Friday, September 24, 2010

गिल की उड़ी गिल्ली, तो जयपाल हुए ‘रेड्डी’

पंचों की राय सिर-माथे, पर पतनाला वहीं रहेगा। अयोध्या पर फैसला टलना अब दोनों पक्षों को साजिश लग रहा। सो शुक्रवार को बीजेपी-विहिप ने चुप्पी तोड़ दी। विहिप ने फैसले के सम्मान की बात तो की। पर साधु-संतों की अहम बैठक के बाद एलान हो गया। विवादित स्थल पर जैसे भी हो, सिर्फ मंदिर बनेगा। साथ में चेतावनी भी, अगर मंदिर के हक में फैसला नहीं आया। तो देश में जबर्दस्त विरोध होगा। अब देखिए, एक तरफ विहिप फैसला सुनाने की मांग कर रहा। तो दूसरी तरफ फैसला मंदिर के हक में ही चाहिए। कोई और फैसला मंजूर नहीं होगा। साधु-संतों की मीटिंग के बाद अशोक सिंघल बोले- भगवान राम दुनिया की सभी अदालतों से ऊपर। सो हम तो राम का आदेश मानेंगे। अब आप खुद सोचकर देखिए, तो मालूम पड़ जाएगा। समझौते की लाख कोशिशों के बाद भी समझौता क्यों नहीं हो पाया। सचमुच समझौते की मेज पर कोई भी पक्ष खुले मन से नहीं बैठा। अब विहिप को यह भी डर, कहीं ऐसा न हो, हाईकोर्ट जमीन का कुछ हिस्सा मंदिर वालों को दे, तो कुछ मस्जिद वालों को। सो साधु-संतों की बैठक में प्रस्ताव पारित कर कह दिया- हमें समूची 70 एकड़ जमीन चाहिए। परिसर का विभाजन और उसमें किसी दूसरे मजहब का पूजा स्थल नहीं बनेगा। पर बीजेपी अभी संयम बरते हुए। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया। तो शुक्रवार को बीजेपी कोर ग्रुप की मीटिंग हुई। आडवाणी हर साल की तरह सोमनाथ चले गए। पर बाकी वरिष्ठों ने दो लाइन की व्यापक अर्थ वाली टिप्पणी तैयार की। मीडिया से मुखातिब होने को सीधे अरुण जेतली भेजे गए। तो बोले- इकसठ साल से न्यायिक प्रक्रिया में जो देरी हुई, उससे अयोध्या में मंदिर निर्माण का विषय हल नहीं हो पाया। पर अब हम उम्मीद करते हैं कि और देरी नहीं होगी। मतलब, बीजेपी हो या विहिप, तेवर एक जैसे, सिर्फ भाषा अलग। बीजेपी-विहिप को अब लग रहा, केंद्र सरकार फैसला टलवाने के मूड में। रमेश चंद्र त्रिपाठी को भी दबी जुबान केंद्र का एजेंट बता रहे। सो बीजेपी-विहिप का बयान केंद्र को इशारा, अब संयम का और इम्तिहान न लो। पर सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की। अयोध्या जैसे संवेदनशील मुद्दे से निपटना खालाजी का घर नहीं। सो जैसे वाजपेयी राज में समझौते के नाम पर छह साल तक वार्ता-वार्ता खेलते रहे। अब अयोध्या की ओखली में कांग्रेस का सिर। सो समझौते को तरजीह दे रही। तब तो बीजेपी ने सत्ता में बने रहने के लिए राम मंदिर समेत अपने कोर मुद्दे त्याग दिए थे। सनद रहे, सो बता दें। बीजेपी ने 28-30 दिसंबर 1999 को चेन्नई अधिवेशन में एक संकल्प पारित किया था। आडवाणी ने चेन्नई घोषणा पत्र जारी किया। बोले- ‘यही घोषणा पत्र अब बीजेपी की आगे की सोच। राम जन्मभूमि समेत सभी विवादित मुद्दों को दरकिनार कर एनडीए के एजंडे को निष्ठापूर्वक लागू करना है।’ बीजेपी ने चेन्नई घोषणा पत्र के प्रारूप में स्पष्टï तौर पर अपने कार्यकर्ताओं को बताया- ‘हर कार्यकर्ता को यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि एनडीए के एजंडे को छोडक़र पार्टी का अपना कोई एजंडा नहीं।’ सो मंदिर की राजनीति से सत्ता तक पहुंची बीजेपी सुलझा नहीं सकी। तो फिर मध्य मार्गी कांग्रेस से उम्मीद क्यों? आखिर कांग्रेस फैसले की आग में खुद का वोट बैंक क्यों झुलसाए? सो वोट की खातिर फैसला लटकाने की कोशिश पहले भी हुई। अब भी हो रही और शायद आगे भी होती रहेगी। देश में अयोध्या के सिवा भी कई अहम मुद्दे, जो सीधे जनता की जिंदगी से जुड़े। यूपीए सरकार की ताजा चुनौती कॉमनवेल्थ गेम्स ठीक से निपटाने की। ताकि देश की साख पर बट्टा न लगे। सचमुच गेम्स के आयोजकों ने अब तक देश की किरकिरी कराई। पर आखिरी वक्त में पूरी ताकत झोंक काम करीब-करीब निपटा लिया। शुक्रवार को केबिनेट में एमएस गिल कुछ प्रजेंटेशन देना चाह रहे थे। पर खफा पीएम ने गिल की गिल्ली उड़ा दी। तैयारियों से जुड़े जीओएम के मुखिया जयपाल रेड्डी को झिडक़ी लगा कह दिया- अब तो रेड्डी हो जाओ। भारत सरकार ने आखिर में कड़े कदम उठाए। तो अब तक ना-नुकर करने वाले खिलाड़ी दिल्ली पहुंचने शुरू हो गए। न्यूजीलैंड की टीम ने आने से इनकार किया था। पर शुक्रवार को न्यूजीलैंड के पीएम ने बयान दिया। अगर वह एथलीट होते, तो दिल्ली जरूर जाते। सो टीम ने आने का एलान कर दिया। इंग्लैंड की टीम पहुंची, पर अभी खेल गांव में नहीं, होटल में रुकी। इंग्लैंड का उपनिवेश खत्म हो चुका। पर मानसिकता अभी भी वही। विदेशी खिलाड़ी और नेता शायद भारत की आंतरिक मजबूती को भूल रहे। यह नहीं भूलना चाहिए, गर हमारे आयोजकों ने गलती की। तो भारत की मीडिया ने ही कान मरोड़ा। अब जरा आस्ट्रेलिया ओलंपिक संघ के अध्यक्ष की टिप्पणी देखिए। कह दिया- भारत को कॉमनवेल्थ की मेजबानी देनी ही नहीं चाहिए थी। पर आस्ट्रेलिया ने शायद आईना नहीं देखा। आयोजन में कमी थी या कुछ और, हमने ही अपनों की क्लास ली। जो अधिकारी काम नहीं कर रहे थे, उनके होश ठिकाने लाए। उस आस्ट्रेलिया की तरह नहीं, जहां नस्लभेद के नाम पर भारतीयों को निशाना बनाया गया। पर भारत उस आस्ट्रेलिया की तरह नहीं। तैयारी में कमी थी, तो हमीं ने माना, हमने ही मिलकर दुरुस्त किया। आस्ट्रेलिया की तरह नहीं, जिसने नस्लभेद की शिकायत मानी ही नहीं। अब कोई पूछे, जब भारतीयों पर हमले हो रहे थे। तब आस्ट्रेलिया की कानून-व्यवस्था कहां थी? सचमुच कुछ देश ऐसे, जो भारत की प्रगति को देखना पसंद नहीं करते। दुनिया में भारत तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनने जा रही। तो साम्राज्यवादी मानसिकता वाले देश पचा नहीं पा रहे।
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24/09/2010