Thursday, July 8, 2010

बुराई नहीं, राजनीति को सिर्फ वोट बैंक की फिक्र

घाटी में घमासान तेज हो गया। तो आखिर सेना बुलानी पड़ी। अलगाववादियों ने षडय़ंत्र रच घाटी को फिर सुलगा दिया। पहली बार सीएम बने युवा नेता उमर अब्दुल्ला षडय़ंत्र नहीं भांप पाए। सो अलगाववादी अपने मंसूबे में सफल होते दिख रहे। सिर्फ उमर नहीं, मनमोहन सरकार भी सोती रही। सो अब घाटी में हालात सामान्य बनाने का जिम्मा सेना को सौंपा गया। पर अभी भी कोई स्पष्ट नीति नहीं। पी. चिदंबरम ने सेना की मौजूदगी को महज प्रतिरोधात्मक बताया। अब गृह मंत्रालय से ही खुलासा हुआ। कैसे अलगाववादियों ने घाटी को सुलगाने की साजिश रची। फोन टेपिंग में कई भावी योजनाओं का भी खुलासा हुआ। पर केंद्र ने अपना हाथ झुलसाने के बजाए उमर अब्दुल्ला को आगे कर दिया। अब सारा दारोमदार उमर पर, जो जुलाई-अगस्त 2008 में हुए अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद के वक्त खूब तेवर दिखा चुके। लोकसभा में उमर का उत्तेजनापूर्ण भाषण सुर्खियों में रहा था। घाटी में अमन-चैन और अपनी जमीन के लिए कुर्बानी का एलान किया था। पर अब वही घाटी आग में क्यों झुलस रही? क्यों नहीं युवाओं के दिल पर राज कर पाए उमर? उमर हों या मनमोहन सरकार, अलगाववादियों के आगे नतमस्तक क्यों दिख रहे? पर जैसे अलगाववाद के आगे सरकार कमजोर दिख रही, वैसे ही गुरुवार को खाप के खौफ की शिकार दिखी। सो केबिनेट में ऑनर किलिंग पर संशोधन का फैसला टल गया। केबिनेट में ही आम सहमति नहीं बनी। सो बीच का लटकाऊ रास्ता अपनाया। अब संशोधन के मामले पर जीओएम बनेगी। सभी राज्यों से सलाह-मशविरा होगा। फिर संसद में संशोधन बिल पेश। पर जीओएम का मतलब तो अब बीच के शब्द ओ जैसा हो गया। यानी जो भी मैटर जीओएम के पास, उसका तो गोल-मोल होना तय। बीजेपी की मानें, तो यह 54 वां जीओएम होगा। अब सचमुच सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति होती, तो सीधे बिल लाने का खम ठोकती। पर अंबिका ने महज संभावना जताई। तो चिदंबरम ने मानसून सत्र खत्म होने से पहले सलाह-मशविरे की प्रक्रिया पूरी करने का एलान। पर जरा याद करिए, जब 30 मार्च को मनोज-बबली केस में करनाल कोर्ट ने खाप की खाल खींची। ऑनर किलिंग पर बहस शुरू हो गई। तो अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने संतवाणी सुनाई। हमेशा की तरह कानून की खामी कबूली, कानून में बदलाव को जरूरी बताया। बिल लाने का दावा भी किया। पर अपनों का दबाव बढ़ गया। याद है ना, कैसे कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल ने खाप की पैरवी की। तो कांग्रेस ने फटकार लगाई। पर जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी समर्थन कर दिया। तो वोट बैंक की मजबूरी कांग्रेस की जुबान पर ताला लगा गई। कांग्रेस को यही दिख रहा, एकाध प्रेमी जोड़ा वोट बैंक नहीं हो सकता, जबकि खाप से पंगा लेकर चुनाव में जीत संभव नहीं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने हमेशा की तरह नीति साफ कर दी। बोले- कानून में बदलाव की कोई जरूरत नहीं। मौजूदा कानून ही पर्याप्त। अब जीओएम का मतलब आप दिग्गी राजा के बयान से लगा लो। नक्सलवाद हो या आतंक या फिर बटला कांड, दिग्गी की सिर्फ जुबान होती, सोच दस जनपथ की। यानी सामाजिक बुराई से लडऩे का जज्बा किसी में नहीं। भैरोंसिंह शेखावत और बंसीलाल जैसी मिसाल अब नहीं मिलती। देवराला सती कांड में शेखावत पूरे समाज से लड़ गए थे। समाज उसे उचित ठहरा रहा था। पर शेखावत ने खुला विरोध जताया। दलील दी, बचपन में ही मेरे पिता गुजर गए थे और अगर तब मेरी मां सती हो जातीं, तो मैं कहां जाता। क्या आज मैं यहां होता? बीजेपी भी तब समाज का विरोध देख डर गई थी। कार्यकारिणी की बैठक के आखिर में होने वाली अटल-आडवाणी की रैली टालने का फैसला हुआ। पर शेखावत ने रार ठान ली। बंसीलाल का मामला थोड़ा अलग। चुनाव में किसानों को मुफ्त बिजली देने का शिगूफा चल रहा था। पर बंसीलाल ने जींद की जनसभा में खम ठोककर कहा- मुफ्त बिजली नहीं देंगे। सो बंसीलाल चुनाव हार गए। पर जब मुफ्तखोरी का हश्र जनता ने देखा। बिजली महज झरोखा-दर्शन कराने लगी। तो अगले चुनाव में उसी जनता ने बंसीलाल को ताज पहनाया। मानसिकता बदलने की यह अद्भुत मिसाल। पर अब सिर्फ वोट बैंक की फिक्र होती, बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर कोई और। बीजेपी भी अबके खाप जैसी ही सोच दिखा रही। पर राजनीतिक नफा-नुकसान से जुबां पर ताला। बीजेपी तो अंतरधार्मिक विवाह पर भी अपना रंग दिखा चुकी। भले जमाना बदल गया, पर समाज का भौंडा चेहरा नहीं बदला। अप्रैल 2007 में भोपाल के उमर ने सिंधी समाज की प्रियंका वाधवानी से लव मैरिज की। तो दोनों धर्मों के ठेकेदार मैदान में कूद पड़े। दोनों तरफ से तालिबानी फरमान जारी हो गए। तब सीएम शिवराज सिंह चौहान ने भले संविधान का मान रख उमर-प्रियंका की शादी पर सीधी टिप्पणी नहीं की। अलबत्ता मन की भड़ास निकालते हुए बोले- मध्य प्रदेश को दिल्ली या मुंबई न समझें। यहां का सामाजिक परिवेश भिन्न है। अब कोई पूछे, सामाजिक परिवेश बनाने वाला कौन? क्या व्यक्ति के बिना समाज का अस्तित्व है? व्यक्ति से परिवार, परिवार से मोहल्ला, मोहल्लों से गांव और समाज का निर्माण होता है। अगर बदलते जमाने के साथ व्यक्ति की सोच बदल रही, तो समाज के ठेकेदार रूढि़वाद में ही क्यों जकड़े हुए?
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08/07/2010