Monday, October 11, 2010

‘तुम करो तो लीला, हम करें तो करेक्टर ढीला’

तो हंसराज भारद्वाज भी ‘मिशनरी गवर्नर क्लब’ के मेंबर हो गए। राजनीतिक मिशन में सफल गवर्नरों की लिस्ट में कई नाम। कर्नाटक में ही बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर गवर्नर वेंकट सुबैया, आंध्र में एनटीआर को हटा रामलाल, यूपी में कल्याण हटा व जगदंबिका को शपथ दिला रोमेश भंडारी, गोवा में परिक्कर सरकार को बर्खास्त कर एससी जमीर, झारखंड में मुंडा को रोक सैयद सिब्ते रजी, बिहार में नीतिश को रोक गवर्नर बूटा सिंह इतिहास रच चुके। यों मिशनरी गवर्नर क्लब में शामिल होने की कोशिश करने वाले बहुतेरे। पर संविधान का मखौल उड़ाने में सभी कामयाब नहीं। अपने हंसराज भारद्वाज अभी क्लब की मेंबरी से एक कदम दूर। अगर केबिनेट ने कर्नाटक की येदुरप्पा सरकार बर्खास्त करने की सिफारिश मान ली। तो समझो, काम हो गया। गवर्नर हंसराज कर्नाटक की बीजेपी सरकार को विदा करने की कोशिश पहले भी कर चुके। पर उम्दा मौका अब मिला, जब बीजेपी आदतन अंतर्कलह की शिकार। बीजेपी के डेढ़ दर्जन बागी और पांच निर्दलीय एमएलए ने समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंप दी। तो गवर्नर ने येदुरप्पा को बहुमत साबित करने को कहा। सो सोमवार को येदुरप्पा ने विश्वास मत तो जीत लिया। पर तरीका वही, जो सत्ता में बने रहने को अपनाया जाता। बहुमत नहीं, तो बागियों को स्पीकर के जरिए वोट से वंचित कर दो। फिर मौजूदा संख्या बल में अपना बहुमत दिखा दो। कर्नाटक विधानसभा के स्पीकर केजी बोपैया ने दल-बदल कानून के तहत बीजेपी के 11 बागी और पांचों निर्दलीयों को अयोग्य करार दे दिया। सो विधानसभा में जो ड्रामा हुआ, उसे लोकतंत्र तो कतई नहीं कहेंगे। विपक्षी कांग्रेस-जेडीएस की शह पर बागियों ने सदन में कुर्ता-बनियान फाड़ डांस किया। हंगामे के बीच ही येदुरप्पा को स्पीकर ने ध्वनिमत से विश्वास मत दिला दिया। सो हंगामा और बरपा। विपक्ष गवर्नर हंसराज तक पहुंचा। तो गवर्नर ने भी अपनी रपट भेजने में देर नहीं लगाई। अयोग्य करार दिए गए पांचों निर्दलीय एमएलए हाईकोर्ट पहुंच गए। सो अब केंद्र सरकार की नजर हाईकोर्ट पर टिकी हुई। मंगलवार को केबिनेट कमेटी गवर्नर की सिफारिश पर फैसला करेगी। सो बीजेपी को डर, दक्षिण का कमल कुम्हला न जाए। नितिन गडकरी ने तडक़े ही चेतावनी दे दी, राष्ट्रपति राज लगाने की हिमाकत न करे केंद्र। पर कर्नाटक में कर-नाटक सभी एक जैसे ही पात्र। सुषमा स्वराज ने इतवार को ही राष्ट्रपति से गवर्नर हंसराज को वापस बुलाने की मांग कर दी थी। यानी विधानसभा और राजभवन में जो हुआ, सब कुछ पहले से तय था। गवर्नरी का खेल तो कांग्रेस हमेशा करती आई। जब मनमोहन पीएम और शिवराज पाटिल एचएम बने। तो चार गवर्नर यह कहकर हटाए गए थे कि इनकी पृष्ठभूमि संघ की है। फिर कांग्रेस राज में जो बने, उन ने कांग्रेसी मापदंड पर खरे उतरने की पूरी कोशिश की। गोवा में गवर्नर एससी जमीर ने पहले बीजेपी की सरकार हटाई। फिर लगातार कांग्रेस की सरकार बचाते आ रहे। परिकर सरकार दो फरवरी 2005 को बर्खास्त हुई। पर ड्रामा देखिए। बीजेपी के तीन एमएलए बागी हो गए थे। तबके स्पीकर विश्वास सतारकर ने तीनों को वोटिंग से रोका। परिकर ने विश्वास मत के लिए तीन फरवरी की तारीख तय की। तो गवर्नर जमीर ने चौबीस घंटे यानी दो फरवरी को ही बहुमत साबित करने का फरमान सुनाया। हंगामे में परिकर ने विश्वास मत जीत लिया। पर महज 25 मिनट के भीतर जमीर ने बीजेपी की सरकार बर्खास्त कर दी। देर रात कांग्रेसी प्रताप सिंह राणे को शपथ दिला बहुमत के लिए तीस दिन का समय दे दिया। सो गवर्नर का ‘जमीर’ इसी से दिख गया। फिर 2007 में बीजेपी ने कांग्रेस की दिगंबर कामथ सरकार के खिलाफ वही काम किया। कुछ विधायक तोड़े, राष्ट्रपति के सामने परेड कराई। पर स्पीकर राणे ने बागी विधायक को वोट से वंचित कर दिया। फिर बीजेपी के एमएलए गवर्नर जमीर के पास गए। तो कार्रवाई नहीं, सिर्फ विचार का भरोसा मिला। यों गोवा उठापटक की फैक्ट्री। जो भी दल सत्ता में होता, पॉवर के बेजा इस्तेमाल से परहेज नहीं। स्पीकर तो सिर्फ नाममात्र के संवैधानिक पद पर। सचमुच में ऐसे विरले ही स्पीकर, जो दलगत भावना से परे रहे। यों एक नजीर झारखंड की। अगर तबके स्पीकर इंदर सिंह नामधारी ने पद का बेजा इस्तेमाल किया होता, तो अर्जुन मुंडा की पिछली सरकार नहीं गिरती। और ना ही मधु कोड़ा जैसे भ्रष्ट सीएम बन पाते। पर उन ने आसंदी के दामन और अपनी पगड़ी पर दाग नहीं लगने दिया। अब कोड़ा को सीएम बनाने वाली कांग्रेस का बयान देखिए। मनीष तिवारी बोले- आजाद भारत में ऐसी गुंडागर्दी की कोई मिसाल नहीं होगी, जो बीजेपी ने कर्नाटक में किया। पर कोई पूछे, सदन में हंगामा करने वाले विधायकों को किस नजरिए से जनता का सेवक माना जाए? अगर बीजेपी के 11 विधायकों को येदुरप्पा पर एतबार नहीं। तो इस्तीफा देकर चुनाव क्यों नहीं लड़ लिया? लोकतंत्र में संख्या बल का महत्व। अब 117 में से 11 एमएलए अपनी मर्जी से तो सरकार नहीं चलवा सकते। पर विपक्ष ने शह दिया, तो बनियान फाडऩे लगे। सो कौन कह सकता, बागी बिके हुए नहीं थे। लोकतंत्र में अब पैसे का ही बोलबाला। करोड़ों रुपए देख किसी का भी मन डोल जाए। खरीद-फरोख्त के खेल में ईमानदार कोई भी नहीं। फर्क सिर्फ कुर्सी के मुंह का। सत्ता में बैठने वाला अपने हर काम को जायज ठहराता। पर जब वही विपक्ष में जाता, तो वही काम लोकतंत्र की हत्या और बलात्कार कहलाने लगते। यानी फर्क सिर्फ कुर्सी का, पर कहावत दोनों के लिए एक- ‘तुम करो तो लीला, हम करें तो करेक्टर ढीला।’
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11/10/2010