Friday, February 11, 2011

‘अर्थशास्त्र’ को क्यों चुभ रही ‘नैतिकता’?

हर घोटाले की तरह अब एस-बैंड घोटाले को भी झुठलाने की कोशिश हो रही। टू-जी स्पेक्ट्रम में कांग्रेस और पीएम ने शुरुआत में राजा को खूब बचाया। पर सीएजी ने बाजा बजाया, तो अब वही राजा जेल की हवा खा रहे। फिर कॉमनवेल्थ घोटाले में संसद से सडक़ तक जमकर लीपापोती की। पर कैसे धीरे-धीरे परतें उधड़ीं, कलमाड़ी एंड कंपनी के लोगबाग शिकंजे में आए। अब शुक्रवार को कलमाड़ी के ओएसडी शेखर देव गिरफ्तार कर लिए गए। अब ओएसडी अपने आका के हुक्म को बिना कोई काम तो करेगा नहीं। सो सवाल- जब पीए या ओएसडी गिरफ्तार हुआ, तो आका कलमाड़ी क्यों नहीं? अब इसरो से जुड़े घोटाले का खुलासा हुआ। सीधे पीएम तक आंच पहुंची। तो पहले पीएमओ ने कोई डील न होने की सफाई दी। फिर लीगल ओपीनियन के बाद बी.के. चतुर्वेदी की रहनुमाई में कमीशन बना दिया। अब शुक्रवार को संचार मंत्री कपिल सिब्बल बचाव में उतरे। बोले- जब इसरो का देवास के साथ कांट्रेक्ट लागू ही नहीं हुआ। तो स्पेक्ट्रम आवंटन का सवाल कहां से उठता? पर देवास मल्टीमीडिया ने तो शिकंजा कस दिया। देवास ने कहा- करार रद्द नहीं किया जा सकता। गुरुवार को ही कंपनी के अध्यक्ष रामचंद्रन विश्वनाथन ने कहा- उनकी कंपनी ने इस आवंटन को हासिल करने के लिए सभी योग्यता पूरी कीं और सरकार से सभी मंजूरी ली हैं। फरवरी 2006 में केबिनेट और अंतरिक्ष विभाग ने उसकी पुष्टि की थी। ऐसे में इस करार से कोई पक्ष अब पीछे नहीं हट सकता। हम स्पेक्ट्रम मिलने का इंतजार कर रहे हैं, जिसमें पहले ही दो साल की देर हो चुकी है। यानी अब सिब्बल चाहे जितनी सफाई दें या शब्दों का जाल बुनें। पर कंपनी ने दो-टूक कह दिया- स्पेक्ट्रम देना होगा। वरना कानूनी कार्रवाई होगी। अगर करार तोड़ा गया, तो सरकार को हर्जाना भी भरना पड़ेगा। अब कंपनी पुचकारने से मान गई, तो ठीक। वरना सरकार फिर सांसत में होगी। सो कपिल सिब्बल के खिलाफ अरुण शौरी ने मोर्चा खोला। टू-जी घोटाले पर जस्टिस पाटिल कमेटी की रपट खारिज कर दी। सिब्बल पर राजा को बचाने का आरोप मढ़ा। शौरी ने टू-जी घोटाले में पीएम की चुप्पी पर भी सवाल उठाए। पर कांग्रेस शौरी की दलील को बौखलाहट बता रही। यों बौखलाहट किस खेमे में, यह तो कांग्रेसी बेहतर जानते। तभी तो गाहे-ब-गाहे पीएम और कांग्रेसी नेता सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता पर सवाल उठा रहे। सो शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिर तल्खी दिखाई। सुनवाई तो अमर सिंह फोन टेपिंग मामले की हो रही थी। पर पीएम के बयान से खफा सुप्रीम कोर्ट ने कहा- कोई भी सरकार मजबूत न्यायपालिका नहीं चाहती। न्यायपालिका के लिए आवंटित बजट को ही देखिए, जो जीडीपी के एक फीसदी से भी कम है। कोर्ट ने निचली अदालतों में मामला लटके रहने पर चिंता जताई। पर कहा- देश में अदालतों और मैन पॉवर की कमी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सोलह आने सही। सरकार में कोई भी हो, सब-कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहता। संसद को तो सत्ताधारी अपनी बपौती बना ही चुके। जुडिशियरी को गिरफ्त में लेने की अंदरखाने खूब बिसातें बिछतीं। भले मनमोहन जुडिशियरी को दायरे में रहने की नसीहत दें। कार्यपालिका-विधायिका के काम-काज में दखलंदाजी पर एतराज जताएं। पर इतिहास साक्षी- नेताओं ने कैसे जुडिशियरी को प्रभावित करने की कोशिश की। संविधान लागू होने के बाद से 1972 तक परंपरा रही रिटायर होने वाले चीफ जस्टिस की सलाह से दूसरे वरिष्ठ जज को चीफ जस्टिस बनाने की। यों 1964 में स्वास्थ्य कारणों से जफर इमाम को वरिष्ठता के बावजूद चीफ जस्टिस नहीं बनाया गया। पर 1973 में जब चीफ जस्टिस सीकरी रिटायर हुए। तो जस्टिस शेलट, हेगड़े और ग्रोवर की वरिष्ठता लांघ अजीत नाथ रे को बना दिया गया। तब सीकरी ने कहा था- यह सरकारी निर्णय राजनीतिक था। जस्टिस छागला ने इसे न्यायिक इतिहास का सर्वाधिक अंधेरा दिन करार दिया। तब विधि के जानकार पालकीवाला ने कहा था- अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि राजनीति में न्याय के तत्वों का प्रवेश उचित, पर न्याय में राजनीति का प्रवेश विनाशकारी। इस नियुक्ति के विरोध में शेलट, हेगड़े और ग्रोवर ने इस्तीफा दे दिया था। यही प्रक्रिया जनवरी 1977 में भी दोहराई गई, जब जस्टिस रे रिटायर हुए, तो एच.आर. खन्ना का नंबर था। पर जस्टिस मिर्जा हमीदुल्ला बेग चीफ जस्टिस बनाए गए। सो खन्ना ने इस्तीफा दे दिया। अब मनमोहन से सवाल- क्या इंदिरा राज के ये दो उदाहरण जुडिशियरी में दखल नहीं थे? भ्रष्टाचार अपने चरम पर। फिर भी कोई कठोर संदेश देने के बजाए जुडिशियरी पर खीझ उतरना नकारापन नहीं, तो और क्या। कोर्ट ने सड़ते अनाज को मुफ्त बांटने की सलाह दी थी। तो पीएम ने नीतिगत मामलों में दखल बताया था। पर पीएम ने अभी तक देश को यह नहीं बताया, सड़ते अनाज, गरीबों की योजना में हो रहे भ्रष्टाचार, महंगाई, असुरक्षा, भूख को लेकर सरकार की क्या नीति? अर्थशास्त्री मनमोहन आखिर संतुलन क्यों नहीं बना पा रहे? सचमुच जब भी नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच झगड़ा हुआ। जीत हमेशा अर्थशास्त्र की हुई। स्वार्थ कभी भी खुद को पीछे नहीं हटाता, जब तक कि उसे मजबूर करने के लिए कोई और बड़ी ताकत मौजूद न हो। सो अर्थशास्त्री मनमोहन के राज में धूल फांक रही नैतिकता। सवाल- भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की कोर्ट की नैतिक टिप्पणी सरकार को क्यों चुभ रही?
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11/02/2011