Friday, September 17, 2010

गांधीनगर से गडकरी तक गदगद बीजेपी!

अब तय हो गया, अयोध्या पर फैसला शुक्रवार को ही आएगा। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की मंशा पर सवाल उठा जुर्माना भी लगा दिया। सुलह के लिए निर्मोही अखाड़े के सिवा कोई राजी नहीं था। वैसे भी फैसले के मोड़ पर आकर सुलह के फार्मूले में कुछ नहीं था। कोर्ट ने याचिकाकर्ता से सुलह का आधार पूछा। तो कोई जवाब नहीं। सो फैसले की उलटी गिनती शुरू हो गई। पर अयोध्या फैसले से पहले कश्मीर की लपटें थामना जरूरी। सो कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी ऑल पार्टी डेलीगेशन लेकर कश्मीर जाएंगे। तीन दिन तक हालात का बारीकी से जायजा लिया जाएगा। ताकि सरकार ऐसे ठोस कदम उठा सके, जिनसे हालात फौरी काबू में आ जाएं। घाटी में शुक्रवार को भी हिंसक वारदातें जारी रहीं। सो सोनिया गांधी ने तमाम वरिष्ठ नेताओं को बुला मंत्रणा की। पर कांग्रेस की परेशानी सिर्फ कश्मीर और अयोध्या पर संभावित फैसला ही नहीं। अलबत्ता कर्नाटक, गुजरात के विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने भी खतरे की घंटी बजा दी। पर बीजेपी को जबर्दस्त फील गुड होने लगा। अयोध्या फैसले से पहले गुजरात में नरेंद्र मोदी का डंका बजा। तो गांधीनगर से गडकरी तक बीजेपी बम-बम दिखी। कठलाल विधानसभा सीट पर पहली बार कमल खिला। सो नरेंद्र मोदी ने अपने खास अंदाज में फिर हुंकार भरी। बोले- कांग्रेस और सीबीआई को जनता ने नकार दिया। अब गांधीनगर में जो स्क्रिप्ट मोदी ने लिखी। दिल्ली में गडकरी ने प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के जरिए पढ़वा दी। बीजेपी ने शुक्रवार को न अयोध्या, न कश्मीर पर कुछ कहा। अलबत्ता मोदी की जीत के बाद नितिन गडकरी भाजपा मुख्यालय में रिक्शा पर घूमते दिखे। सोलर और बैटरी चालित रिक्शा का प्रदर्शन हुआ। जिसे बीजेपी अंत्योदय कार्यक्रम के तहत गरीबों में बांटने का मन बना रही। कहा गया- इस रिक्शा को चलाने में कम कैलोरी खर्च होतीं। पर कोई पूछे, जिस गरीब के पेट में दाना नहीं। कैलोरी किस चिडिय़ा नाम, उसे क्या पता। पर बात अंत्योदय की नहीं, उपचुनाव में कांग्रेस के अंत और बीजेपी के उदय की। पर जिन उपचुनावों के नतीजे आए, उनका फाइनल अभी काफी दूर। सो कांग्रेस भी फिलहाल बेफिक्र ही दिख रही। पर बीजेपी इतनी गदगद, मानो किला फतह कर लिया हो। यों कठलाल सीट पहली बार जीतना बीजेपी के लिए उपलब्धि। पर कर्नाटक में क्या हुआ। दो सीटों पर उपचुनाव हुए थे। तो बीजेपी वाली सीट देवगौड़ा की जेडीएस ने जीत ली। कांग्रेस वाली सीट बीजेपी के खाते में आ गई। राजनीतिक दलों की अजीब कहानी बन चुकी। मीठा-मीठा घप और कड़वा-कड़वा थू। उपचुनाव की जीत किसी राष्ट्रीय मुद्दे से नहीं जोड़ी जा सकती। अगर उपचुनाव किसी बड़े बदलाव का संकेत होता, तो छत्तीसगढ़ में पिछली बार बीजेपी लगातार आधा दर्जन विधानसभा उपचुनाव हारी। फिर भी फाइनल चुनाव में बीजेपी की ही सरकार बनी। सो कोई जरूरी नहीं जो उपचुनाव में जीते, बाकी जगह उसी का परचम लहराएगा। पर अहम सवाल, सिर्फ जीत का ही श्रेय क्यों लेते राजनीतिबाज? हार की जिम्मेदारी उठाने का जज्बा जीत जैसा क्यों नहीं दिखता? अब जरा बीजेपी का ही दोहरापन देख लो। स्थानीय उपचुनाव में जीत पर इतरा रही। पर जब गुजरात में जूनागढ़ निकाय चुनाव में लुढक़ी। राजस्थान में विधानसभा के बाद पंचायत चुनाव में भी पटखनी मिली। तो बीजेपी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद में हार पर सवाल झेलने का भी साहस नहीं रहा। बोले- स्थानीय चुनाव के बारे में स्थानीय नेता टिप्पणी करेंगे। राष्ट्रीय प्रवक्ता से स्थानीय सवाल न पूछें। इसे कहते हैं रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया। पर कोई पूछे, जब जूनागढ़, राजस्थान, बंगाल जैसे निकाय चुनाव जिनमें बीजेपी हारी, वह स्थानीय। तो सवाल, पोरबंदर, बेंगलुरु जैसे निकाय चुनाव में जीत पर दिल्ली में बीजेपी संसदीय दल और बोर्ड ने क्यों प्रस्ताव पारित किया? क्यों बीजेपी के मंच से प्रवक्ता जीत का ढोल बजाते दिखे? क्या यह बीजेपी का कांग्रेसी कल्चर नहीं? कांग्रेस में तो यह परंपरा बन चुकी। जीत का श्रेय सिर्फ गांधी-नेहरू खानदान को, हार का ठीकरा स्थानीय नेतृत्व पर। अब ताजा प्रकरण ही देख लो। राहुल गांधी यों तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बात करते नहीं थक रहे। पर प्रदेश अध्यक्षों के चुनाव में दो लाइन का प्रस्ताव पारित कर अध्यक्ष तय करने का अधिकार सोनिया पर छोड़ा जा रहा। सो बीजेपी भी कम नहीं। जीती, तो बीजेपी आलाकमान, हार गए, तो ठीकरा स्थानीय नेतृत्व पर। लोकसभा चुनाव के बाद जब बीजेपी में हार पर सिर-फुटव्वल होने लगी, तो क्या हुआ। केंद्रीय स्तर पर चुनाव के सर्वेसर्वा अरुण जेतली प्रमोशन पाकर संवैधानिक पद पर जा बैठे। राज्यों में कई प्रदेश अध्यक्षों को जिम्मेदार ठहराया गया। उत्तराखंड में बी.सी. खंडूरी की सीएम की कुर्सी छिन गई। तो राजस्थान में वसुंधरा से जबरन इस्तीफा कराया गया। अपने वामपंथियों को भी कम न समझो। लोकसभा चुनाव में खुद के हारने का मलाल नहीं, पर इस बात की खुशी थी कि बीजेपी हार गई। यही हाल बीजेपी का था, जब नेता कहते फिर रहे थे- भले हम नहीं जीते, पर लेफ्ट तो हार गया। सच कहूं, तो सही मायने में कोई भी पार्टी लोकतांत्रिक नहीं। बीजेपी और कांग्रेस के लोकतंत्र में सिर्फ इतना फर्क- कांग्रेस में पहले स्थानीय नेता प्रस्ताव पारित कर सोनिया पर फैसला छोड़ देते। पर बीजेपी में पहले आलाकमान तय करता। फिर पर्यवेक्षक के जरिए स्थानीय नेतृत्व को एक-एक कर बता दिया जाता।
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17/09/2010