Sunday, December 19, 2010

महाधिवेशन में मंथन वोट बैंक का, मुद्दों का नहीं

तो कांग्रेसी महाचौपाल का पहला दिन निपट गया। राजधानी के बुराड़ी में तंबुओं का शहर बसाया। देश भर से करीब 15 हजार डेलीगेट्स पहुंचे। पर भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसी चुनौतियां महज राजनीतिक हथकंडा बनकर रह गईं। सोनिया गांधी ने संसद सत्र के आखिरी दिन विपक्ष को ललकारा था। तो भ्रष्टाचार के मामले में शशि थरूर समेत कांग्रेसी नेताओं पर हुई कार्रवाई का जिक्र किया। सो खफा थरूर ने सोनिया को चिट्ठी लिख दी- भ्रष्टाचारियों की सूची में मेरा नाम न गिनाएं। अब थरूर की चिट्ठी या कोई और बात, सोनिया ने महाधिवेशन में किसी का नाम नहीं लिया। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जितना गरजीं, उससे अधिक बीजेपी पर भडक़ीं। भ्रष्टाचार के लगातार खुलासों ने कांग्रेस को सचमुच शरशैय्या पर पहुंचा दिया। पर इतवार को सोनिया ने न सिर्फ कांग्रेस को उठाने की कोशिश की। अलबत्ता विपक्ष के खिलाफ आक्रामक तेवर अपना लिए। भ्रष्टाचार को बीमारी बता जड़ से खात्मे का इरादा जताया। कलमाड़ी, चव्हाण जैसों पर कार्रवाई का हवाला दे बीजेपी से पूछ लिया- क्या उसके पास ऐसा दावा करने की हिम्मत है? सोनिया ने न सिर्फ कर्नाटक, बीजेपी शासित राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। संसद में जेपीसी की मांग पर हंगामे को बंधक बनाने की हरकत बताया। पर सत्ता में बैठे नुमाइंदों का मन कब मचल जाए, ठिकाना नहीं। सो सोनिया ने अपने सभी सीएम को सलाह दी- जमीन आवंटन के विशेषाधिकार की समीक्षा करिए। अब कौनसा सीएम अमल करेगा, यह बाद की बात। सार्वजनिक मंच से ऐसी जुबानी अपील बहुतेरे करते। पर संगठन चलाना खालाजी का घर नहीं। परदे के पीछे बहुत से ऐसे काम करने पड़ते, जो नैतिक मूल्यों की ऐसी-तैसी करते हों। अब अमल की ही बात, तो महाधिवेशन में सोनिया-राहुल ने कार्यकर्ताओं की शिकायत सामने रखी। मां-बेटे दोनों ने केबिनेट मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों को नसीहत दी- थोड़ा वक्त वर्करों को भी दें। राहुल-सोनिया ने कबूला- लंबे समय से वर्करों की उपेक्षा की शिकायत पर सत्ता में बैठे नेता नहीं समझ रहे। सो सोनिया ने दो-टूक नसीहत दी- सत्ता सुख भोग रहे नेता जमीन पर पांव रख मैला नहीं होने देंगे। तो वह दिन दूर नहीं, जब उनके पांव जमीन पर रखने लायक ही नहीं रहेंगे। सोनिया ने बात तो वर्करों के दिल की कही। पर पीएम की जमकर तारीफ की। अब पीएम अच्छे और बाकी मंत्री नासमझ, तो यह फार्मूला अपनी समझ से परे। यों सचमुच वर्करों की उपेक्षा का दर्द जानना हो, तो किसी बीजेपी नेता से पूछ लो। जब एनडीए राज था, तो वाजपेयी ने मंत्रियों को हफ्ते में एक बार पार्टी दफ्तर में बैठने की सलाह दी। पर वर्करों की अपेक्षा का कोलाहल सुन फाइव स्टार कल्चर मंत्रियों के कान बहरे हो गए। फिर नतीजा क्या हुआ, दोहराने की जरूरत नहीं। सो सोनिया-राहुल ने साफ संदेश दिया- अगर मंत्रालयों में बैठ मौज कर रहे, तो उसके पीछे वर्कर का हाथ। पर अमल कितना होगा, खुद कांग्रेस को भी मालूम नहीं। फिर भी सोनिया-राहुल की पुचकार से कांग्रेसी वर्कर तो फूल गए। सो विपक्ष के खिलाफ महाधिवेशन के मंच से सबने हुंकार भरी। सोनिया ने संयत भाषा में ही सही, पर निशाना संघ को बनाया। सांप्रदायिकता की परिभाषा बता, उन संस्थाओं पर कार्रवाई की बात की, जो धर्म की आड़ में लोगों को उकसा रहीं। पर बवाल न हो, तो उन ने जोड़ा- चाहे बहुसंख्यक का कट्टरपंथ हो या अल्पसंख्यक का, कांग्रेस फर्क नहीं करती। पर जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कमान संभाली। तो उन ने साबित कर दिया, अब तक के सारे विवादास्पद बयानों में सोनिया-राहुल का वरदहस्त मिला होगा। वरना खुद को राष्ट्रवादी और समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधि कहने वाली कांग्रेस के इस मंच से दिग्विजय संघ को हिटलर की नाजी पार्टी न बताते। उन ने सीधा आरोप लगाया- जैसे हिटलर ने यहूदियों को निशाना बनाया, संघ मुसलमानों को बना रहा। क्या यह सांप्रदायिकता भरा बयान नहीं? अगर संघ सचमुच ऐसी गतिविधि में संलिप्त, तो सत्ता में बैठी कांग्रेस प्रतिबंध लगाने के बजाए गाल क्यों बजा रही। दिग्विजय ने कांग्रेसियों को संघ के खिलाफ डंडा उठाने की अपील की। तो क्या इसे संवैधानिक कहेंगे? यानी महाधिवेशन के पहले दिन कांग्रेस के मंच से वह सब हुआ, जिसे सोनिया मना कर रही थीं। उन ने सादगी और संयम की बात की। तो कुछ देर बाद ही बिहार कांग्रेस के वर्करों ने मुकुल वासनिक के खिलाफ मोर्चा खोल अफरा-तफरी मचा दी। सोनिया ने गठबंधन में एकता की बात की। तो दीपा दासमुंशी ने तृणमूल कांग्रेस पर हमला बोला। पर सवाल, कांग्रेस की इस पूरी कवायद का अहम एजंडा क्या? पहले दिन ही यह साफ हो गया, संकटों से घिरी कांग्रेस ध्रुवीकरण की दिशा में बढ़ चुकी। कांग्रेस एकमुश्त मुस्लिम वोट बैंक अपनी झोली में वापस लाना चाह रही। सो दिग्विजय की जुबान दस जनपथ की स्क्रिप्ट पढ़ रही। पर कोई पूछे, महाधिवेशन से जनता के लिए क्या संदेश? सोनिया ने महंगाई की बात की। तो संयोग देखिए, दिल्ली में दूध के दाम इतवार से ही बढ़ गए। महंगाई पर वही छह साल से चल रही दलील। न किसान की बात, न गरीब की, न आम आदमी की। राहुल गांधी ने अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने की बात कही। पर आजादी के 63 साल में नहीं पहुंचे, तो कब पहुंचेंगे? कांग्रेस ने अपने 125 साल को सेवा और समर्पण से जोड़ा। पर इसमें से आजादी के पहले के 62 साल निकाल दो, तो 63 साल से कैसी सेवा हो रही देश की?
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19/12/2010