Thursday, September 23, 2010

गर नीयत हो साफ, तो सुलह नामुमकिन नहीं?

तो अयोध्या फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रेक लगा दी। अब 28 सितंबर को फिर सुनवाई होगी। तभी तय होगा, फैसला आ रहा या लटक गया। पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने हफ्ता भर फैसला टालने का आदेश दिया। तो हू-ब-हू जस्टिस धर्मवीर शर्मा जैसी दलील। सुप्रीम कोर्ट ने माना, गर समझौते की एक फीसदी भी गुंजाईश हो। तो मौका दिया जाना चाहिए। पर जैसे सुलह की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच में मतभेद। वैसा ही सुप्रीम कोर्ट में दिखा। जब 17 सितंबर को हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका को शरारतपूर्ण बता मामला खारिज किया। पचास हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया। पर बैंच के तीसरे जज जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने समझौते की पहल में सहमति दिखाई। दोनों जजों की ओर से दिए गए फैसले पर असहमति दर्ज कराई। अब मामला सुप्रीम कोर्ट आया। तो बुधवार को जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस एके पटनायक की बैंच ने सुनावाई से इनकार कर दूसरी पीठ को भेजने को कहा। सो गुरुवार को मामला जस्टिस आरवी रवींद्रन और जस्टिस एच.एस. गोखले की बैंच के सामने आया। पर फैसला टालने को लेकर मतभेद। सो परंपरा के मुताबिक सभी पक्षों को नोटिस जारी किया गया। अब सभी पक्ष और एटार्नी जनरल भी मगंलवार को पहुंचेंगे। फिर सुप्रीम कोर्ट तय करेगा, फैसला टाला जाए या नहीं। यों फैसला टालने के पीछे कॉमनवेल्थ गेम्स की भी दलील दी जा रही। पर अहम पहलू, हाईकोर्ट के तीन जजों की बैंच में से एक जस्टिस धर्मवीर शर्मा इसी महीने रिटायर हो रहे। अगर तब तक फैसला नहीं हुआ। तो मामला 11 जनवरी 2010 की जगह पहुंच जाएगा। तब भी एक जज रिटायर हुए थे। यानी समूची कानूनी प्रक्रिया फिर से नई बैंच के सामने होगी। अगर जज को एक्सटेंशन दिया जाए, तो भी प्रक्रिया लंबी। सो कोई भी राह फिलहाल आसान नहीं। यों फैसले के बाद के माहौल की कोई गारंटी नहीं। सो सुप्रीम कोर्ट की पहल की मकसद यही, अनहोनी की स्थिति में कोई यह न कह सके कि कोर्ट ने सुलह का आखिरी मौका नहीं दिया। यों कहने वाले अब कह रहे, हालात से निपटना सरकार का काम। सो अदालत को तो अपना फैसला सुनाना चाहिए था। अब कोई कुछ भी कहे या भले किसी के मंसूबे पर पानी फिर गया हो। पर सुप्रीम कोर्ट की पहल संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर ही आया। सो कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया। तो चुनाव में भुनाने का मंसूबा पाले बैठी बीजेपी की बोलती बंद। अब लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ का संयोग नहीं बिठा पाए। हर साल की तरह सोमनाथ जाएंगे या नहीं, अभी ऊहापोह। आडवाणी ने ब्लॉग लिखकर कहा था- अयोध्या पर 24 सितंबर को फैसला आ रहा और यह एक संयोग कि 25 सितंबर 1990 को ही सोमनाथ से राम रथ यात्रा शुरु की थी। पर बीजेपी का संयोग सच में वियोग बन गया। उम्मीदवारों के चयन में अयोध्या फैसले का असर होना था। पर अब बीजेपी को उम्मीदवारों पर पहले ही मत्थापच्ची करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बीजेपी के रविशंकर प्रसाद हों या निर्मला सीतारमण, फैसले पर बोलती बंद। यों रविशंकर ने मन की पीड़ा उजागर कर ही दी। बोले, इस मामले में याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी के पीछे कौन लोग हैं, यह देखा जाना चाहिए। अब भले दोनों पक्ष समझौते की पहल को बेमानी बता रहे। समझौते की गुंजाईश से दूर भाग रहे। पर एक बात काबिल-ए-गौर, रमेशचंद्र त्रिपार्टी के इरादे को दोनों संदेह की नजर से देख रहे। सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी बोले- जब देश के तीन-तीन पीएम ने सुलह की कोशिश की, फिर भी कोई नतीजा नहीं निकला। तो ये रमेश चंद्र त्रिपाठी क्या सुलह कराएगा। सो जब दोनों पक्ष फैसला चाह रहे थे, तो ऐसा ही होना चाहिए था। पर जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया। बोले- जब साठ साल इंतजार किया, तो एकाध हफ्ते और सही। सचमुच फैसले पर रोक के बाद जिस तरह सभी पक्षों ने टिप्पणियां कीं, सुलह की गुंजाईश तो नहीं दिख रही। राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति की वकील रंजना अग्निहोत्री ने खुद को फैसले से आहत बताया। बोलीं- पूरे मामले में असमाजिक और तथाकथित राजनीतिक तत्वों ने वकीलों की मेहनत पर पानी फिरवा दिया है। यों सच मायने में सुलह के कई प्रयास हो चुके। हाईकोर्ट की बैंच ने भी सुनवाई पूरी करते वक्त 27 जुलाई को आखिरी पहल की थी। पर जब कोई पक्ष समझौते को राजी न हो। तो अदालत जबरन कुछ नहीं करा सकता। अब अदालती फैसला जो भी हो। पर अयोध्या जमीन विवाद को दोनों पक्षों ने सिर्फ प्रतिष्ठा का सवाल बना रखा। सो कभी भी सुलह की दिशा में ईमानदार पहल नहीं हो सकी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने एक और अहम टिप्पणी की। बोले- समझौते की पहल तो पहले भी हुई। पर समझौते के नाम पर हम सरेंडर नहीं कर सकते। आखिर समझौते के उचित बिंदू भी होने चाहिए। यानी जिलानी का इशारा साफ। अगर दोनों पक्ष समझौते के मूड से बैठे। तो समझौते की गुंजाइश। कोई तलवार दिखाकर समझौता नहीं कर सकता। बातचीत से बर्लिन की दीवार टूट सकती। तो अपने घर में ही दो दिलों की दरार क्यों नहीं भर सकती? सो कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने सुलह की जिम्मेदार पहल तो की। पर मजहब के ठेकेदारों का क्या भरोसा। जो लोगों को मजहब की दीवार में घेर इंसान को इंसान का दुश्मन बनाने की कोशिश करते रहते।
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23/09/2010