Thursday, September 9, 2010

लोकतंत्र छोड़, जातितंत्र ही क्यों नहीं कहते?

तो राजनीतिबाजों ने कबीर वाणी पलटकर ही दम लिया। अब साधु ही नहीं, सबकी जाति पूछी जाएगी। केबिनेट ने गुरुवार को फैसला ले लिया, 2011 में जातीय गणना होगी। यानी मौजूदा जनगणना से इतर एक और दौर होगा। अब जाति पूछने को करीबन साढ़े तीन-चार हजार करोड़ खर्चे जाएंगे। क्या आजादी के 63 सालों में कभी किसी नेता या सरकार ने आम आदमी के घर जाकर पूछा- तुम्हारे पेट में अन्न का दाना पहुंचा या नहीं? जब कोई नेता आम आदमी के पेट की सुध नहीं ले सकता, तो जाति पूछने वाले कौन? जब दुनिया ग्लोबलाइजेशन के दौर में। संचार क्रांति के युग में जब दुनिया आगे बढ़ रही, तो भारत आजादी से पहले के दिनों में क्यों लौट रहा। सचमुच अपने नेताओं का जाति गणना से जन कल्याण लक्ष्य नहीं। अलबत्ता जाति की आड़ में अपनी राजनीति को अजर-अमर करना चाह रहे। जाति बंधन लगातार टूट रहे। पर जातीय गणना एक बार फिर देश को उलटी दिशा में ले जाएगी। अपने नेताओं को जनता की नहीं, सिर्फ अपनी फिक्र। जिनने कभी जाति बंधन को कमजोर नहीं होने दिया। राजनीतिक दलों में अध्यक्ष का चयन हो या पदाधिकारियों का। चुनाव में उम्मीदवारों को टिकट देना हो या सत्ता में आने वाले दल की बनने वाली केबिनेट का मामला। हर जगह जाति को महत्व दिया जाता। ताकि जातीय संतुलन बना रहे। अंग्रेजों ने भी जातीय जनगणना को इसलिए तरजीह दी थी, ताकि फूट डालो, राज करो की नीति को अमल में ला सके। आजादी का पहला संग्राम 1857 में हुआ। तो राष्ट्रवाद की पैदा हुई लहर ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। सो अंग्रेजों ने 1871 में हिंदुस्तानियों को जाति, मजहब और भाषा में बांटने की नीति बनाई। अंग्रेजों की इसी नीति का असर रहा कि पृथक निर्वाचन मंडल और द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात निकली। बात सिर्फ निकली नहीं, दूर तलक गई। जिसका दंश आज भी देश झेल रहा। तब लोगों ने अपनी हैसियत ऊंची दिखाने को जनगणना में अगड़ी जाति का बता दिया। तो आज का वक्त ऐसा, जब आरक्षण के लिए लोग खुद को पिछली जाति में शामिल करने के लिए कभी रेल की पटरी उखाड़ रहे, तो कभी मरने-मारने की बात। ऐसे में आरक्षण की खातिर अगड़े भी खुद को पिछड़े नहीं बताएंगे, इसकी गारंटी कौन लेगा? कोई किस जाति का, इसका प्रमाण क्या होगा? पूछने वाले को लोग जुबानी जो चाहे, बता देंगे। तो क्या इससे देश की सही तस्वीर सामने आ जाएगी? इंदिरा आवास योजना हो या कई अन्य योजनाएं, आप गांवों में जाकर देख लो। बड़े-बड़े जमींदार भी इंदिरा आवास फंड से मकान बना चुके। बड़े नेता तो बड़ी-बड़ी कंपनियां और स्विस बैंक तक पहुंच चुके। सो उनकी बात फिर कभी। पर फायदे के लिए अपना नाम इधर से हटा उधर जुड़वाना आम बात हो चुकी। तभी तो 1931 में जब जातीय जनगणना होनी थी, तबके अंग्रेज सेंसेक कमिश्नर जे.एच. हट्टन ने मुखालफत की थी। उन ने यही दलील दी थी, हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी ऊंची जाति हैसियत दिखाने को फर्जी जातियां लिखवा रहे। पर अंग्रेज जमाने में कोई आरक्षण नहीं था। अब तो अपने देश में आरक्षण की खातिर क्या-क्या हो रहा, बताने की जरूरत नहीं। ओबीसी एससी बनना चाह रहा, एससी एसटी बनना चाह रहा। बाकी बचा जनरल, वह सबको देखकर हाय ये आरक्षण की पुकार कर रहा। भाषायी विवाद ने 1960 के दशक में जो कोहराम मचाया, उसको छोड़ दें, तो आज भी कई ठाकरे उसी की रोटी तोड़ रहे। भाषा के नाम पर देश कैसे बंटा हुआ, यह जगजाहिर। सो आने वाले वक्त में जाति के नाम पर त्राहि-त्राहि मचेगी। फिर उस संकट से कौन निजात दिलाएगा? अगर सचमुच जातीय जनगणना देश के लिए कल्याणकारी, तो आजादी के 63 साल बाद सुध क्यों आई? सच्चाई तो यह, जातीय जनगणना की मांग करने वाले अब अपने वोट बैंक की बैलेंस शीट नहीं बना पा रहे। लालू-मुलायम-बीजेपी-लेफ्ट को मालूम ही नहीं चल रहा, क्यों हार रहे। अगर बीजेपी को सचमुच जातीय जनगणना से जन कल्याण की खुशबू आ रही, तो 2001 में जब सत्ता में थी, तब कदम क्यों नहीं उठाया? तब भी जातीय जनगणना की आवाज उठी थी। पर सत्ता के नशे में चूर बीजेपी को तब समझ नहीं आई। अब विपक्ष की बैंच पर बैठकर जनकल्याण का ख्याल आ रहा। सोचो, जातीय जनगणना के बाद मौजूदा आंकड़ों से हटकर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े आए, किसी जाति को अपना हक छिनता दिखा। तो क्या वह संघर्ष पर उतारू नहीं होगी? मानो या न मानो, समाज में दुर्भावना तो जरूर बढ़ेगी। जाति गणना की पैरवी करने वाले भले दलील दे रहे, जब आरक्षण मिल रहा, लोग जाति प्रमाणपत्र बना रहे। तो जाति बताने में गुरेज क्यों करेंगे। पर शायद ऐसी दलील देने वाले भूल रहे, कुछ चीजें परदे में ही अच्छी लगतीं। कोई जरूरी नहीं कि ढोल पीटकर अपनी जाति बताई जाए। फिर भी अगर नेताओं को जातीय गणना की दरकार। तो लोकतंत्र की बात क्यों कर रहे? जब लोगों का मूल जाति, तो क्यों न लोकतंत्र की जगह जातितंत्र शब्द का इस्तेमाल करें। हर जाति का एक सरदार बना दो। देश को कबीलाई भारत घोषित कर दो। फिर कबीले के हिसाब से राजनीतिक हिस्सेदारी तय करिए।
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09/09/2010