Tuesday, April 6, 2010

राह भटके नक्सली, तो राजनीति भी कम नहीं

हमलों के बाद हरकत में आना और फिर राजनीति करना अपनी व्यवस्था की फितरत बन चुकी। नक्सलवाद अब नासूर बन चुका। राजनेता अपने शरीर का नासूर डॉक्टरी के इलाज से ठीक कर लेते। पर अपनी व्यवस्था के इस नासूर को खत्म करने का साहस नहीं। तभी तो नक्सलवादियों के हौंसले इतने बुलंद। मंगलवार की सुबह देश के लिए अमंगलकारी साबित हुआ। ऑपरेशन ग्रीन हंट में जुटे करीब 75 जवान शहीद हो गए। छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों ने छुप कर घात लगाया। तो अपने सुरक्षा बल संभल नहीं पाए। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने दो दिन पहले नक्सलियों को कायर कहा। तो बौखलाए नक्सलियों ने अपनी कायरता भी दिखा दी। पर सवाल, अगर हिंसा के जरिए ही नक्सली हक छीनने को आमादा। तो सामने आकर वार क्यों नहीं करते। अगर व्यवस्था की खामी से खफा हर कोई इसी तरह बंदूक उठा ले। तो फिर व्यवस्था कहां रह जाएगी? चारों तरफ अराजकता ही अराजकता का माहौल होगा। अगर वाकई व्यवस्था से लडऩा है, तो व्यवस्था में घुसना होगा। समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर ताकत दिखानी होगी। अगर बंदूक के जरिए व्यवस्था को झुकाया जाने लगा। तो क्या भरोसा, कल को माओवादी व्यवस्था में कोई बंदूक नहीं उठाएगा? पर असलियत तो यह, नक्सलवाद अपनी राह से भटक चुका। नक्सलबाड़ी से आंदोलन की शुरुआत करने वाले कानू सान्याल अंतिम दिनों में इसी भटकाव से आहत थे। अब मंगलवार को देश पर सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ। सीरआरपीएफ के 80 से ज्यादा जवान मौत के घाट उतार दिए गए। तो दिल्ली में नक्सल समर्थक जायज ठहराने को सडक़ों पर उतर आए। ऑपरेशन ग्रीन हंट को नाजायज ठहराया, पर सुरक्षा बलों की हत्या को जायज। अब ये समर्थक कोई और नहीं। कहीं कोई नक्सली या आतंकी सजा पा जाए। तो ये फौरन मानवाधिकार का राग अलापेंगे। क्या देश की मासूम जनता का कोई मानवाधिकार नहीं? क्या देश की सुरक्षा में अपना जीवन न्योछावर करने वाले जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं? आखिर कब तक सुरक्षा बल कुर्बानी देते रहेंगे? सुरक्षा बल भी इंसान हैं, उनका भी परिवार है। पर नक्सलियों को अपने निजी स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा। यों जैसी नक्सली मानसिकता, वैसी ही अपनी राजनीति भी। हर चीज को वोट के चश्मे से देखते हैं राजनीतिक दल। तभी तो वाजपेयी राज में नक्सलियों के खिलाफ शुरु हुआ युनीफाइड कमांड ऑपरेशन यूपीए की पहली पारी में पूरी तरह से ठप रहा। तबके होम मिनिस्टर नक्सलियों को अपना भाई बता समझाने का प्रवचन संसद में देते रहे। अबके चिदंबरम ने ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु किया, तो एक्शन से ज्यादा बयानबाजी करते दिखे। नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे अहम मुद्दे पर भी कभी राजनीतिक एकता नहीं दिखती। अलबत्ता सुविधा की राजनीति सबको मुफीद। झारखंड में शिबू-बीजेपी की सरकार नक्सलियों के प्रति नरमी दिखाती। तो बीजेपी जुबान सिल कर बैठ जाती। अब बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में हमले हुए। तो सरकार के हर एक्शन को ब्लैंक समर्थन का एलान कर दिया। यों राजीव प्रताप रूड़ी फिर भी राजनीति कर ही गए। कहा, चिदंबरम के तौर-तरीकों से सहमत नहीं। पर फिलहाल राजनीति नहीं करेंगे। अब आप इसे राजनीति नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे। सरकार में शामिल ममता बनर्जी तो ग्रीन हंट के खिलाफ ही थीं। ममता का मन रेल भवन में नहीं लग रहा। वह तो रेल भवन से सीधे रायटर्स बिल्डिंग के लिए रेलवे लाईन बिछा रहीं। सो उनकी नजर में ऑपरेशन ग्रीन हंट नहीं, अलबत्ता रेड हंट है। पर अब नक्सलियों ने तांडव मचाया, तो ममता सर्वदलीय मीटिंग की मांग कर रहीं। अब आप ही सोचो, सर्वदलीय मीटिंग में क्या होगा? क्या नेता नक्सलियों से लडऩे जाएंगे? नेताओं को तो सिर्फ वोट बैंक साधाना आता। बाकी देश और व्यवस्था जाए भाड़ में। तभी तो मंगलवार को 80 से ज्यादा सुरक्षा बल मारे गए। तो सरकार की ओर से वही घिसा-पिटा बयान आया। नक्सली मर्डरर हैं। मुंहतोड़ जवाब देंगे। सघन कार्रवाई करेंगे। नक्सलियों को बख्शा नहीं जाएगा। आदि....आदि......। अब ऐसे बयानों से कब तक जनता को ठगेंगे नेता? इससे पहले 2005 में दांतेवाड़ा में ही 30 जवानों को नक्सलियों ने उड़ा दिया था। फिर 2007 में बीजापुर में 55 जवान मारे गए। पिछले साल जुलाई में 29 पुलिस वाले मारे गए थे। नक्सलवादियों का दावा देश के 165 जिले उनके नियंत्रण में। सिर्फ 2006 का आंकड़ा बताता है, नक्सलवादियों ने 930 से ज्यादा हमले किए। इन हमलों में हजारों निर्दोष लोग मारे गए। जबकि 2002 में 1465, 2003 में 1597, 2004 में 1533 और 2005 में 1608 जगहों पर नक्सली हमले हुए। याद है, मार्च 2007 में झामुमो के सांसद सुनील महतो को नक्सलियों ने मंच पर चढक़र गोलियों से भून दिया था। अब फिर हर बार की तरह गृह मंत्रालय नक्सल प्रभावित राज्यों के पुलिस प्रमुखों की बैठक करेगा। पीएम भी मुख्यमंत्रियों के साथ शायद बात करें। हर बार की तरह तल्खी दिखेगी और फिर कैलेंडर का पन्ना बदलते ही सबकुछ बदल जाएगा। सो अब कोई क्या कहे, अगर नक्सली अपनी राह से भटक चुके। तो राजनीति भी संभली हुई नहीं।
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06/04/2010