Wednesday, May 19, 2010

नक्सल हो या आतंकवाद, राजनीति की बहस अनंता

नक्सलियों का तांडव जारी। पर राजनीति और अपनी व्यवस्था बहस में ही उलझी। बुधवार को छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह ने नक्सलियों को आतंकी करार दिया। लश्कर से संबंध की आशंका जताई। वायुसेना के इस्तेमाल पर जोर दिया। तो कांग्रेस ने भी लक्ष्मण रेखा के पार न जाने का खुला एलान कर दिया। नक्सलवाद के खिलाफ जंग में वायुसेना का इस्तेमाल नहीं होगा। अलबत्ता नक्सलवाद को राष्ट्रीय चुनौती मानने वाली कांग्रेस ने रमन सिंह पर ही ठीकरा फोड़ दिया। कांग्रेस ने पूछ ही लिया, जब आंध्र-महाराष्ट्र संतुलित नजरिए से नक्सलवाद को निपटा चुके। तो छत्तीसगढ़ नकारा साबित क्यों हो रहा। क्यों बीजेपी ने कभी रमन सिंह का इस्तीफा नहीं मांगा। केंद्र सिर्फ सुरक्षा बल मुहैया करा सकता, संसाधन दे सकता। पर इस्तेमाल का संवैधानिक हक राज्य का। सो छह अप्रैल को सीआरपीएफ के जवान मारे गए या सोमवार को हुईं 31 मौतें। सबकी जिम्मेदार सिर्फ राज्य सरकार। कांग्रेस की दलील यहीं खत्म नहीं। कांग्रेस का मानना है, संविधान में संघीय व्यवस्था। सो कानून व्यवस्था से निपटना राज्य की ही जिम्मेदारी। यानी कांग्रेस ने पी. चिदंबरम के बयान को नया मोड़ दे दिया। सोमवार को चिदंबरम ने नक्सलवाद के खिलाफ कार्रवाई पर अपने हाथ बंधे होने और सीमित अधिकार की बात कही। तो कांग्रेस में भूचाल आ गया। आखिर वही हुआ, जो सोनिया उवाच के खिलाफ जाने वालों का होता। कांग्रेस में चिदंबरम अलग-थलग पड़ गए। विपक्ष ने सीधे पीएम से जवाब तलब किया। तो कांग्रेस ने चिदंबरम की चाबी घुमा दी। सो चिदंबरम ने पलटी मारी। जिस बयान में सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी और अपनों के मतभेद का इशारा किया था। उसका रुख राज्य की ओर मोड़ दिया। चिदंबरम ने बयान की व्याख्या कुछ यूं कर दी, कई राज्य वायुसेना के इस्तेमाल की पैरवी कर रहे। पर यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं। अब चिदंबरम के बयान से असहज हुई कांग्रेस संभली। तो बुधवार को नक्सलवाद पर स्पष्ट लाइन तय कर दी। ताकि मनमोहन की दूसरी पारी के पहले सालाना जश्न का जायका न बिगड़े। शनिवार को मनमोहन की दूसरी पारी का पहला साल पूरा हो रहा। सो कांग्रेस को जबर्दस्त फील गुड। भले महंगाई ने जनता का रस निचोड़ लिया। पर कांग्रेस उपलब्धियां गिनाते-गिनाते थक गई। पहले साल में यूनिक आई-डी कार्ड, नरेगा को व्यापक बनाने, खाद्य सुरक्षा बिल, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बिल, शिक्षा का अधिकार कानून, राज्यसभा से महिला बिल, कृषि कर्ज पर सात फीसदी ब्याज दर, विकलांगता अवसर बिल प्रमुखता से गिनाए। अब सच्चाई भी देखो। जो दाल 32 रुपए थी, सौ रुपए के करीब पहुंची। खाने-पीने की वस्तुओं के दाम इसी अनुपात में बढ़े। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या एक साल में 50 से अधिक हुई। फिर भी कोई फील गुड कर रहा, तो अपना क्या। एनडीए ने तो छह साल राज के बाद फील गुड किया था। यहां तो पहले साल में ही इतना फील गुड। यों मनमोहन की दोनों पारी मिलाओ, तो उसका भी यह छठवां साल। सो फील गुड के मामले में दोनों मौसेरे भाई ही हुए। वैसे भी कहावत है, सावन के अंधे को हरा ही हरा नजर आता है। सो नक्सलवाद पर छिड़ी बहस से इतर कांग्रेस को जश्न ही जश्न दिख रहा। अब कांग्रेस ने साफ किया, संविधान के दायरे में रहकर ही नक्सलवाद से निपटेंगे। भारत राज्यों का संघ है, सो राज्य अपनी जिम्मेदारी निभाएं, केंद्र अपनी निभाएगा। कांग्रेस ने एक सवाल भी उठाया, अगर नक्सलवाद की बढ़ती वारदात के बाद केंद्र अनुच्छेद 355 के तहत एडवाइजरी जारी कर दे और कार्रवाई के लिए अपनी ओर से कोई कदम उठाए। तो क्या विपक्ष स्वागत करेगा? तब तो विपक्ष हो या मीडिया, आलोचना पर उतर आएंगे। ऐसे में नक्सलवाद को और शह मिल जाएगी। सो बेहतर यही, संविधान के तहत केंद्र-राज्य अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाएं। अब कांग्रेस की यह दलील, तो क्या चिदंबरम को संविधान की समझ नहीं? चिदंबरम ने ही तो एलान किया था, तीन साल में नक्सलवाद का सफाया कर देंगे। पिछले महीने छह अप्रैल को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए। तो चिदंबरम ने गृहयुद्ध बता मुंहतोड़ जवाब का खम ठोका था। पर जबसे दिग्विजय ने लेख लिखा। सोनिया ने कांग्रेसजन के नाम संदेश दिया। चिदंबरम सचमुच असहाय हो गए। सो चिदंबरम ने साफ कह दिया- सामूहिक बुद्धिमता निजी फैसले से हमेशा बेहतर होती। सचमुच चिदंबरम हवाई हमले की राज्यों की मांग से सहमत। पर अपने ही राजी नहीं। सो अपनी मजबूरी का इजहार किया। तो अलग-थलग पड़ गए। पर सिर्फ नक्सलवाद ही राजनीति का शिकार नहीं। अफजल गुरु की फाइल पर शीला और केंद्र में नूरा-कुश्ती। अब कांग्रेस की दलील, सीधे अफजल को फांसी दी। तो गलत मैसेज जाएगा। सो पहले शुरुआत की दो-चार फाइल निपटाएंगे। फिर माहौल बना अफजल को लटकाएंगे। क्या किसी आतंकवादी, वह भी लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद पर हमले के मास्टर माइंड को फांसी की सजा देने से कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी? यही दलील देकर तब जम्मू-कश्मीर के सीएम गुलाम नबी आजाद ने अफजल की फांसी रुकवाई थी। अब सीएम उमर अब्दुल्ला दबाव बना रहे। सचमुच यह कैसी व्यवस्था। जहां अफजल को सजा सुनाने में नीचे से ऊपर तक सभी अदालतों को मिलाकर कुल 31 महीने लगे। शीला ने दो लाइन की ओपिनियन देने में 43 महीने लगा दिए। पर अड़चनें अभी खत्म नहीं। सो नक्सलवाद हो या आतंकवाद, राजनीति की बहस अनंता।
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19/05/2010