Friday, December 10, 2010

संसद से कानकुन तक नहीं बदली आबोहवा

अब सोमवार को संसद हमले की नौंवी बरसी पर न सिर्फ शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाएगी। अलबत्ता यह पहला मौका होगा, जब उसी दिन संसद के एक समूचे सत्र की भी श्रद्धांजलि हो जाएगी। सो अब तो दिनों की गिनती बेकार, क्योंकि यह शीत सत्र संसद के इतिहास में काला अध्याय बन चुका। पर लड़ाई अभी थमी नहीं। विपक्ष ने 22 दिसंबर से बजट सत्र तक देश भर में रैलियों से अलख जगाए रखने की रणनीति बना ली। दिल्ली में विपक्ष पहली रैली से अपनी ताकत दिखाएगा। सो अब कांग्रेस के साथ-साथ यूपीए के घटक दल 2014 से पहले ही मध्यावधि चुनाव की आशंका जताने लगे। यूपीए के धुरंधर दो-टूक कह रहे- यही हालात रहे, तो जेपीसी के बजाए हम चुनाव में जाना पसंद करेंगे। विपक्ष भी मौजूदा हालात में 2012 में मध्यावधि चुनाव मानकर चल रहा। भ्रष्टाचार पर पीएम की चुप्पी और कांग्रेस की जिद से विपक्ष को लग रहा, बोफोर्स दोहराएगा। सचमुच अब यह सवाल आम हो गया- जब कांग्रेस ईमानदार, तो जेपीसी जांच से परहेज क्यों? जब सीबीआई या सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज या विपक्ष की रहनुमाई वाली पीएसी से जांच को राजी। तो साधारण सा सवाल, जेपीसी न मानने की जिद क्यों? समूचे विपक्ष की आवाज दबाने को संसद सत्र की बलि क्यों? क्या संसद सिर्फ कठपुतली? जहां सिर्फ सत्ता पक्ष की ही चलेगी? लिखत-पढ़त में भले ऐसा न हो। पर सच्चाई यही, संसद को सत्ता पक्ष ने बपौती बना लिया। तभी तो अपने पीएम संसद में महीने भर से चल रहे गतिरोध के बावजूद विदेश यात्रा पर निकल चुके। सो संसद सत्र के वक्त पीएम के नदारद रहने पर एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी के ऊपर मौजूं टिप्पणी की थी। उनने कहा था- पंडित नेहरू संसद से सिर्फ तब बाहर रहते थे, जब उनके पास कोई चारा नहीं होता था। पर इंदिरा गांधी सिर्फ तब संसद आया करती थीं, जब उसे टालना संभव नहीं होता था। यों ऐसे आरोप मनमोहन के राजनीतिक गुरु नरसिंह राव पर भी लग चुके। पर तब तात्कालीन संसदीय कार्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दलील दी थी- नेहरू के बाद हर पीएम ने सिर्फ आवश्यकता महसूस होने पर ही संसद में आना उचित समझा। इसलिए आप नरसिंह राव पर संसद को अधिक समय न देने का आरोप नहीं लगा सकते। सो जब गुरु नरसिंह राव मौनी बाबा बन अल्पमत की सरकार चला चुके। तो चेले मनमोहन को क्या फिक्र। संसद की फिक्र होती, तो जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कानकुन में चल रही बैठक में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश देश का रुख नहीं बदलते। सात दिसंबर 2009 को राज्यसभा में जयराम ने भरोसा दिया था। किसी भी सूरत में कार्बन उत्सर्जन को लेकर कानूनी बाध्यता मंजूर नहीं करेंगे। पर कानकुन में जाकर रुख बदल दिया। पहले से तैयार सरकारी भाषण में संसद को दिए भरोसे वाला ही स्टैंड था। पर जयराम की चालाकी देखिए, बीच में अमेरिका को पसंद आने वाली बात कह दी। सभी देशों को कानूनी रुप में बाध्यता स्वीकार करने का सुर्रा छोड़ दिया। जयराम का अमेरिका प्रेम बताएंगे, पर सनद रहे, सो पहले इस बहस का इतिहास बता दें। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने विकास की अंधाधुंध होड़ में पर्यावरण को पलीता लगाया। औद्योगिक क्रांति कर दुनिया के दादा बन गए। पर कार्बन युक्त आबोहवा ने जिंदगी नरक बना दी। तो अब अमेरिका अपना कूृड़ा-करकट ढ़ोने का दबाव विकासशील देशों पर बना रहा। ग्रीन हाउस गैस बढ़ाने का अनुपात देखो। तो अमेरिका के मुकाबले भारत 18 गुना कम कार्बन छोड़ रहा। जहां अमेरिका में प्रति व्यक्ति 20 टन, वहां भारत में महज 1.5 टन का आंकड़ा। दो दशकों से भारत यही लड़ाई लड़ रहा- प्रदूषण पैदा करने वाला ही उसकी कीमत अदा करे। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च क्लाइमेट इनिसिएटिव की रपट देखो, तो साफ हो जाएगा। भारत में 76 फीसदी आबादी ऐसी जो महज दो डॉलर पर जीवन यापन कर रही। तो यूएस में रोजाना 13 डॉलर कमाने वाले बीपीएल में। यानी अमेरिका के हिसाब से देखें। तो अपनी 99 फीसदी आबादी गरीबी का शिकार। अगर ग्लोबल वार्मिंग पर दुनिया की दादागिरी के आगे नतमस्तक हो गए। तो देश की गरीबी कभी नहीं मिटेगी। ग्रीन हाउस गैस का स्टॉक ही देखो। तो दुनिया में कुल 75 फीसदी का स्टॉक। जिसमें एकला यूएस का 29 फीसदी और भारत का महज 2.3 फीसदी। अब अगर भारत जैसे देश अपना जीवन-स्तर बढ़ाएगा। तो ग्रीन हाउस गैस बढ़ेगा। साथ ही, मजबूत अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों को चुनौती। सो इस आड़ में यूएस की साजिश भी कम नहीं। तभी तो कोपेनहेगेन से कानकुन आते-आते ब्रिक्स यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका के गुट में सेंध लगा दी। भारत-चीन कानकुन में अलग-थलग पड़ते दिखे। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील विकसित देशों की गोद में जा बैठा। सो दबाव में जयराम ने बेड़ा गर्क कर दिया। पर बवाल मचा, तो सफाई देते फिर रहे। कह रहे, भारत अभी बाध्यकारी समझौते के लिए राजी नहीं। पर सभी देशों को कानूनी बाध्यकारी समझौता मानना चाहिए। भले जयराम जुबां से मजबूर, पर शायद दिल अमेरिका से लगा हुआ। तभी तो कोपेनहेगेन से पहले अक्टूबर 2009 में पीएम को चिट्ठी लिख स्टैंड बदलने की सलाह दी थी। सो आप खुद देख लो, देश हित की फिक्र किसे। संसद और देश का मान नहीं, अलबत्ता अपना-अपना जुगाड़ करने में जुटे नेता।
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10/12/2010