Wednesday, March 31, 2010

तो आधुनिक ‘शाहजहां’ अभी नहीं छोडेंगे पद!

विरासत की राजनीति कहें या राजनीतिक विरासत। करुणानिधि परिवार में फिर जंग शुरु हो गई। करुणानिधि के बड़े बेटे अझागिरी ने फिर नेतृत्व का सुर्रा छोड़ा। करूणा के सिवा किसी को नेता न मानने का एलान कर दिया। तो इशारा साफ तौर से छोटे भाई स्टालिन के मंसूबों पर पानी फेरना था। सो बुधवार को खुद करुणा का बयान आया। कह दिया- नए नेतृत्व का फैसला पार्टी करेगी, यह उनका हक नहीं। अब क्षेत्रीय दलों में नेतृत्व कैसे तय होता, यह छुपाने की बात नहीं। पर मौका मुफीद न देख करुणा ने फिलहाल विवाद पर पानी डालना बेहतर समझा। यों कब तक विवाद को थामने की नाकाम कोशिश करेंगे करुणानिधि। वैसे करुणानिधि की इच्छा तमिलनाडु ही नहीं, देश के लोगों को भी मालूम। सो उनने केंद्र में मनमोहन सरकार को समर्थन की वसूली परिवार के झगड़े निपटाने में ही की। कभी भतीजे दयानिधि मारन को मंत्री बनाया। जून 2007 में अपनी बेटी कनीमोझी को राज्यसभा भिजवाया। मनमोहन की दूसरी पारी में अझागिरी को केबिनेट मंत्री बनवाया। ताकि राज्य में स्टालिन अपनी स्थिति और मजबूत कर सकें। पर अझागिरी का मन दिल्ली से ज्यादा चेन्नई में। सो तीन साल बाद उनने फिर उत्तराधिकार का सुर्रा छोड़ दिया। तीन साल पहले यानी मई 2007 की घटना। तब यहीं पर लिखा था- च्करुणानिधि कहीं दूसरे शाहजहां न बन जाएं।ज् अब सनद रहे, सो वही कहानी फिर बताते जाएं। तब जंग की शुरुआत ‘दिनाकरण’ अखबार में छपे सर्वेक्षण से हुई थी। सर्वेक्षण एसी नेल्सन एजेंसी के सहयोग से हुआ था। सर्वेक्षण का नाम था- ‘मक्कल मनासू’ यानी जनता की सोच। सर्वेक्षण में करुणानिधि के बड़े बेटे एमके अझगिरी को सिर्फ दो फीसदी जनता ने उत्तराधिकारी माना। जबकि छोटे बेटे एमके स्टालिन को 70 फीसदी ने। वैसे दयानिधि मारन को भी 20 फीसदी लोगों ने करुणानिधि का उत्तराधिकारी माना। पर सर्वेक्षण एमके अझगिरी को रास नहीं आया। सो अझगिरी समर्थकों ने मदुरई स्थित अखबार के दफ्तर पर धावा बोल दिया। पेट्रोल बम से आग लगा दी। दो कंप्यूटर आपरेटर और एक सुरक्षा गार्ड मारा गया। अखबार किसी बाहरी का नहीं। अलबत्ता मारन बंधुओं का ही था। सो सत्ता और परिवार के घालमेल में केस दब गया। करुणानिधि तभी रिटायरमेंट की जुगत में थे। पर बड़े बेटे के विद्रोह ने कुर्सी पर बिठाए रखा। यों बाद में करुणानिधि ने स्वास्थ्य वजहों को ही आधार बना स्टालिन को डिप्टी सीएम बना लिया। अझागिरी को केंद्र में मंत्री बनवा दिया। फिर भी उत्तराधिकार की जंग खत्म नहीं हो रही। अब अगर पार्टी के नाम पर या अपनी पसंद के नाम पर करुणानिधि ने स्टालिन को चुना। तो बगावत तय समझिए। विरासत की राजनीति का आखिर यही हश्र होता है। यही हुआ था मुगल शासक शाहजहां के साथ। वाकई शाहजहां और करुणानिधि में काफी चीजें ऐसी, जो मेल खाती। शाहजहां के भी चार बेटे थे। करुणानिधि के भी चार। वैसे करुणानिधि की दो बेटियां भी। करुणानिधि ने तीन शादियां कीं। पहली बीवी से एक बेटा एमके मुत्थू। दूसरी बीवी दयालू अम्मा से एक बेटी, तीन बेटे। तीसरी बीवी रजाथी से एक बेटी कनीमोझी जो अब राज्यसभा में। शाहजहां के भी चार बेटे थे- दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद। चारों में दारा सबसे बुद्धिमान। शाहजहां दारा को ही उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। पर जैसे अपने करुणानिधि एलान नहीं कर रहें, शाहजहां ने भी नहीं किया। वैसे जनता में दारा को ही युवराज माना जाता था। जैसे तमिलनाडु में स्टालिन माने जा रहे। करुणा ने भी अपने बेटे-बेटियों को राजनीति में अलग-अलग मुकाम दे रखा। जैसे शाहजहां ने चारों बेटों को चार प्रांतों की कमान सौंप रखी थी। उत्तर में दारा, पूर्व में शुजा, दक्षिण में औरंगजेब और पश्चिम में मुराद। सितंबर 1657 में शाहजहां बीमार पड़े। तो अफवाह फैली- शाहजहां की मृत्यु अवश्यंभावी। दारा उस वक्त पिता के पास था। सो शुजा, औरंगजेब और मुराद ने गोटियां भिड़ाई। सबसे पहले शुजा ने खुद को सम्राट घोषित कर दिल्ली कूच किया। फिर मुराद भी शुजा की राह पर चल पड़े। पर औरंगजेब ने खुद को सम्राट घोषित नहीं किया। दिल्ली कूच जरूर किया। शाहजहां ने इन तीनों बागी राजकुमारों को वापस लौटने का फरमान सुनाया। पर राजकुमार नहीं माने। मजबूरन शाहजहां ने शाही फरमान की अवज्ञा पर सैन्य कार्रवाई की। फरवरी 1658 में शाही सेना के हाथ बनारस के निकट शुजा पराजित हुए। इस बीच औरंगजेब ने तिकड़मी चाल चली। भाई मुराद से समझौता कर लिया। अब दोनों की मिलीजुली सेना ने शाही सेना का मुकाबला किया। अप्रैल 1658 में शाही सेना औरंगजेब से पराजित हुई। इतिहास में इसे ‘धरमत की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है। यही नहीं, औरंगजेब अब और आगे बढ़ा। अगले महीने ही अपने बड़े भाई दारा को युद्ध में परास्त किया। दारा-औरंगजेब की लड़ाई इतिहास में ‘सामूगढ़ का युद्ध’ के नाम से मशहूर। अब जब औरंगजेब के रास्ते साफ हो गए। तो उसने मुराद को बंदी बना लिया। दिल्ली पर औरंगजेब का कब्जा हो गया। सिंहासन में कोई कील न हो, सो औरंगजेब ने मुराद और दारा को मृत्यु दंड दे दिया। उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब ने किला फतह किया। पर तमिलनाडु में करुणानिधि के उत्तराधिकारी बनने की जंग कौन सा नया इतिहास रचेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
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31/03/2010