी शीला सरकार ने प्रोग्राम से अभिषेक के पोस्टर-क्लिपिंग हटवा दिए। अब यह कैसी एलर्जी, पर्यावरण-वन मंत्री जयराम रमेश बाघ बचाओ कार्यक्रम में इसलिए नहीं गए कि अमिताभ वहां थे। महाराष्ट्र के सीएम अशोक चव्हाण तो इतना सहम गए, मराठी साहित्य सम्मेलन में अमिताभ का सामना न हो, सो एक दिन पहले ही शिरकत कर आए। अब दस जनपथ को खुश करने के लिए इसे कैसी राजनीति कहेंगे। पर नैतिकता की उम्मीद किससे। सोमवार को सोनिया गांधी फिर एनएसी की चेयर परसन हो गईं। साल 2006 में लाभ के पद विवाद में फंसीं। तो सांसदी और एनएसी छोड़ दी थी। अब चार साल बाद उसी कुर्सी पर विराजमान होने का क्या मतलब?
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29/03/2010

Friday, March 26, 2010

सी लिंक और बच्चन-गांधी परिवारों का झगड़ा

सभ्यता-संस्कृति वाले देश में अब सत्ता ने अपनी अलग सभ्यता-संस्कृति रचा-बसा ली। जहां इंसानियत कुछ नहीं, सिर्फ सत्ता का नशा। आखिर अमिताभ बच्चन ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया, जो कांग्रेसियों की आंत में दर्द पैदा कर रहा? महाराष्टï्र सरकार के मंत्री के न्योते पर अमिताभ बांद्रा-वर्ली सी लिंक के दूसरे उद्घाटन समारोह में गए। कैसे कांग्रेसी सीएम अशोक चव्हाण गर्मजोशी के साथ बिग बी से मिले, सबने देखा। पर जिन अमिताभ की मौजूदगी देश-दुनिया के किसी भी समारोह के लिए गौरव की बात। कांग्रेस को सदी के महानायक अमिताभ की मौजूदगी नागवार गुजर रही। अब कांग्रेसी दलील देखिए। चूंकि अमिताभ गुजरात सरकार के ब्रांड एंबेसडर, सो मोदी से गलबहियां हमें मंजूर नहीं। चलो माना, मोदी से कांग्रेस को गुरेज। पर अमिताभ तो अभी कुछ महीने पहले ब्रांड एंबेसडर बने। कांग्रेस का अमिताभ के प्रति नजरिया कोई हाल की उपज नहीं। अब अगर गुजरात के ब्रांड एंबेसडर होने को ही लें, तो इसमें क्या खराबी। क्या गुजरात भारत का हिस्सा नहीं? क्या मोदी चुने हुए मुख्यमंत्री नहीं? अगर गुजरात के पर्यटन को प्रमोट करने के लिए अमिताभ ब्रांड अंबेसडर बनें, तो क्या देश की अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं होगा? या फिर मनमोहन सरकार गुजरात के पर्यटन में अमिताभ की वजह से हुए फायदे का हिस्सा नहीं लेगी? क्या कांग्रेस को नहीं मालूम, अमिताभ गुजरात के पर्यटन के लिए ब्रांड बने। किसी नरेंद्र मोदी के नहीं। सो अगर कांग्रेस इस दलील पर अमिताभ का विरोध कर रही। तो यह मोदी नहीं, गुजरात और उसकी जनता का विरोध करना है। अगर मोदी से कांग्रेस को इतनी ही कड़वाहट, तो क्यों बर्दाश्त कर रही मोदी को। लोकतंत्र को बपौती मान चलाना सत्ताधारियों की आदत हो चुकी। तो क्यों नहीं मोदी को बर्खास्त कर देते। या नहीं तो देश के मानचित्र से गुजरात ही मिटा देते। ताकि न रहे बांस, न बजे बांसुरी। हां, अमिताभ ने तब अपनी छवि का बेजा इस्तेमाल किया। जब निठारी जैसे कांड के बावजूद मुलायम सिंह के चुनावी इश्तिहारों में नजर आए। कैसे अमिताभ टीवी पर कहते थे- ‘यूपी में है दम, क्योंकि जुर्म यहां हैं कम।’ पर अभी अमिताभ गुजरात टूरिज्म के ब्रांड एंबेसडर। जिसको लेकर कांग्रेस बखेड़ा खड़ा कर रही। पर सनद रहे, सो याद दिला दें। राजीव गांधी फाउंडेशन किसी संघी-भाजपाई की नहीं। खुद सोनिया गांधी इसकी सर्वेसर्वा। इसी फाउंडेशन ने 2005 में गुजरात को सर्वश्रेष्ठï राज्य का तमगा दिया था। तब भी मोदी ही सीएम थे। यों विवाद हुआ, फिर अखबार में गुजरात की तारीफ वाले इश्तिहार छप गए। तो राजीव गांधी फाउंडेशन ने अपनी ही संस्था राजीव गांधी समसामयिक अध्ययन संस्थान की रपट से पल्ला झाड़ लिया। फाउंडेशन की मातहत इसी संस्थान ने सर्वे कर रपट दी थी। पर राजनीति में विरोध अगर दुश्मनी में बदल जाए, तो फिर सच मायने में यह स्वस्थ लोकतंत्र का सूचक नहीं। पर बात गुजरात और मोदी की नहीं, अलबत्ता बात अमिताभ बनाम कांग्रेस की। अब सोनिया गांधी को अमिताभ की मौजूदगी खली या नहीं, यह तो वही जानें। पर राजा को खुश करने के लिए कांग्रेसियों ने बेवजह का बखेड़ा खड़ा कर दिया। गांधी-नेहरू परिवार और बच्चन परिवार के बीच रिश्तों की खटास कौन नहीं जानता। सो खुद को बड़ा वफादार साबित करने के चक्कर में कुछ कांग्रेसियों ने बयानबाजी शुरू कर दी। अशोक चह्वïाण की दलील, अमिताभ के आने के बारे में पता होता, तो समारोह में नहीं जाता। पर इश्तिहार तो पहले ही छप चुके थे। तो क्या एक सीएम को इतनी भी जानकारी नहीं मिल पाई? अशोक चव्हाण उन्हीं एसबी चव्हाण के बेटे, जो दो बार कांग्रेस छोडक़र गए थे। पर सवाल, देश के दो बड़े परिवारों के बीच ऐसी कटुता क्यों? सोनिया गांधी जब पहली बार 1968 में भारत आईं, तो इंदिरा गांधी नाराज थीं। सो सोनिया को लेकर राजीव दिल्ली के गुलमोहर पार्क स्थित ‘आशियाना’ में बच्चन के घर गए थे। फिर राजीव-सोनिया की कोर्ट मैरिज हुई, तो अमिताभ के मां-बाप हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन राजीव के मां-बाप बने थे। फिर बाद में तेजी बच्चन के प्रयास से इंदिरा-राजीव में समझौता हुआ। और दोनों परिवारों के रिश्तों में कड़वाहट 1980 के दशक में आई। राजीव के कहने पर अमिताभ इलाहाबाद से चुनाव लड़े। फिर बोफोर्स घोटाला सामने आया। तो अमिताभ के छोटे भाई अजिताभ और उनकी बीवी रमोला की जिनेवा स्थित कंपनी पर भी किक-बैक लेने का आरोप लगा। संसद में विपक्ष ने बच्चन पर हमला बोला। तो राजीव ने बचाव नहीं किया। फिर अमिताभ ने सांसदी छोड़ राजनीति को अलविदा कह दिया। उसके बाद अक्टूबर 2004 का प्रकरण। सपा की टिकट से जया बच्चन राज्यसभा में चली गईं। बाराबंकी में पहली अक्टूबर 2004 को जया ने कह दिया- ‘जब मेरे पति खराब दौर से गुजर रहे थे, तो छला गया।’ सो 11 अक्टूबर को अमेठी में राहुल गांधी ने जया के आरोप का झूठ का पुलंदा बता दिया। तब 15 अक्टूबर को वाराणसी में अमिताभ को कहना पड़ा- ‘दोनों परिवारों का संबंध तबसे, जब न जया-सोनिया थे, न राहुल-प्रियंका।’ आहत बच्चन ने कहा- ‘वो राजा हैं, हम रंक। राजा चाहे, तो रंक से संबंध रख सकता। पर कोई रंक यह कहने का साहस नहीं जुटा सकता कि हम राजा से संबंध रखना चाहते हैं।’ यों बात सोलह आने सही। पर देश के दो बड़े परिवारों का यह कैसा ‘बड़प्पन।’ समंदर के दोनों तरफ रहने वाले लोग सी लिंक की वजह से तो सीधे जुड़ गए। पर दो परिवारों की दूरियां और बढ़ गईं।
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Tuesday, March 23, 2010

माला तो माया की, पर मालामाल कौन नहीं?

वाकई माला के अनेकों रूप। भगवान के गले में डाल दो, तो धर्म। शादी में दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को पहनाएं, तो वरमाला। वर्कर अपने नेताओं को पहनाएं, तो आप ही तय करो। यह स्वागत या चमचागिरी? नेताओं के प्रति किसकी कितनी शृद्धा, यह तो महानुभाव खुद ही जानते। फिर भी माला पहन हाथ ऐसे लहराते, मानो देश के पालनहार हो गए। सो कोई फूलों की माला पहन हाथ लहराता। तो कोई सशरीर धर्मकांटे में बैठ सोने-चांदी के सिक्कों से तोला जाता। यानी सबके अपने-अपने शौक। पर शौक में जब सत्ता का नशा जुड़ जाए। तो फिर शौक के क्या कहने। मायावती को वर्करों ने सोमवार को हजार-हजार के करारे नोटों की माला पहनाई। तो विरोधी नोट की चकाचौंध झेल नहीं पाए। सो बीजेपी ने 35 करोड़ की बताई, तो सपा ने 50 करोड़ की। यानी यूपी में जिसकी जितनी हैसियत, उतना हिसाब लगाया। पर माया का मिजाज बिगड़ा। तो फिर खम ठोक दिया, बुधवार को फिर नोटों की माला पहन ली। पर माला का किस्सा बुधवार को लखनऊ ही नहीं, पटना में भी हुआ। महिला बिल पर राज्यसभा में हुड़दंग करने वाले जद यू के निलंबित सांसद एजाज अली पटना पहुंचे। तो समर्थकों ने नोटों की माला पहनाई। पर नोट देख वर्करों की नीयत बदल गई। सो माला से नोट छीनकर भाग खड़े हुए। पर माया के सिपहसालार ऐसे नहीं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने तो एलान कर दिया- 'अगर बहनजी की इजाजत हो, तो एक-दो बार क्या, हर बार नोटों की माला पहनाएंगे।' सिद्दीकी ने अपनी मीडिया पर भी फब्ती कसी। आभार जता बोले- 'मीडिया ने 48 घंटे में ऐसी सुर्खियां बनाईं, हमारे बीएसपी वर्करों ने चंद घंटों में 18 लाख जुटा बहनजी को माला पहना दी।' यानी माया की चुनौती सिर्फ विरोधियों को नहीं, अपनी मीडिया को भी। अब भले माया का प्रदर्शन भौंडा हो। सत्ता के घमंड में चूर-चूर हो। पर क्या सवाल उठाने वाले ऐसा नहीं करते? माया और बाकी दलों में फर्क सिर्फ इतना। बाकी दल टेबल के नीचे से लेते, माया ने खुलेआम लिया। यानी सीधे सपाट शब्दों में कहें, तो इसे आप ईमानदारी से चोरी कह लें। नेता कितने पाक-साफ, यह जनता बखूबी जानती। पर माया की माला पर ही इतनी हायतौबा क्यों? माला कितने की, यह तो मालूम नहीं। पर इनकम टेक्स वाले अभी क्यों जागे? याद है, दिसंबर 2008 में बीजेपी हैडक्वार्टर से 2.6 करोड़ रुपए दिनदहाड़े चोरी हो गए। चोर बीजेपी के अपने ही थे। सो मीडिया में शोर मचने के बाद भी 'मौसेरे भाइयों'  ने बात दबा ली। सो सवाल, तब इनकम टेक्स वाले कहां थे? बीजेपी ने तो एफआईआर तक दर्ज न होने दी। संसद में 22 जुलाई 2008 को नोटों की गड्डिïयां लहराईं। पर जांच कहां तक पहुंची? स्विस बैंक में जमा काला धन किसकी, जो वापस लाने की कोशिश नहीं हो रही। अब बीजेपी लोकतंत्र में लोकलाज की दुहाई दे रही। रविशंकर प्रसाद ने मायावती की तुलना सद्दाम हुसैन से की। पर लोकलाज का क्या मतलब। यही ना, चोरी करो, पर दरवाजा बंद करके। सद्दाम से तुलना माया की बुतपरस्ती को लेकर की। तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने माया को दलित की बेटी नहीं, दौलत की बेटी कहा। अब जरा यह भी जान लो, दौलत की बेटी कहने वाला कौन। कोई और नहीं, राजा दिग्विजय सिंह ने यह उपाधि दी। वही दिग्गी राजा जब मध्य प्रदेश में सीएम थे। तो सिक्कों और नोटों से कितनी बार तोले गए, शायद उन्हें भी याद न होगा। पर नोटों की माला की प्रवृत्ति आई कहां से? पूंजीवादी बाजार में घोड़ी पर बैठा दूल्हा नोटों की माला पहन रहा। तो भाई के हाथों पर बंधने वाली राखी भी अब नोटों की बनने लगी। क्या यह भौंडा प्रदर्शन नहीं? बीजेपी-कांग्रेस जैसे बड़े दलों को तो टाटा, बिरला, अंबानी जैसे लोगों से चुनावी चंदे मिल जाते। पर छोटे दल कहां झोली फैलाएं। बीएसपी में नोटों की माला नई परंपरा नहीं। जब बीएसपी उभार के दशक में थी। तब कांशीराम ने वर्करों से यही अपील की थी। फूलों के हार से तो हम हार जाएंगे। सो वर्कर थोड़ा-थोड़ा कर ही सही, नोटों की माला बनाएं। यानी पार्टी की जमीन तैयार करने के लिए आर्थिक मदद लेने का अपना तरीका। पर तब दस-पचास रुपए के नोटों की माला बनती थी। अब माया अपने बूते सरकार चला रहीं। तो सबसे बड़े नोट की माला पहन रहीं। अब अगर कोई इस फार्मूले को ही गलत कहे। तो फिर सवाल उठाने का हक न बीजेपी को, न कांग्रेस को। हाल ही में गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष बने। तो यही अपील की, फूलमाला-मिठाई नहीं, दफ्तर में रखे बक्से में दान डालो। ताकि किसानों का भला कर सकें। मायावती यही काम अपने समाज के लिए कर रहीं। बीजेपी-संघ हर साल गुरु पूर्णिमा पर गुरु दक्षिणा का आयोजन करतीं। जहां बेनामी लिफाफे में किसने कितने दिए, पता ही नहीं चलता। कांग्रेस में तो बड़े-बड़े फंड मैनेजर बैठे हुए। सो राजनीति में लोग कांग्रेस की दुहाई देते। अगर लेन-देन के गुर सीखने हों, तो कांग्रेस से सीखो। पर यह कैसा जमाना। जब पहली बार तोलने की परंपरा शुरू हुई। तो श्रीकृष्ण ने गुरूर तोडऩे के लिए खुद को तुलवाया था। जाम्बवंती को गुमान था, श्रीकृष्ण से उन्हें ही ज्यादा प्रेम। सो नारद ने साबित करने को कहा। तो जाम्बवंती ने प्रेम दिखाने को समूचा राजपाट तराजू पर रख कृष्ण को तोलने की कोशिश की। पर कृष्ण का पलड़ा नहीं हिला। फिर रुक्मणि ने अपना प्रेम दिखाया, महज तुलसी का पत्ता पलड़े पर रखा। तो कृष्ण का पलड़ा ऊपर उठ गया।
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published in my news paper on 18/03/2010

Wednesday, March 17, 2010

माला तो माया की, पर मालामाल कौन नहीं?

वाकई माला के अनेकों रूप। भगवान के गले में डाल दो, तो धर्म। शादी में दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को पहनाएं, तो वरमाला। वर्कर अपने नेताओं को पहनाएं, तो आप ही तय करो। यह स्वागत या चमचागिरी? नेताओं के प्रति किसकी कितनी शृद्धा, यह तो महानुभाव खुद ही जानते। फिर भी माला पहन हाथ ऐसे लहराते, मानो देश के पालनहार हो गए। सो कोई फूलों की माला पहन हाथ लहराता। तो कोई सशरीर धर्मकांटे में बैठ सोने-चांदी के सिक्कों से तोला जाता। यानी सबके अपने-अपने शौक। पर शौक में जब सत्ता का नशा जुड़ जाए। तो फिर शौक के क्या कहने। मायावती को वर्करों ने सोमवार को हजार-हजार के करारे नोटों की माला पहनाई। तो विरोधी नोट की चकाचौंध झेल नहीं पाए। सो बीजेपी ने 35 करोड़ की बताई, तो सपा ने 50 करोड़ की। यानी यूपी में जिसकी जितनी हैसियत, उतना हिसाब लगाया। पर माया का मिजाज बिगड़ा। तो फिर खम ठोक दिया, बुधवार को फिर नोटों की माला पहन ली। पर माला का किस्सा बुधवार को लखनऊ ही नहीं, पटना में भी हुआ। महिला बिल पर राज्यसभा में हुड़दंग करने वाले जद यू के निलंबित सांसद एजाज अली पटना पहुंचे। तो समर्थकों ने नोटों की माला पहनाई। पर नोट देख वर्करों की नीयत बदल गई। सो माला से नोट छीनकर भाग खड़े हुए। पर माया के सिपहसालार ऐसे नहीं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने तो एलान कर दिया- 'अगर बहनजी की इजाजत हो, तो एक-दो बार क्या, हर बार नोटों की माला पहनाएंगे।' सिद्दीकी ने अपनी मीडिया पर भी फब्ती कसी। आभार जता बोले- 'मीडिया ने 48 घंटे में ऐसी सुर्खियां बनाईं, हमारे बीएसपी वर्करों ने चंद घंटों में 18 लाख जुटा बहनजी को माला पहना दी।'  यानी माया की चुनौती सिर्फ विरोधियों को नहीं, अपनी मीडिया को भी। अब भले माया का प्रदर्शन भौंडा हो। सत्ता के घमंड में चूर-चूर हो। पर क्या सवाल उठाने वाले ऐसा नहीं करते? माया और बाकी दलों में फर्क सिर्फ इतना। बाकी दल टेबल के नीचे से लेते, माया ने खुलेआम लिया। यानी सीधे सपाट शब्दों में कहें, तो इसे आप ईमानदारी से चोरी कह लें। नेता कितने पाक-साफ, यह जनता बखूबी जानती। पर माया की माला पर ही इतनी हायतौबा क्यों? माला कितने की, यह तो मालूम नहीं। पर इनकम टेक्स वाले अभी क्यों जागे? याद है, दिसंबर 2008 में बीजेपी हैडक्वार्टर से 2.6 करोड़ रुपए दिनदहाड़े चोरी हो गए। चोर बीजेपी के अपने ही थे। सो मीडिया में शोर मचने के बाद भी 'मौसेरे भाइयों' ने बात दबा ली। सो सवाल, तब इनकम टेक्स वाले कहां थे? बीजेपी ने तो एफआईआर तक दर्ज न होने दी। संसद में 22 जुलाई 2008 को नोटों की गड्डिïयां लहराईं। पर जांच कहां तक पहुंची? स्विस बैंक में जमा काला धन किसकी, जो वापस लाने की कोशिश नहीं हो रही। अब बीजेपी लोकतंत्र में लोकलाज की दुहाई दे रही। रविशंकर प्रसाद ने मायावती की तुलना सद्दाम हुसैन से की। पर लोकलाज का क्या मतलब। यही ना, चोरी करो, पर दरवाजा बंद करके। सद्दाम से तुलना माया की बुतपरस्ती को लेकर की। तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने माया को दलित की बेटी नहीं, दौलत की बेटी कहा। अब जरा यह भी जान लो, दौलत की बेटी कहने वाला कौन। कोई और नहीं, राजा दिग्विजय सिंह ने यह उपाधि दी। वही दिग्गी राजा जब मध्य प्रदेश में सीएम थे। तो सिक्कों और नोटों से कितनी बार तोले गए, शायद उन्हें भी याद न होगा। पर नोटों की माला की प्रवृत्ति आई कहां से? पूंजीवादी बाजार में घोड़ी पर बैठा दूल्हा नोटों की माला पहन रहा। तो भाई के हाथों पर बंधने वाली राखी भी अब नोटों की बनने लगी। क्या यह भौंडा प्रदर्शन नहीं? बीजेपी-कांग्रेस जैसे बड़े दलों को तो टाटा, बिरला, अंबानी जैसे लोगों से चुनावी चंदे मिल जाते। पर छोटे दल कहां झोली फैलाएं। बीएसपी में नोटों की माला नई परंपरा नहीं। जब बीएसपी उभार के दशक में थी। तब कांशीराम ने वर्करों से यही अपील की थी। फूलों के हार से तो हम हार जाएंगे। सो वर्कर थोड़ा-थोड़ा कर ही सही, नोटों की माला बनाएं। यानी पार्टी की जमीन तैयार करने के लिए आर्थिक मदद लेने का अपना तरीका। पर तब दस-पचास रुपए के नोटों की माला बनती थी। अब माया अपने बूते सरकार चला रहीं। तो सबसे बड़े नोट की माला पहन रहीं। अब अगर कोई इस फार्मूले को ही गलत कहे। तो फिर सवाल उठाने का हक न बीजेपी को, न कांग्रेस को। हाल ही में गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष बने। तो यही अपील की, फूलमाला-मिठाई नहीं, दफ्तर में रखे बक्से में दान डालो। ताकि किसानों का भला कर सकें। मायावती यही काम अपने समाज के लिए कर रहीं। बीजेपी-संघ हर साल गुरु पूर्णिमा पर गुरु दक्षिणा का आयोजन करतीं। जहां बेनामी लिफाफे में किसने कितने दिए, पता ही नहीं चलता। कांग्रेस में तो बड़े-बड़े फंड मैनेजर बैठे हुए। सो राजनीति में लोग कांग्रेस की दुहाई देते। अगर लेन-देन के गुर सीखने हों, तो कांग्रेस से सीखो। पर यह कैसा जमाना। जब पहली बार तोलने की परंपरा शुरू हुई। तो श्रीकृष्ण ने गुरूर तोडऩे के लिए खुद को तुलवाया था। जाम्बवंती को गुमान था, श्रीकृष्ण से उन्हें ही ज्यादा प्रेम। सो नारद ने साबित करने को कहा। तो जाम्बवंती ने प्रेम दिखाने को समूचा राजपाट तराजू पर रख कृष्ण को तोलने की कोशिश की। पर कृष्ण का पलड़ा नहीं हिला। फिर रुक्मणि ने अपना प्रेम दिखाया, महज तुलसी का पत्ता पलड़े पर रखा। तो कृष्ण का पलड़ा ऊपर उठ गया।
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17/03/2010

Thursday, March 4, 2010

गांधी जी का जंतर, कांग्रेस का मंतर और प्रतापगढ़ की आह!

खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 18 फीसदी के करीब पहुंच गई। पर कांग्रेस को आम आदमी के खाली पेट की नहीं, सरकारी खजाने की फिक्र। अब सोनिया गांधी ने भी पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतें जायज बता दीं। प्रणव दा के बजट को संतुलित बताया। अब कोई पूछे, सरकारी खजाना भरने को सिर्फ आम आदमी ही बोझ उठाए? देश के धनकुबेर क्या सिर्फ चुनावी चंदा देकर छूट पाते रहेंगे? बढ़ी कीमतों का तो धनकुबेरों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। पर गरीब इस बोझ से और गरीब हो जाएगा। यानी अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जा रही। फिर भी कोई इस कदर रार ठान ले। तो आम आदमी हमेशा आम ही रहेगा। अब अगर आम आदमी को यों ही बोझ उठाना था। तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी में प्रस्ताव पारित करा सोनिया गांधी ने बार-बार चिंता क्यों जताई? हर बार ढांढस क्यों बंधाया, महंगाई अब थमी, तब थमी। याद है, जनवरी के आखिर में केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस की मीटिंग के बाद पवार ने महंगाई को भागने के लिए दस दिन का अल्टीमेटम दिया था। तब अपने राहुल बाबा ने इतराते हुए यही कहा था। महंगाई बस कुछ दिनों की मेहमान। पर महंगाई तो नहीं भागी, कांग्रेस और उसकी सरकार भागी-भागी फिर रही। अब तो यही लग रहा, कांग्रेस ने आम आदमी को बरगलाने का अनोखा फार्मूला अपना लिया। एक झूठ को सौ बार चीख-चीखकर बोलो, तो सफेद झूठ भी सच दिखेगा। कांग्रेस या सरकार ने महंगाई पर काबू के जितने दावे किए, सब सफेद झूठ साबित हुए। कांग्रेस हर बार यही कहती रही, सरकार ने कई कदम उठाए। पर कहते हैं ना, झूठ के पांव नहीं होते। सो झूठे कदम के जमीन पर निशान ही नहीं पड़े। अब सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग में सांसदों को संबोधित किया। तो सिर्फ प्रणव दा की बाजीगरी की ही तारीफ नहीं की। अलबत्ता शरद पवार की नीतियों का भी समर्थन किया। अब अगर पवार की महंगाई लाओ नीतियां इतनी रास आ रहीं। तो पिछले महीने ही कांग्रेस के गुणवान प्रवक्तागण पवार को कटघरे में क्यों खड़ा कर रहे थे। खुल्लमखुल्ला तो पवार को कई नसीहतें दीं। दबी जुबान में कांग्रेसियों ने बेसिर-पैर की खबरें भी खूब उड़ाईं। जैसे एक खबर थी- मनमोहन ने पवार को डांट पिलाई। नतीजे दो, वरना विभाग मुझे खुद संभालना होगा। अब सोचिए, क्या पवार ऐसी बात सुन सकते? अगर पवार को छोड़ दें, तो क्या मनमोहन इस लफ्ज में पवार को कह सकते? पर जनता को बरगलाना कांग्रेसियों का मकसद था। सो जो जी में आया, खबरें बांच दीं। पर याद है ना, तब कैसे पवार और एनसीपी ने पलटवार किया था। कांग्रेसी आस्तीनें चढ़ा पवार को महंगाई मंत्री साबित करने में जुट गए थे। तो पवार ने दो-टूक कह दिया था- 'महंगाई के लिए पूरी केबिनेट जिम्मेदार। प्रधानमंत्री की रहनुमाई में सारे फैसले लिए जाते।' यानी समझदार को इशारा ही काफी। सो तबसे कांग्रेसियों के सुर बदल गए। अब जबसे समूचा विपक्ष एकजुट हुआ, वैसे भी सत्तापक्ष की एकजुटता मजबूरी बन चुकी। सो अब महंगाई से देश का ध्यान शिफ्ट करने के लिए महिला आरक्षण बिल एजंडे में सबसे ऊपर आ गया। सोमवार को राज्यसभा में बिल आएगा। पर बिल के फच्चरबाज भी कम नहीं। कांग्रेस यही चाह रही, सदन में फच्चर फंसे। तो विपक्ष की यादवी त्रिमूर्ति आलोचना के राडार पर हो। पर कांग्रेस शायद भूल रही, भले सूरज डूबना भूल जाए। चांद निकलना, पर पेट की आग धधकना नहीं भूलती। लोगों को भूख शांत करने के लिए खाना चाहिए। जो कांग्रेस राज में इतना महंगा, कि आम आदमी की औकात से बाहर हो चुका। अब इस सच को कौन झुठलाएगा? सोनिया गांधी ने सीपीपी में कीमतें बढ़ाने की मजबूरी तो बता दीं। पर ठीक दूसरी तरफ यूपी के प्रतापगढ़ में स्थित कृपालु महाराज के आश्रम में मुफलिसी का तांडव दिखा। कृपालु महाराज तो महज धर्मगुरु। पर धन संपदा अकूत। वैसे भी धर्मगुरुओं की तादाद इतनी हो चुकी, किसको गुरु बनाएं, समझ नहीं आता। लोगों की आस्था 'कैश' करने में गुरुओं का कोई सानी नहीं। आस्था के नाम पर देश के धनकुबेर धर्मस्थलों और गुरुओं को करोड़ों का चैक थमा आते। ताकि गुरुओं की भी मौज, धनकुबेर भी टेक्स बचा लेते। हाल में दिल्ली से धरे गए इच्छाधारी संत और कर्नाटक के स्वामी नित्यानंद के स्कैंडल की चर्चा खूब हो रही। पर धर्मगुरुओं की बात फिर कभी। बात हो रही थी महंगाई और गरीबी की। कृपालु महाराज अपनी पत्नी के श्राद्ध कार्यक्रम में भंडारा दे रहे थे। एलान हो चुका था, थाली-लोटा और बीस रुपए मिलेंगे। सो गरीब बीवी-बच्चों समेत भंडारे में पहुंचे। पर भगदड़ ऐसी मची, 26 महिलाएं और 37 बच्चे मौत की नींद सो गए। ढाई सौ के करीब घायल। महिला बिल भले पास हो जाए। पर क्या इन 26 महिलाओं में कोई ऐसी महिला थी, जिसे इस बिल का फायदा मिलता? अब घटना का जिम्मेदार कौन, यह तो जांच की बात। पर देश के विकास का चेहरा यहीं से दिख रहा। कांग्रेस खुद को महात्मा गांधी के विचारों का ठेकेदार बताती। पर महात्मा ने एक जंतर दिया था। जब तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहं हावी होने लगे, तो सबसे गरीब-कमजोर की शक्ल याद करो। दिल से पूछो, तुम्हारा कदम उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा...। अब क्या सचमुच कांग्रेस गांधी की अनुयायी? यहां तो गरीब ही पिस रहा। धनकुबेर मंदी के दौर में भी दुगुनी-तिगुनी कमाई कर चुके। पर कांग्रेस ने खूंटा गाड़ दिया, आम आदमी पर बोझ सही।
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04/03/2010

Wednesday, March 3, 2010

विपक्षी महाजोट से कितने परेशान, पीएम ने बता दिया

तेल के कुंए में बेधड़क डुबकी तो लगा ली। पर अब बाहर निकलने को कांग्रेस हाथ-पैर मार रही। बुधवार को भी दोपहर तक संसद के दोनों सदन ठप रहे। प्रणव दादा को इतनी मशक्कत बजट बनाने में भी न करनी पड़ी होगी। जितनी बजट से लगी चोट को सहलाने में करनी पड़ रही। अब दादा कभी कांग्रेसी सांसदों को सफाई देते फिर रहे। तो कभी यूपीए के घटक दलों की मान-मनोव्वल कर रहे। अगर कीमतें बढ़ानी ही थीं, तो जैसे बजट से पहले फर्टीलाइजर की बढ़ाईं। पेट्रोल-डीजल के कुएं में भी तभी डुबकी लगा लेते। तो भले संसद में शुरुआती हंगामा होता। पर विपक्ष को कटौती प्रस्ताव लाने का हथियार नहीं मिलता। वैसे भी 22 फरवरी को संसद का सत्र शुरू हुआ। पर अब तक एक भी दिन प्रश्रकाल नहीं चला। ऊपर से विपक्ष की अनौखी एकजुटता ने सरकार को बेदम कर रखा। पर सरकार की अकड़ देखिए। कीमतें वापस लेने को राजी नहीं। अलबत्ता फूट डालो, राज करो की नीति बना ली। विपक्ष की एकता में सेंध लगाने को महिला आरक्षण बिल पर तेजी दिखा दी। आठ मार्च को अंतर्राष्टï्रीय महिला दिवस। सो सरकार बिल पास कराने को कदम बढ़ाएगी। ताकि महिला बिल में कोटा तय करने के पैरोकार तीनों यादव विपक्षी महाजोट से अलग हो जाएं। तीनों यादव- यानी शरद, मुलायम, लालू। पर यह कैसा महिला हित? एक तरफ तो 33 फीसदी आरक्षण दिलाने की कोशिश। दूसरी तरफ पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ाकर हर घर की किचन मिनिस्टर यानी महिलाओं का बजट बिगाड़ दिया। पर शरद हों या मुलायम, अपना इरादा साफ कर दिया। विपक्ष की एकजुटता मुद्दों पर बनी। सो टूटेगी नहीं, अलबत्ता सरकार को तोड़ देगी। अब विपक्ष ने जनता तक आवाज पहुंचा बुधवार को संसद चलने दी। ताकि सरकार को सदन के भीतर घेरा जाए। बीजेपी और लेफ्ट ने तो मंगलवार की शाम ही तय कर लिया था। सिर्फ हंगामा खड़ा करना अपना मकसद नहीं। सुषमा स्वराज ने खुद वासुदेव आचार्य और गुरुदास दासगुप्त से बात की। फिर बुधवार को सुबह एनडीए की मीटिंग हुई। तो शरद यादव ने बताया, मुलायम सिंह यादव सदन चलने देने के पक्ष में नहीं। सो फिर सुषमा-शरद-दासगुप्त ने मुलायम से बात की। पर मुलायम एकदम से पीछे हटने को राजी नहीं। आखिर विपक्ष की एकजुटता बरकरार रखना भी बीजेपी के लिए इस वक्त बड़ी चुनौती। सो तय हुआ- हंगामा भी करेंगे, बहस भी करेंगे। दोपहर दो बजे तक दोनों सदन ठप रहे। लोकसभा में पीएम का प्रश्रकाल था। सो पीएम से सवाल पूछा गया। ऐसी क्या मजबूरी थी, जो आकाश में ही कीमतें वापस न लेने का खम ठोका। विपक्ष को गुस्सा इस बात का, पीएम ने अकड़ क्यों दिखाई। अगर पीएम सदन में बात रखते। तो विपक्ष को नागवार न गुजरता। पर हंगामे की रणनीति पहले से तय थी। सो दोनों सदन ठप हो गए। दोपहर में राष्टï्रपति के अभिभाषण पर बहस शुरू हुई। तो कांग्रेस के राव इंद्रजीत सिंह ने मोर्चा संभाला। यों राव इंद्रजीत मनमोहन की पहली पारी में रक्षा राज्यमंत्री रह चुके। सो बहस में कुछ ज्यादा ही रक्षात्मक मुद्रा में दिखे। जैसे महंगाई पर बहस में संजय निरुपम गोल-गोल घुमाते रहे। राव इंद्रजीत उनसे कहीं कम नहीं दिखे। लालू यादव को तो दो बार उठकर पूछना पड़ा, आखिर राव इंद्रजीत कहना क्या चाह रहे। तीसरे नंबर पर जब आडवाणी खड़े हुए। तो उन ने भी कहा- राव इंद्रजीत ने क्या मुद्दे उठाए, समझ नहीं आया। पर विपक्ष के हमलों से सरकार कितनी परेशान, यह पीएम के बार-बार दखल देने से साफ हो गया। एनडीए का कार्यकारी अध्यक्ष बनने और बीजेपी संसदीय दल का अध्यक्ष चुने जाने के बाद आडवाणी की पहली स्पीच थी। सो लगा, आडवाणी जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होकर बोल रहे। उन ने पुराने मुद्दे ही उठाए। पर एक-एक मुद्दा इस तरीके से उठाया, मानो दिल से व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव चाह रहे। आडवाणी के भाषण के वक्त सदन में मनमोहन-सोनिया भी मौजूद थे। अब आडवाणी ने पुरानी बात ही कही। पर सरकार किस कदर परेशान, पीएम ने भड़ककर दिखाया। आडवाणी ने वन रेंक, वन पेंशन का वादा याद दिलाया। तो पीएम ने कहा, वादा पूरा किया। फिर इसी मुद्दे पर दुबारा उठकर बोले, वित्तमंत्री ने जो कहा, उसे लागू किया जा रहा। आडवाणी को नसीहत दी, असैन्य और सैन्य वर्ग में दरार पैदा न करें। फिर कश्मीर नीति पर बात हुई। आडवाणी ने ओबामा के आगे सरकार को सरेंडर बताया। तो पीएम भड़क गए। जवाब दिया- 'मुझे हैरानी हो रही, आप इस फोरम पर यह मुद्दा उठा रहे। मैंने कई बार ओबामा से बात की है। पर यूएस की पॉलिसी में कोई बदलाव नहीं आया।Ó फिर आडवाणी ने कश्मीर पर बातचीत का ब्यौरा मांगा। तो भड़के पीएम बोले- 'मैं आपसे सवाल पूछता हूं, जब आपके राज में जसवंत सिंह ने अमेरिकी विदेश उपमंत्री स्ट्रोव टालबोट से दर्जनों बार बातचीत की। तो क्या आपने संसद को इसकी जानकारी दी। आप कैसे उम्मीद करते हैं कि मैं आपके काल्पनिक सवालों का जवाब दूंगा।Ó अब यूएस की नीति में क्या बदला, नहीं बदला। इसकी जानकारी मनमोहन देंगे? बेहतर होता, मनमोहन यह कहते, किसी का दखल नहीं, हम 1994 के प्रस्ताव से बंधे हुए। पर उन ने अमेरिका की तरफ से सफाई दी। तभी तो जब कश्मीर नीति पर आडवाणी ने सवाल उठाए। तो जैसे चोर की दाड़ी में तिनका, कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल खड़े हो गए। बोले- 'पीएम की नीयत पर शक करना ठीक नहीं। आडवाणी की बात सदन के रिकार्ड से हटाई जाए।'

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03/03/2010

Tuesday, March 2, 2010

व्हाट एन 'आइडिया' सोनिया जी!

होली में अबके महंगाई ने खूब हुल्लड़ मचाया। रंगों का त्योहार बेरंग न कहलाए। सो आम आदमी ने भी राजनीतिक पैंतरा आजमाया। सादगी की चादर ओढ़ हल्के में होली मना ली। ताकि बच्चे यह न कहें, गरीबी ने होली का रंग फीका कर दिया। पर तंगहाली को आम आदमी कब तक सादगी की चादर में ढांपेगा। राजनेता को तो देश पर राज भी करना, नेतागिरी भी। सो दोहरी जिंदगी नेताओं की फितरत में। तभी तो नेता विलासिता की जिंदगी भी जीते। दिखावे को सादगी का ढिंढोरा भी पीटते। अब आम आदमी राजनीति के पेच में इतना माहिर कहां। यों कहावत है, घूरे के दिन तो बारह साल बाद फिरते। पर अपने संविधान निर्माताओं का धन्यवाद करिए। जिन ने आम आदमी को पांच साल में दिन फिराने का हथियार दे रखा। पर लोकतंत्र के इस हथियार में भी नेताओं ने भ्रष्टïाचार का घुन घुसेड़ रखा। सो चुनावी माहौल में दारू से लेकर पैसा बंटने की खबरें आम हो जातीं। अगर नेताओं की नजर में वोट बिकाऊ न होते। तो सोचिए, पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतों पर सत्ताधारी ऐसी हेकड़ी दिखाते? बजट पास हुआ नहीं, जनता की जेब से पैसे झपटने शुरू कर दिए। क्या आम आदमी इसी बजट का इंतजार कर रहा था? माना, सरकार ने भविष्य को ध्यान में रखा। तो क्या देश के भविष्य निर्माण में आम आदमी का कोई महत्व नहीं? क्या जिनकी आमदनी महीने में पचास हजार से ऊपर, सिर्फ वही देश के भविष्य निर्माता? आप ही सोचिए, पचास हजार कमाने वालों को टेक्स में थोड़ी छूट न मिलती। वही रकम आम आदमी के फायदे में इस्तेमाल हो जाती। तो क्या देश पीछे चला जाता? क्या महंगाई टीम मनमोहन को नहीं दिख रही? आखिरकार पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमत का सबसे ज्यादा असर किस पर पड़ेगा? अब ऐसा तो होगा नहीं, पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ीं। तो पीएम मनमोहन के काफिले में से एक गाड़ी कम हो जाएगी। अगर सचमुच कुछ कम होगा, तो वह आम आदमी का पेट होगा। फिर भी आम आदमी के हित में कोई सहानुभूतिपूर्ण बयान नहीं। अलबत्ता पीएम ने उडऩखटोले में से ही देश को आकाशवाणी दी। पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतें वापस नहीं होंगी। भविष्य को देखकर फैसले लिए, वैसे भी सबको खुश करना संभव नहीं। यों बीजेपी ने पीएम की आकाशवाणी को अहंकारवाणी कहा। अब बुधवार को भी विपक्ष संसद चलने देगा, ऐसी उम्मीद नहीं दिख रही। होली की थकान के बावजूद आंध्र में टीडीपी सड़कों पर उतरी। केरल में लेफ्ट का यूनियन और दिल्ली में बीजेपी। पर सिर्फ विपक्ष ही नहीं, होली से पहले यूपीए के घटक करुणानिधि और ममता अपने तेवर दिखा चुके। अब अगर ममता-करुणा को छोड़ दें। तो भी समूचे विपक्ष की एकजुटता सरकार की नाक में दम कर चुकी। पर कांग्रेस ने रार ठान ली, कम से कम विपक्ष के आगे घुटने नहीं टेकेंगे। सो प्रणव मुखर्जी बजट पेश करने के बाद कीमत वापसी पर कभी हां, कभी ना की मुद्रा में। पर सऊदी अरब से लौटते हुए पीएम ने आकाशवाणी सुनाई। तो कुछ समय के लिए कीमत वापस न लेने की गांठ और मजबूती से बांध ली। पर विपक्ष का महाजोट कांग्रेस की चूलें हिला चुका। बीजेपी ने तो कट मोशन लाने का एलान कर दिया। यानी भले महंगाई पर कामरोको प्रस्ताव के तहत बहस को सरकार राजी नहीं हुई। पर कट मोशन को कैसे टालेगी? अगर समूचा विपक्ष अड़ गया, तो सदन में वोटिंग अनिवार्य। ऐसे में मुश्किल होगी, तो सरकार के करुणा और ममता की। विपक्षी महाजोट भी कितने पानी में, यह साबित हो जाएगा। पर विपक्षी तेवर देख कांग्रेस सोचने को मजबूर। सो पीएम आकाशवाणी कर जैसे ही धरती पर उतरे। सात रेसकोर्स रोड में दरबार सज गया। कांग्रेस कोर कमेटी ने सोनिया गांधी की रहनुमाई में खूब मत्थापच्ची की। पर सिर दर्द एक हो, तो इलाज हो। मनमोहन केबिनेट के बवाली मंत्री कहिए या विदेश राज्यमंत्री। शशि थरूर फिर बयान बहादुरी की जंग में अव्वल निकले। पर कांग्रेस की कोर कमेटी थरूर के बारे में कुछ भी फैसला करे। आम आदमी को कोई सरोकार नहीं। आम आदमी तो यही पूछ रहा, महंगाई आसमान से कब जमीं पर आएगी। अब महंगाई का तो पता नहीं, पर कांग्रेस ने विपक्ष की धार भौंथरी करने की बिसात बिछा दी। अभी कीमत में कुछ कटौती की, तो क्रेडिट विपक्ष को जाएगा। पर चूल्हा-चौका अपना, तो खाना विपक्ष कैसे पकाए। सो कोर कमेटी ने तय किया, फिलहाल कीमत वापस नहीं लेंगे। इससे पीएम की बात रह जाएगी। पर बुधवार को प्रणव दादा बजट पर कांग्रेसी सांसदों से मिलेंगे। गुरुवार को कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग होगी। तो सोनिया गांधी की जनहित वाणी निकलेगी। फिर कहा जाएगा, कांग्रेसी सांसदों की भावना का ध्यान रख सोनिया गांधी ने सरकार से पेट्रोल-डीजल की कीमतें घटाने की अपील की। ऐसा नहीं हुआ, तो दस जनपथ से साउथ ब्लॉक एक चि_ïी जरूर पहुंचेगी। फिर पूरा रोलबैक तो नहीं, डीजल में बड़ी कटौती कर जनमुखी चेहरा दिखाएगी। कांग्रेस में यह परंपरा कोई नई नहीं। हर बार जनहितैशी फैसले का क्रेडिट दस जनपथ को दिया जाता। देखी कांग्रेस की रणनीति। इसे कहते हैं, 'व्हाट एन आइडिया सोनिया जी।' वाकई कांग्रेस की रणनीति आम आदमी समझ जाए। तो वह आम क्यों कहलाए। साठ साल से आम आदमी को इसी सियासत ने तो खास न होने दिया।
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02/03/2010