Tuesday, March 22, 2011

पक्ष-विपक्ष की ‘प्रतिष्ठा’ में पिस रहा आम आदमी

विकीलिक्स के बवाल से कांग्रेस-बीजेपी दोनों कटघरे में। उधर वोट के बदले नोट कांड पर पीएम की सफाई को जूलियन असांज ने भी नकार दिया। अपने केबल को सबूतों के आधार पर पुख्ता बताया। तो इधर विपक्ष ने मंगलवार को भी सरकार की नाक में दम कर दिया। राज्यसभा तो दोनों पक्षों की जिद के आगे निढाल हो गई। पर लोकसभा की कार्यवाही रेंग-रेंग कर चली। वह भी तब, जब सरकार की जिद को देख विपक्ष ने सदन से वाकआउट कर दिया। सो बिना विपक्ष ही वित्त विधेयक पर चर्चा शुरू हो गई। विपक्ष ने भी एलान कर दिया- जब तक पीएम के बयान पर अल्पकालिक चर्चा नहीं होती, सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेंगे। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज बोलीं- हमने वाकआउट कर अपना विरोध दर्ज करा दिया। पर मंगलवार को पक्ष-विपक्ष के बीच की नोंकझोंक किसी बचकानेपन से कम नहीं। रार सिर्फ इस बात को लेकर ठनी, पहले पीएम के बयान पर अल्पकालिक बहस हो या वित्त विधेयक पर चर्चा। विपक्ष की अपनी दलील, तो सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण वित्त विधेयक। सो प्रणव मुखर्जी ने सदन की बैठक से पहले ही सुषमा स्वराज को फोन किया। पर सुषमा नहीं मानीं। फिर सदन में प्रणव-सुषमा के बीच दलीलों का दौर चला। आखिर सदन की कार्यवाही रोकनी पड़ी। फिर सुषमा ने प्रणव दा को फोन घुमाया। फार्मूला सुझाया- अगर लोकसभा में वित्त विधेयक, तो राज्यसभा में पीएम के बयान पर बहस होने दें। ताकि विपक्ष को सरकार पर एतबार हो जाए। विपक्ष को आशंका, पहले वित्त विधेयक पारित हो गया, तो सरकार पीएम के बयान पर बहस को राजी नहीं होगी। अब अगर विपक्ष की आशंका को सच भी मान लें, तो सवाल- हंगामे का क्या मतलब? मंगलवार को वित्त विधेयक पर चर्चा शुरू हो गई। विकीलिक्स के खुलासे पर बहस इसके बाद ही होगी। यानी संसद में पक्ष-विपक्ष की लड़ाई अब सिर्फ प्रतिष्ठा से जुडक़र रह गई। हर मुद्दे पर दोनों के बीच प्रतिष्ठा आड़े आ जाती। पर बात विकीलिक्स की। तो मुश्किल में बीजेपी। एटमी डील पर बीजेपी के दोहरेपन का खुलासा हुआ। तो अब विकीलिक्स ने गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को लेकर अमेरिका के दोहरेपन को जगजाहिर कर दिया। जब यूपीए की ताजा-ताजा सरकार बनी थी। अपने नटवर सिंह टीम मनमोहन के विदेश मंत्री हुआ करते थे। तब प्रवासी गुजरातियों के कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी को बतौर चीफ गेस्ट जाना था। पर अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को न तो कूटनीतिक वीजा दिया, ना ही निजी। गुजरात दंगे की छाप को अमेरिका ने वीजा न देने का आधार बनाया। तब कांग्रेस दो घंटे तक ऊहापोह में रही। संसद का सत्र चल रहा था। पर सरकार सोच नहीं पा रही थी, मोदी का बचाव करे या अमेरिका का विरोध। सरकार की ऊहापोह ने विपक्ष को हमलावर होने का मौका दे दिया। तब जाकर होश में लौटी मनमोहन सरकार ने अमेरिका के सामने विरोध जताया। क्योंकि सवाल नरेंद्र मोदी का नहीं, भारत के एक प्रांत के निर्वाचित सीएम के अपमान से जुड़ा था। पर अपनी राजनीति की यही विडंबना, हर मामले में वोट बैंक जुड़ जाता। अब जिस अमेरिका ने मोदी को वीजा नहीं दिया था। वही अमेरिका कितना डरा-डरा सा था, इसका खुलासा विकीलिक्स के जरिए हो गया। बाकायदा अमेरिका ने मोदी की जासूसी कराई। मोदी के ताकतवर होने का अहसास हुआ। सो दूतावास के जरिए संबंध सुधारने की कोशिशें होने लगीं। यानी आज लीबिया पर हमला हो या अमेरिका के अन्य कथित मानवीय कदम, सब महज दिखावा। सही मायने में अमेरिका किसी का सगा नहीं हो सकता। सो मंगलवार को मोदी ने अमेरिका पर पलटवार किया। विकीलिक्स की रपट को प्रामाणिक बताया। अब चाहे जो भी हो, मोदी का कद एक बार फिर बीजेपी के अन्य नेताओं से ऊपर हो गया। पर बीजेपी की मुश्किल- विकीलिक्स की एक रपट को सही माने, तो दूसरी को झुठलाए कैसे? सो एटमी डील पर बीजेपी के डबल स्टैंडर्ड की भी पुष्टि मानकर चलिए। वैसे बीजेपी की अंदरूनी खींचतान अभी भी कम नहीं। संसद के दोनों सदनों के नेताओं में सरकार को घेरने की होड़ मची रहती। पर आजकल सुषमा स्वराज को सत्तापक्ष से मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा। जब भी कुछ बोलने को खड़ी होतीं, बिना मुंह खोले की कांग्रेसी प्वाइंट ऑफ आर्डर उठा देते। हंगामा शुरू हो जाता। सो पिछले हफ्ते और अब मंगलवार को भी सुषमा के लिए आडवाणी को बैटिंग करनी पड़ी। बोले- जब भी नेता विपक्ष खड़ी होती हैं, ट्रेजरी बैंच से रोकने की कोशिश की जाती है। सरकार यह भूल रही, विपक्ष के नेता को बोलने से रोकने का खामियाजा समूचे शीत सत्र के ठप होने के तौर पर भुगत चुकी। अब आडवाणी की इस दलील का मतलब आप खुद निकालें। पर लोकतंत्र में विपक्ष का मतलब सिर्फ विरोध करना ही नहीं। विपक्ष हर मुद्दे पर सदन को बंधक नहीं बना सकता। अब विपक्ष की वित्त विधेयक से गैरहाजिरी को क्या कहेंगे आप? प्रणव दा ने एयर कंडीशंड अस्पताल में इलाज से सर्विस टेक्स वापस ले राहत तो दी। पर लीबिया संकट के मद्देनजर महंगाई रूपी आफत के बादल मंडरा दिए। जल्द पेट्रोल-डीजल के दाम बढऩे का इशारा कर दिया। पर लीबिया के खिलाफ हो रहे अमेरिकी हमले की निंदा का प्रस्ताव लाने को राजी नहीं। सो कुल मिलाकर पक्ष-विपक्ष की प्रतिष्ठा की लड़ाई में पिस रहा बेचारा आम आदमी।
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22/03/2011