Friday, December 31, 2010

साल 2010: कांग्रेस खुद ही मुद्दा बन गई

इंतजार की घड़ी खत्म.. साल 2011 का आगाज हो गया। सो नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं। पर 2010 का बीतना सिर्फ साल नहीं, अलबत्ता 21वीं सदी का पहला दशक बीत गया। सो भले बीजेपी ने 2010 को घोटालों का वर्ष करार दिया। पर सही मायने में सिर्फ बीता साल नहीं, पूरा दशक देश की परिपक्वता के लिए याद किया जाएगा। चुनावी नतीजों को छोड़ दें, तो जनता ने अमिट छाप तब छोड़ी। जब अयोध्या जैसे विवादास्पद मुद्दे पर आए फैसले के बाद भी जनता ने संयम का परिचय दिया। वोट के सौदागर मुंह ताकते रह गए। सो परिपक्वता और संयम के इस दशक के लिए देश की जनता को अपना सलाम। पर आज लेखा-जोखा इस बात का भी, सत्ता में बैठी कांग्रेस ने जनता जनार्दन को क्या दिया। साल 2009 के आखिर में तेलंगाना की फांस लेकर कांग्रेस ने 2010 में प्रवेश किया। अब 2011 में भी वही फांस। पर बीते साल में तेलंगाना के साथ जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के सिर दर्द बने। आतंकवाद पर पी. चिदंबरम ने राहत की सांस ली। तो यह कहकर चौंका दिया- पुणे की जर्मन बेकरी को छोड़, मुंबई के बाद कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। सो 90 फीसदी भगवान को, दस फीसदी सुरक्षा बलों को क्रेडिट। पर इसी साल वाराणसी घाट विस्फोट ने अपने सुरक्षा तंत्र की कलई फिर खोल दी। सिर्फ चिदंबरम के ही बोल नहीं, दिग्विजय, राहुल और मणिशंकर अय्यर ने अपने बोलों से खूब सुर्खियां बटोरी। दिग्गी राजा ने संघ पर हमले की सुपारी ले ली। तो राहुल ने संघ को सिमी के बराबर बता दिया। पर विकीलिक्स के खुलासे ने राहुल को सफाई देने के लिए मजबूर कर दिया। तो मणिशंकर के बयान ने कॉमनवेल्थ घोटाले की परतें उधेड़ दीं। जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला, अरुंधती राय के बोल ने कांग्रेस की बोलती बंद कराई। घाटी साढ़े तीन महीने तक अलगाववाद की आग में झुलसी। छह अप्रैल को दंतेवाड़ा के नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों की शहादत ने भूचाल मचाया। पर कांग्रेस वोट बैंक में जुटी रही। चिदंबरम के ऑपरेशन ग्रीन हंट पर दिग्विजय ने सार्वजनिक तौर से सवाल उठाया। तो सोनिया ने भी सहमति जता दी। सो कांग्रेस नक्सलवाद पर कनफ्यूज रही। बटला हाउस एनकाउंटर पर भी यही हाल। दिग्विजय सिंह आतंकी के घर आजमगढ़ पहुंच गए। कभी मोहन चंद्र शर्मा, तो कभी हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल उठाए। फिर भी बिहार चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक लुभाने के सारे दांव फेल हो गए। कांग्रेस बिहार में नौ से चार सीट पर सिमट गई। यूपीए की दूसरी पारी राहुल फार्मूले से बढ़ी। पर राहुल की टीम के युवा मंत्री रोते-धोते ही नजर आए। राज्य मंत्रियों की व्यथा-दुर्दशा ऐसी कि पीएम को मीटिंग लेनी पड़ी। पर न राज्य मंत्रियों की हालत सुधरी, न आम आदमी की। महंगाई ने आम आदमी की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। पहली बार बजट में पेट्रोल-डीजल महंगा हुआ। विपक्ष की ओर से पहली बार कटौती प्रस्ताव आया। पर खजाना मैनेज करने के बजाए सरकार ने पलटूराम दलों के मुखिया माया-मुलायम-लालू को मैनेज किया। सोनिया-मनमोहन के भरोसे के बावजूद महंगाई नहीं थमी। अब साल जाते-जाते भी प्याज और दूध की कीमतों में उछाल ने जनता को पस्त किया। सही मायने में जब-जब कांग्रेस और सरकार ने महंगाई रोकने का भरोसा दिलाया, महंगाई बढ़ती गई। अब भले महंगाई दर कम हो जाए, पर महंगाई कम नहीं होगी। महंगाई पर सरकार का आलम तो यह, सुबह कीमत घटाने की बात करती। तो शाम को बढ़ाने पर चर्चा। बीते साल सरकार ने पेट्रोल कीमतों को नियंत्रण मुक्त कर लूट की खुली छूट दे दी। सो महंगाई की आग में पेट्रोल अपना काम बखूबी कर रहा। अब नए साल में भी डीजल-रसोई गैस के दाम बढऩे तय, बस सिर्फ तारीख का इंतजार। सो जैसे महंगाई ने कांग्रेस का हाथ छोड़ अपना मुकाम बनाया, भ्रष्टाचार ने इतिहास रच दिया। स्पेक्ट्रम, आदर्श, कॉमनवेल्थ तो नजीर बन गए। कॉमनवेल्थ की तैयारियों पर ऐसी फजीहत, खुद पीएम को कमान संभालनी पड़ी। भ्रष्टाचार पर महाराष्ट्र में सीएम अशोक चव्हाण की छुट्टी हुई। तो मनमोहन केबिनेट से घोटालों के सरताज ए. राजा नप गए। देश के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला हुआ। पर कांग्रेस ने विपक्ष की जेपीसी की मांग नहीं मानी। संसद का शीतकालीन सत्र काला इतिहास रच गया। पर अभी भी रार ठनी हुई। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने के बजाए विपक्ष पर हमला शुरू कर दिया। कांग्रेस अधिवेशन में देश के मुद्दों से अधिक वोट बैंक पर फोकस किया। यों बीते साल कांग्रेस ने सकारात्मक इतिहास भी रचा। इसी साल राइट टू एजूकेशन एक्ट लागू हुआ। राहुल गांधी ने ठाकरे बंधुओं की चुनौती को मुंहतोड़ जवाब दे, मुंबई की यात्रा की। महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से पारित करा इतिहास बनाया। सोनिया चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। तो जनार्दन द्विवेदी ने चालीस बार बनाने का खम ठोका। परिवारवाद की चापलूसी की पराकाष्ठा तो कांग्रेस की परंपरा बन गई। सचमुच बीते साल में महंगाई हो या भ्रष्टाचार, कश्मीर हो या कूटनीति, आतंकवाद हो या नक्सलवाद, अयोध्या फैसला हो या बिहार की हार, आईपीएल की गुगली में थरूर का जाना, भ्रष्टाचार की गंगा में राजा का बहना, आदर्श बनाने में चव्हाण की छुट्टी। कुल मिलाकर 2010 में कांग्रेस के लिए यही अहम मुद्दे बने रहे। सो कांग्रेस सचमुच में जनता के मुद्दों पर मंथन करने के बजाए बीते साल खुद एक मुद्दा बनकर रह गई। अब यही सवाल उठ रहे, कांग्रेस राज में ही महंगाई-भ्रष्टाचार चरम पर क्यों पहुंचते।
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31/12/2010

Thursday, December 30, 2010

बीजेपी: 2010 में सुकून से शुरू, संघर्ष पर खत्म

 तो अब साल 2010 भी विदा होने जा रहा। समय तो सतत चलते रहने का नाम। सो साल 2011 के आगमन में महज कुछ घंटों का इंतजार। पर बीते साल का लेखा-जोखा भी जरूरी। सो आज बात बीजेपी के सफरनामे की। साल 2009 की चुनावी हार ने बीजेपी को ऐसा दर्द दिया, उबरने में काफी वक्त लग गया। अंदरूनी उठापटक इस कदर, पार्टी की मिट्टी पलीद होने लगी। तो संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कैंसर बता कीमोथेरेैपी की सलाह दी। फिर कहा था- राख से भी उठ खड़ी होगी बीजेपी। सो जब 2009 के आखिर में 19 दिसंबर को संघ ने बीजेपी का किला बचाने को नागपुर से नितिन गडकरी को भेजा। तो सचमुच बीजेपी के साल 2010 की शुरुआत सुकून भरी रही। पार्टी की कमान गडकरी ने, तो संसद की कमान दिल्ली में बैठे धुरंधर सुषमा-जेतली ने संभाली। सो फरवरी के इंदौर अधिवेशन में जब टेंट में नेता ठहराए गए। तो तालमेल से भरी बीजेपी नए जोश में दिखी। पर शुरुआत में बीजेपी का चेहरा बदला, तो साल का अंत होते-होते चाल और चरित्र ही बदल गया। गडकरी ने महानगरों की समस्या के लिए बाहरी लोगों को जिम्मेदार ठहराया। तो सबसे पहले एनडीए की सहयोगी जेडीयू ने पुतला फूंक गडकरी को सलामी दी। इंदौर मीटिंग के बाद गडकरी को अपनी नई टीम बनाने में मत्थापच्ची करनी पड़ी। गडकरी ने अध्यक्षी संभालते ही एलान किया था- काम को पुरस्कार, नकारों को नमस्कार। पर जब मार्च में टीम गडकरी का एलान हुआ। तो नाम बड़े, दर्शन छोटे की कहावत चरितार्थ हो गई। नाम वाले कुर्सी ले गए, काम वाले कमर पकड़ कर बैठ गए। सो सीपी ठाकुर, शत्रुघ्न सिन्हा, अमित ठाकर, शाहनवाज हुसैन, बीसी खंडूरी, प्रकाश जावडेकर  जैसे नेताओं ने मोर्चा खोल दिया। ठाकुर ने चेतावनी दी- इस टीम से गडकरी का दस फीसदी वोट बढ़ाने का सपना पूरा नहीं हो सकता। फिर 27 अप्रैल को महंगाई पर कटौती प्रस्ताव ने तो बीजेपी की ही पतंग काट डाली। झारखंड में शिबू सोरेन के साथ बनी बीजेपी की सरकार लडख़ड़ा गई। पर महीने भर झारखंड के झमेले में बीजेपी का चरित्र उजागर हो गया। कभी समर्थन वापसी, तो कभी सीएम पद का लालच। आखिर में बीजेपी ने झारखंड की सरकार गंवाई, जूते और प्याज भी खाए। पर एक बार अनैतिक काम कर चुकी बीजेपी ने दूसरी बार शर्म नहीं की। साल बीतने से पहले शिबू संग झारखंड में फिर सरकार बना ही ली। सो झारखंड बीजेपी के चाल, चरित्र की नजीर बना। तो कटौती प्रस्ताव की हार ने बीजेपी के चेहरे का रंग भी बता दिया। जब मई में चंडीगढ़ की रैली में गडकरी ने लालू-मुलायम को सोनिया का तलवा चाटने वाला कुत्ता कह दिया। बवाल मचा, तो माफी मांग ली। पर गडकरी के सिर्फ इसी बोल ने नहीं, उन ने दिग्विजय को औरंगजेब की औलाद, तो अफजल की फांसी में देरी के लिए कांग्रेस नेताओं का दामाद कह दिया। सिख विरोधी दंगे को गुजरात दंगे से जोड़ फिर सफाई दी। अयोध्या में मंदिर के बाजू में मस्जिद पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था। पर बीजेपी की बड़ी फजीहत पटना कार्यकारिणी में हुई। जब नरेंद्र मोदी ने बिहार में हीरो बनने की कोशिश की। तो नीतिश कुमार ने खरी-खरी सुना भोज का न्योता वापस ले लिया। कोसी बाढ़ राहत में गुजरात से आए पांच करोड़ भी लौटा दिए। फिर कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार ने भ्रष्टाचार की वजह से तीन संकट झेले। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में कर्नाटक ने बीजेपी की धार भौंथरी कर दी। येदुरप्पा ने ऐसी धौंस दिखाई, आला नेतृत्व चाहकर भी हटाने की हिम्मत न कर सका। पर जून में जसवंत सिंह की वापसी पार्टी के लिए अच्छी पहल रही। फिर भी जसवंत की बर्खास्तगी के वक्त दी गई दलीलों का बीजेपी जवाब नहीं दे पाई। सो जसवंत की वापसी करा बीजेपी ने विचाराधारा का चोगा उतार फेंका। फिर राजस्थान से राम जेठमलानी को राज्यसभा भेज विचारधारा का क्रिया-कर्म कर डाला। यों साल 2010 में बतौर विपक्ष बीजेपी की भूमिका असरदार रही। संसद का कोई भी सत्र ऐसा नहीं बीता, जब सुषमा-जेतली की जुगलबंदी ने सरकार को कटघरे में खड़ा न किया हो। भले अनैतिक, पर इसी साल खोया झारखंड वापस लिया। अयोध्या जमीन विवाद पर एतिहासिक फैसला बीजेपी में नई ऊर्जा भर गया। बिहार की जीत बीजेपी के लिए बड़ी सौगात बनी। भले नीतिश लहर ने कमाल दिखाया। पर बीजेपी का स्ट्राइक रेट नीतिश से उम्दा रहा। फिर भी सौगात बीजेपी में शांति नहीं, संघर्ष लेकर आई। मोदी मैजिक पर सुषमा के बयान से बवाल मचा। सुषमा बनाम मोदी जंग सतह पर आ गई। सीबीआई दुरुपयोग और अमित शाह की गिरफ्तारी के मुद्दे पर संसद में चुप्पी ने दरार और बढ़ा दी। सुषमा और अरुण जेतली ने नई भूमिका में लॉबी बनानी शुरू की। तो वर्चस्व की लड़ाई साफ दिखने लगी। इसी साल बेटे के टिकट के लिए सीपी ठाकुर का प्रदेश अध्यक्ष से इस्तीफा। यशवंत सिन्हा का पंजाब के प्रभारी से इस्तीफा। गडकरी के बेटे की शाही शादी में कुबेर के खजाने जैसा लुटाना। उस पर आडवाणी की नाराजगी। अब आखिर में साल जाते-जाते मुरली मनोहर जोशी का पीएसी के रूप में जोश। सो गुरुवार को बीजेपी ने मान-मनोव्वल कर जोशी से बयान जारी करवा दिया। पर जोशी के स्पष्टीकरण से बीजेपी के चाल, चरित्र, चेहरे का भी स्पष्टीकरण हो गया। खुद गडकरी ने एक इंटरव्यू में मान लिया- कर्नाटक में येदुरप्पा ने जो किया। वह भले अनैतिक, पर असंवैधानिक नहीं। अब आप साल भर में बीजेपी कहां से कहां पहुंची, खुद देख लो। साल 2010 की शुरुआत बीजेपी ने सुकून से की, पर फिर संघर्ष का दौर चल रहा। आने वाला साल भी उत्तराखंड में मुसीबत लेकर आ रहा।
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30/12/2010

Wednesday, December 29, 2010

भविष्य की इमारत के लिए कांग्रेस ने की डेंट की पुताई

तो बाप बड़ा न भैया और न रुपैया। सबसे बड़ी वोट की नैया, जिसे पार लगाने को कांग्रेस ने संजय गांधी को श्मशान से लाकर मारने में भी हिचक नहीं दिखाई। वैसे भी वोट की खातिर गड़े मुर्दे उखाडऩा राजनीति की फितरत। सो इमरजेंसी की कालिमा का दंश झेल रही कांग्रेस ने अपनी 125वीं वर्षगांठ के समापन पर एक किताब जारी की। जिसका शीर्षक दिया- द कांग्रेस एंड द मेकिंग ऑफ द इंडियन नेशन। यानी जस नाम, तस व्याख्या। कांग्रेस ने यह किताब इतिहास बतलाने को नहीं, इतिहास में लगे दाग धोने के लिए लिखी। सो कांग्रेस ने रणनीतिक तौर पर संजय गांधी को इमरजेंसी का खलनायक करार दे दिया। इमरजेंसी के सच को कांग्रेस ने पहली बार कबूला। पर मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू। वैसे भी नेहरू-गांधी खानदान पर कांग्रेस भला दाग कैसे देख सकती। संजय गांधी की बीवी मेनका और बेटा वरुण अब बीजेपी के कमल खिला रहे। सो स्वर्गीय संजय का बोझ भला स्वर्गीय राजीव का परिवार क्यों उठाता। कांग्रेस ने किताब में माना, इमरजेंसी के वक्त पीएम इंदिरा गांधी के हाथ असीमित ताकत आ गई थी। संजय गांधी तभी अहमियत वाले नेता बनकर उभरे। कांग्रेस ने इंदिरा के आपातकाल को शुरुआत में सराहनीय बताया। कांग्रेस की मानें, तो जनता के एक बड़े वर्ग ने इमरजेंसी का स्वागत किया था। पर संजय गांधी की ओर से जबरन नसबंदी और झुग्गी-झोंपड़ी हटाने के कार्यक्रम ने नाराजगी पैदा कर दी। यानी इमरजेंसी के सारे दाग कांग्रेस ने स्वर्गीय संजय गांधी को पार्सल कर दिए। किताब में जेपी के आंदोलन को संविधानेतर और अलोकतांत्रिक करार दिया। जेपी को ईमानदार और निस्वार्थी तो बताया। पर सिद्धांतों का ढीला व्यक्ति करार दिया। किताब में संजय गांधी के लिए जितनी कड़वाहट, उससे कई गुना अधिक मिठास सोनिया-राहुल के लिए। विधानसभा चुनाव में बेहतर काम के लिए राहुल की पीठ ठोकी गई। राहुल-सोनिया की तुलना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से। किताब में कहा गया- जैसे महात्मा गांधी ने सत्ता का त्याग किया, वैसे ही सोनिया-राहुल ने सत्ता का त्याग कर मिसाल पेश की। यानी कांग्रेस ने सच का सामना तो किया, पर अपनी सहूलियत के मुताबिक। जो मुद्दे कांग्रेस को जड़ से हिला देते, उनको किताब में सिर्फ छुआ गया। पर जो मुद्दे सीधे वोट बैंक से जुड़े, कांग्रेस ने रिश्तों की बलि चढ़ाकर मैसेज दे दिया। अयोध्या फैसले, गुजरात दंगे के कई मामलों में मोदी को क्लीन चिट, बिहार चुनाव में पटखनी के बाद से कांग्रेस ने मुस्लिम वोट को वापस लाने की मुहिम छेड़ रखी। गाहे-ब-गाहे दिग्विजय सिंह के बयान और बुराड़ी के अधिवेशन मंच से सोनिया की मौजूदगी में उनकी गर्जना सबूत दे चुके। पर यह भी एक एतिहासिक तथ्य, इमरजेंसी के समय जबरन नसबंदी का विरोध तो सबने किया। पर सबसे तीखा विरोध अल्पसंख्यक समुदाय में हुआ। सो कांग्रेस ने इमरजेंसी की बदनामी का ठीकरा संजय के सिर फोड़ दिया। कांग्रेस की कारीगरी देखिए, लिखा तो 125 साल का इतिहास। पर तुष्टिकरण का तडक़ा लगाके। कांग्रेस की दलील- संजय की वजह से बदनामी हुई। पर कोई पूछे, कांग्रेस को यह तथ्य ढूंढने में 35 साल क्यों लग गए? क्या राहुल गांधी की पारी का इंतजार हो रहा था? कांग्रेस की इस किताब का मकसद राहुल के रूप में एक नई कांग्रेस को सत्ता में पहुंचाना। पर सिर्फ लिख देने से इतिहास नहीं बदलता, न लोगों के दिलों पर पड़ी छाप मिटती। अगर इमरजेंसी की कालिमा के लिए सिर्फ संजय जिम्मेदार। तो इंदिरा के पास असीमित शक्ति होने की दलील कैसे दे रही कांग्रेस? इमरजेंसी थोपते ही इंदिरा ने तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में कैसे ठूंसा। मीडिया, नौकरशाह, पुलिस और यहां तक कि न्यायपालिका का भी गला घोंटा गया। अगर कांग्रेस ने किताब में तथ्य लिखे। तो कांग्रेसी किताब से इतर यह भी तथ्य, बिना किसी आरोप के एक लाख लोग हिरासत में रखे गए। नौकरशाह आंख मूंदकर इंदिरा-संजय का आदेश मानने को मजबूर किए गए। यहां तक एलान कर दिया गया- विरोध करने वालों पर गोली चली, तो आश्रितों को बोलने का कोई हक नहीं। मानवाधिकार का गला घोंटने के लिए इंदिरा ने कोर्ट का भी मुंह बंद करने की कोशिश की। सो बुधवार को शरद यादव ने सही कहा- इमरजेंसी का ठीकरा किसी एक व्यक्ति पर नहीं थोपा जा सकता। खुद पीएम इंदिरा ने हर फैसला लिया। सचमुच इंदिरा का वरदहस्त न होता, तो संजय मनमानी नहीं कर सकते थे। जैसे सोनिया-राहुल के पास कोई सरकारी पद नहीं। तब संजय गांधी के पास भी नहीं था। इमरजेंसी के वक्त बाकायदा मीडिया और बालीवुड पर दबाव बनाया गया कि वह संजय को भावी पीएम पेश करे। यह खुलासा खुद फिल्म अभिनेता देवानंद अपनी किताब- रोमांसिंग विद लाइफ में कर चुके। मीडिया की हालत तो तब कैसी थी, यह आडवाणी की बतौर सूचना-प्रसारण मंत्री इमरजेंसी के बाद की गई टिप्पणी से देख लो। आडवाणी ने कहा- सरकार ने आपको झुकने के लिए कहा। पर आप तो रेंगने लगे। अब कांग्रेस का कबूलनामा कितना रंग लाएगा, यह बाद की बात। पर अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण करने के लिए कांग्रेस ने नींव पर पड़े डेंट की पुताई शुरू कर दी। ताकि भविष्य की इमारत साफ-सुथरी दिखे।
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29/12/2010

Tuesday, December 28, 2010

सर्दी में भी ‘जेठ’ की तपिश महसूस कर रही बीजेपी

 तो मौसम ने कांग्रेस का झंडा मुरझा दिया। मंगलवार को कांग्रेस ने 126वां स्थापना दिवस मनाया। तो मौसमी थपेड़ों के बीच 24 अकबर रोड पर कांग्रेसियों का जमावड़ा लगा। ठंड और बारिश के मिलेजुले कहर के बीच सोनिया गांधी ने झंडा फहराया। पर अबके मौसम की दोहरी मार से झंडे में पहले जैसी लहर नहीं दिखी। घोटालों की फेहरिश्त ने तो तोते उड़ा ही रखे। बाकी कोई भी ऐसा दिन नहीं, जब नए संकट पैदा न हो रहे। तेलंगाना की फांस गले पड़ चुकी। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन कांग्रेस सरकार के लिए नासूर बन चुका। पर मौसम की मार से सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, बीजेपी भी हलकान। घोटालों पर कांग्रेस तो शान से कह चुकी- नो जेपीसी। पर भ्रष्टाचार को सरकार के खिलाफ निर्णायक जंग मुद्दा बना चुकी बीजेपी को अब अपनी परछाईं ही सता रही। मुरली मनोहर जोशी के जोश ने बीजेपी के होश फाख्ता कर दिए। सो मंगलवार को विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने ट्विट किया। बोलीं- पीएम की पेशकश निरर्थक। जब पीएसी को मंत्री को बुलाने का अधिकार नहीं। तो पीएम की बात दूर। पीएसी का काम सिर्फ अकाउंट देखना। घोटाले की जवाबदेही और निष्कर्ष तक सिर्फ जेपीसी ही पहुंच सकती। यानी जोशी की दलील को सुषमा ने खारिज किया। सिर्फ सुषमा नहीं, बीजेपी के कई धुरंधर जोशी के जोश से परेशान। सो अंदरखाने जोशी की सक्रियता पर फिर सवाल उठ रहे। पर कांग्रेस अब भी जोशी की मुरीद। सो शकील अहमद बोले- जोशी अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभा रहे। अगर बीजेपी का आपस में मतभेद, तो वह जोशी को पीएसी से वापस ले ले। या सुषमा स्वराज खुद इस्तीफा दे दें। अब बीजेपी नेताओं में छिड़े कोल्ड वॉर का कांग्रेस खूब लुत्फ उठा रही। जोशी के साथ हमदर्दी पर खुद कांग्रेस नेता ही चुटकी ले रहे। कोई सोमनाथ चटर्जी से तुलना कर रहा। तो कोई आडवाणी से बदला बता रहा। यों आडवाणी से बदले की बात गले उतरने वाली नहीं। पर सोमनाथ से तुलना सटीक बैठ रही। जब मनमोहन की पहली पारी में एटमी डील ने यूपीए-लेफ्ट का तलाक करवा दिया। तो सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पार्टी सीपीएम के कहने पर भी स्पीकर की कुर्सी नहीं छोड़ी। उन ने भी संवैधानिक जिम्मेदारी की दुहाई दी। तब कांग्रेस ने सोमनाथ पर भी वैसा ही भरोसा जताया, जैसा अब जोशी पर जता रही। सो आखिर में सीपीएम ने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से बर्खास्त कर दिया। सोमनाथ ने पार्टी लाइन से हट पद की खातिर इतिहास रच दिया। अब वही काम मुरली मनोहर जोशी कर रहे। जोशी संसद की पीएसी के मुखिया के नाते संवैधानिक जिम्मेदारी निभा रहे। पर बीजेपी उनकी तेजी से मुश्किल में फंसी हुई। जैसे सोमनाथ दादा को यूपीए से लेफ्ट की समर्थन वापसी का फैसला रास नहीं आया था। वैसे ही जोशी को विपक्ष की जेपीसी की मांग रास नहीं आ रही। सो वह पीएसी को ही बेहतर बता रहे। अब सुषमा की यह बात सोलह आने सही- पीएम को बुलाना तो दूर, पीएसी मंत्री को भी नहीं बुला सकती। पर जोशी तो पहले ही कह चुके- यहां पीएम को समन करने जैसी बात ही नहीं। अलबत्ता खुद पीएम ने पेशकश की। तो इस बारे में पीएसी समय आने पर फैसला कर सकती। सो इन हालात में बीजेपी लेफ्ट बनेगी या जोशी सोमनाथ, यह वक्त ही बतलाएगा। पर फिलहाल सिर्फ जोशी ही नहीं, जेठमलानी के बोल भी बीजेपी की पोल खोल रहे। रायपुर की जिला अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता डाक्टर विनायक सेन को देशद्रोही बता उम्र कैद की सजा सुना दी। सेन लंबे समय से आदिवासी इलाकों में निस्वार्थ काम करते रहे। पर राज्य सरकार की आंखों में चढ़ गए। सो नक्सली सांठगांठ का आरोप लगा। पर अदालती फैसले ने देश नहीं, दुनिया में भूचाल ला दिया। एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर दुनिया के नामचीन बुद्धिजीवियों ने फैसले पर सवाल उठाए। पर नक्सलवाद के खिलाफ बंदूक से लडऩे की पक्षधर रही बीजेपी ने फैसले को जायज ठहराया। वैसे भी छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार। कांग्रेस ने तो न्यायिक प्रक्रिया का हवाला देकर बीच का रास्ता अख्तियार कर लिया। पर सुषमा ने ट्विट कर सेन के खिलाफ फैसले को तर्कसंगत बताने की कोशिश की। अब बीजेपी की मजबूरी हो या नीति, पर जेठमलानी ने सारी कसर पूरी कर दी। उन ने सेन को उम्र कैद की सजा को वाहियात फैसला करार दिया। ऊपरी अदालत में पैरवी करने का एलान भी। जेठमलानी बोले- सेन के खिलाफ मुकदमे में कोई दम नहीं। सेन की पैरवी करना मेरे लिए सम्मान की बात होगी। पर बीजेपी के सम्मान का क्या होगा? सो बीजेपी ने एक बार फिर जेठमलानी की राय को निजी बताया। राजीव प्रताप रूड़ी बोले- जेठमलानी वकील हैं, किसी का भी मुकदमा लड़ सकते हैं। बीजेपी ने कुछ नहीं कहा। यानी जेठमलानी के आगे बीजेपी फिर नतमस्तक। जबसे बीजेपी की टिकट पर राजस्थान से राज्यसभा सांसद बने। तबसे यह तीसरा मौका, जब बीजेपी को चौराहे पर ले आए। जब बीजेपी ने भारत-पाक विदेश मंत्री स्तर वार्ता के बाद राज्यसभा में एस.एम. कृष्णा को घेरा। तो जेठमलानी ने वेंकैया-जावडेकर की दलील को धता बता कृष्णा की चुप्पी को शिष्टाचार का तकाजा बताया था। बीजेपी ने कश्मीर के वार्ताकार दिलीप पडगांवकर पर उंगली उठाई। तो जेठमलानी ने इसे बचकानी और अशिष्ट हरकत करार दिया। सचमुच जेठमलानी कोई बीजेपी की नीति से प्रभावित होकर नहीं आए। अलबत्ता राज्यसभा की मेंबरी तो गुजरात की फीस समझिए। कुल मिलाकर सर्दी के मौसम में जोशी और जेठमलानी बीजेपी को गर्मी का अहसास दिला रहे।
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28/12/2010

Monday, December 27, 2010

बीजेपी की मुरली, कांग्रेस के मनोहर और जोशी का जोश

 सचमुच समय बड़ा बलवान। कैसे ए. राजा एनडीए राज से यूपीए की दूसरी पारी तक मंत्री रहे। पर वक्त ने ऐसा मुंह मोड़ा, राजा से रंक हो गए। तो दूसरी तरफ बीजेपी में अलग-थलग पड़े मुरली मनोहर जोशी सुर्खियों के सरताज बने। कभी बीजेपी में अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर की तिकड़ी हुआ करती थी। पर जोशी के साथ वक्त ने ऐसा दगा किया, अटल-आडवाणी आगे निकल गए। जोशी किनारे पर किताब पढ़ते रह गए। यानी बीजेपी में इतिहास बनने के कगार पर पहुंचे जोशी को इतिहास रचने का मौका मिल गया। सो अब वही मुरली मनोहर कांग्रेस के लिए तो सचमुच के मनोहर हो गए। बीजेपी ने जोशी को पीएसी का अध्यक्ष बनवाया। अब टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच पीएसी कर रही। पर जोशी को पार्टी की ओर से डिक्टेशन मंजूर नहीं। सो अपने तौर-तरीके से जांच का काम आगे बढ़ा रहे। पर जेपीसी की मांग को लेकर संसद का सत्र ठप कर चुकी बीजेपी में खलबली मची हुई। सो सोमवार को पीएसी की मीटिंग के बाद जोशी ने सफाई दी- सबको मालूम था, अगला पीएसी अध्यक्ष ही स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करेगा। जनवरी 2010 से ही जांच की प्रक्रिया शुरू। सो मैं तो सिर्फ जिम्मेदारी निभा रहा। यानी जोशी की सफाई बीजेपी का दर्द बयां कर रही। सो बीजेपी में आजकल भस्मासुर की कहानी खूब सुनी-सुनाई जा रही। भस्मासुर ने कठोर तपस्या कर भगवान शंकर से वरदान हासिल कर लिया। भोले बाबा ने भलमनसाहत में वरदान दे दिया- जिसके सिर पर हाथ रखोगे, वह भस्म हो जाएगा। बस क्या था, भस्मासुर ने इस वरदान का परीक्षण किसी और पर करने के बजाए भगवान शंकर पर ही करने की ठान ली। सो वक्त ने करवट ली, तो भोले बाबा भागे-भागे विष्णु भगवान के दर पहुंच गए। उसके बाद मोहिनी रूप धर भगवान विष्णु ने क्या किया, सबको मालूम। अब जोशी को भले बीजेपी जो माने, पर अपनी ओर से भस्मासुर कहना उचित नहीं। यों इतना सच जरूर, कांग्रेस मोहिनी रूप धर जोशी को मोह रही। सो सोमवार को पीएसी के कटघरे में सीएजी विनोद राय की पेशी हुई। तो दूसरी तरफ मनमोहन ने जो कांग्रेस अधिवेशन में एलान किया था, वह चिट्ठी में लिख जोशी को भेज दिया। यानी पीएसी चाहे, तो वह पेश होने को तैयार। पर जोशी ने साफ कर दिया- उचित समय पर ही फैसला होगा। यों तकनीकी तौर पर पीएसी को यह अधिकार नहीं। अगर पीएम को बुलाना भी पड़ा, तो स्पीकर की मंजूरी लेनी होगी। पर जोशी ने मीटिंग के बाद अपना इरादा जता दिया, जब कहा- पीएम ने पीएसी की ओर से मांगी गई रपट के मुताबिक पर्याप्त दस्तावेज मुहैया करा दिए हैं। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। कांग्रेस ने तो विपक्ष की जेपीसी की मांग खारिज करते हुए फिर कह दिया- अगर मुरली मनोहर जोशी की क्षमता और दक्षता पर बीजेपी को भरोसा नहीं, तो यह उसकी परेशानी। यानी एनडीए राज में कांग्रेस ने जिन्हें पोंगा पंडित कहा, अब वही ढाल बन गए। कांग्रेस ने तो बोफोर्स ने सबक ले ठान लिया- भले सरकार चली जाए, जेपीसी नहीं बनाएंगे। कांग्रेस की दलील- बोफोर्स के वक्त जेपीसी बना बड़ी गलती की। जिसका विपक्ष ने दो दशक तक फायदा उठाया। पर आखिर में राजीव गांधी कोर्ट से पाक-साफ हुए। यानी कांग्रेस की दो-टूक- जेपीसी पर अतीत का अनुभव ठीक नहीं। सो अब वही भूल नहीं दोहराएंगे। अब मुश्किल बीजेपी की। सो फिर जेपीसी की मांग की। शाहनवाज हुसैन बोले- पीएम कहीं भी जाएं, हमें लेना-देना नहीं। पर जेपीसी के बिना कोई निष्कर्ष नहीं निकल सकता। सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर लिखा- जब पीएसी और जेपीसी में फर्क नहीं, तो रूल बुक में अलग-अलग प्रावधान क्यों? पर बीजेपी के एक तीजे नेता की दलील- अगर पीएसी नहीं बुला सकती, तो बिना टर्म एंड रेफरेंस के जेपीसी भी नहीं बुला सकती। अपने जोशी ने तो साफ कह दिया- भले पीएसी का काम सिर्फ अकाउंट की जांच करना, पर किस पॉलिसी की वजह से गड़बड़ हुई, इसकी भी जांच कर सकती। जोशी ने सिर्फ सीएजी की 2003 से दी गई रपट पर ही नहीं, एनडीए काल तक की फाइल खंगालने का इरादा जता दिया। वैसे भी बीजेपी स्पेक्ट्रम घोटाले के जाल में फंसती जा रही। नीरा राडिया के करीबियों में अब अनंत कुमार का भी नाम आ गया। सरकार ने एलान कर दिया- अनंत ने मंत्री रहते नीरा को गोपनीय जानकारी लीक की, इसकी जांच होगी। तब एक कन्नड़ अखबार ने क्लिंटन-मोनिका के संबंधों का हवाला देते हुए राडिया को अनंत की मोनिका बताया था। जिसके खिलाफ अनंत कुमार की पत्नी ने कोर्ट में चुनौती दी थी। सो अब बीजेपी ने तोप में सिर्फ पीएम के नाम के गोले भरने शुरू कर दिए। कांग्रेस और सरकार की आक्रामक रणनीति के जवाब में अब बीजेपी यह भी मंथन कर रही। अगर बजट सत्र तक जेपीसी नहीं बनी, तो सत्र के दौरान पीएम के बॉयकाट का भी दांव खेला जा सकता। यानी सदन में जैसे ही पीएम आएं, कम से कम बीजेपी उठकर चली जाए। सो कांग्रेस-बीजेपी के बीच लेटर वॉर पहले ही शुरू हो चुके। पर कांग्रेस को तो पीएसी रपट का इंतजार। सोमवार को पीएसी में सीएजी विनोद राय से पूछा गया- कैसे 1.76 लाख करोड़ के आंकड़े तक पहुंचे? आकलन 2003 से क्यों किया? सीएजी ने आंकड़े के तीन मापदंड गिना दिए। अब यह आंकड़ा 57,666 करोड़ से 1.76 लाख करोड़ तक हो सकता। पर फिलहाल जोशी ने तो साफ कर दिया, जेपीसी ही सब कुछ नहीं।
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27/12/2010

Friday, December 24, 2010

कलमाड़ी को कल, राजा को रंक बनाने की तैयारी?

तो कलमाड़ी को कल और राजा को रंक बनाने की तैयारी पूरी समझो। शुक्रवार को कॉमनवेल्थ घोटाले में कलमाड़ी के मुंबई, पुणे, दिल्ली ठिकानों पर सीबीआई ने छापे मारे। तो स्पेक्ट्रम घोटाले में पूर्व संचार मंत्री ए. राजा से सीबीआई हैडक्वार्टर में पूछताछ हुई। अर्श से फर्श पर आना इसे ही कहते हैं। एक वक्त था, जब राजा इसी सीजीओ कॉम्प्लेक्स में साइरन बजाती लाल बत्ती वाली गाड़ी के साथ चमचमाते इलैक्ट्रॉनिक्स निकेतन के अपने दफ्तर में पहुंचते थे। पर शुक्रवार को जब सीजीओ कॉम्प्लेक्स के सीबीआई दफ्तर पहुंचे। तो चेहरे पर जबर्दस्ती की मुस्कान छलक रही थी। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, कभी मंत्री के रौब के साथ आते थे। अबके आरोपी बनकर आए। राजा से नौ घंटे की पूछताछ हुई। तो कलमाड़ी से आठ घंटे तक। पर दोनों ने तो सफाई पेश की, व्यवस्था की सारी गंदगी दिखा गए। राजा हों या कलमाड़ी, एक ही दलील- जो भी किया, टॉप बॉस की नॉलेज में। मतलब राजा लंबे समय से कहते आ रहे- टू-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में पीएम को भरोसे में लेकर कदम आगे बढ़ाया। अब यही बात कलमाड़ी ने भी कह दी। सीबीआई के छापे ने कलमाड़ी के दिल पर छाप छोड़ दी। सो कलमाड़ी बोले- मैंने अकेले कोई फैसला नहीं लिया। अब कलमाड़ी उवाच का मतलब कोई अनाड़ी भी समझ जाए। कलमाड़ी ने यह नहीं कहा कि उनके हाथों कुछ गलत हुआ। अलबत्ता कॉमनवेल्थ घोटाले में आयोजन के लिए बना समूचा एक्जीक्यूटिव बोर्ड शामिल। यानी सीधे-सीधे पीएमओ पर इशारा। अब आप सीधे-सपाट शब्दों में राजा और कलमाड़ी उवाच का निहितार्थ निकालें। तो मतलब यही- हम सब चोर हैं। सो चोरी की सजा भला किसी एक को क्यों मिले। बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने तो छलावा करार दिया। शायद महाराष्ट्र प्रेम जाग गया। सो गडकरी का आरोप- कलमाड़ी को बलि का बकरा बनाया जा रहा। वैसे भी कलमाड़ी से अब कांग्रेस ही किनारा कर रही। सो गडकरी सहानुभूति दिखा रहे। पर बात कांग्रेस की, जिसने कलमाड़ी के तेवर देख शुक्रवार को साफ कर दिया, कलमाड़ी अपनी सफाई खुद देंगे। छापों से कांग्रेस कोई राजनीतिक संदेश नहीं देना चाहती, अलबत्ता यह न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा। यानी कलमाड़ी को समझाने की कोशिश, छापे राजनीतिक इशारे पर नहीं डाले गए। पर कलमाड़ी की गर्जना यहीं नहीं थमी। उन ने साफ कहा- कॉमनवेल्थ के आयोजन में कुल जितना खर्च हुआ, उसका महज चार से पांच फीसदी उनकी रहनुमाई वाली आयोजन समिति के जिम्मे था। यानी कलमाड़ी ने तेवर दिखा इशारों में ही सवाल दाग दिया- बाकी 95 फीसदी की जिम्मेदारी भी तय हो। सचमुच कॉमनवेल्थ में कलमाड़ी की भूमिका सिर्फ आयोजन तक सीमित। असली घोटाला तो इन्फ्रास्ट्रक्चर में हुआ, जहां स्टेडियम के पुनरुद्धार पर ही अरबों लुट गए। सडक़ें बार-बार बनाईं-उखाड़ी गईं। सडक़ किनारे हर तीसरे दिन नई टाइल्स बिछती रहीं। कभी गमले में पौधे, तो कभी पौधे में गमले लगाए गए। कभी तेल में गाड़ी, तो कभी गाड़ी में तेल डाले गए। नेहरू स्टेडियम के बाहर ताश के पत्ते की तरह ढहा पुल भला कौन भूल सकता। सो जितनी जिम्मेदारी कलमाड़ी की, उतनी ही दिल्ली की शीला सरकार, जयपाल रेड्डी के शहरी विकास मंत्रालय और एम.एस. गिल के खेल मंत्रालय की भी। पर कांग्रेस की हमेशा यही रणनीति, मछली को जाल में फंसा, मगरमच्छों को छोड़ देती। अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार दृष्टिकोण होता। तो राजा पर शिकंजा कसने में तीन साल और कलमाड़ी के घर छापा मारने में महीनों नहीं बीतते। अब राजा-कलमाड़ी की दलील दूरगामी प्रभाव डालने वाली। अगर दोनों आरोपी ही ऐसा कह रहे, तो भला कांग्रेस किस मुंह से विपक्ष को गलत ठहरा रही। विपक्ष के आरोपों में दम नहीं होता, तो संसद सत्र के वक्त सरकार बचाव की मुद्रा में नहीं दिखती। ऐसा भी नहीं कि यूपीए सरकार ने हंगामे में संसद सत्र को खाली-खाली बीत जाने दिया हो। मनमोहन की पहली पारी के शुरुआती दिन याद करिए, जब दागी मंत्री के मसले पर कैसी रार ठनी थी। बिना विपक्ष के बजट पारित हुआ था। सो भले राजा को रंक और कलमाड़ी को बीता हुआ कल बना कांग्रेस खुद को बेदाग साबित करने की कोशिश करे। पर जनता सब कुछ समझती। अब तो कपिल सिब्बल भी सुब्रहमण्यम स्वामी के निशाने पर आ गए। पीएम को पाती लिख अल्टीमेटम दे दिया। सिब्बल को टेलीकॉम मिनिस्ट्री से नहीं हटाया, तो कोर्ट जाएंगे। स्वामी की दलील, सिब्बल के इस विभाग में मंत्री बनने से जांच प्रभावित होंगी। क्योंकि सिब्बल अनिल अंबानी के वकील रह चुके। एक और कंपनी जिसमें दाऊद का पैसा लगा था, उसके भी वकील रह चुके। दोनों कंपनी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के दायरे में। सो सिब्बल के रहने से जांच निष्पक्ष नहीं कही जा सकती। अब पीएम क्या करेंगे, यह तो मालूम नहीं। पर उन ने शुक्रवार को शरद पवार की खैर-खबर जरूर ली। महाराष्ट्र के सीएम पृथ्वीराज चव्हाण की रहनुमाई में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल बारिश से फसल के नुकसान पर मुआवजे की मांग लेकर गया था। पर प्याज की बढ़ती कीमत से परेशान पीएम ने प्रतिनिधिमंडल के सामने ही पवार से पूछ लिया। प्याज पर क्या कर रहे? कांग्रेस ने तो मंच से कह दिया- कीमतों पर काबू पाने के लिए जितने उपाय किए, पवार की खैर-खबर भी उसी का हिस्सा। सो सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं, कांग्रेस का गठबंधन धर्म भी चौराहे पर।
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24/12/2010

Thursday, December 23, 2010

तिवारी ही नहीं, समूची व्यवस्था का डीएनए हो!

तो शुक्रवार को सीबीआई भ्रष्टाचार के राजा की खैर-खबर लेगी। सो गुरुवार को ही कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव दा गरजे। संसद का समूचा सत्र ठप करने के लिए देश से माफी मांगे विपक्ष। प्रणव दा स्पेक्ट्रम घोटाले पर बहस के लिए पहले ही विशेष सत्र की पेशकश कर चुके। पर विपक्ष ने टका सा जवाब दे दिया। अब बहस नहीं, जांच और कार्रवाई चाहिए। सो पक्ष-विपक्ष का यह वाचाल तंत्र कहां थमेगा, मालूम नहीं। पर यूपीए सरकार की पोल सहयोगी ही खोल रहे। अब अगर राजा की गिरफ्तारी हुई, तो कांग्रेस-डीएमके दोराहे पर खड़ी होंगी। पर तलवार सिर्फ कांग्रेस-डीएमके के रिश्ते पर ही नहीं, अब तृणमूल कांग्रेस ने भी मोर्चा खोल दिया। बंगाल में केंद्रीय बल के दुरुपयोग से खफा ममता बनर्जी तो नाता तोडऩे की धमकी दे ही चुकीं। गुरुवार को ममतावादी सुदीप बंदोपाध्याय ने कांग्रेस की कलई खोली। बोले- हम सबसे बड़े घटक, पर सरकार हमसे कोई सलाह-मशविरा नहीं करती। हमें मीडिया के जरिए खबरें मिलतीं। कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं। भले कांग्रेस और तृणमूल के बीच बंगाल चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर एक-दूसरे पर दबाव की रणनीति चल रही हो। पर इसमें भी कोई शक-शुबहा नहीं, मौजूदा परिस्थितियों में यूपीए के घटक दल कांग्रेस के रवैये से असहज हो रहे। चुनावी राज्य तमिलनाडु, बंगाल में घटक दल कांग्रेस की कारगुजारियों का नफा-नुकसान तोलने में जुटे हुए। ममता को खास तौर से डर सता रहा, महंगाई और भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की रणनीति से बंगाल में रायटर्स बिल्डिंग का सपना अधूरा न रह जाए। सो तृणमूल ने संसद सत्र के वक्त भी जेपीसी की पैरवी की थी। पर कांग्रेस अपनी जिद पकड़े बैठी। सो तृणमूल ने सहयोगी दलों को न पूछने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। अब जब गठबंधन ही इतना असहज हो रहा। कांग्रेस अपने घटक दलों की भी नहीं सुन रही। तो सोचिए, जनता की बात क्या खाक सुनेगी? यों सवाल तृणमूल से भी- जब कांग्रेस मान नहीं दे रही, तो अपमान के साथ सत्ता में क्यों बैठी हुई? अब तृणमूल चाहे जो कहे, पर सत्ता की मलाई तो काट ही रही। कांग्रेस की धौंस की राजनीति का शिकार किसी को होना पड़ रहा, तो वह आम आदमी। प्याज की ‘लाली’ ने अब टमाटर को और ‘लाल’ कर दिया। कांग्रेस के एतिहासिक महाधिवेशन की शुरुआत और अंत ने आम आदमी की जेब पर डाका डाला। दूध के बाद प्याज की कीमत रातों-रात इतिहास बनाने निकल पड़ी। तो पहली बार महंगाई से कांग्रेस की आंखों में आंसू आ गए। शायद इसे प्याज की बादशाहत ही कहेंगे, जिसने 24 घंटे के भीतर राहुल गांधी से लेकर पीएम तक को हिला दिया। प्याज दिल्ली में बीजेपी की सरकार को खून के आंसू रुला चुकी। सो कांग्रेस ने ताबड़तोड़ कदम उठाए। तो प्याज की कीमतों में सीधे 30 फीसदी की गिरावट दर्ज हो गई। निर्यात पर रोक, आयात पर सब्सिडी जैसे सरकारी उपायों से जल्द और गिरावट के आसार। सो आप खुद देख लो, अगर कोई भी सरकार नेक नीयत से काम करे। तो आम आदमी लुटा-पिटा या ठगा महसूस नहीं करेगा। पर असल में हुआ क्या। जब प्याज ने आम आदमी को रुलाना शुरू किया, तो कृषि/क्रिकेट मंत्री शरद पवार ने हमेशा की तरह कालाबाजारियों को इशारा कर दिया। अपने शरद पवार जब भी मुंह खोलते, आम आदमी के खिलाफ ही बोलते। चाहे चीनी की कीमत हो या दूध की, जब-जब पवार बोले, कीमतों ने जबर्दस्त छलांग लगाई। अबके पवार ने फौरन कह दिया- तीन हफ्ते तक प्याज की कीमत नीचे नहीं आने वाली। पर पीएमओ हरकत में आया। तो हफ्तों की बात कौन करे, चौबीस घंटे के भीतर कीमतें उलटी दिशा में लौटने लगीं। पर मनमोहन सरकार के बड़बोले मंत्री सिर्फ पवार ही नहीं। पवार के महकमे में जूनियर मंत्री के.वी. थॉमस ने खीझते हुए कहा- मैं कोई जादूगर नहीं, जो बताऊं, कीमत कब कम होंगी। पर गुरुवार शाम होते-होते कृषि सचिव का बयान आ गया। एक हफ्ते में कीमतें नीचे आ जाएंगी। फिर कृषि मंत्रालय के अधीन संस्था नैफेड ने दो-तीन दिन में कीमत कम होने का दावा किया। सो अब आप खुद ही देख लो, एक ही महकमे के चार लोग यानी कृषि मंत्री, कृषि राज्यमंत्री, कृषि सचिव और नैफेड के अधिकारी बोले, पर चारों के अलग-अलग बोल। पर सबसे पते की बात तो दिल्ली की सीएम शीला आंटी ने की। प्याज के दाम से बेदम शीला मीडिया पर भडक़ते हुए बोलीं- कहां बढ़ रहे हैं दाम, आप लोग बढ़ा रहे हो दाम। अब अपनी इस व्यवस्था को क्या कहेंगे आप? अगर भ्रष्टाचार के वार से चोटिल मनमोहन ने प्याज पर दखल न दिया होता। तो प्याज की कीमत में हुई थोड़ी गिरावट भी नहीं होती। सो गुरुवार को ही जब दिल्ली हाईकोर्ट ने कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी को डीएनए टेस्ट कराने का आदेश दिया। तो फैसला देख यही लगा- भले देर हो, पर अंधेर नहीं। रोहित शेखर नाम के शख्स ने तिवारी को अपना जैविक पिता बताया। पर तिवारी मानने को राजी नहीं। सो हाईकोर्ट ने कहा- तिवारी संविधान से ऊपर नहीं। नाजायज औलाद को समाज में कैसा दंश झेलना पड़ता, सबको मालूम। संविधान के तहत रोहित को इस बात का हक कि वह अपने जैविक पिता की खोज करे। इसमें निजता की कोई बात ही नहीं। अब भले रोहित शेखर के हित में एन.डी. तिवारी का डीएनए हो जाए। पर सवाल, देशहित में अपनी समूची व्यवस्था का डीएनए क्यों न हो? भ्रष्टाचार और महंगाई चरम पर। फिर भी प्याज ने यह साफ कर दिया। अगर सरकार सही सोच व ईमानदारी से काम करे, तो क्या नहीं हो सकता।
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23/12/2010

Wednesday, December 22, 2010

तो भ्रष्टाचार पर राजनीति की अपनी-अपनी रणनीति

अब तो प्याज महंगा हो गया। शरद पवार ने जैसे ही मुंह खोला, प्याज रुलाने लगी। कांग्रेस की हालत खराब हो गई। महाधिवेशन जिस दिन शुरू हुआ था, उस दिन दूध की कीमत बढ़ी थीं। अब खत्म हो गया, तो प्याज दम निकाल रहा। सो अपने राहुल गांधी ने पवार-तवार को छोड़ सीधे पीएम पर जिम्मेदारी डाल दी। लाग-लपेट के बिना कह दिया- पीएम इस समस्या का समाधान ढूंढ लेंगे। अब सरकार प्याज बेचे या तेल, जनता तो कड़ाही में प्याजी की तरह भुन रही। सो महंगी प्याज के मारे राजनीतिक दल भ्रष्टाचार पर फिलहाल सिर्फ जूते बरसा रहे। कांग्रेस ने तीन दिन के महाधिवेशन में बीजेपी के भ्रष्टाचार पर जूते बरसाए। तो संसद के बाद बुधवार से विपक्ष ने सडक़ों पर यही काम शुरू कर दिया। पर बीजेपी-कांग्रेस के बीच शुरू भ्रष्टाचार के महासंग्राम से पहले बात अपने राजस्थान में मचे उपद्रव की। गहलोत सरकार को हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली। कोर्ट ने गुर्जरों के पांच फीसदी आरक्षण पर साल भर की रोक लगा दी। नए सिरे से सर्वे कराने के निर्देश दिए। अब सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प। पर गुर्जर समाज ने हाईकोर्ट में समुचित पक्ष नहीं रखने का आरोप सरकार के सिर मढ़ दिया। बाकायदा आंदोलन को और तेज करने का एलान हो गया। सो अब साल 2010 के बाकी बचे नौ दिन में क्या-क्या होगा। क्या देश आंदोलन की आग में झुलस कर ठहर जाएगा। या फिर जल्द किसी समाधान की उम्मीद? सचमुच 2007 से ऐसा कोई साल नहीं बचा, जब राजस्थान गुर्जर आंदोलन की आग में न झुलसा हो। साल 2010 में उम्मीद नहीं थी। पर जाते-जाते उम्मीद पर पानी फिर गया। सो सडक़ से संसद तक साल 2010 ने सिर्फ संकट पैदा किया। लालकृष्ण आडवाणी ने तो बुधवार को एलान भी कर दिया- साल 2010 घोटालों का वर्ष रहा। पर उन ने पीएम को फार्मूला भी सुझाया- अगर जेपीसी मान लो, तो घोटालों का वर्ष नहीं कहेंगे। यों एनडीए की महासंग्राम रैली के दोनों तरफ साल के दस घोटाले बैनर-पोस्टर चस्पा थे। बीजेपी ने तो बाकायदा घोटालों का वर्ष 2010 नाम से पुस्तिका भी जारी कर दी। जिसमें चालू वर्ष के दस घोटाले गिनाए। जरा आप भी देख लें। टू-जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, आदर्श सोसायटी, सड़ा अनाज, मुद्रास्फीति, चावल आयात, जनवितरण प्रणाली, सीवीसी की नियुक्ति, आईपीएल, एलआईसी हाउसिंग लोन और सत्यम घोटाला। सो बीजेपी ने अब कहना शुरू कर दिया- कांग्रेस का हाथ घोटालों के साथ। एनडीए की रैली में अरुण जेतली महफिल लूट ले गए। उन ने पीएम को चुनौती दी- अगर सच छुपाना नहीं चाहते, तो जेपीसी का सामना करें। वरना कुर्सी छोड़ दें। यानी विपक्ष ने अब राजा-राडिया को छोड़ सारा फोकस पीएम पर कर दिया। आडवाणी ने तो एलान कर दिया- अब विपक्ष के इस अभियान में मनमोहन ही हमारे निशाने पर होंगे। रैली में आडवाणी का दर्द भी उभर आया, जब उन ने 2009 के लोकसभा चुनाव की याद ताजा की। बोले- जब 2009 में मैंने कहा था, मनमोहन कमजोर पीएम। तो मेरे साथियों ने एतराज जता ईमानदार बताया था। पर आज साबित हो रहा, पीएम का पद कमजोर नहीं, अलबत्ता उस पद पर बैठा व्यक्ति कमजोर। जो हर अहम फैसले के लिए दस जनपथ की ओर निगाह जमाए बैठता। आडवाणी ने लगे हाथ पीएम को सलाह भी दी- पीएम पद की शक्तियों को इस्तेमाल कर जेपीसी बनाएं। अकाली रतन सिंह अजनाला ने तो यहां तक कह दिया- मनमोहन सिंह ऐसे पीएम, जिनकी कुर्सी के नीचे सारे लुटेरे बैठे हुए। यानी पीएसी के सामने सफाई देने की पेशकश कर मनमोहन ने विपक्ष को घेरने का मौका दे दिया। यों मुरली मनोहर जोशी की रहनुमाई वाली पीएसी 27 दिसंबर को तय करेगी, पीएम को बुलाना है या नहीं। पर कांग्रेस की नजर में पीएम का पीएसी वाला दांव एक साहसिक कदम। दिग्विजय सिंह तो सोमवार को ही इसे मास्टर स्ट्रोक बता चुके। सो बुधवार को जब एनडीए ने महासंग्राम के मंच से सीधा पीएम के खिलाफ बिगुल फूंका। तो कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने आरोप का जवाब देने के बजाए पलटवार किया। बोले- बीजेपी यानी बंगारू-जूदेव पार्टी को भ्रष्टाचार विरोधी रैली का नैतिक हक नहीं। जिस पार्टी ने भ्रष्टाचार में मील के पत्थर बनाए, जिस पार्टी का अध्यक्ष रिश्वत लेते पकड़ा गया, वह पार्टी भला क्या बात करेगी। यानी राजनीति में भ्रष्टाचार की फिर वही कहानी। भ्रष्टाचार के हमाम में सभी राजनीतिक दल एक जैसे। सो खुद को देखने के बजाए दोनों पक्ष एक-दूसरे को नंगा बता मखौल उड़ा रहे। बीजेपी की रणनीति, अगर राजा जेल गए, तो मुद्दा ठंडा पड़ जाएगा। सो सीधे पीएम को निशाना बनाओ। ताकि बजट सत्र तक मुद्दा जिंदा रखा जा सके। पर कांग्रेस की रणनीति कुछ अलग। भले देखने में कांग्रेस के बयान हताशा भरे लग रहे हों। पर रणनीतिकारों की मानें, तो पलटवार की मजबूत वजह। पिछले लोकसभा चुनाव में तमाम अटकलों को विराम देते हुए कांग्रेस ने 206 सीटें हासिल कीं। तो जीत के पीछे नरेगा जैसी महत्वाकांक्षी सामाजिक योजना अहम फैक्टर रहीं। सो अब कांग्रेस का मानना यही- नरेगा, सूचना का हक, शिक्षा का हक और अब भोजन का हक देने की तैयारी। सो सामाजिक योजनाओं से जमीनी स्तर पर कांग्रेस मजबूत हुई और होगी। इसलिए विपक्ष के आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए उन योजनाओं पर ही फोकस किया जाए। यानी भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की आक्रामकता योजनाबद्ध रणनीति का हिस्सा। तो बीजेपी को बोफोर्स दोहराने की उम्मीद।
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22/12/2010

Tuesday, December 21, 2010

अब तो जवाब मांग रहा देश, यह कैसा आंदोलन?

गुर्जर आंदोलन की आग में राजस्थान फिर झुलस उठा। पिछले चार साल में चौथी बार ऐसा आंदोलन हो रहा। हर बार की तरह अबके भी आंदोलन देश का चौथा निकाल रहा। पांच फीसदी आरक्षण का मसला हाईकोर्ट में लंबित। पर आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने एलान कर दिया- अब पांच फीसदी लेकर ही उठेंगे। तो क्या एक बार फिर देश आंदोलन की आग में झुलसकर अपाहिज बनेगा? आखिर आंदोलन का क्या मकसद? माना, सरकार के बहरे कान बिना शोर-शराबे या हिंसा के नहीं सुनते। पर अपने फायदे के लिए समूचे देश को ठहरा देना कहां तक न्यायसंगत? वसुंधरा सरकार के वक्त 2007 में 29 मई से दो जून तक हिंसक आंदोलन हुए। फिर जून 2008 में 27 दिन तक आंदोलन हुए। तो वसुंधरा सरकार ने पांच फीसदी आरक्षण के साथ-साथ सवर्णों को 14 फीसदी आरक्षण का भी पासा फेंक दिया। पर चुनाव बाद सत्ता बदली। तो गुर्जर आरक्षण का मसला अशोक गहलोत सरकार के गले की हड्डी बन गई। तबके गवर्नर एस.के. सिंह आरक्षण के मुखर विरोधी थे। सो उन ने बीजेपी राज में विधानसभा से पारित प्रस्ताव में फच्चर फंसा दिया। तो बीजेपी को सियासत का मौका मिल गया। वसुंधरा राज में खुद को किसी दल से बाहर का बताने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला गहलोत सरकार के आते-आते भगवा रंग में रंग चुके थे। बाकायदा बीजेपी के टिकट से कांग्रेसी नमोनारायण मीणा के खिलाफ टोंक-सवाई माधोपुर सीट से चुनावी मैदान में कूदे। पर कांटे की टक्कर में मीणा बच गए, बैंसला को कांटा चुभ गया। सो जब जुलाई 2009 में बीजेपी के समर्थन से बैंसला ने झंडा उठाया। कांग्रेस सरकार पर आठ महीने तक फाइल दबाने का आरोप लगा आंदोलन का एलान किया। तो सरकार के हाथ-पांव फूल गए। विधानसभा में तब जो हुल्लड़ मचा, दोहराने की जरूरत नहीं। बीजेपी के एमएलए ने टेबल पर चढ़ माइक फेंके, कागज लहराए। पर खुद गुर्जर आंदोलन का दंश झेल चुकी बीजेपी का तब और अब शह देने का क्या मकसद? क्या विपक्ष में आ जाने से राजनीतिक जिम्मेदारी का मकसद बदल जाता? ऐसे आंदोलनों के वक्त राजनीतिक एका की जरूरत, ताकि कोई हिंसक घटना न हो। पर लाशों की राजनीति नेताओं के बायोडाटा का हिस्सा बन चुकी। अब चाहे कांग्रेस राज में पिछली बार कोई हिंसक वारदात नहीं हुई। अलबत्ता दिल्ली के दखल से गवर्नर-सीएम ने बीजेपी राज के प्रस्ताव को ही मान लिया। तब चीफ मिनिस्टर ने आंदोलन थामने का क्रेडिट लेते हुए दलील दी थी- आठ महीने का वक्त कानूनविदों की राय लेने में लग गया। हम चाहते थे कि भविष्य में कोई कानूनी अड़चन न आए। पर जैसे गुर्जर आंदोलन में बीजेपी दोषी, वैसी ही कांग्रेस भी। अब कोई पूछे, जब आठ महीने कानूनविदों की राय लेने में बिता दिए। तो अब फिर मामला कोर्ट में क्यों पेंडिंग? यानी वोट बैंक की राजनीति में ईमानदार कोई नहीं। सो अबके कर्नल बैंसला ने एलान किया- चाहे सीएम आ जाएं या मध्यस्थ विश्वेंद्र सिंह या कोई तीस मार खां। जब तक पांच फीसदी आरक्षण नहीं मिलता, नहीं उठेंगे। पर सवाल हुआ- कोर्ट के आगे सरकार के हाथ बंधे हुए। तो बैंसला की दलील- सरकारी भरती की प्रक्रिया कोर्ट के फैसले तक रोक दो। क्या लोकतंत्र में निजी हित के लिए समाज के बाकी तबकों का हित दबाना उचित? रेल की पटरियां उखाडऩे और राजमार्ग को ठप करने से किसका नुकसान होगा? क्या किसी नेता की यात्रा रुक रही या काफिला ठहर रहा? आखिर में नुकसान तो आम नागरिकों को हो रहा। लोग स्टेशनों पर ठंड में ठिठुर रहे। जीवन अस्तव्यस्त हो रहा। सो आंदोलन के रहनुमाओं को जवाब देना होगा, यह कैसा आंदोलन? यह कैसी जिद, जो दूसरों की आजादी में खलल डाले? हर बार आंदोलन से सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाता। फिर उसी सरकार से अपने हित की मांग क्यों? सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड के सिविल वार में आंदोलन शब्द का विशेष प्रचलन हुआ। तब क्राम वेल की सेना के हर रेजीमेंट में प्रतिनिधि निर्वाचित किए गए। हर प्रतिनिधि को आंदोलनकर्ता कहा गया। फिर फ्रांसीसी क्रांति के वक्त आंदोलनकर्ता उन्हें कहा गया, जिन ने दंगा-फसाद कराने की कोशिश की। बाद में इंग्लैंड में इसी शब्द का इस्तेमाल शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए हुआ। जिसका मकसद लोकमत से संसद को इस बात के लिए प्रेरित करना था कि वह कानून में सुधार करे। वामपंथियों ने आंदोलन का मतलब उग्र बना दिया। पर अपने देश में जनआंदोलन का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को। उन ने शांति, प्रेम और अहिंसा से अंग्रेजों को मजबूर कर दिया। पर उग्र आंदोलन की शुरुआत 1948 में कम्युनिस्टों ने की। जब कलकत्ता थीसिस घोषित किया गया। आजादी को अधूरी बता कम्युनिस्टों ने बल प्रयोग से उलटने का एलान किया। रक्तरंजित क्रांति शुरू कर दी। ट्रेन-बैंक लूटे गए। देश में कड़ा विरोध हुआ। तो केंद्र-राज्य ने मिलकर हिंसा को कुचल दिया। बाद में देश में कई ऐसे आंदोलन हुए। पर अब वोट बैंक की राजनीति ने आंदोलनों को हवा देनी शुरू कर दी। सो अब जवाब आंदोलनकारियों को देना होगा, वह किस प्रकार का आंदोलन कर रहे? हिंसक आंदोलन का दर्द उस परिवार से पूछिए, जिनके घरों के चिराग बुझ गए। सो अपनी अपील, सर्वजन के हित में गुर्जर समाज खुद अमन-चैन का बीड़ा उठाए। अगर सरकार के बहरे कान तक आवाज पहुंचानी। तो रेल की पटरी उखाड़ आम जनता को नुकसान न पहुंचाएं। अलबत्ता महात्मा गांधी की तरह अहिंसा का मार्ग अपनाएं।
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21/12/2010

Monday, December 20, 2010

जनता की छोड़ो, आओ भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेलें

कांग्रेस की तीन दिनी महाकथा का समापन हो गया। अब इसे महाधिवेशन कहिए या कार्नीवल। कांग्रेस की यही खूबी, जो भी हो, डंके की चोट पर करती। चाहे वह पाप हो या पुण्य का काम। सो भ्रष्टाचार के साये में कांग्रेस ने मंथन तो किया। पर बीजेपी को खरी-खरी सुना ही कर्तव्य की इतिश्री कर ली। अब कोई विपक्षी दल ऐसा मंथन करे, तो सत्ता से दूरी का दर्द समझा जा सकता। पर जब सत्ता में बैठी कांग्रेस ऐसा कर रही, तो भ्रष्टाचार का भला क्या बिगड़ेगा? बीजेपी ने अगर पाप किया, या कर रही। तो आज वही गठरी सिर पर ढोने को मजबूर। पर कांग्रेस उस पाप से अपना पाप नहीं छुपा सकती। कर्नाटक पर भले बीजेपी दोहरापन दिखा रही। पर क्या विपक्ष के रवैये से देश में कांग्रेस को लूट का लाइसेंस मिल गया? कांग्रेस को स्पेक्ट्रम, आदर्श और कॉमनवेल्थ घोटाले पर जवाब देना था। पर कांग्रेस ने शायद इन घोटालों की मजबूत जड़ें देख लीं। सो अब जब कांग्रेस को कोई सुगम राह नहीं दिख रही। तो आक्रमण ही बेहतर बचाव का मंत्र अपना लिया। संसद का सत्र लोकतंत्र में काला इतिहास बना गया। तो अब कांग्रेसी जेपीसी को ही कमतर बताने में जुट गए। सोनिया-राहुल-पीएम और गाल बजाने वाले दिग्विजय ने एक सुर में पीएसी को बेहतर बताया। मंगलवार को मनमोहन ने तुरुप का पत्ता फेंका। बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी की रहनुमाई वाली पीएसी के सामने पेश होने का ऑफर कर दिया। बोले- सीएजी रपट के बाद मंत्री को हटाया। सीबीआई, ईडी, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज से जांच, सुप्रीम कोर्ट की मॉनीटरिंग और पीएसी की जांच चल रही। पीएसी के पास वह सारी शक्तियां, जो जेपीसी को दी जा सकतीं। सो जेपीसी का कोई मतलब नहीं। पर बीजेपी ने संसद ठप किया, जबकि मेरे पास छुपाने को कुछ नहीं। अब कोई पूछे- छुपाने को कुछ नहीं, तो जेपीसी क्यों नहीं? जब आप आधा दर्जन एजेंसियों से जांच कराने को राजी। तो जेपीसी से भागने का कुछ तो मतलब होगा। बीजेपी के अरुण जेतली ने तो फौरन सवाल उठाया- चुप्पी तोडऩे के लिए पीएम का स्वागत। पर शासनकर्ता जांच के लिए खुद मंच का चयन नहीं कर सकता। अगर पीएम गलत नहीं, तो सीमित अधिकार वाली पीएसी से जांच पर जोर क्यों दे रहे? उन ने आरोप मढ़ा- पीएम देश से बहुत सी बातें छुपा रहे। मसलन, तीन साल तक मनमोहन चुप क्यों रहे? कैग रपट से पहले तक राजा का बचाव क्यों करते रहे? सीवीसी पद पर दागी थॉमस के लिए वीटों क्यों किया? सिर्फ जेतली नहीं, वामपंथी सीताराम येचुरी ने भी पीएम को अपने दिन याद कराए। येचुरी बोले- एनडीए काल में मनमोहन ने जेपीसी के लिए तीन हफ्ते तक संसद का बॉयकाट किया था। सो दोहरे मापदंड न अपनाएं। यानी भ्रष्टाचार अब विशुद्ध रूप से राजनीति के मैदान का फुटबाल बन गया। तू चोर, तो मैं भी चोर की लड़ाई शुरू हो गई। विपक्ष ने संसद के बाद सडक़ पर बिगुल फूंका। तो कांग्रेस महाधिवेशन से सोनिया ने भी हुंकार भरी। जैसे विपक्ष मैदान में, वैसे हम भी कूदेंगे। बाकायदा विपक्ष की रैलियों के जवाब में विधानसभा वार रैली का एलान कर दिया। सोनिया ने अपने समापन भाषण में दो-टूक कहा- हमारा रिकार्ड एनडीए से बेहतर। पी. चिदंबरम ने तो भविष्यवाणी कर दी- अगले एक दशक तक बीजेपी सत्ता में नहीं आने वाली। उन ने विपक्ष को बतलाया, हम शासन करना जानते हैं। ऐसा ही गुरूर कांग्रेस ने बोफोर्स के वक्त भी दिखलाया था। अबके तो 206 सांसद को ही तीन चौथाई बहुमत मानकर फूल रही। पर सवाल- एनडीए से तुलना करना ही शासन? या कांग्रेस सिर्फ शासन करना ही जानती, सुशासन देना नहीं? आखिर यह कैसा मंथन, जब भ्रष्टाचार अपने चरम पर। तो कांग्रेस अपना दामन साफ दिखाने के बजाए बीजेपी के दामन में झांक रही। आतंकवाद के मुद्दे पर तो सख्त कार्रवाई के बजाए मजहबी चासनी लगाई जा रही। अयोध्या फैसले और बिहार की हार के बाद कांग्रेस की तय रणनीति के तहत दिग्विजय सिंह ने मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण की कमान थाम ली। सो अब बीजेपी भी मान रही, दिग्विजय का यह हथकंडा कांग्रेस-बीजेपी दोनों के लिए फायदेमंद। यानी वोट बैंक का चश्मा पहन दोनों खेल रहे। पर महाधिवेशन से आम आदमी को क्या मिला? पीएम ने महंगाई की बात की। तो इस बात की खुशी जताई कि महंगाई दर कम हो रही और मार्च तक साढ़े पांच फीसदी पर ले आएंगे। पर मंगलवार को ही एक खबर सुनने को मिली- चंडीगढ़ में एक व्यक्ति को जब प्याज की कीमत 65 रुपए बताई गई। तो हार्ट अटैक हो गया। मनमोहन राज में महंगाई दर भले ऊपर-नीचे होती रही। पर महंगाई हमेशा बढ़ती रही। चिदंबरम ने एनडीए का मखौल उड़ाया। विकास दर की ढपली बजाई। पर देश की जनता देख रही, किसका कितना विकास हुआ। भ्रष्टाचार के आरोपों को महाधिवेशन के मंच से निराधार बताया गया। तो सवाल- किस आधार पर राजा का इस्तीफा लिया? सीबीआई, ईडी, पाटिल कमेटी, शुंगलू कमेटी, सुप्रीम कोर्ट की मॉनीटरिंग, इनकम टेक्स और सीएजी क्या लकीर पीट रहीं? यानी कुल मिलाकर कांग्रेस महाधिवेशन में भ्रष्टाचार पर भजन तो हुआ। पर भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई से अधिक बीजेपी को कोसा। भ्रष्टाचार का पर्दाफाश तो नहीं, पर विपक्ष के आरोपों का पर्दाफाश करने का खम ठोक दिया। अब विपक्ष और कांग्रेस दोनों जनजागरण अभियान चलाएंगी। कोई भी भ्रष्टाचार पर उदाहरण पेश करने को तैयार नहीं। अलबत्ता भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेल रहीं। ताकि जनता इसी उधेड़बुन में उलझ जाए कि भ्रष्टाचार के इस खेल में कौन सांपनाथ, कौन नागनाथ।
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20/12/2010

Sunday, December 19, 2010

महाधिवेशन में मंथन वोट बैंक का, मुद्दों का नहीं

तो कांग्रेसी महाचौपाल का पहला दिन निपट गया। राजधानी के बुराड़ी में तंबुओं का शहर बसाया। देश भर से करीब 15 हजार डेलीगेट्स पहुंचे। पर भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसी चुनौतियां महज राजनीतिक हथकंडा बनकर रह गईं। सोनिया गांधी ने संसद सत्र के आखिरी दिन विपक्ष को ललकारा था। तो भ्रष्टाचार के मामले में शशि थरूर समेत कांग्रेसी नेताओं पर हुई कार्रवाई का जिक्र किया। सो खफा थरूर ने सोनिया को चिट्ठी लिख दी- भ्रष्टाचारियों की सूची में मेरा नाम न गिनाएं। अब थरूर की चिट्ठी या कोई और बात, सोनिया ने महाधिवेशन में किसी का नाम नहीं लिया। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जितना गरजीं, उससे अधिक बीजेपी पर भडक़ीं। भ्रष्टाचार के लगातार खुलासों ने कांग्रेस को सचमुच शरशैय्या पर पहुंचा दिया। पर इतवार को सोनिया ने न सिर्फ कांग्रेस को उठाने की कोशिश की। अलबत्ता विपक्ष के खिलाफ आक्रामक तेवर अपना लिए। भ्रष्टाचार को बीमारी बता जड़ से खात्मे का इरादा जताया। कलमाड़ी, चव्हाण जैसों पर कार्रवाई का हवाला दे बीजेपी से पूछ लिया- क्या उसके पास ऐसा दावा करने की हिम्मत है? सोनिया ने न सिर्फ कर्नाटक, बीजेपी शासित राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। संसद में जेपीसी की मांग पर हंगामे को बंधक बनाने की हरकत बताया। पर सत्ता में बैठे नुमाइंदों का मन कब मचल जाए, ठिकाना नहीं। सो सोनिया ने अपने सभी सीएम को सलाह दी- जमीन आवंटन के विशेषाधिकार की समीक्षा करिए। अब कौनसा सीएम अमल करेगा, यह बाद की बात। सार्वजनिक मंच से ऐसी जुबानी अपील बहुतेरे करते। पर संगठन चलाना खालाजी का घर नहीं। परदे के पीछे बहुत से ऐसे काम करने पड़ते, जो नैतिक मूल्यों की ऐसी-तैसी करते हों। अब अमल की ही बात, तो महाधिवेशन में सोनिया-राहुल ने कार्यकर्ताओं की शिकायत सामने रखी। मां-बेटे दोनों ने केबिनेट मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों को नसीहत दी- थोड़ा वक्त वर्करों को भी दें। राहुल-सोनिया ने कबूला- लंबे समय से वर्करों की उपेक्षा की शिकायत पर सत्ता में बैठे नेता नहीं समझ रहे। सो सोनिया ने दो-टूक नसीहत दी- सत्ता सुख भोग रहे नेता जमीन पर पांव रख मैला नहीं होने देंगे। तो वह दिन दूर नहीं, जब उनके पांव जमीन पर रखने लायक ही नहीं रहेंगे। सोनिया ने बात तो वर्करों के दिल की कही। पर पीएम की जमकर तारीफ की। अब पीएम अच्छे और बाकी मंत्री नासमझ, तो यह फार्मूला अपनी समझ से परे। यों सचमुच वर्करों की उपेक्षा का दर्द जानना हो, तो किसी बीजेपी नेता से पूछ लो। जब एनडीए राज था, तो वाजपेयी ने मंत्रियों को हफ्ते में एक बार पार्टी दफ्तर में बैठने की सलाह दी। पर वर्करों की अपेक्षा का कोलाहल सुन फाइव स्टार कल्चर मंत्रियों के कान बहरे हो गए। फिर नतीजा क्या हुआ, दोहराने की जरूरत नहीं। सो सोनिया-राहुल ने साफ संदेश दिया- अगर मंत्रालयों में बैठ मौज कर रहे, तो उसके पीछे वर्कर का हाथ। पर अमल कितना होगा, खुद कांग्रेस को भी मालूम नहीं। फिर भी सोनिया-राहुल की पुचकार से कांग्रेसी वर्कर तो फूल गए। सो विपक्ष के खिलाफ महाधिवेशन के मंच से सबने हुंकार भरी। सोनिया ने संयत भाषा में ही सही, पर निशाना संघ को बनाया। सांप्रदायिकता की परिभाषा बता, उन संस्थाओं पर कार्रवाई की बात की, जो धर्म की आड़ में लोगों को उकसा रहीं। पर बवाल न हो, तो उन ने जोड़ा- चाहे बहुसंख्यक का कट्टरपंथ हो या अल्पसंख्यक का, कांग्रेस फर्क नहीं करती। पर जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कमान संभाली। तो उन ने साबित कर दिया, अब तक के सारे विवादास्पद बयानों में सोनिया-राहुल का वरदहस्त मिला होगा। वरना खुद को राष्ट्रवादी और समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधि कहने वाली कांग्रेस के इस मंच से दिग्विजय संघ को हिटलर की नाजी पार्टी न बताते। उन ने सीधा आरोप लगाया- जैसे हिटलर ने यहूदियों को निशाना बनाया, संघ मुसलमानों को बना रहा। क्या यह सांप्रदायिकता भरा बयान नहीं? अगर संघ सचमुच ऐसी गतिविधि में संलिप्त, तो सत्ता में बैठी कांग्रेस प्रतिबंध लगाने के बजाए गाल क्यों बजा रही। दिग्विजय ने कांग्रेसियों को संघ के खिलाफ डंडा उठाने की अपील की। तो क्या इसे संवैधानिक कहेंगे? यानी महाधिवेशन के पहले दिन कांग्रेस के मंच से वह सब हुआ, जिसे सोनिया मना कर रही थीं। उन ने सादगी और संयम की बात की। तो कुछ देर बाद ही बिहार कांग्रेस के वर्करों ने मुकुल वासनिक के खिलाफ मोर्चा खोल अफरा-तफरी मचा दी। सोनिया ने गठबंधन में एकता की बात की। तो दीपा दासमुंशी ने तृणमूल कांग्रेस पर हमला बोला। पर सवाल, कांग्रेस की इस पूरी कवायद का अहम एजंडा क्या? पहले दिन ही यह साफ हो गया, संकटों से घिरी कांग्रेस ध्रुवीकरण की दिशा में बढ़ चुकी। कांग्रेस एकमुश्त मुस्लिम वोट बैंक अपनी झोली में वापस लाना चाह रही। सो दिग्विजय की जुबान दस जनपथ की स्क्रिप्ट पढ़ रही। पर कोई पूछे, महाधिवेशन से जनता के लिए क्या संदेश? सोनिया ने महंगाई की बात की। तो संयोग देखिए, दिल्ली में दूध के दाम इतवार से ही बढ़ गए। महंगाई पर वही छह साल से चल रही दलील। न किसान की बात, न गरीब की, न आम आदमी की। राहुल गांधी ने अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने की बात कही। पर आजादी के 63 साल में नहीं पहुंचे, तो कब पहुंचेंगे? कांग्रेस ने अपने 125 साल को सेवा और समर्पण से जोड़ा। पर इसमें से आजादी के पहले के 62 साल निकाल दो, तो 63 साल से कैसी सेवा हो रही देश की?
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19/12/2010

Friday, December 17, 2010

राहुल के विचार पर हाय-तौबा जैसा क्या?

 विकीलिक्स के खुलासों ने अब भारत में खलबली मचा दी। आतंकवाद पर राहुल गांधी की अमेरिकी राजदूत से बातचीत ने सियासत का पारा चढ़ा दिया। पर पहले बात सोनिया गांधी के बारे में अमेरिकी मानसिकता की। विकीलिक्स के खुलासे में अमेरिका की ओर से सोनिया को अक्षम नेता कहा गया। एटमी डील के वक्त विपक्ष को साधने में नाकाम बताया। कोई मौका न चूकने वाली नेता भी कहा। तब सरकार के सहयोगी रहे वामपंथी नेता प्रकाश कारत अमेरिकी नजर में बांह मरोडऩे वाले नेता। यानी अमेरिका के मन की बात हो, तो परवेज मुशर्रफ जैसे लोग भी अच्छे हो जाते। पर सोनिया ने 2007 में सरकार बचाए रखने को प्राथमिकता दी। तो अमेरिका अक्षम बता रहा। पर अमेरिका का दोहरापन कोई छुपी हुई बात नहीं। सो शुक्रवार को सोनिया से जुड़े खुलासे पर उतना शोर नहीं मचा, जितना राहुल बाबा को लेकर। विकीलिक्स के हवाले से अपनी मीडिया ने ज्ञान की ऐसी गंगा बहाई, बीजेपी ने राहुल को अज्ञानी करार दे दिया। खबर चली- 'राहुल ने हिंदू कट्टरपंथियों को देश के लिए बड़ा खतरा बताया।' सो बीजेपी और संघ परिवार ने राहुल को नासमझ कहा। बीजेपी के रविशंकर प्रसाद बोले- 'राहुल का बयान बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और गैर जिम्मेदाराना। ये भारत के प्रति उनकी सोच का संकेत। राहुल के इस बयान से साफ हो गया कि वे भारतीय राजनीति के बारे में कितना कम जानते हैं।' बीजेपी का गुबार इतने से ही न निकला। रविशंकर बोले- 'राहुल ने एक ही झटके में लश्कर-ए-तोइबा और जमात-उद-दावा जैसे संगठनों और पाकिस्तान के दुष्प्रचार को सही ठहरा दिया। इससे आतंक के खिलाफ भारत की लड़ाई कमजोर होगी।' बीजेपी के बाद संघ के राम माधव ने मोर्चा संभाला। तो बोले- कांग्रेस नेताओं में आतंकवादियों का करीबी बनने की होड़ मची हुई है। इस बयान से राहुल की समझ उजागर हो गई। यानी विपक्षी बीजेपी ने राजनीतिक फायदे के लिए राहुल के बयान को भुनाने में कोई देरी नहीं की। सो जब कांग्रेस को लगा, बीजेपी राजनीतिक बढ़त ले रही। तो फौरन राहुल गांधी के हवाले से कांग्रेस का स्पष्टीकरण जारी हो गया। मामला सीधे राहुल से जुड़ा था। सो कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी हों या महासचिव जनार्दन द्विवेदी, तीन लाइन के बयान से इतर कुछ नहीं बोले। अब जरा राहुल का स्पष्टीकरण देखिए। कहा गया- 'हर प्रकार का आतंकवाद और सांप्रदायिकता देश के लिए खतरा। ऐसी गतिविधियां करने वाला कौन, यह मायने नहीं रखता। पर हमें हर तरह के आतंकवाद के प्रति सतर्क रहना होगा।' कांग्रेस प्रवक्ता ने तो बीजेपी को अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत दी। पर जब वोट बैंक की राजनीति करनी हो। तो बीजेपी हो या कांग्रेस, भला कौन अपने गिरेबां में झांकता। अब भले विकीलिक्स पर राहुल और अमेरिकी राजदूत के बीच लंच के दौरान हुई बातचीत से बवाल मच गया। पर जरा विकीलिक्स के खुलासे का पूरा ब्यौरा देख लें। दस्तावेज के मुताबिक जब राहुल गांधी और भारत में अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर लंच पर बैठे। तो आतंकवाद पर चर्चा में राहुल ने उनसे कहा- 'भारत के कुछ मुस्लिम समुदायों में चरमपंथी गुट लश्कर-ए-तोइबा के समर्थन के सबूत हैं, लेकिन देश के लिए बड़ा खतरा कट्टरपंथी हिंदू गुटों का बढऩा है, जो मुस्लिम समुदाय के साथ धार्मिक तनाव और राजनीतिक टकराव पैदा करते हैं।' यानी राहुल के मुताबिक पाकिस्तान स्थित गुटों से होने वाले आतंकवादी हमलों पर कट्टरपंथी हिंदुओं की प्रतिक्रिया चिंता की बात। सचमुच अगर देश में इस तरह प्रतिक्रिया होने लगे, तो फिर देश के हालात क्या होंगे? माना, राहुल हों या कोई और, वोट बैंक की राजनीति या तुष्टिकरण में पीछे नहीं। सबका अपना-अपना स्वार्थ और वोट बैंक होता। राजनीति करने वाले वैसे भी दूध के धुले नहीं होते। राहुल गांधी अयोध्या फैसले के कुछ दिन बाद ही मध्य प्रदेश दौरे के वक्त संघ और सिमी को एक तराजू में तोल आए थे। पर सियासत के तमाम खुरपेच के बावजूद अगर राहुल और अमेरिकी राजदूत के बीच हुई बातचीत को गहराई से देखें। तो शायद यही कहेंगे, मचा शोर पहलू में बहुत, पर चीरा तो कतरा ए खूं न निकला। राहुल ने किसी जनसभा में यह टिप्पणी नहीं की। सो कम से कम इस बयान को वोट बैंक की राजनीति नहीं कह सकते। अलबत्ता यह राहुल की गंभीर चिंता को दर्शा रहा। सो किसी भी राष्ट्रभक्त नागरिक को सकारात्मक सोच दिखाने की जरूरत। अगर कथित इस्लामिक आतंकवाद के जवाब में कथित हिंदू आतंकवाद विकराल रूप धर ले। तो देश की तस्वीर क्या होगी? ऐसा भी नहीं कि मालेगांव और अजमेर जैसे ब्लास्ट में हिंदू कट्टरपंथियों की भूमिका नहीं। आम तौर पर किसी भी देश में अल्पसंख्यक खुद को थोड़ा असुरक्षित मानते। पर जब बहुसंख्यक आबादी के कुछ लोग बदले की आग भडक़ाएंगे। तो पाक और भारत में क्या फर्क रह जाएगा? पाक आज अपनी ही आग में कैसे झुलस रहा, जगजाहिर। अब राजनीति का सवाल, तो बीजेपी को भी अपना इतिहास याद रखना होगा। अगर राहुल का बयान आतंकवाद पर लड़ाई कमजोर करने वाला। तो फिर 28 जुलाई 2008 को दिया सुषमा स्वराज का बयान क्या था? जब 25-26 जुलाई 2008 को बेंगलुरु-अहमदाबाद में सीरियल बम ब्लास्ट हुए। तो सुषमा ने बम धमाके का आरोप सीधे केंद्र सरकार पर फोड़ दिया। दो बीजेपी शासित राज्यों में एक साथ हुए धमाकों को उन ने मनमोहन के विश्वास मत से जोड़ा था। यों बीजेपी ने बाद में बयान से दूरी बना ली। पर सुषमा ने अपना बयान वापस नहीं लिया। सुषमा ने तो बाकायदा बीजेपी के मंच से बयान दिया था। राहुल ने तो लंच भेंट में अनौपचारिक बातचीत की।
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17/12/2010

Thursday, December 16, 2010

अड़तालीस साल बाद भी चीन के सामने दब्बू क्यों?

चीन की चकल्लसबाजी असर दिखा गई। पिछले साल अक्टूबर में भारत-चीन रिश्तों में जबर्दस्त तल्खी आई। तीन अक्टूबर 2009 को पीएम मनमोहन अरुणाचल के चुनावी दौरे पर गए थे। तब दस दिन बाद यानी तेरह अक्टूबर को चीन ने मनमोहन के दौरे पर सवाल उठाया। अरुणाचल को विवादास्पद बता पीएम के दौरे पर एतराज जताया। तब भारत ने थोड़ी सख्ती दिखाई, चीनी राजदूत को तलब कर लिया था। फिर भी चीन ने अपना डरावना चेहरा दिखाना बंद नहीं किया। भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश में चीन ने पाक से खूब पींगें बढ़ाईं। पाक पीएम यूसुफ रजा गिलानी और चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ के बीच हुई मीटिंग में झेलम पनबिजली प्रोजैक्ट और काराकोरम मार्ग में सहयोग का वादा हो गया। तब जिन्ताओ ने बाकायदा बयान दिया था- भले वैश्विक परिस्थितियां बदल रहीं, पर पाक और चीन के लोग आपस में दिल से जुड़े हुए। यों चीन की ऐसी दिल्लगी कौन नहीं जानता। पंडित नेहरू के जमाने में चीन ने अपने साथ भी दिल्लगी की थी। सो चीन का पाक प्रेम सिर्फ भारत पर हौवा बनाने के लिए। चीनी फार्मूला, दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त। फिर वीजा डिप्लोमैसी का खेल किया। तो कभी अरुणाचल के लोगों को वीजा नहीं, तो कभी कश्मीर के बाशिंदों को स्टेपल्ड वीजा दिया। कश्मीर को भारत से अलग मान चीनी दूतावास लंबे समय से पासपोर्ट के बजाए कोरे कागज पर मुहर लगाता था। चीनी अतिक्रमण के किस्से तो पिछले साल इस कदर बढ़ गए थे कि कभी अरुणाचल तो कभी उत्तराखंड से खबरें आतीं। पर मनमोहन सरकार ने चुप्पी साध ली। यानी पिछले अक्टूबर से लेकर हाल तक चीन ने भारत पर दबाव बनाने के हर पेंतरे आजमाए। पर भारत ने आंखों पर गांधारी की तरह पट्टी बांध ली। सो चीनी प्रधानमंत्री का चार सौ के दल-बल के साथ भारत दौरा हुआ। तो अपनी तैयारी का नमूना देखिए। न स्टेपल्ड वीजा पर भरोसा मिला, न यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का। न मुंबई हमले के लिए पाक की निंदा, न सीमा पर चीनी अतिक्रमण की बात। पर चीन की चालाकी देखिए, वेन जियाबाओ जिस मकसद से आए, उसे पूरा कर लिया। भारत का मध्य वर्गीय बाजार अमेरिका-चीन समेत औद्योगिक देशों के लिए हमेशा से आकर्षण का केंद्र। सो पहले ओबामा ने अपना काम किया। पर अमेरिका से भी भारत को रणनीतिक साझेदारी मिली। अमेरिका ने चीन की तरह भारत को पूरी तरह दबाव में नहीं रखा। पर चीनी पीएम वेन जियाबाओ और मनमोहन की वार्ता के बाद छह अहम बिंदुओं पर समझौते हुए। चीन सौ बिलियन डालर के व्यापार का खाका बना गया। पर बदले में भारत ने क्या हासिल किया? भारत-चीन के बीच व्यापार में असंतुलन किसी से छुपा नहीं। स्टेपल्ड वीजा तक के मुद्दे पर जियाबाओ ने टका सा जवाब दिया। खुद भरोसा देने के बजाए अधिकारियों पर टाल दिया। सो कुल मिलाकर चीन की साल भर की कोशिश सफल रही। पर अपनी सरकार की तैयारी ऐसी रही, हर मोर्चे पर डिफेंसिव दिखे। या यों कहें, सरेंडर कर दिया, तो अतिशयोक्ति नहीं। सचमुच मनमोहन सरकार आंतरिक मोर्चे में ही उलझी रह गई। भ्रष्टाचार के भंवर से निकलने की कोशिश में वेन जियाबाओ को वॉकओवर दे दिया। मनमोहन सरकार जेपीसी और सुप्रीम कोर्ट को सफाई देने की तैयारी में ही लगी रही। यों गुरुवार को थोड़ी राहत मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की मॉनीटरिंग कबूल ली। अब विपक्ष की मजबूरी, सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा सकता। सीबीआई, सीवीसी, पीएसी, एक सदस्यीय कमेटी से जांच को ठुकरा चुका। पर सुप्रीम कोर्ट ने निगरानी का बीड़ा उठाया। तो बीजेपी को स्वागत करना ही पड़ा। पर भ्रष्टाचार के मुद्दे से सरकार को घेरने की देशव्यापी रणनीति का एलान हो चुका। सो बीजेपी के राजीव प्रताप रूड़ी बोले- कोर्ट की पहल का स्वागत। पर यह जेपीसी का विकल्प नहीं। यानी अगर जांच की यही रफ्तार रही, तो बजट सत्र आते-आते जेपीसी मांग की हवा निकल चुकी होगी। पर बात चीन की, जिसने साबित कर दिया। बॉर्डर तो बहाना, असली लड़ाई बाजारवाद की। पिछले साल जब दोनों देशों में वार ऑफ वर्ड चरम पर था, तब 15 अक्टूबर को यही बात आपको बताई थी। पर सवाल, हम खुद को चीन से कमजोर मान मनौवैज्ञानिक हार क्यों कबूल रहे? दुनिया अब 1962 जैसी नहीं। भारत को 1962 की भूल से सबक लेकर अपनी बढ़ती ताकत का भरोसा होना चाहिए। जब आर्थिक महामंदी ने दुनिया को झकझोर दिया। तो सिर्फ भारत और चीन ही ऐसे दो देश, जिन ने मंदी को मात दी। सो चीन की कोशिश हमेशा यही होगी, भारत मजबूत ताकत बनकर न उभरे। इतिहास साक्षी, कैसे माओत्सेतुंग ने भारत को सबक सिखाने का एलान किया था। कैसे लाल झंडा बीजिंग से होकर काठमांडू, कलकत्ता और लंदन तक पहुंचाने का दंभ भरा था। यह नहीं भूलना चाहिए। चीन ने आज भी पीओके में 43,180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमा रखा। पर दबाव बनाने को भारत पर पूर्वोत्तर में 90,000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जाने का दावा ठोक रहा। सो चीन से रिश्तों में सावधानी जरूरी, समर्पण नहीं। यों इस डर की जिम्मेदार भी कांग्रेस। अपने नटवर सिंह ने एक बार कहा था- अगर 1962 की हार का विश्लेषण किया होता, तो डरने की बात नहीं होती। पर तबके पीएम को बचाने के लिए तबके रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने जिम्मेदारी ओढ़ ली थी। अफसोस, अड़तालीस साल बाद भी चीन संग कूटनीति में दब्बू निकला भारत।
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16/12/2010

Wednesday, December 15, 2010

जनता की जेब पर डाका, डीएमके पर छापा

अब हलाल नहीं, झटके में आम आदमी की गर्दन उतरने लगी। सो रातों-रात पेट्रोल की कीमत बढ़ा ऐसा झटका दिया, लोग उफ भी न कर पाए। महंगाई को बढ़ा जनता का गला दबाना कोई अपने नेताओं से सीखे। रात में कीमतें बढ़ाईं, तडक़े देश भर में सीबीआई के छापे डलवा दिए। सो दिन भर अपनी मीडिया का जो भोंपू महंगाई पर बजता, सीबीआई के छापों में ही उलझा रहा। तभी तो न जनता का आक्रोश बाहर आ सका, न राजनीतिक दलों के पहले जैसे तेवर दिखे। यों युवा मोर्चा के बैनर तले जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर कीमत वापस लेने की मांग की। पर कांग्रेस की दबंगई का इतिहास कौन नहीं जानता। जब कांग्रेस ने एक बार कमिटमेंट कर दी, तो खुद की भी नहीं सुनती। अगर जेपीसी की ना कर दी, तो कोई माई का लाल हां नहीं करवा सका। भले संसद के समूचे सत्र की ऐसी-तैसी हो गई। ऐसे ही एटमी डील पर मनमोहन ने कमिटमेंट कर दी, तो लेफ्ट की समर्थन वापसी भी बेअसर रही। पर यह काहे का लोकतंत्र, जहां जनता की आवाज झटके से काटे जाने वाले बकरे की तरह दबा दी जाती। क्या यह लोकतांत्रिक तानाशाही नहीं? अगर सरकार को ऐसी ही तानाशाही दिखानी, तो कभी महंगाई पर क्यों नहीं दिखाती? पर जनता की फिक्र तो सिर्फ चुनावी मौसम में ही। तभी तो पिछली बार मनमोहन अमेरिका की खातिर सरकार कुर्बान करने पर अड़ गए थे। अबके भ्रष्टाचार पर जेपीसी से बचने के लिए। बुधवार को देश भर में 34 जगहों पर सीबीआई ने छापे मारे। ए. राजा के करीबियों के साथ-साथ करुणानिधि की बेटी कनीमोझी तक आंच पहुंच गई। सो कीमत में बढ़ोतरी से ध्यान बंटाने को नया सुर्रा छोड़ दिया। अब कांग्रेस-डीएमके के रिश्तों में दरार की खबरें उडऩे लगीं। अपना मीडिया तो बहुमत के गुणा-भाग में भी जुट गया। करुणा निकाला, जया जोड़ी। कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा और मनमोहन का कुनबा खड़ा कर दिया। पर अपने मीडिया का करेक्टर फिर कभी तफ्सील से बताएंगे। फिलहाल बात चेन्नई में बुधवार को 27 जगह पड़े छापों से डीएमके-कांग्रेस में मची खलबली की। छापों से खफा डीएमके ने शनिवार को चेन्नई में फैसलाकुन बैठक का एलान कर दिया। पर आंकड़ों का समीकरण ऐसा, रिश्ता टूटा, तो केंद्र और राज्य दोनों की सरकार खतरे में। तमिलनाडु में अप्रैल में चुनाव होने। पर राजनीतिक हालात डीएमके के खिलाफ। सो कांग्रेस भी अब जयललिता की अन्नाद्रमुक से पींगें बढ़ाने की फिराक में। पर कांग्रेस की रणनीति, डीएमके खुद छोडक़र जाए। सो कांग्रेस जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां बना रही कि डीएमके गठबंधन छोडऩे को मजबूर हो जाए। कांग्रेस की इस रणनीति की वजह भी साफ। भ्रष्टाचार के दलदल में अब कांग्रेस भी फंसने लगी। सो डीएमके को अलग कर ए. राजा की बलि लेने की तैयारी। ताकि विपक्ष को चित कर जनता को संदेश दे सके। यानी पूरे खेल में कांग्रेस का संदेश होगा, भ्रष्टाचारी मंत्री तक को भी नहीं बख्शा। डीएमके से रिश्ता तोड़ सरकार दांव पर लगा दी। पर यही काम तो कांग्रेस ने झारखंड में मधु कोड़ा के साथ किया। कोड़ा फिलहाल तिहाड़ में, राजा को कांग्रेस कहां भेजेगी, यह भविष्य के गर्भ में। पर कछुआ से खरगोश बनी सीबीआई का काम कांग्रेस का कार्यक्रम बता रहा। सो कांग्रेस और डीएमके के बीच तलाक होना तय मानिए। अब सिर्फ वक्त, वक्ता और स्थान का इंतजार। रही बात मनमोहन सरकार पर खतरे की, तो अब अपने मनमोहन सरकार बचाने में माहिर हो चुके। पिछली बार सांसदों की बोली शुरू तो 25 करोड़ से हुई, पर कहां तक गई, मालूम नहीं। तब अमेरिका से एटमी करार वजह थी। अबके तो एक नील 76 खरब के भ्रष्टाचार पर बलि का मुद्दा। सो सांसदों के रेट क्या होंगे, भगवान ही जाने। पर अब भ्रष्टाचार हो या महंगाई, भुगतना तो आम आदमी को ही। पेट्रोल में आग लगा अब डीजल, रसोई गैस की तैयारी। पर सवाल, पेट्रोल-डीजल की कीमतें कहां जाकर थमेंगी? जब एनडीए से कांग्रेस ने सत्ता छीनी, तो दिल्ली में पेट्रोल 30 और डीजल 20 रुपए लीटर थी। पर आज पेट्रोल करीब 60, तो डीजल 40 रुपए के पार। आज भी पेट्रोल की कीमतें पाकिस्तान में 26, बांग्लादेश में 22, नेपाल में 34, बर्मा में 30, अफगानिस्तान में 36 रुपए लीटर। पेट्रोल की उत्पादन कीमत महज 20 रुपए, पर भारत में यह तेल नहीं, राजस्व का कुआं बन चुका। सो बाकी टेक्स के रूप में आम आदमी से वसूल रही सरकार। मनमोहन दूसरी बार पीएम बने, पर संयोग कहें या या कुछ और। पर पेट्रोल-डीजल, दाल, चावल, आटा, सब्जी, दूध, चीनी सभी चीजों के दाम दुगुने हो चुके। भ्रष्टाचार की रफ्तार तो ऐसी, आम आदमी गिनती भूल जाए। स्विस बैंक के एक डायरेक्टर ने कहा था- भारतीय गरीब हैं, भारत नहीं। भारतीयों के 280 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंक में जमा, जिससे तीस साल तक भारत का टेक्सलेस बजट बन सकता। साठ करोड़ रोजगार पैदा हो सके। देश के दूरदराज गांव से दिल्ली तक चार लेन की सडक़ें बन सकतीं। पांच सौ सामाजिक परियोजनाओं को मुफ्त बिजली मिल सकती। देश के हर नागरिक को साठ साल तक दो हजार रुपए मंथली मिल सकते। पर इस धन को लाने के लिए कोई पहल नहीं। अलबत्ता पिछले छह महीने में छठी बार जनता पर बोझ डाल दिया।
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15/12/2010

Tuesday, December 14, 2010

'नर्वस न हो कॉरपोरेट, देश भले नर्वस हो जाए'

न कभी ऐसी सरकार देखी, न कभी ऐसा विपक्ष। अब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर कुछ इसी अंदाज में आरोप लगा रहे। संसद ठप होने के लिए आडवाणी ने सरकार को कोसा। बोले- ऐसा कांग्रेस की वजह से हुआ। तो जवाब में कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी बोले- बीता सत्र अलग तरह से याद किया जाएगा। ऐसा विपक्षी आचरण हमने कभी नहीं देखा। अब कांग्रेस-बीजेपी ने एक-दूसरे में क्या देखा या नहीं, यह वही जानें। पर देश की जनता दोनों का आचरण बखूबी देख रही। सो भ्रष्टाचार में घिरी कांग्रेस पर आडवाणी ने फिर चोट की। सडक़ों पर संघर्ष का औपचारिक एलान हो गया। दिल्ली, मुंबई, जयपुर समेत देश के तमाम शहरों में तीन महीने तक भ्रष्टाचार विरोधी रैलियां होंगी। आडवाणी ने टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को बहुआयामी बता फिर जेपीसी की मांग दोहराई। बोले- सत्र में कोई कामकाज न होना भी नतीजा देने वाला रहा। आडवाणी बोले- संसद में विपक्ष इस कदर सरकार को नहीं घेरता, तो राजा की छुट्टी नहीं होती। पर आडवाणी को मलाल, भले राजा गए, पर सरकार की जिद के चलते प्रजा को सच्चाई मालूम नहीं पड़ी। राजा के घटाले में किसने-किसने मलाई काटी, यह बात दबी हुई। सो विपक्ष जेपीसी की मांग से फिलहाल पीछे नहीं हटेगा। आडवाणी ने बजट सत्र की रणनीति पर चुप्पी साध ली। मध्यावधि चुनाव के सुर्रे को भी उन ने नकार दिया। यानी कुल मिलाकर आडवाणी ने भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द ही कांग्रेस को घेरने की कोशिश की। सरकार और कॉरपोरेट लॉबी के गठजोड़ का जिक्र कर आडवाणी ने सोनिया पर भी चुटकी ली। बोले- पीएम को तो बहुत सी बातें पता भी नहीं होतीं। सो अब तक लगता था- केबिनेट दस जनपथ से तय होता। पर नीरा राडिया के टेप से हमारा भ्रम टूट गया। अब पता लगा, सोनिया भी नहीं, कॉरपोरेट लॉबी केबिनेट तय करती। सचमुच देश और पीएम पद के लिए इससे बड़ी विडंबना नहीं हो सकती। जब पीएम का विशेषाधिकार भी कॉरपोरेट जगत के लिए दलाली करने वाले हथिया लें। तो व्यवस्था से आम आदमी क्या उम्मीद करेगा? टाटा और अंबानी के लिए लॉबिंग करने वाली नीरा राडिया के टेप खुलासे से सारा देश सकते में। पर देश के हर बड़े ताजा मसलों में मौन साधने वाले बाबा मनमोहन को कोई हैरत नहीं। सो मंगलवार को पीएम मनमोहन ने ऐसी बात पर चिंता जताई, जिसका कोई राष्ट्रीय सरोकार नहीं। उन ने फोन टेपिंग से हुए बड़े खुलासे पर कोई चिंता जाहिर नहीं की। अलबत्ता चिंता इस बात पर जताई कि टेप लीक कैसे हो रहे। पीएम ने बाकायदा केबिनेट सैक्रेट्री के.एम. चंद्रशेखर को हिदायत दे महीने भर में रपट मांग ली। क्या कभी पीएम ने बढ़ती महंगाई पर महीने भर में कोई रपट मंगाई? विज्ञान भवन में इंडियन कॉरपोरेट वीक का उद्घाटन करते हुए पीएम बोले- उद्योग जगत की नर्वसनेस से हम वाकिफ । अब अपने पीएम के बारे में क्या कहें, जिन्हें कॉरपोरेट जगत के नर्वसनेस की चिंता। भले भ्रष्टाचार के भंवर को देख अपना देश नर्वस क्यों न हो जाए। पर पीएम के बयान का कॉरपोरेट जगत ने दिल से स्वागत किया। उद्योगपति और सांसद राहुल बजाज ने खुशी तो जताई। पर कॉरपोरेट और राजनीति की सांठगांठ का बखान कर गए। बोले- गैर कानूनी ढंग से राजनीतिक दल कारोबारियों से फंड लेते। सो दोनों अपनी-अपनी जगह गलत हैं। सचमुच सरकार की नीतियां कैसे खास लोगों के लिए बनतीं, यह किसी आम आदमी से पूछकर देखिए। पर कोई उद्योगपति अगर दस रुपए का चंदा देता है, तो बदले में सरकार से दस करोड़ का काम भी करवाता। पर सवाल, आखिर अपने मनमोहन कभी आम आदमी की खातिर चिंता क्यों नहीं दिखाते? संसद में अमेरिका से जुड़े मुद्दों पर बहस हो, तो पीएम एक नहीं, चार-चार बार दखल देते। पर महंगाई की बात हो, तो पीएम की जुबां नहीं खुलती। किसानों की आत्महत्या पर आत्मा नहीं कचोटती। कॉरपोरेट जगत का दर्द मनमोहन को अपना सा लगता। नमूना आप खुद देख लो। संसद सत्र निपटा, तो पीएम की जुबां टाटाओं, अंबानियों को राहत देने के लिए खुली। पर मंगलवार की रात से ही एक बार फिर पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए। यानी मालदार कंपनियों की चिंता में आम आदमी की चिता सजाई जा रही। सो भ्रष्टाचार पर कोई नजीर पेश करने वाली कार्रवाई होगी, उम्मीद नहीं। अगर भ्रष्टाचार के प्रति चिंता होती, तो बिहार के सीएम नीतिश कुमार की तरह केंद्र में भी नेता जज्बा दिखाते। बिहार में घपले की विधायक निधि खत्म हो गई। भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जप्त कर उसके घर में स्कूल खोलने का प्रावधान बन गया। पर बिहार सरकार के इस फैसले को लागू करने में केंद्र ने साढ़े तीन साल लगा दिए। बिहार का बिल साढ़े तीन साल तक मंजूरी की बाट जोह रहा था। पर कार्यपालिका ही जब ऐसी, तो न्यायपालिका से क्या उम्मीद। अब तो छींटे न्यायपालिका पर भी पडऩे लगे। मद्रास हाईकोर्ट के जज रघुपति ने जुलाई 2009 में केंद्रीय मंत्री की ओर से धमकी की शिकायत की थी। तब हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एच.एल. गोखले ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन को नाम वाली चिट्ठी भेज दी। पर के.जी. बालाकृष्णन इनकार कर रहे। तो वही गोखले अब सुप्रीम कोर्ट में जज। सो उन ने पूरी कलई खोल दी। फिर भी बालाकृष्णन मानने को राजी नहीं। अब बालाकृष्णन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुखिया। सो आम आदमी भला किससे उम्मीद करे।
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14/12/2010

Monday, December 13, 2010

शहीदों को श्रद्धांजलि के बीच चिरायु हो भ्रष्टाचार!

संसद सत्र की बलि चढ़ गई, पर किसी भ्रष्टाचारी को बलि चढ़ाने वाली जेपीसी नहीं बनी। एक पूरे सत्र का हंगामे में गुजर जाना संसद का नया इतिहास रच गया। पर इस काले इतिहास में किसका परिहास बना? न विपक्ष, न सत्तापक्ष अपना परिहास मान रहा। यानी सचमुच अपनी संसद मजाक बनकर रह गई। तभी तो समूचा विपक्ष चीखता-चिल्लाता रह गया। सत्ता के बहरे कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब सत्र निपटने के बाद भी कांग्रेस और सरकार वही दलीलें दोहरा रहीं। जेपीसी को नकार पीएसी, सीबीआई, रिटायर्ड जज से जांच की बात। पर सवाल वही, जब कोई खुद को ईमानदार मान रहा। तो किसी भी जांच से डर कैसा? जेपीसी कोई भूत तो नहीं, वह संसद की नियमावली का ही हिस्सा। फिर कोई भी सरकार जेपीसी की मांग को कानून या संविधान की अवमानना कैसे करार दे सकती। पर अब संसद का शीत सत्र निपट गया। तो संकट के बादल बजट सत्र पर घुमडऩे लगे। एनडीए ने सोमवार को बापू की मूर्ति के सामने धरना दिया। अब सडक़ों पर विपक्ष का शंखनाद होगा। जिसकी गूंज बजट सत्र तक बरकरार रखने की तैयारी। सो संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल बोले- अगर बजट सत्र ठप हुआ, तो संवैधानिक संकट के लिए विपक्ष जिम्मेदार होगा। उन ने शीत सत्र में हंगामे की वजह से डेढ़ अरब रुपए के नुकसान का ठीकरा भी विपक्ष के सिर फोड़ा। तो बीजेपी से वेंकैया नायडू ने कमान संभाल ली। बोले- नुकसान की जिम्मेदार खुद कांग्रेस। अगर हंगामे से हुआ नुकसान अपराध, तो टू-जी स्पेक्ट्रम-कामॅनवेल्थ और आदर्श घोटाले के तीन लाख करोड़ डकारने वाले क्या अपराधी नहीं? सो बजट सत्र में किसका बाजा बजेगा, यह तभी दिखेगा। पर शीत सत्र के आखिर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने सांसदों से रू-ब-रू हुईं। तो गीता सार (क्यों व्यर्थ चिंता.. किससे व्यर्थ डरते.. कौन तुम्हारा क्या बिगाड़.... जो हुआ वह अच्छा.. जो हो रहा या जो होगा वह भी अच्छा..) का अनुसरण करते हुए जेपीसी से इनकार कर दिया। भ्रष्टाचार पर हंगामे के बीच पीएम के लंबे मौन की भी खूब तारीफ की। फिर उन ने बीजेपी को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरू किया। सोनिया ने बीजेपी को कर्नाटक और तहलका की याद दिलाई। भ्रष्टाचार पर दोहरे मापदंड का आरोप लगाया। पर सवाल, अगर बीजेपी ने भ्रष्टाचार किया, तो क्या कांग्रेस को भी भ्रष्टाचार का लाइसेंस? आखिर बचाव का यह कौनसा हथियार? भ्रष्टाचार पर अगर बीजेपी की कमीज सफेद नहीं, तो क्या कांग्रेस भी वैसी ही कमीज पहनेगी? राजनीति की यह कौन सी नैतिकता, जब छह साल एनडीए सत्ता में थी। तो कांग्रेस के 45 साल को अपनी ढाल बनाए चली। अब आठ साल बनवास के बाद कांग्रेस ने दुबारा सत्ता हासिल की। तो एनडीए के छह साल को ढाल बना लिया। आखिर जनता से यह आंख-मिचौली का खेल कब तक चलता रहेगा? यों सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की ओर से की गई कार्रवाई का भी ढोल पीटा। आदर्श घोटाले में अशोक चव्हाण का इस्तीफा, संचार घोटाले में राजा का इस्तीफा और जांच की दलील दी। पर कोई पूछे, क्या ये कार्रवाई कांग्रेस ने अंतरात्मा के धिक्कार पर की? चव्हाण हों या राजा का इस्तीफा। सीबीआई की जांच हो या सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज से। कांग्रेस ने सारे कदम मीडिया, सुप्रीम कोर्ट और संसद में बने राजनीतिक माहौल के बाद उठाए। अब जब सोनिया गांधी खुद कह रहीं, कांग्रेस के पास भ्रष्टाचार के मामले में छुपाने को कुछ नहीं। सो डरने की कोई बात नहीं। तो सवाल, जब छुपाने और डरने जैसी कोई बात नहीं। तो जेपीसी से डर कैसा? लोकतंत्र का तो यही तकाजा, अगर सत्तापक्ष के मन में कोई चोर नहीं। तो विपक्ष की हर शंका का समाधान करने में आगे बढक़र कदम उठाए। पर दोनों की जिद ने एक ऐसा इतिहास बना दिया, जो हर भ्रष्टाचार के वक्त याद आएगा। अगर संसद का कोई मतलब न होता, तो संविधान में एक्जीक्यूटिव आर्डर से ही सरकार चलाने का प्रावधान होता। पर संसद को सर्वोपरि इसलिए बनाया गया, ताकि सत्तापक्ष अपनी मनमानी न कर सके। फिर भी व्यवहार में संसद अब सत्तापक्ष की बपौती दिखने लगी। सो सोमवार को जब संसद हमले की नौवीं बरसी पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई। तो भ्रष्टाचार पर बेनतीजा रही जंग देख यही लगा, इस बार शीत सत्र में शहीदों को श्रद्धांजलि तो दी गई। पर भ्रष्टाचार को चिरायु होने का आशीर्वाद मिल गया। अगर अपने नेता संसद का मान नहीं रख सकते। तो क्यों न संसद का विसर्जन कर श्रद्धांजलि दे देते। अपने नेताओं का कोई ठिकाना नहीं। कोई ऐसा प्रस्ताव लेकर भी आ जाए। जुबान पर कंट्रोल होता, तो दिग्विजय सिंह के बाद होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ऐसा न बोलते। दिग्विजय तो अपनी हठबयानी से पीछे हटने को राजी नहीं। पर सोमवार को चिदंबरम ने क्राइम कैपीटल बनी दिल्ली का गुनहगार प्रवासियों को बना दिया। सो संसद भवन में बिहार-यूपी के नेताओं ने चिदंबरम को जमकर कोसा। कोसने वालों में विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेसी भी शामिल। सो शाम होते-होते चिदंबरम ने बयान वापस ले लिया। पर बात तो मुंह से निकल चुकी। सो कांग्रेस की मंशा भी जगजाहिर हो गई। अगर चिदंबरम की नजर में प्रवासी दिल्ली के अपराध के लिए जिम्मेदार। तो क्या समूचे भारत में अपराध के लिए विदेशियों को जिम्मेदार कहेंगे?
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13/12/2010

Saturday, December 11, 2010

तो क्या अब कसाब बचाओ मुहिम भी?

आखिर किस हद तक गिरेगी अपनी राजनीति? कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने फिर कमाल कर दिया, धोती को फाड़ के रूमाल कर दिया। ऊपर वाले की कृपा से भले वाराणसी बम धमाके में जान-माल की अधिक क्षति नहीं हुई। पर दिग्गी राजा ने जो राजनीतिक धमाका किया, खुद कांग्रेस-बीजेपी और अपनी कूटनीति भी लहुलुहान होती दिख रही। अभी 26/11 हमले की दूसरी बरसी को बीते महज पखवाड़ा भर हुए। पर दिग्गी राजा ने नई कहानी गढ़ दी। खुलासा किया- ‘मालेगांव बम धमाके की जांच में हिंदुवादी संगठनों की भूमिका उजागर करने की वजह से एटीएस चीफ हेमंत करकरे को कट्टर हिंदू संगठनों से जान का खतरा था।’ दिग्गी की मानें, तो मुंबई पर हुए आतंकी हमले से ठीक दो घंटे पहले फोन पर बातचीत में खुद करकरे ने यह बात उन्हें बताई थी। पर सवाल, दिग्गी राजा को 26 नवंबर 2008 को करकरे से हुई बात हमले की दूसरी बरसी के बाद अचानक कैसे याद आ गई? अगर करकरे को सचमुच धमकियां मिल रही थी, तो उन ने दिग्विजय सिंह को ही क्यों बताया? करकरे अपने वरिष्ठ अधिकारी या महाराष्ट्र के गृह मंत्री, केंद्रीय गृह मंत्री या फिर पीएम-सीएम से बात कर सकते थे। पर उन ने सिर्फ दिग्गी राजा को ही क्यों बताई? इससे भी अलग सवाल, जब किसी को कोई धमकी मिलती है, तो वह सबसे पहले अपने परिवार से शेयर करता है। पर शहीद हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने फौरन इनकार किया। अलबत्ता जांच में जुड़े अधिकारी के नाते ऐसी बातों को सामान्य बताया। पर दिग्गी राजा की टिप्पणी को कविता करकरे ने वोट बैंक की ओछी राजनीति से प्रेरित बताने में देर नहीं की। सचमुच दिग्गी राजा की दलील आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को कमजोर करेगा। जब सारी दुनिया और अदालत मुंबई हमले और करकरे जैसे बहादुर ऑफीसरों की शहादत के पीछे पाकिस्तानी आतंकियों की करतूत मान चुका। यों विशेष अदालत से फांसी की सजा पा चुका आतंकी कसाब अब हाई कोर्ट में पैतरेबाजी कर रहा। हाल ही में कसाब ने हेमंत करकरे को मारने में अपनी भूमिका से इनकार किया था। अब करीब-करीब वही बात कांग्रेस महासचिव दिग्गी राजा कह रहे। उन ने दो-टूक कह दिया- ‘जब रात में करकरे की मौत की खबर मिली, तो मैं सन्न रह गया था और मेरे मुंह से निकला, ओह गॉड, मालेगांव जांच के विरोधियों ने उन्हें मार डाला।’ अब आप क्या कहेंगे? क्या शहादत पर बखेड़ा खड़ा करना सचमुच कांग्रेस की फितरत बन गई? या फिर वोट बैंक के लिए कसाब को भी अफजल बनाएगी कांग्रेस? सोमवार को संसद पर हमले की नौंवीं बरसी। पर लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर पर हमले का मास्टरमाइंड अफजल गुरु वोट बैंक के राजनीतिक तवे में सेंकी रोटियां तोड़ रहा। फिर भी संसद में श्रद्धांजलि का ढक़ोसला करते दिखेंगे अपने माननीय नेतागण। जो अफजल की फांसी से जुड़ी फाइल पर कुंडली मारकर बैठे हुए। सिर्फ अफजल ही नहीं, बटला हाउस मुठभेड़ में शहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा पर भी उंगली उठा चुकी कांग्रेस। खुद दिग्गी राजा ने मोर्चा खोला था। आतंकियों के परिजनों से सहानुभूति जताने आजमगढ़ जाने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई थी। पर दिग्गी राजा के हर विवादास्पद स्टैंड में कांग्रेस की बड़ी राजनीति निहित होती। सो कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने तो बेबाक कह दिया। बोले- ‘दिग्विजय सिंह उपन्यास के पार्ट जरुर हैं, पर उपन्यासकार नहीं।’ अब कोई पूछे, उपन्यासकार कौन है? अब मुंबई जैसे आतंकी हमले को भी वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनाने का क्या मकसद? क्या अब कांग्रेस ‘कसाब बचाओ मुहिम’ में जुट गई? अगर करकरे आतंकी हमले में शहीद नहीं हुए, तो क्या विरोधियों ने हत्या कर दी? अगर यही दिग्विजय सिंह का स्टैंड, तो पाक को बेमतलब डोजियर क्यों सौंपे? कसाब ने करकरे को नहीं मारा, तो कोर्ट में जाकर दिग्विजय उसके पक्ष में गवाही दे दें? फिर भी मन नहीं भरता, तो कसाब को सम्मान सहित पाक के फरीदकोट उसके गांव पहुंचा आएं। क्या दिग्विजय का बयान अब पाक के लिए ढ़ाल नहीं बनेगा। जब सत्ताधारी दल का एक वरिष्ठ महासचिव ही ऐसा कहेगा। तो पाक की मुराद तो खुद-ब-खुद पूरी हो जाएगी। पर कांग्रेस हो या बीजेपी, सबकी कहानी एक। दिग्विजय से पहले बीजेपी की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज भी ऐसा कर चुकीं। जब 22 जुलाई 2008 को मनमोहन सरकार ने जोड़-तोड़ से बहुमत हासिल किया। फिर 25-26 जुलाई को अहमदाबाद-बेंगलुरू में लगातार सीरीयल ब्लास्ट हुए। तो 28 जुलाई को सुषमा ने इसे मनमोहन सरकार की साजिश बता दिया। बोलीं- ‘विश्वास मत के चार दिन बाद ही इस तरह का हमला हुआ। परिस्थितिजन्य साक्ष्य नाम की कोई चीज दुनिया में है या नहीं। ऐसा कभी नहीं हुआ, 24 घंटे में दो बीजेपी स्टेट में एक जैसे ब्लास्ट हुए। कैश फॉर वोट से ध्यान बंटाने, अमेरिकापरस्ती से छिटके मुस्लिम वोट को बीजेपी का कृत्रिम भय दिखाने के लिए हुए हमले।’ पर बवाल मचा, तो दो दिन बाद बीजेपी ने भी वैसे ही सुषमा से दूरी बना ली। जैसे कांग्रेस ने दिग्विजय के बयान से। पर तब भी न सुषमा ने खेद जता बयान वापस लिया, न दिग्विजय अब ऐसा कर रहे। सो राजनीति की यह कैसी विडंबना। कभी अफजल का बचाव, तो कभी बटला कांड में शहीद इंस्पेक्टर की शहादत पर सवाल, तो कभी भ्रष्टाचार के आरोपी ए. राजा और पी.जे. थॉमस जैसे लोगों का बचाव...। और अब दिग्विजय का रुख कहीं कांग्रेस की कसाब बचाओ मुहिम तो नहीं? विकिलीक्स के जरिए भी खुलासा हो गया, कांग्रेस ने 26/11 के बाद मजहब यानी वोट बैंक की राजनीति की कोशिश की थी।
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11/12/2010

Friday, December 10, 2010

संसद से कानकुन तक नहीं बदली आबोहवा

अब सोमवार को संसद हमले की नौंवी बरसी पर न सिर्फ शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाएगी। अलबत्ता यह पहला मौका होगा, जब उसी दिन संसद के एक समूचे सत्र की भी श्रद्धांजलि हो जाएगी। सो अब तो दिनों की गिनती बेकार, क्योंकि यह शीत सत्र संसद के इतिहास में काला अध्याय बन चुका। पर लड़ाई अभी थमी नहीं। विपक्ष ने 22 दिसंबर से बजट सत्र तक देश भर में रैलियों से अलख जगाए रखने की रणनीति बना ली। दिल्ली में विपक्ष पहली रैली से अपनी ताकत दिखाएगा। सो अब कांग्रेस के साथ-साथ यूपीए के घटक दल 2014 से पहले ही मध्यावधि चुनाव की आशंका जताने लगे। यूपीए के धुरंधर दो-टूक कह रहे- यही हालात रहे, तो जेपीसी के बजाए हम चुनाव में जाना पसंद करेंगे। विपक्ष भी मौजूदा हालात में 2012 में मध्यावधि चुनाव मानकर चल रहा। भ्रष्टाचार पर पीएम की चुप्पी और कांग्रेस की जिद से विपक्ष को लग रहा, बोफोर्स दोहराएगा। सचमुच अब यह सवाल आम हो गया- जब कांग्रेस ईमानदार, तो जेपीसी जांच से परहेज क्यों? जब सीबीआई या सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज या विपक्ष की रहनुमाई वाली पीएसी से जांच को राजी। तो साधारण सा सवाल, जेपीसी न मानने की जिद क्यों? समूचे विपक्ष की आवाज दबाने को संसद सत्र की बलि क्यों? क्या संसद सिर्फ कठपुतली? जहां सिर्फ सत्ता पक्ष की ही चलेगी? लिखत-पढ़त में भले ऐसा न हो। पर सच्चाई यही, संसद को सत्ता पक्ष ने बपौती बना लिया। तभी तो अपने पीएम संसद में महीने भर से चल रहे गतिरोध के बावजूद विदेश यात्रा पर निकल चुके। सो संसद सत्र के वक्त पीएम के नदारद रहने पर एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी के ऊपर मौजूं टिप्पणी की थी। उनने कहा था- पंडित नेहरू संसद से सिर्फ तब बाहर रहते थे, जब उनके पास कोई चारा नहीं होता था। पर इंदिरा गांधी सिर्फ तब संसद आया करती थीं, जब उसे टालना संभव नहीं होता था। यों ऐसे आरोप मनमोहन के राजनीतिक गुरु नरसिंह राव पर भी लग चुके। पर तब तात्कालीन संसदीय कार्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दलील दी थी- नेहरू के बाद हर पीएम ने सिर्फ आवश्यकता महसूस होने पर ही संसद में आना उचित समझा। इसलिए आप नरसिंह राव पर संसद को अधिक समय न देने का आरोप नहीं लगा सकते। सो जब गुरु नरसिंह राव मौनी बाबा बन अल्पमत की सरकार चला चुके। तो चेले मनमोहन को क्या फिक्र। संसद की फिक्र होती, तो जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कानकुन में चल रही बैठक में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश देश का रुख नहीं बदलते। सात दिसंबर 2009 को राज्यसभा में जयराम ने भरोसा दिया था। किसी भी सूरत में कार्बन उत्सर्जन को लेकर कानूनी बाध्यता मंजूर नहीं करेंगे। पर कानकुन में जाकर रुख बदल दिया। पहले से तैयार सरकारी भाषण में संसद को दिए भरोसे वाला ही स्टैंड था। पर जयराम की चालाकी देखिए, बीच में अमेरिका को पसंद आने वाली बात कह दी। सभी देशों को कानूनी रुप में बाध्यता स्वीकार करने का सुर्रा छोड़ दिया। जयराम का अमेरिका प्रेम बताएंगे, पर सनद रहे, सो पहले इस बहस का इतिहास बता दें। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने विकास की अंधाधुंध होड़ में पर्यावरण को पलीता लगाया। औद्योगिक क्रांति कर दुनिया के दादा बन गए। पर कार्बन युक्त आबोहवा ने जिंदगी नरक बना दी। तो अब अमेरिका अपना कूृड़ा-करकट ढ़ोने का दबाव विकासशील देशों पर बना रहा। ग्रीन हाउस गैस बढ़ाने का अनुपात देखो। तो अमेरिका के मुकाबले भारत 18 गुना कम कार्बन छोड़ रहा। जहां अमेरिका में प्रति व्यक्ति 20 टन, वहां भारत में महज 1.5 टन का आंकड़ा। दो दशकों से भारत यही लड़ाई लड़ रहा- प्रदूषण पैदा करने वाला ही उसकी कीमत अदा करे। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च क्लाइमेट इनिसिएटिव की रपट देखो, तो साफ हो जाएगा। भारत में 76 फीसदी आबादी ऐसी जो महज दो डॉलर पर जीवन यापन कर रही। तो यूएस में रोजाना 13 डॉलर कमाने वाले बीपीएल में। यानी अमेरिका के हिसाब से देखें। तो अपनी 99 फीसदी आबादी गरीबी का शिकार। अगर ग्लोबल वार्मिंग पर दुनिया की दादागिरी के आगे नतमस्तक हो गए। तो देश की गरीबी कभी नहीं मिटेगी। ग्रीन हाउस गैस का स्टॉक ही देखो। तो दुनिया में कुल 75 फीसदी का स्टॉक। जिसमें एकला यूएस का 29 फीसदी और भारत का महज 2.3 फीसदी। अब अगर भारत जैसे देश अपना जीवन-स्तर बढ़ाएगा। तो ग्रीन हाउस गैस बढ़ेगा। साथ ही, मजबूत अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों को चुनौती। सो इस आड़ में यूएस की साजिश भी कम नहीं। तभी तो कोपेनहेगेन से कानकुन आते-आते ब्रिक्स यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका के गुट में सेंध लगा दी। भारत-चीन कानकुन में अलग-थलग पड़ते दिखे। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील विकसित देशों की गोद में जा बैठा। सो दबाव में जयराम ने बेड़ा गर्क कर दिया। पर बवाल मचा, तो सफाई देते फिर रहे। कह रहे, भारत अभी बाध्यकारी समझौते के लिए राजी नहीं। पर सभी देशों को कानूनी बाध्यकारी समझौता मानना चाहिए। भले जयराम जुबां से मजबूर, पर शायद दिल अमेरिका से लगा हुआ। तभी तो कोपेनहेगेन से पहले अक्टूबर 2009 में पीएम को चिट्ठी लिख स्टैंड बदलने की सलाह दी थी। सो आप खुद देख लो, देश हित की फिक्र किसे। संसद और देश का मान नहीं, अलबत्ता अपना-अपना जुगाड़ करने में जुटे नेता।
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10/12/2010

Thursday, December 9, 2010

एंटी करप्शन डे, यानी न करें भ्रष्टाचार का विरोध!

संसद से सडक़ तक, फिर सडक़ से संसद तक जेपीसी की लड़ाई जारी रहेगी। विपक्ष ने बजट सत्र में भी मुहिम जारी रखने का एलान कर दिया। पर पहले एनडीए महारैली करेगा। सो भ्रष्टाचार पर विपक्ष के हमलों से चकरघिन्नी बनी कांग्रेस बेसिर-पैर की बयानबाजी को उतारू। संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने पुरानी फाइलें खंगाल कांग्रेस प्रवक्ताओं को कुछ कानूनी मंत्र थमाए। तो अब कांग्रेसी राशन-पानी लेकर एनडीए कार्यकाल को निशाना बना रहे। मनीष तिवारी ने गुरुवार को तेवर दिखाते हुए बीजेपी से तीन सवाल पूछे। पहला- क्या यह सच नहीं कि 1999 में खुद पीएम वाजपेयी ने जगमोहन को संचार मंत्रालय से हटाकर टेलीकॉम कंपनियों को फायदा पहुंचाया, जिससे 60 हजार करोड़ करा नुकसान हुआ? दूसरा- जब 2001 में प्रमोद महाजन मंत्री थे, तब क्या उन्होंने मुफ्त स्पेक्ट्रम नहीं बांटे? तीसरा- पहली अप्रैल 2004 को जब देश चुनाव में था, तब बीजेपी ने ऑपरेटरों की राजस्व हिस्सेदारी घटाकर फायदा नहीं पहुंचाया था? अब कांग्रेस के इन तीनों सवालों का जवाब तो बीजेपी देती रहे। पर अपना सवाल, क्या इन सवालों के जरिए कांग्रेस राजा का पाप धोना चाह रही? चलो मान लें, कांग्रेस प्रवक्ता के आरोप में दम। तो फिर जेपीसी बनाने में एतराज क्यों? बीजेपी तो पहले दिन से खम ठोक कर कह रही- सिर्फ 2001 से क्यों, 1998 में जबसे राजग की सरकार, तबसे जेपीसी की जांच करा लो। जब विपक्ष खुद अपनी जांच कराने को तैयार, तो भला कांग्रेस जेपीसी से क्यों भाग रही? वैसे भी जेपीसी में अमूमन सत्तापक्ष का ही बहुमत होता। फिर भी सरकार जेपीसी पर ऐसी रार ठाने, तो इसे दाल में काला कहेंगे या पूरी दाल काली। वैसे सच्चाई यही, कांग्रेस इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं ढूंढ पा रही। सो नेता दिहाड़ी मजदूर की तरह बयानबाजी कर रहे। तभी तो गुरुवार को सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज शिवराज वी. पाटिल से घोटाले की जांच का एलान किया। पर बीजेपी ने नकार दिया। तो सिब्बल ने एक नया सुर्रा छोड़ दिया। अब यह सुर्रा हताशा, बौखलाहट या एक वकील की वकालत, यह आप ही तय करिए। पर जरा पहले सुर्रा सुनते जाइए। सिब्बल बोले- विपक्ष टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग कर रहा। पर असल में 20 दिन से संसद की कार्यवाही ठप होने से देश पर 70 हजार करोड़ का बोझ पड़ा है। सो इसकी जेपीसी से जांच होनी चाहिए। पर सवाल सिब्बल से- अगर हंगामे पर जेपीसी की जरूरत, तो किससे मांग कर रहे। खुद मालिक-मुख्तार बने बैठे, क्यों नहीं बनवा लेते जेपीसी। कम से कम जनता यह तो देख ले, एक नील 76 खरब रुपए के घोटाले पर कांग्रेस जिद ठाने बैठी। और संसद सत्र पर खर्च हुए 70 हजार करोड़ को नैतिकता का हथियार बना रही। किसके काल में क्या हुआ, यह भले राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का मुद्दा हो। पर जनता यह जानना चाह रही, टू-जी स्पेक्ट्रम के महाघोटाले में किस-किस ने अपने हाथ धोए। जेपीसी जब सारी सच्चाइयों को उजागर करने में सक्षम, तो सरकार के पीछे हटने का क्या मतलब लगाएं? स्पेक्ट्रम घोटाले में नेता, नौकरशाह, कॉरपोरेट घराने और अपनी मीडिया की सांठगांठ उजागर हो चुकी। नेता, नौकरशाह, कॉरपोरेट का गठजोड़ तो बहुत पुराना। पर इस खेल में अपना मीडिया सही मायने में ‘नैतिकता का स्मगलर’ निकला। सो सचमुच ईमानदारी से जेपीसी जांच हो जाए। तो कम से कम समूचे सिस्टम की एक बार सफाई हो जाए। घोटाले के इस खेल में गुरुवार को नया मोड़ आ गया। जब रतन टाटा और उद्योगपति व राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर एक दूसरे के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। चंद्रशेखर ने टाटा को चिट्ठी लिखकर फायदे का आरोप लगाया। तो जवाब में टाटा ने न सिर्फ चंद्रशेखर को लपेटा, अलबत्ता पूरी तरह से कांग्रेस के पाले में खड़े दिखे। सो बीजेपी के प्रकाश जावडेकर ने पहले तल्खी दिखाई। बोले- रतन टाटा कोई जज या जेपीसी नहीं। वह उद्योगपति हैं, जिनकी टेलीफोन कंपनी को यूपीए शासन में काफी फायदा पहुंचा है। पर सुषमा स्वराज और एस.एस. आहलूवालिया ने टाटा की टिप्पणी को दो कॉरपोरेट हस्तियों के बीच जंग बता चुप्पी साध ली। यानी बीजेपी टाटा को नाराज नहीं करना चाहती। राजनीतिक दलों को चंदा कॉरपोरेट घरानों से ही मिलता। सो टाटा की परेशानी को बीजेपी समझ रही। पूरे मामले में टाटा ही सबसे अधिक प्रभावित हो रहे। नीरा राडिया के सिर्फ दस घंटे के टेप ने नेता, नौकरशाह, उद्योग जगत और मीडिया की पोल खोल दी। अभी तो 1990 घंटे का टेप बाकी। सो टाटा का कोर्ट से लेकर खुले आम राजनीति के मैदान में उतरना कोई अचरज की बात नहीं। भ्रष्टाचार पर छिड़ी राजनीतिक जंग के बीच गुरुवार को अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस भी मन गया। पर देखो, टाटा जैसे लोगों का पैसा राजनीतिक दल के लिए चंदा कहलाता और आम आदमी का रिश्वत। तभी तो सीवीसी पी.जे. थॉमस ने भ्रष्टाचार का नया अर्थशास्त्र बताया। बोले- आम आदमी रिश्वत देना बंद करे, तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। मांग-पूर्ति का फार्मूला बताया- लोग रिश्वत देते हैं, सो मांग बढ़ती है। पता नहीं थॉमस ने कौन सा अर्थशास्त्र पढ़ा। जब तक मांग न हो, पूर्ति कहां से होगी। वैसे भी आम आदमी की जेब में इतने पैसे नहीं होते, जो बिना मांगे रिश्वत देता फिरे। पर थॉमस तो थॉमस हैं। यानी कुल मिलाकर वही बात, भ्रष्टाचार की भैंस को डंडा क्यों मारा। वह तो व्यवस्था में रच-बस चुका। जिस भैंस का दूध पीकर सभी मस्त हो चुके। सो अब एंटी करप्शन डे का मंत्र यही- भ्रष्टाचार का विरोध कर व्यर्थ समय न गंवाएं।
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09/12/2010

Wednesday, December 8, 2010

चिदंबरम और सिब्बल की दलील के तो क्या कहने

तो 26/11 का सबक यही, बैताल फिर पेड़ पर जा लटका। वही रोना-धोना- न अत्याधुनिक हथियार, न खुफिया जानकारी। केंद्र-राज्य के बीच ठीकरा फोड़ू बयानबाजी। पर सवाल, 26/11 की दूसरी बरसी के बाद भी वही राग क्यों बज रहा? मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक), एनआईए, आधुनिक हथियारों का ताम-झाम किस काम का? वाराणसी के गंगा घाट पर धमाके के बाद भी बुधवार को श्रद्धालुओं ने वही जज्बा दिखाया। पर अपने नेताओं में आवाम की सुरक्षा का जज्बा क्यों नहीं दिखता? आतंकवाद पर फिर वही गीत क्यों गा रहे? मौका-मुआइना करने वाराणसी पहुंचे होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने सुरक्षा में चूक तो कबूली। पर जिम्मेदार यूपी सरकार को ठहरा दिया। बोले- 26/11 और छह दिसंबर की बरसी पर तो एडवाइजरी दी ही थी। इससे पहले 25 फरवरी को पुणे की जर्मन बेकरी विस्फोट के बाद वाराणसी के दशाश्वमेघ घाट पर हमले की जानकारी दी थी। यानी चिदंबरम ने बेहिचक मायावती सरकार पर सुरक्षा में कोताही का आरोप लगा दिया। पर माया की ओर से यूपी के केबिनेट सैक्रेट्री शशांक शेखर ने मोर्चा संभाला। ठोस खुफिया जानकारी न देने के लिए केंद्र को लपेटा। लगे हाथ केंद्र को नसीहत भी दे दी- दलगत राजनीति से ऊपर उठे केंद्र सरकार। सुरक्षा बलों को अत्याधुनिक हथियार दे। खुफिया सूचना का फायदा तभी, जब स्पष्ट और कार्रवाई योग्य हो। केंद्र सामान्य एडवाइजरी जारी कर अपने फर्ज की इतिश्री न माने। शशांक ने 25 फरवरी की खुफिया जानकारी को यह कहते हुए कमजोर बताने की कोशिश की कि वह सूचना दशहरा के परिप्रेक्ष्य में थी। यानी बम धमाके के 14-16 घंटे के भीतर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। बीजेपी ने भी कूदने में देर नहीं की। चिदंबरम को कनफ्यूज्ड होम मिनिस्टर बता आतंकवाद का राजनीतिकरण न करने की सलाह दी। पर सवाल, क्या ऐसी हरकतों से हम आतंकवादी मंसूबों पर पानी फेर सकेंगे? आतंकवादी अयोध्या फैसला, एसआईटी से मोदी को क्लीन चिट और कश्मीरी नेताओं के साथ बुरे बर्ताव को हमले का आधार बना रहे। सो राजनीतिक संयम की जरूरत। गुजरात दंगे हों या बाबरी विध्वंस, वह दौर बीत चुका। पर दो साल की मासूम स्वास्तिका का क्या कसूर? पापड़ बेचने वाला हरिया का एक पैर खराब हुआ। पर असल में उस परिवार की कमर टूट गई। फूल बेचने वाली दस साल की राधिका बूढ़ी नानी की देखभाल करती थी। अब नानी हास्पीटल में उस मासूम की देखभाल कर रही। सो अपने नेताओं को वोट बैंक से ऊपर उठ संयम और राजनीतिक एकता की मिसाल पेश करने की जरूरत। संसद में एक मिनट का मौन धारण कर श्रद्धांजलि देना ही सब कुछ नहीं। वैसे भी संसद को तो नेताओं ने मजाक बना रखा। भ्रष्टाचार की आग में उन्नीसवें दिन भी संसद झुलसी। पर दोनों पक्ष पानी के बजाए पेट्रोल डाल रहे। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट से लगातार पड़ रहे डंडे और संसद ठप होने से हो रही फजीहत के बाद पूर्व संचार मंत्री राजा पर शिकंजा थोड़ा कसा। बुधवार को सीबीआई ने राजा के दिल्ली, चेन्नई आवास और उनके साथ रहे चार अधिकारियों के घर छापा डाला। वैसे छापे के मायने आप खुद निकालिए। सीबीआई ने स्पेक्ट्रम घोटाले में 21 अक्टूबर 2009 को ही केस दर्ज किया। राजा ने पिछले महीने 14 नवंबर को पद से इस्तीफा दे दिया। सुप्रीम कोर्ट से सीबीआई से फटकार मिल चुकी। सो यह दिखावा नहीं, तो क्या? क्या कोई आरोपी घर में इतने वक्त तक सबूत छुपाकर रखेगा? पर विपक्ष ने छापे को संसद का दबाव बता अपनी पीठ ठोकी। गुरुदास दासगुप्त ने तो राजा को गिरफ्तार कर तिहाड़ भेजने की मांग कर दी। यानी जेपीसी पर अड़ा विपक्ष अब अडिग हो गया। पर लगातार लपेटे में आ रही सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को थोड़ी राहत दी। ए. राजा लंबे समय से दलील देते आ रहे। उन ने स्पेक्ट्रम आवंटन में अपने पूर्ववर्ती की नीति का ही अनुसरण किया। सो अब सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच का दायरा 2001 तक ले जाने की हिदायत दी। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा- हम इस जांच में पक्षपाती नहीं होना चाहते। बल्कि 2001 में जो हुआ, उस पर भी नजर डालने की जरूरत है। अब यह सीबीआई का काम है कि वह जांच करे और यह पता लगाए कि क्या हुआ था। सो बीजेपी ने फौरन स्वागत किया। वैसे भी इन आरोपों का बीजेपी कई बार जवाब दे चुकी। प्रमोद महाजन के वक्त पहले आओ, पहले पाओ की नीति के तहत स्पेक्ट्रम की कीमत तय की गई थी। सो बुधवार को नए-नवेले संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने विपक्ष को घेरा। तो बोले- नीति बनाई उन ने, आरोप हम पर लगा रहे। यानी सिब्बल की मानें, तो राजा ने वही किया, जो एनडीए ने तय किया था। सो सवाल सिब्बल से- अगर राजा गलत नहीं, तो इस्तीफा क्यों लिया? क्या सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई लकीर पीट रहीं? सिब्बल भूल रहे, राजा ने चालाकी दिखाई। साल 2001 के मार्केट रेट पर स्पेक्ट्रम की जो कीमत तय हुई थी, 2008 में उसी कीमत पर अपनी पसंदीदा कंपनियों को बांट दी। अब कोई पूछे, जब 2001 की नीति पर ही काम करना था, तो राजा क्या झक मारने के लिए मंत्री बने थे? अगर राजा गलत नहीं थे, तो पीएम मनमोहन ने चिट्ठी क्यों लिखी थी? अगर सिब्बल 2001 के आधार पर स्पेक्ट्रम घोटाले और राजा का बचाव कर रहे। तो सवाल, क्या सिर्फ पूंजीपति कंपनियों के लिए ही दरियादिल? अगर 2001 में तय कीमत पर स्पेक्ट्रम आवंटन जायज, तो सिब्बल यह बताएं, आज आम आदमी को 2001 की कीमत पर राशन, दूध, सब्जियां क्यों नहीं उपलब्ध करा रही सरकार?
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08/12/2010

Tuesday, December 7, 2010

भ्रष्टाचार थमे, तो ही हों सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त

स्पेक्ट्रम घोटाले ने हर्षद मेहता कांड का रिकार्ड तोड़ दिया। अठारहवें दिन भी संसद में गतिरोध बना रहा। सो अब कांग्रेस साल- 2010 में दोहरा इतिहास रचने जा रही। सोनिया गांधी का चौथी बार अध्यक्ष बनना स्वर्णिम इतिहास। तो देश के अब तक के सबसे बड़े घोटाले पर जेपीसी न बनाने की जिद ठानकर संसद का पूरा सत्र ठप रखने का एक और बदनुमा इतिहास। पर तमाम झंझावातों के बीच गुरुवार को सोनिया गांधी का हैप्पी बर्थडे। सो मजाक में ही सही, विपक्ष रिटर्न गिफ्ट में जेपीसी की उम्मीद कर रहा। पर स्पेक्ट्रम यानी प्रतिबिंब के इस भ्रष्टाचार में राजनीति के कई विशालकाय प्रतिबिंब दिख रहे। सो जेपीसी न बनाने की रार ठनी हुई। पर कांग्रेस की मुसीबत इस कदर बढ़ चुकी, अब जेपीसी को ठीक से इनकार भी नहीं कर पा रही। सोमवार को यूपीए की मीटिंग में प्रणव मुखर्जी ने अपनों की नब्ज टटोली। ममता बनर्जी ने बंगाल चुनाव के मद्देनजर जेपीसी का दबाव डाला। तो महाराष्ट्र के लवासा प्रौजैक्ट में पर्यावरण मंत्रालय की अड़चन से खफा शरद पवार ने भी जेपीसी की चाबी घुमा दी। सो मंगलवार को जब संसदीय कार्यमंत्री पवन कुमार बंसल से पूछा गया- क्या सरकार जेपीसी से इनकार कर रही? तो उनका जवाब कांग्रेस की परेशानी की गाथा बयां कर रहा था। बंसल बोले- अभी तक की स्थिति में जेपीसी नहीं। सो अब सवाल, क्या संसद सत्र का बंटाधार करने के बाद आखिरी दिन जेपीसी बनेगी? यों स्पेक्ट्रम घोटाले में बड़े नेताओं के घरों की इतनी परछाइयां शामिल, जेपीसी के आसार नजर नहीं आ रहे। पर कांग्रेस की हालत पस्त। सो कभी यूपीए की, तो कभी कोर ग्रुप की मीटिंग-मीटिंग खेल रही। पर संसद ठप होने का ठीकरा विपक्ष के सिर न फूटे, सो सत्र के बाद रैली की तैयारी। तो मंगलवार को विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सफाई दी- कभी-कभी संसद का न चलना भी संसद चलने से अधिक प्रभावी होता। यानी संसद में गतिरोध न बनता, तो भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना व्यापक न होता। पर भ्रष्टाचार के इस हमाम में हम-आप किसे ईमानदार मानें? अब ए. राजा की एक और कलई खुल गई। जून-2009 में मद्रास हाईकोर्ट के जज रघुपति ने एक केंद्रीय मंत्री की ओर से धमकी मिलने का खुलासा किया था। तब उन ने 12 जून को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन को चिट्ठी लिखी थी। पर तब नाम का खुलासा नहीं हुआ था, फिर भी शक की सुई राजा की ओर ही घूम रही थी। अब मंगलवार को हाईकोर्ट के जज खलीफुल्लाह ने राजा की ओर से धमकी मिलने का खुलासा कर दिया। यानी राजा के किस्से अनेक। पर घोटाले के सीजन में यूपी ने भी कमाल कर दिया। करीब दो लाख करोड़ से अधिक के अनाज घोटाले का खुलासा हुआ। मुलायम सिंह के राज में कोटे के अनाज को एक प्रक्रिया के तहत खुले बाजार में और बांग्लादेश-नेपाल तक सप्लाई किया। करीब 200 अफसर इस घोटाले में संलिप्त बताए जा रहे। तो सचमुच यह घोटाला स्पेक्ट्रम के भी पार जाएगा। भ्रष्टाचारियों को न शर्म, न लिहाज। यूपी के ही एक पुराने जमीन घोटाले में पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव को चार साल की सजा मिल गई। अपने पी.जे. थॉमस को भी यही डर सता रहा। अगर कुर्सी छोड़ी, तो शिकंजा कसेगा। सो सौदेबाजी पर उतरे हुए। पहले मुकदमा न चलाने का फैसला चाह रहे, फिर इस्तीफा देंगे। सो देश में जब अफसरशाही और नेताओं की ऐसी सांठगांठ होगी, तो देश का क्या होगा। वही, जो मंगलवार को वाराणसी के शीतला घाट पर हुआ। आखिर अमेरिका ने ऐसा क्या बंदोबस्त किया, जो 9/11 के बाद कोई आतंकी वारदात न हुई। अमेरिका की तैयारी देखिए, कुछ महीने पहले ही फैजल शहजाद नामक आतंकी ने टाइम्स स्क्वायर में कार बम विस्फोट करने की हिमाकत की। पर अमेरिकी खुफिया और पुलिस तंत्र ने न सिर्फ विस्फोट को होने से रोक लिया, अलबत्ता 24 घंटे के भीतर आतंकी को गिरफ्तार कर उसके लाहौर तक के घर खंगाल डाले। पर हमने 26/11 के मुंबई हमले से क्या सबक सीखा? मुंबई हमले के करीब सवा साल बाद पुणे की जर्मन बेकरी में धमाके हुए। उसके बाद अब मंगलवार को वाराणसी में गंगा तट स्थित शीतला घाट पर धमाका। वह भी तब, जब राम जन्मभूमि विवाद पर हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद बाबरी विध्वंस की पहली बरसी थी और सरकार के शब्दों में समूचे देश में हाई अलर्ट था। पर अलर्ट के अगले दिन ही हुआ धमाका क्या अपनी खुफिया और सुरक्षा तंत्र की पोल नहीं खोल रहा। आखिर 26/11 के बाद हमने क्या तैयारी की? वाराणसी के गंगा तट पर 2006 में भी धमाके हो चुके। पर शाम को होने वाली गंगा आरती के वक्त आतंकी दूध के कंटेनर में बम रख बेरोक-टोक घुस जाए। तो सचमुच गृहमंत्री पी. चिदंबरम का वह बयान सटीक। जिनमें उन ने कहा था- देश की सुरक्षा 90 फीसदी भगवान भरोसे, दस फीसदी सुरक्षा तंत्र के। आखिर देश और अवाम की सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त हों भी कैसे, जब अपने नेता-अफसरान आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हों। सुरक्षा का मामला हो या अवाम का पेट भरने का, व्यवस्था चलाने वाले पहले अपनी जेब और पेट की फिक्र करते। हर काम में पहले कमीशन फिक्स होता, फिर बाकी बची मुट्ठी भर रकम में देश की फिक्र होती। आप खुद देखो, अपने देश में कहां घोटाला नहीं। बंदूक खरीदो या तोप, अनाज खरीदो या परछाईं, चारा हो या चीनी, सडक़ हो या पानी, पहले जेब भरी जाती, फिर काम होता। पर बम धमाके के बाद भी वही राजनीतिक रोना-धोना। सख्त कार्रवाई होगी, आतंकियों के मंसूबे कामयाब नहीं होने देंगे और संयम की अपील।
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07/12/2010

Monday, December 6, 2010

तो अब ‘त्रिदोष’ की मारी कांग्रेस बेचारी

मौसम ने करवट ली, ठंड ने कंपकपाना शुरू किया। तो सरकार भी अब ठिठुरने लगी। सीवीसी पीजे थॉमस ने आखिर इस्तीफा नहीं दिया। शायद कांग्रेस और थॉमस ने अब ठान लिया, जब तक सुप्रीम कोर्ट प्याज नहीं खिलाए। तब तक सीवीसी का इस्तीफा नहीं होगा। कोर्ट ने आखिरी सुनवाई के लिए 27 जनवरी की तारीख मुकर्रर करते हुए थॉमस और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया। चीफ जस्टिस एसएच कपाडिय़ा की खंडपीठ ने कहा- हमने फाइल देख ली है और अब आखिरी सुनवाई करेंगे। कोर्ट ने बाकायदा थॉमस को सफाई पेश करने के निर्देश दिए। तो अब थॉमस ने भी कोर्ट के सामने सारे दस्तावेज रखने की दलील दी। पर सुप्रीम कोर्ट की मंशा पिछली दो टिप्पणियों में साफ हो चुकी। फिर भी थॉमस हैं कि कुर्सी से चिपके हुए। सरकार की ओर से इशारे के बाद भी थॉमस अब इस्तीफे को राजी नहीं। यानी सरकार अपने ही जाल में उलझ गई। अब या तो कोर्ट थॉमस की नियुक्ति को रद्द करे, या फिर सरकार महाभियोग लाए। थॉमस भी तकनीकी दांवपेच से वाकिफ। सो भ्रष्टाचार के इस खेल में अकेले शहादत क्यों दें? वैसे भी लानत-मलानत यूपीए सरकार की फितरत बन चुकी। सो अब इंतजार बासठवें गणतंत्र दिवस की अगली सुबह का। पर जरा कांग्रेस की दलील सुनिए। थॉमस की नियुक्ति पर अभी भी कोई पछतावा नहीं। अलबत्ता संवैधानिक पद पर नियुक्ति के सभी मानदंडों को पूरा करने वाला बता रही। अभिषेक मनु सिंघवी ने बहुमत के फैसले से थॉमस की नियुक्ति का पुराना राग दोहराया। पर सवाल, जब पैनल में पीएम-गृहमंत्री और नेता विपक्ष हो। तो क्या फैसला होगा, कोई भी अनुमान लगा सकता। तभी तो सुषमा ने थॉमस का विरोध किया। पर पीएम-गृहमंत्री ने सत्ता की धौंस जमा दी। क्या इसे बहुमत का फैसला कहेंगे? क्या पीएम या गृहमंत्री कभी सपने में भी विपक्ष के सुर में सुर मिला सकते? सो थॉमस की नियुक्ति बहुमत का फैसला नहीं। अलबत्ता सत्तापक्ष की दादागिरी कहिए। पर अब कांग्रेस और सरकार बेचारगी की मुद्रा में। थॉमस कुर्सी छोडऩे को राजी नहीं। सो सारी फजीहत कांग्रेस की झोली में गिर रहीं। पर फिलहाल कांग्रेस की हालत नंगा नहाए क्या, और निचोड़े क्या जैसी। कहते हैं ना, मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच को लेकर संसद ने गतिरोध के पुराने रिकार्ड की बराबरी कर ली। हर्षद मेहता कांड के वक्त 17 दिन के गतिरोध के बाद जेपीसी बनी थी। सोमवार को स्पेक्ट्रम मामले में गतिरोध का सत्रहवां दिन था। सो अठारहवें दिन इतिहास दोहराएगा, ऐसी उम्मीद तो नहीं दिख रही। पर कांग्रेस की सिट्टी-पिट्टी गुम जरूर हो चुकी। बंगाल चुनाव के मद्देनजर ममता बनर्जी ने भी जेपीसी मानने का दबाव बढ़ा दिया। शरद पवार और करुणानिधि भी पक्ष में। करुणानिधि को लग रहा, अगर गतिरोध जारी रहा, तो तमिलनाडु में अहम चुनावी मुद्दा बनेगा। और अगर जेपीसी बन जाए, तो फिलहाल राजा पर बना फोकस शिफ्ट होकर मनमोहन की ओर जाएगा। यानी भ्रष्टाचार के भंवर में डूबने की आशंका। सो करुणानिधि की दलील सुनिए। उनने कहा- बेहद अफसोस की बात है कि पढ़े-लिख भी यह मानने को तैयार हैं कि एक व्यक्ति एक नील 76 खरब रुपए की बड़ी राशि का घोटाला कर सकता। करुणानिधि ने बकासुर का जिक्र करते हुए कहा- लोग सोचते थे बकासुर का मुंह 30 हजार मील लंबा हो सकता था, जिसकी भूख कभी शांत नहीं होती। यों करुणा के कहने के निहितार्थ अलग। पर उन ने यह तो साफ कर दिया, घोटाले में एकला राजा ही नहीं, समूची टीम शामिल। सचमुच अगर राजा ही दोषी होते, तो कांग्रेस जेपीसी बनाने में इतनी हील-हवाली न करती। पर कांग्रेस की मुश्किल सोमवार को तब और बढ़ गई, जब गैर यूपीए-गैर एनडीए के 11 दलों ने न सिर्फ जेपीसी मांगी, अलबत्ता पीएम को भी तलब करने का इरादा जता दिया। सीताराम येचुरी और गुरुदास दासगुप्त ने सवाल उठाया- जब बिल क्लिंटन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री संसदीय समिति के सामने पेश हो सकते। तो हमारे शासन प्रमुख को बुलाने में क्या गलत। वैसे भी मनमोहन को जेपीसी का सामना करने का पुराना अनुभव। येचुरी ने तो साफ कहा- देशहित में पीएम जेपीसी से भयभीत नहीं, पर कांग्रेस जरूर डरी हुई। सचमुच कांग्रेस का डर सोमवार को उजागर हो गया। जब यूपीए की इमरजेंसी मीटिंग बुला ली। विपक्षी दलों ने खम ठोक दिया- शीत सत्र में जेपीसी नहीं बनी, तो बजट सत्र में भी मांग जारी रहेगी। यानी कांग्रेस का संकट अभी खत्म नहीं। जेपीसी और थॉमस का मामला तो गले में हड्डी की तरह अटक चुका। अगर शीत सत्र पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया, तो संसदीय इतिहास में एक और काला अध्याय जुड़ेगा। पर बात मुसीबत की, तो लुटी-पिटी कांग्रेस को जम्मू-कश्मीर के स्वास्थ्य मंत्री ने अस्पताल पहुंचाने का बंदोबस्त कर दिया। कांग्रेस कोटे से मंत्री श्यामलाल शर्मा ने कश्मीर समस्या का फार्मूला रैली में सुझा दिया- कश्मीर को आजादी दे दो, जम्मू को राज्य और लेह-लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दो। यानी संसद के प्रस्ताव और संविधान की भावना के खिलाफ राष्ट्रद्रोह जैसा बयान। सो अब कांग्रेस जेपीसी और थॉमस के बाद श्यामलाल शर्मा के बयान में फंसी। पुराने जमाने में कहते थे- त्रिदोष यानी एक साथ तीन बीमारी- कफ, पित्त और वात का कोई इलाज नहीं। अब कांग्रेस एक साथ तीन बीमारी का सामना कैसे करेगी, यह वक्त ही बताएगा।
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06/12/2010

Wednesday, December 1, 2010

निर्लज्जता की पराकाष्ठा या पराकाष्ठा के पार निर्लज्जता

निर्लज्जता की पराकाष्ठा कहें या पराकाष्ठा के पार निर्लज्जता। पी.जे. थॉमस ने सीवीसी की कुर्सी छोडऩे से इनकार कर दिया। तो सरकार ने घोटाले की फाइल से दूर रखने की दलील। विपक्ष ने भी संसद में सरकारी काम निपटाने में हंगामे के बीच ही सहयोग देना शुरू कर दिया। सो लोकतंत्र के मंदिर से पक्ष-विपक्ष की नौटंकी कब तक चलेगी, देखना होगा। यों पंद्रहवीं लोकसभा के फोटो सैशन की तैयारी पूरी हो गई। गुरुवार को सांसदों के फोटो खिंचेंगे, ताकि आने वाली पीढिय़ां इतिहास के तौर पर निहार सकें। पर संसद से पहले बात थॉमस की, जो लोक-लिहाज की परवाह किए बिना कह गए- मैं अभी भी सीवीसी का बिग बॉस। पर सवाल, जब सरकार टू-जी घोटाले की फाइल से थॉमस को दूर रख रही, तो पद पर रखने का क्या मतलब? जब सुप्रीम कोर्ट थॉमस की नीयत पर संदेह जाहिर कर चुका। तो घोटाले की फाइल से थॉमस को दूर रखने की सरकारी दलील और थॉमस का इस्तीफे से इनकार का क्या मतलब? सुप्रीम कोर्ट की पहली टिप्पणी के बाद ही गृह मंत्रालय से थॉमस की विदाई की खबर निकलने लगी थी। पर चिदंबरम से मुलाकात के बाद थॉमस का ऐसा तुर्रा क्यों? क्या यह कांग्रेस की कोई रणनीति या पोल-खोल की धमकी? चाहे जो भी हो, थॉमस की विदाई तय। अब कांग्रेस को यह तय करना कि सुप्रीम कोर्ट की चपत से ही थॉमस को चलता करती या चांटा खाकर। यों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के.टी. थॉमस का मानना, पी.जे. थॉमस का हट जाना ही पद की गरिमा के हित में। पर जब सत्ता का नशा हो, तो कांग्रेस और थॉमस भला क्यों न इतराएं। तभी तो चौदहवें दिन भी संसद ठप हुई। पर सरकार और विपक्ष अपनी जिद से पीछे हटने को राजी नहीं। अब गतिरोध टूटने की सारी उम्मीदें दम तोड़ चुकीं। सो जरूरी संवैधानिक कामकाज निपटाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। पर तेरह दिन यानी तेरहवीं के बाद चौदहवें दिन सरकार के साथ-साथ विपक्ष की भी पोल खुल गई। विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ा। पर इस कदर भी नहीं कि सरकार को मजबूर कर सके। तभी तो प्रणव मुखर्जी ने बुधवार को तडक़े विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को फोन लगाया। अनुपूरक अनुदान मांग पारित कराने पर सहयोग मांगा। तो सुषमा ने इनकार के बजाए आडवाणी से गुफ्तगू कर एनडीए की मीटिंग बुलवा ली। मीटिंग में आडवाणी सरीखे नेताओं ने दलील दी- संवैधानिक कामकाज में रुकावट नहीं होना चाहिए। क्योंकि हमारी लड़ाई सरकार से है, संविधान से नहीं। सो विपक्ष ने हंगामे में ही अनुदान मांगें पारित कराने की हरी झंडी दे दी। प्रणव दा को संदेशा भेजा गया, तो प्रणव ने आशंका जताई। कहीं कोई विपक्षी सांसद बिल फाडऩे या स्पीकर टेबल तक पहुंचने की कोशिश तो नहीं करेगा। विपक्ष ने प्रणव दा को इस बात का भी पूरा भरोसा दे दिया। सो बुधवार को लोकसभा में अनुपूरक अनुदान मांगें पारित हो गईं। अब गुरुवार को राज्यसभा में पारित होंगी। इसी तरह रेलवे की अनुदान मांगें भी पारित कराई जाएंगी। यानी सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच की जुगलबंदी देखिए, एक तरफ जेपीसी की जिद। तो दूसरी तरफ बिल पास कराने में सरकार को सहयोग। अगर विपक्ष सचमुच भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गंभीर, तो इसी दांव से सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर देता। अब अगर विपक्ष की यह दलील मान लें कि वह सरकार को अस्थिर नहीं करना चाहता। तो क्या जिस तरह बिल पास हुआ, क्या वह संवैधानिक? अगर सब कुछ हंगामे में ही निपट जाएगा, तो फिर संसद का क्या औचित्य? अगर सरकार और विपक्ष को संविधान की इतनी ही फिक्र। तो गतिरोध खत्म कर ऐसा फार्मूला निकालते कि संसद की गरिमा बरकरार रहती। पर दोनों को देश या संविधान की फिक्र कम, वोट बैंक की राजनीति अधिक। अगर सरकार के जरूरी कामकाज संसद में ऐसे ही निपट जाएं। तो भला कौन सी सरकार संसद चलाना चाहेगी। सरकार तो हमेशा इसी फिराक में रहती कि कम समय में अधिक काम निपट जाए। ताकि विपक्ष की घेरेबंदी से बचा जा सके। वैसे भी संसद की शक्तियों में आई गिरावट पर डा. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी मौजूं टिप्पणी कर चुके। उनके मुताबिक- यह सत्य है कि कानून बनाने एवं टेक्स लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है। पर वास्तविकता यह है कि विधि अधिनियमों का गर्भाधान और जन्म मंत्रालयों में होता है। संसद में सिर्फ मंत्रोच्चारण के साथ उनका उपनयन संस्कार कर उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। सचमुच सैद्धांतिक तौर पर संसद की मर्जी से ही सरकार रह सकती। पर व्यवहार में केबिनेट ने संसद के काम और अधिकार हथिया लिए। तभी तो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां भी सरकार को झकझोर नहीं पा रहीं। बुधवार को सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कोर्ट ने फिर कहा- आंखों को जो दिख रहा है, उससे अधिक भी कुछ है। पर सरकार ने अब बेशर्मी का चश्मा पहन लिया। विपक्ष ने भी संसद के काम निपटाने में सहयोग दे दिया। सो जेपीसी नहीं, अब सत्रावसान की तैयारी। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने गुस्से में जो कहा और किया, सुनिए। बोले- क्या जेपीसी के सदस्य बनने वाले नेता पुलिस अधिकारी बनेंगे? यह कहकर मनीष तिवारी बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूड़ी की कार में बैठकर निकल लिए। सो सवाल करनी नहीं, कथनी पर। जब कांग्रेस प्रवक्ता की जेपीसी के बारे में ऐसी सोच। तो फिर संसद चलाने पर इतना खर्च क्यों? क्यों न संसद का विसर्जन कर कांग्रेस को हमेशा के लिए सत्ता सौंप दें।
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01/12/2010