Thursday, June 24, 2010

तो जसवंत के भी जिन्ना अब बीजेपी को मंजूर

सुबह का भूला शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते। पर झारखंड में बीजेपी 27 दिन बाद लौटे। बिहार में साढ़े चार साल बाद होश में आए। जसवंत सिंह की किताब समझने में दस महीने चार दिन लगा दे। तो उसे आप भूला कहेंगे या कुछ और। अब आप चाहे जो भी कहें, अपने जसवंत सिंह तो बीजेपी में लौट आए। बीजेपी दफ्तर में खूब ढोल-नगाड़े बजे। आडवाणी-गडकरी-सुषमा ने अगवानी की। पर जैसे जसवंत की दलील सुने बिना बीजेपी से बाहर निकाला। वैसे ही अब बीजेपी वापसी पर कोई दलील नहीं दे पा रही। सो जसवंत की वापसी तो करा ली। पर जून के महीने में बीजेपी नेताओं ने अपनी जुबां पर अघोषित इमरजेंसी थोप ली। आखिर बीजेपी के नेता बोलें भी, तो किस जुबां से। दस महीने पहले जसवंत के लिए बड़े तो बड़े, छुटभैये बीजेपी नेता भी संसदीय भाषा में गाली दे रहे थे। लोकसभा चुनाव की हार के बाद बीजेपी में भूचाल आ गया था। तो तय हुआ, शिमला में चिंतन बैठक कर चिंता दूर करेंगे। पर तभी अपने जसवंत सिंह की किताब 'जिन्ना: भारत विभाजन के आईने में' लांच हुई। यों जसवंत ने अपनी किताब में जिन्ना के बारे में वही लिखा, जो पांच जून 2005 को कराची में आडवाणी कह चुके। पर जसवंत की किताब में सरदार पटेल की भूमिका पर भी सवाल उठे। सो बीजेपी ने शिमला में चिंतन से पहले 19 अगस्त 2009 को जसवंत अध्याय समाप्त कर दिया। पर बीजेपी की अदालत में जसवंत के कोर्ट मार्शल से पहले नेताओं ने जो ताना-बाना बुना, जरा उसकी झलक दिखा दें। जसवंत की किताब 17 अगस्त को लांच हुई। लोकार्पण समारोह में बीजेपी का एक भी नेता नहीं पहुंचा। भूले-बिसरे श्याम जाजू पहुंच गए थे। पर किसी को न देख, उलटे पांव लौट आए। फिर 24 घंटे के भीतर बीजेपी के नेताओं के बयान देखिए। सुषमा स्वराज ने तब कहा था- 'सरदार पटेल का अपमान, देश का अपमान। सो बीजेपी जसवंत से सहमत नहीं।' अगले दिन 18 अगस्त को राजनाथ सिंह का बयान जारी हुआ। तो साथ में दस जून 2005 को जिन्ना पर संसदीय बोर्ड के प्रस्ताव की याद दिलाई। फिर मुरली मनोहर जोशी ने कहा था- 'जिन्ना पाकिस्तानियों के आदर्श हो सकते हैं, भारतीयों के नहीं।' उनका इशारा जसवंत के पाक प्रेम पर था। विनय कटियार ने तो जसवंत को सीधे-सीधे जिन्ना हाउस में जाकर पनाह लेने की नसीहत दी थी। यह तो ऑन रिकार्ड टिप्पणियां थीं। अब जरा ऑफ रिकार्ड भी देख लो। एक वरिष्ठ नेता ने कहा था- 'बीजेपी में रहकर मलाई खाने के बाद अब वैचारिक बदला लेने के लिए जसवंत ने किताब लिखी।' इस नेता ने तो यहां तक कहा- पहले राजस्थान से चुनाव लड़े, अबके गोरखालैंड से। अब अगला चुनाव 'इस्लामाबाद' से लड़ेंगे। क्या बीजेपी के ये नेता दस महीने पहले कही अपनी बात भूल गए। जसवंत को जब निकाला गया, तो आडवाणी हों या जेतली-सुषमा-राजनाथ। दलील दी, जसवंत ने विचारधारा को चुनौती दी, सो बर्खास्तगी का फैसला करना पड़ा। पर क्या अब जसवंत की किताब विचारधारा को आत्मसात हो गई? जसवंत ने बीजेपी में वापसी के बाद वही रुख अपनाया, जो जिन्ना पर आडवाणी ने अपनाया था। जसवंत बोले- 'मैं किताब का लेखक हूं। कोई लेखक अपनी किताब से कैसे मुकर सकता। मैं अपनी किताब पर अटल हूं।' अब जसवंत वापसी के बाद भी वही तेवर दिखा रहे। तो यह साफ हो गया, बीजेपी ने विचारधारा की बलि चढ़ा दी। गुरुवार को जब जसवंत की सम्मान सहित वापसी हुई, तो गडकरी ने वर्करों के लिए आदर व सम्मान का दिन बताया। आडवाणी ने खुशी के साथ-साथ मन का सुकून करार दिया। पर सनद रहे, सो चिंतन बैठक के आखिर में 21 अगस्त 2009 को आडवाणी ने अपना दुखड़ा कुछ यों सुनाया था- 'तीस साल तक साथ रहे जसवंत। सो निकालने से कष्ट होना लाजिमी। पर जसवंत ने बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ काम किया। इसलिए निष्कासन से कम में वर्कर संतुष्ट नहीं होते।' यानी जसवंत की बर्खास्तगी जायज ठहराई। पर कोई पूछे, दस महीने पहले वर्करों की संतुष्टि के लिए निकाला। तो अब जसवंत की वापसी वर्करों के लिए 'आदर-सम्मान' की बात कैसे हो गई? पर गडकरी तबकी बात को बीता हुआ कल बता रहे। तो क्या बीजेपी की नीति चाल, चरित्र, चेहरा भी अब बीती बात हो गई? बीजेपी के तमाम फैसले तो यही बता रहे। जसवंत की वापसी पर चुप्पी साध बता दिया, विचारधारा से कैसे समझौता कर रहे। झारखंड में सिद्धांतों की बलि चढ़ाई। तो राम जेठमलानी को राज्यसभा भेज वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व के सम्मान को तिलांजलि दे दी। बाकी बीजेपी में फैसलों की रफ्तार राजस्थान से बेहतर कौन समझेगा। साल होने को, पर विधानसभा में नेता तय नहीं कर पाई। अब जसवंत की वापसी भी अपना असर दिखाएगी। पर पार्टी की मूल नीतियों से गडकरी के हाथों समझौता कहीं अंदरूनी साजिश तो नहीं? आडवाणी भले रिटायर हो चुके। पर 16-17 सितंबर 2005 की चेन्नई वर्किंग कमेटी में संघ के खिलाफ आडवाणी की भड़ास याद करिए। सो कहीं ऐसा तो नहीं, आडवाणी धीरे-धीरे बीजेपी को संघ से मुक्त कराने में लगे? बीजेपी के हालिया फैसले और आडवाणी के प्रभाव यही इशारा कर रहे। जनसंघ जमाने में जब पहली बार 1964 में संघ के स्वयंसेवक बछराज अध्यक्ष बने, तो वाजपेयी ने नहीं माना। विजयवाड़ा अधिवेशन में नहीं गए। आखिर ऐसी परिस्थिति बनी, संघ के नामित बछराज साल भर के भीतर कुर्सी छोडऩे को मजबूर हो गए।
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24/06/2010