Wednesday, September 15, 2010

ऑल पार्टी मीटिंग, फिर भी क्यों नहीं ‘ऑल इज वैल’?

तो दो साल बाद कश्मीर फिर मुहाने पर खड़ा हो गया। घाटी का बवाल नहीं थम रहा। बुधवार को हल ढूंढने को हुई सर्वदलीय मीटिंग भी ढाक के तीन पात ही रही। मीटिंग का हश्र वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी। आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट यानी अफ्स्पा पर राजनीतिक अफसाना नहीं बना। सो तय हुआ, ऑल पार्टी डेलीगेशन घाटी का दौरा करेगा। फिर हालात देख फैसले लिए जाएंगे। पर तीन महीने बाद ही मनमोहन सरकार की नींद क्यों उचटती? जब तक धरती खून से न सन जाए, क्या सरकार को खतरे का अंदाजा नहीं होता? सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। दो साल पहले जब देश 61वां स्वाधीनता दिवस मना रहा था। तब घाटी के हालात हू-ब-हू इसी तरह थे। तब अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन मुद्दे पर जम्मू बनाम कश्मीर जंग सी छिड़ गई थी। शुरुआत में तबके सीएम गुलाम नबी आजाद की चूक ने चिंगारी को शोला बनने दिया। करीबन दो-ढाई महीने बाद मनमोहन सरकार ने घाटी की सुध ली। तो जैसे बुधवार को सर्वदलीय मीटिंग हुई। वैसी ही तब हुई थी और तबके होम मिनिस्टर शिवराज पाटिल की रहनुमाई में डेलीगेशन जम्मू-कश्मीर गया। पर आखिर में वही हुआ, श्राइन बोर्ड को जमीन देनी पड़ी। असल में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के वक्त अमरनाथ यात्रा में असुविधा की वजह से करीबन सौ यात्री मर गए थे। सो नितीश सेन गुप्त कमेटी बनाई गई थी। जिसने श्राइन बोर्ड बनाने की सिफारिश की। फिर 2000 में फारुक अब्दुल्ला सरकार ने एसजीपीसी और वक्फ बोर्ड की तरह जे एंड के श्राइन बोर्ड एक्ट पास किया। पर जमीन सीधे श्राइन बोर्ड को नहीं मिली। तो मामला हाईकोर्ट गया। मुफ्ती मोहम्मद सईद के टर्म में कोर्ट ने जमीन देने का फैसला दिया। फिर आजाद सीएम बने, तो केबिनेट ने मंजूरी दी। पर राजनीतिक फायदे के लिए पीडीपी ने तब भी वही खेल किया, जो आज कर रही। आखिर में जमीन श्राइन बोर्ड को ही देनी पड़ी। पर सोचिए, विवाद का क्या मतलब रहा? अगर सरकार पहले ही कदम उठा लेती। तो घाटी में न तब कफ्र्यू जैसे हालात पैदा होते, न अबके। पर सत्ता में बैठे लोग अब नीरो तो नहीं, पर उसकी मानसिकता वाले हो ही चुके। सो जब तक घाटी के जलने की बू दिल्ली तक न पहुंचे, कोई असर नहीं होता। पर देर से ही सही, सरकार ने सुध ली। फिर भी घाटी में अमन-चैन बहाल होगा, इसकी उम्मीद नहीं दिख रही। सर्वदलीय मीटिंग में फैसला हुआ, एक डेलीगेशन घाटी का दौरा कर अवाम से बात करे। हालात का जायजा ले, फिर सरकार कोई फैसला लेगी। पर फैसला होगा क्या? जब बुधवार की मीटिंग में ही अफ्स्पा पर राजनीतिक दलों ने अपना-अपना तराना सुना दिया। तो मौका-मुआइना के बाद तराना बदलेगा, इसकी उम्मीद नहीं। जैसे तमाम विरोध के बाद भी ए.आर. रहमान ने कॉमनवेल्थ के लिए गाया गाना फिर से बनाने की मांग ठुकरा दी। कुछ ऐसी ही आदत राजनीतिक दलों की। यों तमाम विरोध के बाद भी ऑल पार्टी मीटिंग में सबने ऑल इज वैल की ही कामना की। पहली बार पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ऐसी मीटिंग में पहुंचीं। तो मिजाज भी बदले-बदले दिखे। मीटिंग के बाद बोलीं- अलगाववादी हों या सरकार, दोनों पक्षों को बिना शर्त बातचीत करनी चाहिए। हमें मानवीयता के नजरिए से घाटी की समस्या को देखना होगा। महबूबा ने मीटिंग के भीतर भी मनमोहन को वाजपेयी सरकार की पहल याद कराई। जब आडवाणी के डिप्टी पीएम रहते मानवता के दायरे में बिना शर्त बातचीत शुरू हुई। महबूबा ने वाजपेयी-आडवाणी की पहल को गुड स्टार्ट करार दिया। पर अब उनकी शिकायत, कश्मीर को जेल बना दिया गया। यों महबूबा की दिल्ली में हुई अपील अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को नागवार गुजरी। उन ने बिना शर्त बातचीत से इनकार कर दिया। दो-टूक कह दिया- सर्वदलीय डेलीगेशन के आने का कोई मतलब नहीं। सो वह बात नहीं करेंगे। जब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता, घाटी के हालात नहीं बदलने वाले। यानी अलगाववादी नेता आंदोलन की आग को जलाए रखना चाहते। पर गिलानी की जो शर्तें, वह शायद ही मानी जा सकतीं। गिलानी कश्मीर को विवादास्पद मानने, अफ्स्पा हटाने, जेल में बंद लोगों की रिहाई और मानवाधिकार जैसी शर्तें रख रहे। रिहाई और मानवाधिकार पर भले कोई एतराज न हो। पर भारतीय हिस्से वाले ही नहीं, अलबत्ता पाक अधिकृत कश्मीर को भी संसद के प्रस्ताव के जरिए वापस हासिल करने की बात हो चुकी। उसे कोई भी सरकार भला विवादास्पद कैसे माने? अलगाववादी पाकिस्तानी शह से घाटी में हिंसा को हवा दे रहे। हालात फिर 1965 के युद्ध से पहले वाले हो गए। भले पाकिस्तान ने अलगाववादियों की मदद के लिए आर्मी नहीं भेजी। पर बिना पाकिस्तानी शह के अलगाववादी इतने मुखर नहीं हो सकते। जो अलगाववादी पस्त हो चुके थे। उन्हें उमर अब्दुल्ला की अपरिपक्वता ने पनपने का मौका दिया। फिर भी सर्वदलीय मीटिंग में मनमोहन ने उमर की ही सराहना की। अलगाववादी बेखौफ पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे। पर सरकार सेना का मनोबल तोडऩे की फिराक में। यों एयर चीफ मार्शल पीवी नाइक ने खुला एतराज जता दिया। पर सीसीएस से सर्वदलीय मीटिंग और डेलीगेशन भेजने तक की कवायद आखिर में अफ्स्पा की अर्थी बनाने के लिए हो रही। पर कोई पूछे, हर बार सरकार देर से क्यों जागती। आखिर कब तक घाटी के हालत बेकाबू होते रहेंगे और सरकारें ऐसे ही सर्वदलीय मीटिंग कर डेलीगेशन भेजती रहेंगी। कोई अंतिम समाधान क्यों नहीं ढूंढ पा रही अपनी सरकार?
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15/09/2010