Tuesday, December 22, 2009

चारों तरफ पंगे ही पंगे, फिर भी हर-हर गंगे

इंडिया गेट से
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चारों तरफ पंगे ही पंगे,
फिर भी हर-हर गंगे
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 संतोष कुमार
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           संसद का शीत सत्र मंगल को विधिवत खत्म हो गया। पर लिब्राहन रपट हो या महंगाई की बहस। तेलंगाना हो या ग्लोबल वार्मिंग। बहस का कोई निचोड़ नहीं निकला। अलबत्ता सरकार ने जो चाहा, वही हुआ। पर विपक्ष इसी में खुश, संसद में जनहित के खूब मुद्दे उठाए। अब सत्र उठ गया, तो राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने संसदीय जिम्मेदारी का मुद्दा उठाया। करीब महीने भर के सत्र में अपने पीएम तीन विदेश दौरे कर आए। सो जेतली इसे गलत परंपरा बता रहे। बोले- 'सत्र के दौरान पीएम के विदेश दौरे से संसद के प्रति सरकार की जिम्मेदारी का स्तर घटता जा रहा है। सो भविष्य के लिए संज्ञान ले सरकार।'  यों पीएम का संसद सत्र के वक्त विदेश जाना कोई नई बात नहीं। अगर पीएम देश में भी हों। तो भी सदन में आने की परंपरा कम ही रही। इंदिरा गांधी जब पीएम थीं। तब भी ऐसा ही माहौल था। सो तब अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कहा, आज भी सभी प्रधानमंत्रियों पर मौजूं। वाजपेयी ने कहा था- 'पंडित जवाहरलाल नेहरू संसद से सिर्फ तब बाहर रहते थे, जब उनके पास कोई चारा नहीं होता था। पर इंदिरा गांधी सिर्फ तब संसद आया करतीं, जब उसे टालना संभव नहीं होता था।'  यही सवाल पी.वी. नरसिंह राव के काल में भी उठा। तब तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कबूला, नेहरू के बाद परंपरा बदल गई। शुक्ल ने कहा था- 'जवाहर लाल नेहरू के बाद हर प्रधानमंत्री ने सिर्फ आवश्यक महसूस होने पर ही संसद में आना उचित समझा। सो आप नरसिंह राव पर संसद को अधिक समय न देने का आरोप नहीं लगा सकते।'  अब संसदीय कार्य मंत्री ऐसी दलीलें दें, तो काहे की संसद। और काहे की जिम्मेदारी। पर मनमोहन के हालिया विदेश दौरे को ही देखें। तो कुछ ऐसा हासिल नहीं हुआ। जिसकी खातिर संसद को नजरअंदाज किया। अलबत्ता जैसे न्यूक्लीयर डील और शर्म-अल-शेख के साझा बयान में चूक हुई। अब कोपेनहेगन में क्लाइमेट चेंज पर अमेरिका के जाल में फंस गए। भले क्योटो प्रोटोकॉल रद्द नहीं करा पाए विकसित देश। पर विकासशील देशों को फंसा लिया। विकसित देश अपने यहां कार्बन में कितनी कटौती करेंगे। इसका खुलासा जनवरी के आखिर तक होगा। बाकायदा विकासशील देश पीकिंग एयर को भी राजी हो गए। यानी जैसे न्यूक्लीयर डील पर भारत ने मॉनीटरिंग की छूट दे दी। अब कोपेनहेगन के बाद भारत को दो साल पर रपट देनी होगी। वह भी तय गाइड लाइंस के तहत। जिस पर विकसित देश सलाह-मशविरा और विश£ेषण करेंगे। यानी कार्बन कटौती में खर्च करेगा भारत। मॉनीटरिंग करेगा अमेरिका। सो अरुण जेतली ने मौजूं टिप्पणी की। मनमोहन का नाम नहीं लिया। पर बोले- 'सरकार का मौजूदा नेतृत्व अमेरिकी अध्यापक के सामने सबसे अच्छा स्टूडेंट बनने की कोशिश में। सो भारत दुनिया के जाल में फंस रहा।'  तभी तो बराक ओबामा के सरकारी अधिकारी एक्सल रॉड ने हकीकत बता दी। कह दिया, अब भारत हमारी पकड़ में आ गया। यानी खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। पर लगातार चुनावी जीत से गदगद कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ रहा। अब बुधवार को झारखंड के चुनाव नतीजों की बारी। सो ऊंट किस करबट बैठा, यह ईवीएम ही बताएगा। पर दावा दोनों कर रहे। कांग्रेस जीती, तो पांव जमीं पर नहीं टिकेंगे। अगर बीजेपी जीती, तो समझो संजीवनी मिल गई। विदा ले चुके राजनाथ को क्रेडिट मिलेगा। गडकरी के कदम शुभ कहलाएंगे। अगर नतीजा उलटा हुआ, तो श्रेय भी उलटा ही मिलेगा। पर नितिन गडकरी को झटके मिलने शुरू हो गए। बुधवार को राजस्थान से वसुंधरा ब्रिगेड दिल्ली धमकेगा। तो संगठन चुनाव पर रोक की मांग होगी। पर शनिवार को इस बाबत वेंकैया और गडकरी की बात हो चुकी। तो गडकरी चुनाव रोकने के पक्ष में नहीं बताए जा रहे। पर बवाल बढ़ चुका। सो बुधवार को राजस्थान बीजेपी का झगड़ा कहीं गडकरी के लिए वाटरलू साबित न हो जाए। वसुंधरा-माथुर-रामदास का त्रिगुट तो रण के मूड में। अगर बुधवार को राजस्थान का झगड़ा न सुलझा। तो राज्य में बीजेपी का कहीं उड़ीसा जैसा हाल न हो जाए। उड़ीसा में जबसे नवीन पटनायक से बीजेपी का रिश्ता टूटा। बीजेपी बिखरती जा रही। राज्य से बीजेपी के छह सांसद हुआ करते थे। पर अबके सौ बट्टïे सन्नाटा। एक भी सांसद जीतकर नहीं आ सका। विधायकों की गिनती भी तीस से छह पर सिमट गई। अब खरबला स्वेन ने भी बीजेपी छोड़ दी। तो उड़ीसा बीजेपी में भूचाल आ गया। हाईकमान ने फौरन मुख्तार अब्बास नकवी को उड़ीसा भेजा। ताकि कोई और पार्टी न छोड़े। पर खरबला का बीजेपी छोडऩा कोई आम बात नहीं। खरबला जब पिछली लोकसभा में सांसद थे। तो अपनी योग्यता और नॉलेज से स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की नाक में दम कर रखा था। आज के जमाने में जब सांसद खुद को भगवान से कम नहीं समझते। खरबला हर विषय में पूरी तैयारी करते थे। कुल मिलाकर बीजेपी के बड़े इंटलेक्चुअल में शुमार होते थे खरबला। यानी भले बीजेपी में चेहरे बदल गए। पर चाल, चरित्र रंचमात्र नहीं बदला। वही अनुशासनहीनता। वही बगावत। वही बौद्धिक लोगों का बीजेपी से पलायन। वही श्रेष्ठïता की लड़ाई। वही बीजेपी का झंडा, जिसमें संघ का डंडा। और नेताओं का अपना-अपना एजंडा। अब चारों तरफ बीजेपी में पंगे ही पंगे दिख रहे। फिर भी गडकरी हर-हर गंगे कह रहे।
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22/10/2009