Thursday, October 7, 2010

शेख से उमर तक, चालू आहे कश्मीर कथा

तो उमर अब्दुल्ला भी सोलह दूनी आठ ही साबित हुए। दादा से पोते तक दुनिया और राजनीति कई करवट ले चुकी। पर अब्दुल्ला खानदान की सोच नहीं बदली। जब-जब अब्दुल्ला खानदान की कुर्सी खतरे में पड़ी। जुबान पर अलगाववादियों की भाषा चढ़ गई। कश्मीर घाटी 11 जून से सुलग रही। पर युवा उमर की राजनीति बचकानी साबित हुई। घाटी की हिंसा थामने और अवाम का भरोसा जीतने में नाकाम रहे। तो उन ने आखिर में वही तुरुप चल दिया। जो कभी दादा शेख अब्दुल्ला और वालिद फारुख अब्दुल्ला आजमा चुके। अब उमर अब्दुल्ला ने मुखर होकर न सिर्फ स्वायत्तता का राग अलापा। अलबत्ता कश्मीर के भारत में विलय पर ही सवाल उठा दिए। उमर ने कहा- कश्मीर को हैदराबाद, जूनागढ़ से मत जोडि़ए। इन दोनों का पहले सम्मिलन और फिर विलय हुआ था। पर कश्मीर का भारत से सिर्फ सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं। हम 1947 के समझौते पर कायम हैं। पर भारत सरकार ने राज्य की स्वायत्तता छीन ली। यानी उमर ने अलगाववादियों की जुबां बोल घाटी का बवाल थामने की कोशिश की। अपने संविधान में जम्मू-कश्मीर को स्पेशल स्टेटस मिला हुआ। पंडित नेहरू ने अनुच्छेद 370 के तहत यह प्रावधान कराया था। ताकि अवाम धीरे-धीरे राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ सके। पर इन साठ सालों में स्पेशल स्टेटस से सैपरेट स्टेटस की मांग होने लगी। उमर के दादा जान शेख अब्दुल्ला ने तो अनुच्छेद 370 को देश के सभी राज्यों में लागू करने का दाव खेल दिया था। ताकि संविधान का अस्थायी अनुच्छेद स्थायी हो जाए। सोचो, अगर शेख अपने मंसूबे में कामयाब हो जाते। तो आज देश के हालात क्या होते। सचमुच अलगाववाद पर अंकुश लगाने को कभी ईमानदार पहल नहीं हुई। अमेरिका ने भारत-पाक के बीच कश्मीर मुद्दे को हमेशा जिंदा रखा। ताकि दोनों को ब्लैकमेल कर सके। शेख अब्दुल्ला ने डिक्शन प्लान के तहत तीन स्टेट बनाने की लॉबिंग शुरू कर दी थी। सीआईए के चीफ स्टीवन लाई 1953 में भारत आए। तो अब्दुल्ला की लॉबिंग की भनक पंडित नेहरू को भी लगी। आईबी में तबके आईजी बीएन मलिक ने अपनी पुस्तक- माई डेज विद नेहरू में इसकी पुष्टि की। पर नेहरू नहीं माने, तो मामला रफी अहमद किदवई के पास गया। तो शेख गिरफ्तार हुए। बख्शी गुलाम मोहम्मद को जम्मू-कश्मीर का पीएम बनाया गया। शेख पर कश्मीर षडयंत्र का मुकदमा चला। पर 1963 में नेहरू-शेख पैक्ट के बाद केस वापस हुआ। फिर उमर के वालिद फारुख की कहानी कोई अधिक पुरानी नहीं। भावनाओं का आवेग पैदा करने में तो फारुख अपने बाप-बेटे से भी आगे रहे। जब मामला हाथ से निकल जाता, तो रोकर सहानुभूति बटोरने में फारुख का कोई जवाब नहीं। वाजपेयी राज में फारुख एनडीए का हिस्सा थे। नेशनल कांफ्रेंस ने 1996 के विधानसभा चुनाव में स्वायत्तता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया था। सो जून 2000 में उन ने विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेज दिया। पर चार जुलाई 2000 को वाजपेयी केबिनेट ने प्रस्ताव नामंजूर करते हुए दलील दी- ऐसा करना देश को पीछे की ओर लौटाना होगा और यह देश की एकता के हित में नहीं। अब उमर अब्दुल्ला की कहानी देखिए। जनवरी 2009 में अपने वालिद को किनारे कर सीएम हो गए। राहुल गांधी से दोस्ती ने खूब रंग दिखाया। तो आस बंधी, युवा सीएम कश्मीर के लिए सचमुच कुछ कर दिखाएगा। पर उमर सच मायने में राजनीति के अनाड़ी निकले। अगर 11 जून को पहली मौत के वक्त ही उमर ने राजनीतिक चतुराई दिखाई होती, तो घाटी के हालात इस कदर नहीं बिगड़ते। पर तब उमर छुट्टी मना रहे थे, जिसे कैंसल नहीं किया। बाद में भी कभी मौके पर पहुंच अवाम को ढांढस बंधाने की कोशिश नहीं की। यों हालात बेकाबू हो गए, तो दो महीने बाद मौके पर पहुंचे। पर तब तक पानी सिर से ऊपर निकल चुका था। फिर सर्वदलीय टीम का घाटी में दौरा, राजनीतिक पैकेज की मांग। केंद्र की सलाह पर स्कूल-कालेज का खुलना, बंदियों की रिहाई। सो ऐसा लगा, उमर केंद्र सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रहे। यानी जब उमर चौतरफा घिर गए। तो आखिर में अलगाववादियों पर ठोस कार्रवाई करने की बजाए अलगाववाद की जुबां बोल भरोसा जीतने की आखिरी कोशिश भी कर डाली। बोले- हम केंद्र सरकार की कठपुतलियां नहीं। कोई रिमोट कंट्रोल नहीं, हम अपने लोगों और उनके फायदे के लिए फैसले लेते हैं। भारत को कश्मीर का ऐसा हल ढूंढना चाहिए, जो पाक को भी पसंद हो। पर कोई पूछे, क्या सीएम उमर के पास कोई ऐसा हल है? या फिर कुर्सी बचाने को कोई भी बयान चलेगा? उमर के बयान का मतलब तो यही- न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। कश्मीर पर ऐसा हल निकल ही नहीं सकता, जो भारत-पाक को दिल से कबूल हो। हू-ब-हू यही मांग अलगाववादी भी करते आ रहे। सो गुरुवार को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जमकर हंगामा हुआ। बीजेपी-पैंथर्स पार्टी के एमएलए मार्शल से भिड़ गए। मार-पीट में विधायक और मार्शल दोनों घायल हो गए। बीजेपी उमर अब्दुल्ला के इस्तीफे की मांग कर रही। गर उमर भावना की राजनीति पर उतर आए। तो मारपीट पर उतर बीजेपी भी वही कर रही। सबको अपने वोट बैंक की फिक्र। पर उमर हों या बीजेपी, यह भूल गए, भावना की राजनीति टिकाऊ नहीं होती। पीडीपी ने श्राइन बोर्ड विवाद में बहुत कुछ किया। पर सत्ता से बेदखल हुई। यानी कश्मीर की आग यों ही जलती-बुझती रहेगी। कोई भी नेतृत्व ईमानदार नहीं। सो कश्मीर कथा यों ही चलती रहेगी।
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07/10/2010