Monday, January 10, 2011

उम्मीद की डोर कहीं टूट गई.... तो?

तो सवाल भरोसे का। आखिर देश की जनता किस पर भरोसा करे? पीएम मनमोहन प्रवासियों के सामने व्यवस्था में बदलाव की बात कर रहे। पर जब व्यवस्था के रहनुमा ही आपस में सांप-नेवले का खेल खेल रहे। तो जनता की फिक्र कैसे होगी? भ्रष्टाचार हो या आतंकवाद, किसी भी व्यवस्था की जड़ को खोखला करने के लिए काफी। पर इक्कीसवीं सदी का भारत यही विडंबना ढो रहा। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पहले टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल ने काबिलियत का प्रदर्शन कर सीएजी की रपट झुठला दी। अपनी ही संवैधानिक संस्था की क्षमता पर सवाल उठा दिए। तो सोमवार को सीएजी ने भी पलटवार कर सिब्बल को न सिर्फ संवैधानिक हद दिखाई। अलबत्ता घोटाले के अपने आंकड़े पर भी दृढ़। सीएजी ने दो-टूक कह दिया- संसदीय नियमों के तहत जब तक पीएसी रपट पर सुनवाई कर रही, किसी को भी सवाल उठाने का हक नहीं। सिब्बल के दावे पर पीएसी के मुखिया मुरली मनोहर जोशी भी सवाल उठा चुके। कांग्रेस ने फिर दोहरी चाल चली। सिब्बल के बयान से पहले किनारा किया, अब पार्टी मंच से सीएजी की रपट पर सवाल उठाए जा रहे। सो सवाल, कांग्रेस इतनी हताशा में क्यों? जब सुप्रीम कोर्ट जांच की मॉनीटरिंग कर रहा। पीएसी के सामने सीएजी विनोद राय पेश होकर आंकड़ों का आधार बता चुके। तो क्या जांच के नतीजों से पहले विभागीय मंत्री का दावा जांच को प्रभावित करने की कोशिश नहीं? अगर सिब्बल को सचमुच संवैधानिक संस्था पर भरोसा। तो जैसे खुद पीएम ने पीएसी के सामने पेश होने का ऑफर रखा, सिब्बल भी कर सकते थे। पर शायद सिब्बल ने दस जनपथ में अपना नंबर बढ़ाने की खातिर अति उत्साह दिखा दिया। सो सुब्रहमण्यम स्वामी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। जांच से पहले सिब्बल पर राजा को बरी करने का आरोप लगाया। पर सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया रपट के बजाए हलफनामा दाखिल करने के निर्देश दिए। सो अब सुप्रीम कोर्ट का रुख देखना होगा। पर जब जांच एजेंसियां अपना काम कर रहीं, तो सिब्बलनामे का क्या मकसद? सीबीआई वैसे भी अपने आका के हुक्म की गुलाम। सो लाइन आका तय करेगा, सीबीआई उसे पुष्ट करने का आधार। तभी तो सीबीआई सीएजी की रपट से पहले तक सोई हुई थी। अब भी कोर्ट का डंडा और सरकार की फजीहत न होती, तो जांच में फुर्ती नहीं आती। यही किस्सा आतंकवाद का। समझौता, मालेगांव और अजमेर ब्लास्ट में हिंदू कट्टरपंथियों की साजिश उजागर हो रही। तो कार्रवाई के बजाए कांग्रेस-बीजेपी में आरोप-प्रत्यारोप चल रहा। संघ प्रमुख मोहन भागवत एक तरफ कांग्रेस पर साजिश का आरोप मढ़ रहे। तो दूसरी तरफ माना- जितने लोगों के नाम आ रहे, उनका संघ से कोई नाता नहीं। भागवत बोले- कुछ तो खुद ही संघ छोड़ गए। कुछ को संघ ने यह कहते हुए जाने के लिए कह दिया कि यहां उग्रता नहीं चलेगी। तो क्या संघ को कट्टरपंथियों की साजिश की भनक थी? भागवत का बयान तो यही इशारा कर रहा। पर भ्रष्टाचार को लेकर आईसीयू में पहुंची कांग्रेस को इन ताजा खुलासों से आक्सीजन मिल रही। विपक्ष भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शंखनाद करता, तो कांग्रेस इसे संघ पर लगे आरोप की बौखलाहट बता कन्नी काट लेती। गुवाहाटी से बीजेपी ने बोफोर्स की तोप सोनिया पर तानी। क्वात्रोची से पारिवारिक रिश्ते को उछाल हमले की धार तेज की। तो सोमवार को कांग्रेस ने भी बदजुबानी की चेतावनी दे दी। जनार्दन द्विवेदी बोले- सार्वजनिक जीवन में शीर्ष नेता निजी आक्षेप से बचें। वरना हम भी वही काम शुरू कर दें, तो न जाने कौन-कहां होगा। अब अगर ऐसी ही राजनीति, तो कांग्रेस हो या बीजेपी, 26/11 के बाद देश में पैदा हुए माहौल को न भूलें। कैसे दलगत भावना का चोगा फेंक जनता ने समूची राजनीतिक व्यवस्था को आड़े हाथों लिया था। जनता सडक़ों पर उतरी थी। तो नेताओं के होश फाख्ता हो गए थे। अब जनता भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चोचलेबाजी नहीं, ठोस कार्रवाई चाह रही। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में भले कोई एक-दूसरे से बढ़त ले ले। पर कहीं जनता के दिल की चिंगारी शला बन गई, तो क्या होगा? ताजा किस्सा बिहार के बीजेपी विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या का ही लो। आम आदमी हत्या करने वाली रुपम पाठक की हरकत को जायज ठहरा रहा। सब यह मानकर चल रहे, विधायकी के रुआब में महिला का शोषण हुआ होगा। तभी प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला भडक़ी। सो जनदबाव में आखिर नीतिश कुमार को सीबीआई जांच की सिफारिश करनी पड़ी। पर जांच और न्याय से पहले जनता का निष्कर्ष निकालना अपनी व्यवस्था के प्रति भरोसे का स्पष्ट संकेत। अब नेताओं के प्रति जनता की ऐसी सोच भले पहली नजर में दिल को भाए। पर लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत। सो नेताओं के लिए आत्म मंथन का वक्त आ गया। आखिर इस छवि को कैसे बदलें? अपने पास 2007 का एक सर्वे, जिसमें पाया गया था- 79 फीसदी लोग नेताओं से नफरत करते। ताजा भ्रष्टाचार और आतंकवाद के मामलों को जोडक़र देखिए। तो नतीजे इससे आगे ही दिखेंगे। ऐसा क्यों न हो। महंगाई पर सिर्फ जुबानी भरोसा मिल रहा। कभी नेता कबूतरबाजी में पाए जाते। कभी चारित्रिक पतन में। लाखों में बिकने वाले सांसद अब करोड़ों में बिक रहे। कोई ऐसा नेता नहीं, जिसका जनता अनुशरण करे। पर हर बार उम्मीद की डोर बांधे जनता वोट डालने पहुंच जाती। सो नेता अब जरूर सोचें- कहीं उम्मीद की डोर टूट गई.... तो?
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10/01/2011