Friday, February 12, 2010

तो सवाल, बीजेपी को जनता ने हराया या ईवीएम ने?

 संतोष कुमार
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       क्या वाकई अपना लोकतंत्र जोखिम में है? क्या दो टर्म से मनमोहन की सरकार सचमुच जनता ने नहीं चुनी? आप मानें या न मानें, पर देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी यही मान रही। भले शब्दों को घुमाफिरा कर सवाल उठा रही। पर निचोड़ यही- ईवीएम में बड़ा गड़बड़झाला। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ संभव बता बीजेपी वापस बैलट की पैरवी कर रही। अब आगे बढऩे से पहले थोड़ा विवाद की शुरुआत देख लीजिए। मौजूदा लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद सवाल उठे। दिल्ली के पूर्व चीफ सैक्रेट्री उमेश सहगल ने सुर्रा छोड़ा। तो बीजेपी ने फौरन कैच कर लिया। आडवाणी ने सवाल उठाए। तो यहीं पर हमने भी सवाल का स्वागत किया। तब चुनाव आयोग से यही उम्मीद भी जताई थी कि अगर विपक्ष को एतराज है। तो परीक्षण होने दे। ऐसा हुआ भी, चुनाव आयोग ने तीन दिन की खुली चुनौती दी। पर ईवीएम को झुठलाने वाला कोई शख्स नहीं पहुंचा। अभी 25 जनवरी को जब चुनाव आयोग ने अपनी हीरक जयंती मनाई। तो आडवाणी ने फिर सवाल उठाए। पर कहीं बहस शुरू नहीं हुई। सो अब बीजेपी वर्किंग कमेटी के मेंबर और मशहूर सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब लिख दी। किताब का नाम 'डैमोक्रेसी एट रिस्क!' रखा। जिसकी प्रस्तावना खुद आडवाणी ने लिखी। शुक्रवार को नितिन गडकरी ने लोकार्पण किया। तो मौके पर तीन-तीन विदेशी एक्सपर्ट ईवीएम झुठलाने को बुलाए गए थे। जर्मनी, नीदरलैंड और यूएसए के एक्सपर्टों का लब्बोलुवाब यही रहा। ईवीएम के साथ पेपर बैकअप भी हो। पर बीजेपी की असली पोल तो समारोह के अहम गैस्ट पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने खोलकर रख दी। उन ने बीजेपी की बैलट सिस्टम वाली मांग पर कुछ नहीं कहा। अलबत्ता बीजेपी को उम्दा सुझाव दे गए। अब बीजेपी कितना अमल करेगी, यह तो मालूम नहीं। पर शायद आप-हम कृष्णमूर्ति की राय से सहमत होंगे। उन ने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब यही- 'ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव होनी चाहिए। यह आरोप लगाना सही नहीं होगा कि कांग्रेस शासित राज्यों में ही ईवीएम का दुरुपयोग हो रहा। बीजेपी शासित राज्यों में भी दुरुपयोग संभव। सो बेहतर यही होगा, आरोप-प्रत्यारोप के बजाए ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव करने के लिए सभी पार्टियों की कमेटी बने और फिर व्यापक चर्चा हो।' पर बीजेपी नेता ने तो किताब में दुनिया भर से खूब तथ्य जुटाए। कैसे जर्मनी की फैडरल कोर्ट ने ईवीएम के इस्तेमाल को असंवैधानिक बताया। कैसे दुनिया भर के बड़े अखबारों में इस बाबत लेख छपे। यानी अब अदालती लड़ाई में बीजेपी के राव तमाम तथ्य परोसेंगे। पर सवाल, बीजेपी हो या सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव। अबके आखिर ऐसा क्या हो गया, जो ईवीएम पर एतबार नहीं। अपना मानना तो यही, यह वक्त का दोष। जब नरसिम्हा राव महज सैफोलॉजिस्ट थे। तो अरुण जेतली ने इन्हीं के आंकड़ों से कर्नाटक, बिहार आदि चुनावों में जीत की बिसात बिछाई थी। पर नागपुर अधिवेशन में जैसे ही उन्हें वर्किंग कमेटी मेंबर बनाया गया। उसके बाद के सारे अनुमान फेल होते गए। अब राव अपनी गलती तो स्वीकारेंगे नहीं। सो बेजुबान मशीन पर ही हमला बोल दिया। यही हाल बीजेपी का। याद है ना, 2004 में ऐसा फील गुड था। कांग्रेस तक को यही उम्मीद थी, एनडीए ही सत्ता में लौटेगा। बीजेपी में तो तब कई सूरमा नए सिरे से मंत्रालय का विभाग भी तय कर चुके थे। पर जब 13 मई 2004 को नतीजे आए। तो वही आसमान से गिरे, खजूर पर अटके वाली कहावत हो गई। पर तब ईवीएम में खोट नजर नहीं आया। आखिर आता भी कैसे। खुद एनडीए ने देश भर में ईवीएम को हरी झंडी दी। ईवीएम का प्रयोग 1982 में केरल की परुर विधानसभा के 50 बूथों पर हुआ। फिर 1989-90 में मध्य प्रदेश, राजस्थान की पांच-पांच और दिल्ली की छह सीटों में। पर 2002 से पूरे देश में अनिवार्य। तब मौजूदा सवाल उठाने वाले सत्तानशीं थे। अब बीजेपी में 2004 वाली स्थिति 2009 में भी रही। बीजेपी को लंगड़ी लोकसभा की उम्मीद थी। खुद सबसे बड़ी पार्टी बनने का अनुमान था। यूपीए के बिखराव को मनमोहन की विदाई माने बैठी थी। बीजेपी के रणनीतिकार आंध्र, तमिलनाडु और उड़ीसा की स्थानीय राजनीति का गुणा-भाग कर बहुमत का कागजी आंकड़ा बना चुके थे। पर पूरी ताकत लगाने के बाद भी सत्ता नसीब नहीं हुई। तो लोकतंत्र में कोई भी पार्टी सीधे जनता पर दोष कैसे मढ़े। सो नया टोटका निकला। जनता ने नहीं, ईवीएम ने हराया। यानी जनता का भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की। पर लगातार हार की झेंप मिटाने के लिए लोकतंत्र को जोखिम में बता रही। पर बीजेपी भूल गई, 2004 से 2009 के बीच सिवा आपसी खींचतान के पार्टी ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो जनता का भरोसा लौट सके। अगर ईवीएम का दुरुपयोग मान भी लें। तो फिर गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब जैसे राज्यों में बीजेपी-एनडीए कैसे जीती? गुजरात में मोदी की हैट्रिक क्या मशीनी छेड़छाड़ से हुई? बिहार में तो लालू-राबड़ी राज तब खत्म हुआ, जब लालू केंद्र में पॉवरफुल थे। तब लालू ने कपार्ट के महानिदेशक सप्तर्षि की चि_ïी आगे कर चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा किया था। पर बीजेपी ने आयोग का बचाव किया। अब बीजेपी हाथ पीछे से घुमाकर वही कान पकड़ रही, जो लालू ने पकड़ा था। बेहतर तो यही होता, बीजेपी फिर जनता का भरोसा हासिल करने में जुटती। ईवीएम से नुकसान होता, तो बीजेपी आंकड़ों में इतनी मजबूत विपक्ष न होती।
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12/02/2010