Thursday, December 9, 2010

एंटी करप्शन डे, यानी न करें भ्रष्टाचार का विरोध!

संसद से सडक़ तक, फिर सडक़ से संसद तक जेपीसी की लड़ाई जारी रहेगी। विपक्ष ने बजट सत्र में भी मुहिम जारी रखने का एलान कर दिया। पर पहले एनडीए महारैली करेगा। सो भ्रष्टाचार पर विपक्ष के हमलों से चकरघिन्नी बनी कांग्रेस बेसिर-पैर की बयानबाजी को उतारू। संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने पुरानी फाइलें खंगाल कांग्रेस प्रवक्ताओं को कुछ कानूनी मंत्र थमाए। तो अब कांग्रेसी राशन-पानी लेकर एनडीए कार्यकाल को निशाना बना रहे। मनीष तिवारी ने गुरुवार को तेवर दिखाते हुए बीजेपी से तीन सवाल पूछे। पहला- क्या यह सच नहीं कि 1999 में खुद पीएम वाजपेयी ने जगमोहन को संचार मंत्रालय से हटाकर टेलीकॉम कंपनियों को फायदा पहुंचाया, जिससे 60 हजार करोड़ करा नुकसान हुआ? दूसरा- जब 2001 में प्रमोद महाजन मंत्री थे, तब क्या उन्होंने मुफ्त स्पेक्ट्रम नहीं बांटे? तीसरा- पहली अप्रैल 2004 को जब देश चुनाव में था, तब बीजेपी ने ऑपरेटरों की राजस्व हिस्सेदारी घटाकर फायदा नहीं पहुंचाया था? अब कांग्रेस के इन तीनों सवालों का जवाब तो बीजेपी देती रहे। पर अपना सवाल, क्या इन सवालों के जरिए कांग्रेस राजा का पाप धोना चाह रही? चलो मान लें, कांग्रेस प्रवक्ता के आरोप में दम। तो फिर जेपीसी बनाने में एतराज क्यों? बीजेपी तो पहले दिन से खम ठोक कर कह रही- सिर्फ 2001 से क्यों, 1998 में जबसे राजग की सरकार, तबसे जेपीसी की जांच करा लो। जब विपक्ष खुद अपनी जांच कराने को तैयार, तो भला कांग्रेस जेपीसी से क्यों भाग रही? वैसे भी जेपीसी में अमूमन सत्तापक्ष का ही बहुमत होता। फिर भी सरकार जेपीसी पर ऐसी रार ठाने, तो इसे दाल में काला कहेंगे या पूरी दाल काली। वैसे सच्चाई यही, कांग्रेस इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं ढूंढ पा रही। सो नेता दिहाड़ी मजदूर की तरह बयानबाजी कर रहे। तभी तो गुरुवार को सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज शिवराज वी. पाटिल से घोटाले की जांच का एलान किया। पर बीजेपी ने नकार दिया। तो सिब्बल ने एक नया सुर्रा छोड़ दिया। अब यह सुर्रा हताशा, बौखलाहट या एक वकील की वकालत, यह आप ही तय करिए। पर जरा पहले सुर्रा सुनते जाइए। सिब्बल बोले- विपक्ष टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग कर रहा। पर असल में 20 दिन से संसद की कार्यवाही ठप होने से देश पर 70 हजार करोड़ का बोझ पड़ा है। सो इसकी जेपीसी से जांच होनी चाहिए। पर सवाल सिब्बल से- अगर हंगामे पर जेपीसी की जरूरत, तो किससे मांग कर रहे। खुद मालिक-मुख्तार बने बैठे, क्यों नहीं बनवा लेते जेपीसी। कम से कम जनता यह तो देख ले, एक नील 76 खरब रुपए के घोटाले पर कांग्रेस जिद ठाने बैठी। और संसद सत्र पर खर्च हुए 70 हजार करोड़ को नैतिकता का हथियार बना रही। किसके काल में क्या हुआ, यह भले राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का मुद्दा हो। पर जनता यह जानना चाह रही, टू-जी स्पेक्ट्रम के महाघोटाले में किस-किस ने अपने हाथ धोए। जेपीसी जब सारी सच्चाइयों को उजागर करने में सक्षम, तो सरकार के पीछे हटने का क्या मतलब लगाएं? स्पेक्ट्रम घोटाले में नेता, नौकरशाह, कॉरपोरेट घराने और अपनी मीडिया की सांठगांठ उजागर हो चुकी। नेता, नौकरशाह, कॉरपोरेट का गठजोड़ तो बहुत पुराना। पर इस खेल में अपना मीडिया सही मायने में ‘नैतिकता का स्मगलर’ निकला। सो सचमुच ईमानदारी से जेपीसी जांच हो जाए। तो कम से कम समूचे सिस्टम की एक बार सफाई हो जाए। घोटाले के इस खेल में गुरुवार को नया मोड़ आ गया। जब रतन टाटा और उद्योगपति व राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर एक दूसरे के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। चंद्रशेखर ने टाटा को चिट्ठी लिखकर फायदे का आरोप लगाया। तो जवाब में टाटा ने न सिर्फ चंद्रशेखर को लपेटा, अलबत्ता पूरी तरह से कांग्रेस के पाले में खड़े दिखे। सो बीजेपी के प्रकाश जावडेकर ने पहले तल्खी दिखाई। बोले- रतन टाटा कोई जज या जेपीसी नहीं। वह उद्योगपति हैं, जिनकी टेलीफोन कंपनी को यूपीए शासन में काफी फायदा पहुंचा है। पर सुषमा स्वराज और एस.एस. आहलूवालिया ने टाटा की टिप्पणी को दो कॉरपोरेट हस्तियों के बीच जंग बता चुप्पी साध ली। यानी बीजेपी टाटा को नाराज नहीं करना चाहती। राजनीतिक दलों को चंदा कॉरपोरेट घरानों से ही मिलता। सो टाटा की परेशानी को बीजेपी समझ रही। पूरे मामले में टाटा ही सबसे अधिक प्रभावित हो रहे। नीरा राडिया के सिर्फ दस घंटे के टेप ने नेता, नौकरशाह, उद्योग जगत और मीडिया की पोल खोल दी। अभी तो 1990 घंटे का टेप बाकी। सो टाटा का कोर्ट से लेकर खुले आम राजनीति के मैदान में उतरना कोई अचरज की बात नहीं। भ्रष्टाचार पर छिड़ी राजनीतिक जंग के बीच गुरुवार को अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस भी मन गया। पर देखो, टाटा जैसे लोगों का पैसा राजनीतिक दल के लिए चंदा कहलाता और आम आदमी का रिश्वत। तभी तो सीवीसी पी.जे. थॉमस ने भ्रष्टाचार का नया अर्थशास्त्र बताया। बोले- आम आदमी रिश्वत देना बंद करे, तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। मांग-पूर्ति का फार्मूला बताया- लोग रिश्वत देते हैं, सो मांग बढ़ती है। पता नहीं थॉमस ने कौन सा अर्थशास्त्र पढ़ा। जब तक मांग न हो, पूर्ति कहां से होगी। वैसे भी आम आदमी की जेब में इतने पैसे नहीं होते, जो बिना मांगे रिश्वत देता फिरे। पर थॉमस तो थॉमस हैं। यानी कुल मिलाकर वही बात, भ्रष्टाचार की भैंस को डंडा क्यों मारा। वह तो व्यवस्था में रच-बस चुका। जिस भैंस का दूध पीकर सभी मस्त हो चुके। सो अब एंटी करप्शन डे का मंत्र यही- भ्रष्टाचार का विरोध कर व्यर्थ समय न गंवाएं।
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09/12/2010

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