Tuesday, March 29, 2011

दिल मिलता नहीं, 1948 से ही हाथ मिलाते आ रहे

राष्ट्रपिता का अपमान आखिर कब तक सहन करेगा हिंदुस्तान? पत्रकारिता के क्षेत्र में दिए जाने वाले सबसे बड़े पुलित्जर पुरस्कार से नवाजे जा चुके अमेरिकी लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड ने अबके यह गुस्ताखी की। अपनी किताब- ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया, में महात्मा गांधी को समलैंगिक बताया। जर्मन व्यक्ति हर्मन कोलेनबाश से रिश्ते बताए। पर तथ्यों के बिना संबंधों की कहानी गढ़ दी। अमेरिकी लेखक भूल गया, महात्मा गांधी ही एकमात्र ऐसे शख्स, जिन ने अपनी जिंदगी की नकारात्मक चीजें भी सहज ढंग से परोसीं। बापू ने अपनी आत्मकथा: सत्य के प्रयोग, में कड़वे-मीठे सारे सच उड़ेल दिए। ऐसी आत्मकथा शायद ही देखने को मिलती। फिर भी दुनिया के कुछ लोग गांधी जी के सहारे सुर्खियां बटोरने का मौका ढूंढते रहते। पर गांधी जी के जीवन पर शोध करने वाले कभी सही तस्वीर नहीं पेश कर पाए। किसी ने तारीफ की, तो सिर्फ सकारात्मक पहलू ही ढूंढे। किसी ने आलोचना की, तो सिर्फ नकारात्मक पहलू ही दिखाए। समग्र पहलू कभी किसी और ने नहीं परोसा। यों असली तस्वीर तो खुद गांधी जी अपनी आत्मकथा में दिखा गए। दुनिया को बतला दिया- वह भी हाड़-मांस के बने एक आम इनसान। पर सवाल- अमेरिकी लेखक लेलीवेल्ड ने ऐसा दुस्साहस कैसे किया? क्या दुनिया भर में गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत को मिली मान्यता अब खटक रही? कहीं दुनिया पर अपनी हिंसक ताकत का रौब दिखाने वाला अमेरिका की यह टटपुंजिया हरकत तो नहीं? देश-दुनिया को बापू ने लाठी की ताकत दिखाई। पर लाठी से ही सारे आंदोलन सफल होने लगें, तो अमेरिकी हथियारों के जखीरे का क्या होगा? सो हो-न-हो, अपना मानना तो यही, बापू की छवि को धूमिल करने का यह कुत्सित प्रयास। इससे पहले अमेरिका में ही स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस के संबंधों पर कीचड़ उछाला जा चुका। यों अमेरिका की छोडि़ए, बापू के ऊपर कीचड़ उछाले जाने के बाद भी भारत सरकार चुप बैठी। वैसे मौजूदा सरकार से उम्मीद भी क्या रखें। जब बापू के खड़ाऊं, चश्मे, कटोरी, चम्मच विदेशों में नीलाम हो रहे थे। तो अपनी सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी थी। वह तो भला हो विजय माल्या का, जिन ने नीलामी में बाजी मारी। भले माल्या की कमाई शराब के धंधे की हो। पर नीयत तो अपनी सरकार से कहीं अच्छी। मनमोहन सरकार को तो अंकल सैम का हुक्म मानने की आदत पड़ चुकी। तभी तो मंगलवार को बापू पर लगे लांछन का कोई खंडन या निंदा नहीं की। अलबत्ता अंकल सैम के इशारे पर मोहाली के सेमीफाइनल को क्रिकेट के बजाए कूटनीति का मंच बना दिया। सो मंगलवार को भी ऐसा लगा, मानो देश में सिर्फ क्रिकेट ही बचा। बुधवार को तो समूचे देश में कफ्र्यू जैसे हालात ही नजर आएंगे। चंडीगढ़ में तो सुरक्षा के ऐसे पुख्ता बंदोबस्त कि चिडिय़ा भी चूं नहीं कर सकती। मनमोहन ने गिलानी की खातिरदारी के लिए डिनर की तैयारी कर ली। दोनों पीएम की मीटिंग का बैक ग्राउंड मंगलवार को होम सैक्रेटरियों ने तय कर लिया। गृह सचिव स्तर की वार्ता के  बाद साझा बयान जारी हुआ। तो अमेरिकी एजंडे के मुताबिक कई मुद्दों पर सहमति बन गई। अब मुंबई हमले की जांच के लिए अपना न्यायिक जांच दल पाक जा सकेगा। पर बदले में भारत को भी समझौता ब्लास्ट केस की जानकारी साझा करनी होगी। यानी दोनों तरफ से न्यायिक जांच दल आएंगे-जाएंगे। पर सवा दो साल में पाकिस्तान सवा दो कदम भी नहीं चला। तो अब भला क्या उम्मीद? पाकिस्तान कभी भी सकारात्मक सोच के साथ वार्ता की मेज पर नहीं बैठा। अगर 1947 से अब तक का इतिहास पलटकर देखें। तो यही देखने को मिलेगा कि पाक की ग्रंथि में ईमानदारी नाम की चीज नहीं। अब अगर अपना जांच दल पाक जाएगा, मुंबई हमले के साजिशकर्ताओं से पूछताछ करेगा। तो क्या पाक हुक्मरान भारतीय जांच दल के निष्कर्ष को कबूल कर लेगा? अब तक पाक ने साजिशकर्ताओं की आवाज के नमूने तक नहीं लेने दिए। पाक की निचली अदालत ने इस मामले को खारिज कर दिया। पर अब पाकिस्तानी दलील- हाईकोर्ट में अपील दायर की गई, जहां से सकारात्मक नतीजे की उम्मीद। अब पाक चाहे जो दलील दे, पाक की न्यायपालिका की ईमानदारी भी जगजाहिर। भले पाक में फिलहाल लोकतांत्रिक हुकूमत। पर आईएसआई और सेना की नकेल कसने की हिम्मत नहीं। गृह सचिव स्तरीय वार्ता में जाली नोट, साइबर अपराध, मानव तस्करी जैसे मुद्दे भी शामिल थे। भारत ने जाली नोट के मामले में कई आईएसआई मुलाजिमों के नाम बताए। पर क्या पाक हुक्मरान कार्रवाई करेगा? आतंकवाद के मसले पर जब पाकिस्तानी जांच दल भारत आएगा, तो फिर कोई नई थ्योरी न गढ़ दे। समझौता ब्लास्ट में कई भारतीयों के हाथ सामने आए। सो आखिर में कहीं पाक यह न कह दे- दोनों देश अपने-अपने आतंकवाद के शिकार। वैसे पाक की यही फितरत रही। सो गृह सचिव स्तर पर हॉट लाइन शुरू हो जाए या जांच की रिपोर्ट साझा होने लगे। पर जब तक नीयत में खोट रहेगा, कोई भी वार्ता कैसे सफल होगी? सो क्रिकेट की आड़ में कूटनीति पुरानी ही राह पर। सन 1948 से अब तक दोनों देशों के दिल मिले, न मिले, हाथ मिलाने की कोशिशें जारी।
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29/03/2011