Tuesday, June 29, 2010

जनता के दिल की चिंगारी आखिर कब बनेगी शोला?

अब बढ़ी कीमतों पर दो-दो हाथ की तैयारी। टोरंटो से लौटते हुए पीएम ने खम ठोक दिया, बढ़ी कीमतें वापस नहीं लेंगे। सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए कीमत बढ़ोतरी जरूरी थी। यानी साफ हो गया, अंतर्राष्ट्रीय भाव सिर्फ बहाना था। अमेरिका को खुश करने के लिए सरकार ने जनता से राहत का निवाला छीन लिया। बराक ओबामा पहले ही भारत और चीन को अधिक ईंधन खपाऊ देश बता चिंता जता चुके। ओबामा के पूर्ववर्ती जार्ज बुश ने तो महंगाई के लिए भारतीयों को पेटू तक कह दिया था। अगर सचमुच अंतर्राष्ट्रीय भाव पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ाने की मजबूरी होती। तो सोचिए, जब कच्चे तेल की कीमत 140 डालर प्रति बैरल थी, तब अपने देश में पेट्रोल की कीमत 42-44 रुपए और डीजल 35-37 रुपए प्रति लीटर थी। रसोई गैस की कीमत दिल्ली में 280 रुपए थी। अब अंतर्राष्ट्रीय भाव 77 रुपए प्रति बैरल। पर पेट्रोल 50 के पार, डीजल 40 के और रसोई गैस साढ़े तीन सौ के करीब। यानी अमेरिकी दबाव में अपनी सरकार ने जनता से सब्सिडी छीन ली। पर मनमोहन सरकार अपने सांसदों के वेतन-भत्ते पांच गुना बढ़ाने जा रही। सांसदों-मंत्रियों की फिजूलखर्ची तो रोकी नहीं जा रही। कीमतें बढ़ाकर आम जनता की खपत को कम करने की ठान ली। अमेरिकापरस्ती अपने नेताओं में कोई नया शगल नहीं। छब्बीस साल पहले कैसे एंडरसन को भगाया, जगजाहिर हो चुका। पर मनमोहन का दावा, भोपाल कांड में सरकार कुछ नहीं छुपा रही। अब कह रहे, एंडरसन पर अमेरिका से पूरा सहयोग हासिल करने की कोशिश करेंगे। क्या इतना सबकुछ होने के बाद भी सिर्फ कोशिश? क्या यही है अमेरिका से बराबरी का रिश्ता? अगर पीएम सचमुच एंडरसन को सजा दिलवाने के प्रति गंभीर, तो टोरंटो में ओबामा से हुई मुलाकात में यह बात क्यों नहीं कही? पिछली बार डेविड हेडली से अमेरिका ने पूछताछ नहीं करने दी थी। देश में बवाल मचा, तो मनमोहन ने ओबामा से बात की। पर भोपाल त्रासदी के प्रमुख गुनहगार एंडरसन को लेकर चुप्पी क्यों साधी? बराक ओबामा ने तो टोरंटो में मनमोहन की दिल खोलकर तारीफ की। कहा- जब मनमोहन बोलते हैं, तो दुनिया सुनती है। फिर मनमोहन सुनाने से कतरा क्यों रहे? आखिर कब तक अमेरिका को खुश करने की कीमत भारत की जनता चुकाएगी? पेट्रोलियम पदार्थों से सब्सिडी हटा मनमोहन ने दुनिया को तो खुश कर दिया। पर देश की जनता का क्या? अब मनमोहन कह रहे- तेल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना बेहद जरूरी था। चलो माना, आर्थिक मजबूरी की वजह से यह जरूरी था। तो क्या महंगाई पर काबू पाना जरूरी नहीं? या फिर जैसे तेल की कीमत को नियंत्रण मुक्त कर दिया, क्या महंगाई को भी वैसे ही छोड़ दिया? अब महंगाई पर सियासत शुरू हो गई। लालू-मायावती को छोड़ समूचे विपक्ष ने पांच जुलाई को भारत बंद का एलान किया। तो इधर कांग्रेस और सरकार ने जवाबी रणनीति बना ली। संयुक्त मोर्चा और राजग सरकार के काल में जारी अधिसूचना को ढाल बनाएगी। नवंबर 1997 में गुजराल सरकार ने और मार्च 2002 में वाजपेयी सरकार ने बाजार भाव से पेट्रोल-डीजल की कीमतें तय करने की समय सीमा बनाई थी। सब्सिडी का बोझ हटाने की पहल भी हुई थी। सो कांग्रेस की दलील, विरोधी दल नौटंकी कर रहे। अगर सत्ता में ये होते, तो वही करते, जो हमने किया। पर कांग्रेस भूल रही, कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का फार्मूला संयुक्त मोर्चा सरकार की देन, जो कांग्रेस की बैसाखी पर चल रही थी। तब वित्तमंत्री पी. चिदंबरम थे। इतना ही नहीं, तबकी सरकार चाहकर भी वह साहस नहीं दिखा पाई, जो कांग्रेस की मौजूदा सरकार ने कर दिखाया। कांग्रेस ने जतला दिया, सत्ता में ठसक के साथ कैसे रहते। भले आम जनता भाड़ में जाए। पर यह कैसी दलील। इंदिरा गांधी ने तो 1971 में ही गरीबी हटाओ का एजंडा हाथ में लिया था। पर किसी भी सरकार ने आज तक गरीबी मिटाई क्या? अलबत्ता अब तो गरीब और बढ़ गए। तो क्या सरकारी नीति का यही मतलब, जनता पर बोझ डालने वाले फैसले फौरन लागू होंगे और जनहित वाले अधर में? सो अब वक्त आ गया, जब जनता को अपने हित का बीड़ा खुद उठाना होगा। विपक्षी दलों ने बंद का एलान तो किया। पर पांच जुलाई को सभी दल अपनी डफली अलग-अलग बजाएंगे। अगर एक साथ बजाते, तो शायद सरकार के बहरे कान तक गूंज पहुंचती। पर नहीं, सबको अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां जो सेकनी। सो अब जनता को क्रांति करनी होगी। बंद में राजनीतिक दलों को मोहरा बनने के बजाए सीधे जनता सडक़ों पर उतरे। जैसे 26/11 के हमले के बाद जब जनता सडक़ों पर उतरी थी। तो सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी। सो अब जनता ने सरकार को जगा उसके बहरे कान का इलाज नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं, जब सरकार ऊलजलूल दलील देकर आम जनता के कान भी बहरे कर देगी। सरकार के हर जनविरोधी फैसले के आगे घुटने टेकने के बजाए आम जनता को अब टीपू सुल्तान बनना होगा। आखिर कब तक मन ही मन सरकार को कोसते जिंदगी काटेंगे। टीपू सुल्तान की अत्यंत प्रिय उक्ति थी- 'शेर की तरह एक दिन जीना बेहतर है, लेकिन भेड़ की तरह लंबी जिंदगी जीना अच्छा नहीं।' टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके। अलबत्ता लड़ते हुए मरना कबूल किया। आखिर साढ़े पांच साल से मनमोहन सरकार महंगाई पर सिर्फ दिलासा दे रही। महंगाई दूर करना तो दूर, कीमतें बढ़ा और चोट कर रही।
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29/06/2010