Friday, October 29, 2010

अब तो सारे घोटाले 'आदर्श' ही होते!

आखिर शुक्रवार बीजेपी के लिए दो-दो शगुन लेकर आया। गुजरात में मोदी के दिल-अजीज अमित शाह को जमानत मिल गई। तो कर्नाटक में स्पीकर के फैसले पर हाईकोर्ट ने मोहर लगा दी। सो गुरुवार तक कलह में उलझी बीजेपी ने शुक्रवार को ही दिवाली मना ली। पता नहीं दिवाली आते-आते शगुन कब अपशकुन में बदल जाए। सो बीजेपी हैडक्वार्टर में जमकर आतिशबाजी हुई। पर दोनों शगुन में फर्क देखिए। जश्न में कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार को मिली मजबूती का असर नहीं, अलबत्ता अमित शाह को मिली जमानत की खुशी छलक रही थी। बीजेपी के वर्कर सिर्फ मोदी नाम का जयकारा लगा रहे थे। सीबीआई के तमाम विरोधों के बावजूद हाईकोर्ट में राम जेठमलानी की दलील काम कर गई। सो जेठमलानी को लेकर बीजेपी में हो रहे विरोध का जवाब मिल गया। अब सीबीआई जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की सोच रही। तो उधर कर्नाटक में जेडी-एस ने सुप्रीम कोर्ट जाने का एलान कर दिया। पर दोनों ही फैसले कांग्रेस की पेशानी पर बल डाल गए। सो कर्नाटक पर पुराना राग ही अलापा। बोली- अल्पमत की सरकार को बहुमत में बदला गया। पर सवाल, अब कांग्रेस क्या करेगी? येदुरप्पा सरकार को बर्खास्त करने के लिए गवर्नर हंसराज भारद्वाज जेहाद पर उतर चुके थे। पर क्या अब कांग्रेस हंसराज को वापस बुलवाएगी? रही बात खरीद-फरोख्त की, तो इस हमाम में कौन नंगा नहीं? छत्तीसगढ़, झारखंड, गोवा में कांग्रेस ने क्या किया था? अजीत जोगी कैसे बीजेपी के एमएलए खरीदते धरे गए, क्या कांग्रेस भूल गई। झारखंड में अल्पमत वाले शिबू सोरेन को कैसे शपथ दिलाई गई। सुप्रीम कोर्ट ने हथौड़ा चलाया, तो कांग्रेस कैसे भन्नाकर रह गई, कौन नहीं जानता? गोवा में तो खरीद-फरोख्त की फैक्ट्री। सो गवर्नर एससी जमीर के जरिए गोवा में कांग्रेस कितने खेल कर चुकी, क्या भूल गई। यानी बीजेपी हो या कांग्रेस या अन्य कोई दल, नैतिकता किसी में नहीं बची। अब गुजरात में अमित शाह को जमानत मिल गई। तो कांग्रेस ने सीधी टिप्पणी से परहेज किया। पर सीबीआई का बचाव करना नहीं भूली। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी बोले- बीजेपी दोहरे मापदंड अपना रही। हरेन पंड्या केस में सीबीआई अच्छी, तो अमित शाह केस में बुरी कैसे हो गई। पर सीबीआई की हकीकत कौन नहीं जानता। शुक्रवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को एक बार फिर लताड़ पिलाई। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई ने छह महीने का और वक्त मांगा। तो कोर्ट ने उसके इरादे पर संदेह जताया। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की- आखिर सीबीआई कब तक जांच करेगी? अभी तक मंत्री अपने पद पर बना हुआ। सीबीआई का इरादा कुछ नहीं करने का दिख रहा। सचमुच सीबीआई सत्ताधारी दल की कठपुतली बनकर रह गई। सो कोर्ट की फटकार के बाद भी सीबीआई वही करती, जो राजनीतिक आका चाहते। तभी तो भ्रष्टाचार के मामले में कभी बड़े नेताओं पर कार्रवाई नहीं होती। गुरुवार को भी सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के एक मामले में ऐसी ही टिप्पणी की। कहा- सिर्फ छोटी मछलियां ही क्यों, शार्क और मगरमच्छ क्यों नहीं फंसते? अब मुंबई के आदर्श सोसायटी फ्लैट घोटाले की कलई खुली। तो महाराष्ट्र के कांग्रेसी सीएम अशोक चव्हाण सीबीआई जांच की पैरवी कर रहे। पर जरा पहले फ्लैट की कहानी बता दें। कारगिल शहीदों की विधवाओं को मकान देने के लिए छह मंजिला इमारत का फैसला हुआ। जिस एरिया में जमीन मिली, वहीं पास में नेवी के कई अहम ठिकाने। पर नेताओं-अफसरान और सेना के शीर्ष पद से रिटायर लोगों ने जमकर बंदरबाट की। कब छह मंजिला इमारत इकत्तीस मंजिला बन गई, किसी को पता नहीं चला। आखिर पता चलता भी कैसे, जब नेता-अफसर ने अपने सगे-संबंधियों के नाम एक नहीं, चार-छह फ्लैट करवा लिए। खुद सीएम अशोक चव्हाण की सास और दिल्ली में रहने वाले चचिया ससुर के नाम फ्लैट। सो जब बवाल मचा, तो सीएम के रिश्तेदारों ने सोसायटी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। सीएम ने राजनीतिक साजिश करार दिया। पर कोई पूछे, तीन टर्म से कांग्रेस की ही सरकार, तो क्या बीजेपी साजिश कर रही? अब सवाल, नेताओं-नौकरशाहों से, क्या उन्हें कभी शर्म आएगी? शहीद की विधवाओं के नाम पर बनने वाले फ्लैट में भी कब्जा जमा लिया। तो फिर भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगेगा? आदर्श सोसायटी घोटाले की परतें तो अभी और उधड़ेंगी। पर भ्रष्टाचार के महिमामंडन में कांग्रेस जैसी निर्लज्जता शायद ही कहीं दिखे। कांग्रेस जो भी करती, डंके की चोट पर। बीजेपी वाले तो थोड़ा भी नहीं खाते कि उल्टी हो जाती। पर आप कांग्रेस का इतिहास देख लो। तो सिर्फ आदर्श फ्लैट घोटाला ही नहीं, सारे घोटाले 'आदर्श' ही दिखेंगे। बोफोर्स घोटाले में दलाली से अधिक जांच पर खर्च हो गए। पर क्या कांग्रेस ने राजीव गांधी तक आंच आने दी? राव सरकार के वक्त झामुमो रिश्वत कांड हुआ। पर वह कांग्रेस के लिए आदर्श। झारखंड में ही निर्दलीय एमएलए कोड़ा को सीएम बनवा दिया। फिर जो लूट मची, वह भी एक आदर्श। सोनिया गांधी की रैली के लिए चंदा उगाही करते माणिक राव ठाकरे धरे गए। बिहार में कांग्रेस सचिव सागर रायका छह लाख रुपए के साथ पकड़े गए। तो यह भी कांग्रेस का अपना आदर्श। अब कॉमनवेल्थ घोटाले को ही लीजिए। किसी बड़े नेता पर कार्रवाई नहीं होने वाली। अलबत्ता सरकारी अफसर ही नपेंगे।
----------
29/10/2010

Thursday, October 28, 2010

असली जंग सुषमा-जेतली की, मोदी तो सिर्फ बहाना

दिवाली के मौके पर बीजेपी में होली का हुड़दंग मच गया। सुषमा-मोदी मनभेद से बीजेपी बदनाम हुई। तो नितिन गडकरी दौड़ते-भागते आडवाणी को शरणागत हुए। गडकरी को समझ नहीं आया, कैसे इस मसले को सुलझाएं। नरेंद्र मोदी तो सुषमा के बयान पर पहले ही नाराजगी जता चुके। इस बीच खबर चल गई, गडकरी ने सुषमा को हिदायत दी कि किसी की भावना को ठेस पहुंचाने वाला बयान न दें। सो गडकरी की हालत न इधर की रही, न उधर की। न मोदी की शिकायत को नजरअंदाज कर सकते, न सुषमा से कुछ कह सकते। यानी जूनियर नेता को अध्यक्ष बनाने का नतीजा दिख गया। जब जनसंघ के जमाने में पहली बार 1960 में संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बछराज अध्यक्ष बनाए गए। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जूनियर को अध्यक्ष नहीं कबूला। उन ने तो विजयवाड़ा अधिवेशन का खुला बहिष्कार किया था। अबके भले गडकरी के खिलाफ कोई बॉयकाट नहीं हुआ। पर गडकरी अध्यक्ष की कुर्सी पर होते हुए भी सीनियर नेताओं के सामने बौने ही बने हुए। दूसरी पीढ़ी के नेताओं सुषमा, जेतली, मोदी, वेंकैया, अनंत के बीच कोई होड़ न मचे, सो गडकरी को कमान सौंपी गई। पर अब सीनियरों की कलह को गडकरी कैसे थामें। सो आडवाणी के घर मीटिंग हुई। पर तब तक सुषमा की नाराजगी भी बढ़ चुकी थी। सुबह से ही खबर चल रही थी, गडकरी ने सुषमा को हिदायत दी। यों मीटिंग के बाद गडकरी कुछ नहीं बोले। पर पटना में मौजूद सुषमा हत्थे से उखड़ गईं। पहले तो गडकरी से हुई इस तरह की किसी बात का खंडन किया। फिर मोदी से मतभेद को नकारा। पर उसके बाद सुषमा ने जो आरोप लगाए, बीजेपी में वर्चस्व की लड़ाई का आगाज हो गया। उन ने कहा- जो मैंने कही नहीं, मेरे मुंह में डालकर छापी गई। पर दिल्ली में बैठा कोई शरारत कर रहा है। वह मेरे और नरेंद्र भाई के बीच मतभेद पैदा कर अपना स्वार्थ साधना चाहता है। या कॉमनवेल्थ घोटाले से ध्यान बंटाने के लिए साजिश भी हो सकती है। पर उन ने इससे इनकार नहीं किया कि इस साजिश में पार्टी का कोई शामिल। यानी सुषमा ने खुल्लमखुल्ला आरोप लगाया- दिल्ली में बैठा कोई नेता उनके खिलाफ मीडिया में खबरें प्लांट कर रहा। सनद रहे, सो याद दिला दें। जब उमा भारती की राजनीतिक हैसियत बढऩे लगी थी, तब मीडिया में खूब खबरें चलीं। फिर उमा ने अरुण जेतली, प्रमोद महाजन सरीखे नेताओं पर खबरें प्लांट करने का आरोप लगाया था। उमा की नाराजगी इस कदर बढ़ गई कि उन ने आडवाणी की रहनुमाई वाली मीटिंग से वॉकआउट किया। छह साल पहले भले वह तारीख दस नवंबर थी। पर दिन धनतेरस का था। फिर भी बीजेपी ने महिला नेत्री को पार्टी से निकाल दिया। अब दिवाली से पहले बीजेपी में एक और वरिष्ठ महिला नेत्री को खबरें प्लांटेशन की शिकायत। यों सुषमा का अपना कद और अलग सोच। सो उमा जैसे हश्र की बात कोई सोच भी नहीं सकता। पर महिलाओं के प्रति बीजेपी की सोच का एक और नमूना। जब-जब महिला नेत्री आगे बढ़ी, बीजेपी के पुरुष नेताओं ने टंगड़ी मारने में देर नहीं की। अपने राजस्थान में वसुंधरा राजे वसुंधरा राजे ने अपना मुकाम खड़ा किया। तो किस तरह कुर्सी छोडऩे के लिए मजबूर किया गया, दोहराने की जरूरत नहीं। अब जबसे सुषमा स्वराज ने विपक्ष के नेता पद की जिम्मेदारी संभाली। मनमोहन की दूसरी पारी में विपक्ष ने नाको चने चबवा दिए। सो बीजेपी में दूसरे पीएम इन वेटिंग की होड़ शुरू हो गई। राज्यसभा में अरुण जेतली ने नेता विपक्ष की कुर्सी संभाली। सो सुषमा-जेतली की नजर अब पीएम की कुर्सी पर गड़ गई। अंदरखाने पार्टी के भीतर अपनी-अपनी लॉबी बनाने की कोशिश होने लगी। दोनों नेता राज्यों में अपना प्रभाव जमाने में जुट गए। पर इस खेल में सुषमा थोड़ी पिछड़ गईं। पेशे से वकील होने के नाते जेतली अधिक तेज-तर्रार निकले। अभी भी बीजेपी में जेतली कैंप का जबर्दस्त दबदबा। पर जेतली की सबसे बड़ी कमी, जनता के बीच सुषमा जैसी अपील नहीं। बीजेपी का इतिहास इसी बात का साक्षी। आडवाणी तेज-तर्रार होते हुए भी कभी पीएम नहीं बन पाए। उदारवादी और जनता के दिलों पर राज करने वाले वाजपेयी बाजी मार गए। यों सत्ता अभी बीजेपी के लिए दूर की कौड़ी। पर लट्ठमलट्ठा शुरू हो गई। अगर सत्ता का मौका मिला, तो राजनीतिक कौशल, महिला और जनता की पसंद होने के नाते सुषमा भी वाजपेयी की तरह गठबंधन में सर्वस्वीकार्य हो सकतीं। सो अभी से ही गुरु घंटालों ने खेल खराब करना शुरू कर दिया। सुषमा ने पटना में ऐसा कुछ नहीं कहा, जो मोदी को बुरा लगे। बीजेपी हमेशा से गैलेक्सी ऑफ लीडर की बात करती। सुषमा ने भी यही कहा था- हर जगह जादूगर अलग-अलग। यानी गुजरात में मोदी, तो बिहार में सुशील-नीतिश। सो मोदी को किसी ने उकसाया या खुद की महत्वाकांक्षा ने जोर मारा, यह मालूम नहीं। पर पीएम इन वेटिंग की कुर्सी की दौड़ शुरू मानिए। नरेंद्र मोदी तो गठबंधन में कभी स्वीकार्य होंगे, आसार नहीं दिखते। सो असली जंग सुषमा बनाम जेतली, नरेंद्र मोदी तो सिर्फ बहाना बन गए। यों सुषमा-मोदी में मतभेद से भी इनकार नहीं। जब पटना कार्यकारिणी में मोदी के इश्तिहारों ने बंटाधार किया। तब भी सुषमा ने नाराजगी जताई थी। यों अरुण जेतली और मोदी की खूब छनती। सो ताजा मतभेद जेतली-सुषमा के बीच होड़ का ही नतीजा। पितृ पुरुष की भूमिका में आ चुके आडवाणी का दिल मोदी के लिए धडक़ता। तो दिमाग से जेतली-सुषमा के बीच बराबर का संतुलन बनाए रखा।
----------
28/10/2010

Wednesday, October 27, 2010

अब मोदी की मारी बीजेपी बेचारी

चले थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। सचमुच बीजेपी में दो-चार महीने से अधिक शांति नहीं रह सकती। जब तक आपस में टंगड़ी मार राजनीति न खेलें, बीजेपी को राजनीति का मजा नहीं आता। सो बीजेपी में फिर वर्चस्व की जंग छिड़ गई। नीतिश कुमार के वीटो ने नरेंद्र मोदी को बिहार चुनाव प्रचार में घुसने नहीं दिया। तो अब सुषमा स्वराज ने कह दिया- बिहार में नरेंद्र मोदी की आवश्यकता ही नहीं। यहां पहले से ही नीतिश और सुशील मोदी का जादू चल रहा। यानी सुषमा का मतलब, गुजरात में मोदी का जादू चल रहा, पर बिहार में नहीं चलेगा। सो मोदी समर्थक खफा हो गए। कर्नाटक के एक उत्साही विधायक ने भारत के विकास के लिए गुजरात का विकास शीर्षक से मोदीनुमा इश्तिहार छपवा दिया। यों इश्तिहार में गुजरात के स्थानीय चुनाव में चले मोदी मैजिक का बखान। पर सुषमा के बयान के ठीक बाद आए इश्तिहार का राजनीतिक अर्थ निकलना ही था। बुधवार को बीजेपी की उपाध्यक्ष नजमा हेपतुल्ला ने भी सुषमा का नाम नहीं लिया। पर दो-टूक बोलीं- गुजरात से बाहर भी मोदी का जादू चल रहा। नजमा ने बाकायदा दादर नगरहवेली और दमनदीव के स्थानीय चुनाव के आंकड़े गिना दिए। सारा क्रेडिट मोदी मैजिक को दिया। सो बीजेपी की अंदरूनी कलह का अंदाजा आप खुद लगा लें। बीजेपी के भीतर दूसरी पीढ़ी में सिरमौर बनने की होड़ किस कदर बढ़ चुकी, आप खुद देख लें। नरेंद्र मोदी का कहा बीजेपी में कोई नहीं टाल सकता। तो भला शिवराज, रमण क्यों पीछे रहें। सो जब भी मौका मिलता, ये भी आलाकमान के मंसूबे पर पानी फेरने से नहीं चूकते। अब ताजा नमूना बुधवार को ही दिख गया, जब बीजेपी की सबसे महत्वाकांक्षी योजना अंत्योदय के क्रियान्वयन की केंद्रीय टीम में प्रदीप गांधी शामिल हो गए। रमण ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के वक्त प्रदीप गांधी को चुनाव समन्वय की टीम में जोड़ा था। पर बवाल मचा, तो हटाए गए। फिर प्रदेश कार्यकारिणी में चुपके से शामिल करा दिया। अब धीरे-धीरे प्रदीप गांधी को केंद्रीय टीम में जगह दिला दी। सनद रहे सो बता दें, प्रदीप गांधी कौन? तो जरा याद करिए ऑपरेशन दुर्योधन। संसद में सवाल पूछने के लिए 11 सांसद कैमरे में अठन्नी-चवन्नी घूस लेते धरे गए थे। महज दस दिन में संसद की आचरण समिति ने बर्खास्तगी की सिफारिश की। तो 23 दिसंबर 2005 को घूसखोर सवालची सांसदों को आउट कर संसद ने इतिहास रच दिया था। प्रदीप गांधी इनमें से एक थे। इन 11 सांसदों में बीजेपी का बहुमत था। प्रदीप गांधी हमेशा से रमण सिंह के दुलारे रहे। लोकसभा में भी रमण की खाली सीट राजसमंद से चुनकर पहुंचे थे। यों भ्रष्टाचारियों को जगह देने में बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस भी माहिर। इन सवालची सांसदों में बीएसपी के राजा रामपाल आउट हुए थे। अब यूपी कांग्रेस का राहुल गांधी ने बेड़ा पार लगाया। तो सांसदी की एक सीट से राजा रामपाल ने भी शोभा बढ़ाई। सो नैतिकता के खेल में कोई भी राजनीतिक दल कपड़ा पहनना नहीं चाहता। पर बात बीजेपी की, रमण ने प्रदीप गांधी की एंट्री कराई। पर शिवराज सिंह ने उमा भारती की एंट्री में रोड़ा अटका रखा। यानी बीजेपी के क्षत्रप अब आलाकमान की छाती पर मूंग दल रहे। पर बीजेपी फिलहाल मोदी के वीटो से परेशान। मोदी ने वीटो लगाकर राम जेठमलानी को राजस्थान से राज्यसभा की मेंबरी दिला दी। बीजेपी का कोई नेता इसके लिए राजी नहीं था। पर मोदी ने ठान लिया, तो फिर किसकी मजाल, जो ना करने की हिमाकत करे। नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगे से जुड़े मामले में बचाने का ठेका जेठमलानी ने लिया। तो मोदी ने फिर किसी की परवाह नहीं की। आखिरकार नितिन गडकरी को बीजेपी के टिकट से जेठमलानी को मेंबरी देनी पड़ी। पर जेठमलानी के बोल बीजेपी को अब भारी पड़ रहे। यों जब बड़़बोले जेठमलानी को टिकट दिया गया। तभी बीजेपी के एक प्रवक्ता ने कह दिया था- अब हर रोज सफाई देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। सो जातीय जनगणना की मुखालफत, एसएम कृष्णा का समर्थन कर बीजेपी को असहज कर चुके जेठमलानी ने कश्मीर के वार्ताकार दिलीप पडगांवकर का समर्थन कर मुश्किल बढ़ा दी। बीजेपी ने जेठमलानी की निजी राय बता पल्ला तो झाड़ लिया। पर पार्टी दो खेमों में बंट गई। एक धड़ा अनुशासनात्मक कार्रवाई चाह रहा। तो दूसरे में चाहकर भी हिम्मत नहीं। बुधवार को जेठमलानी ने तो यहां तक कह दिया- मंच से प्रवक्ता का कुछ बोल जाना कोई पार्टी लाइन नहीं। मुझे किसी ने नहीं बताया कि पार्टी लाइन क्या है। सो मैं माफी नहीं मांगूंगा। अब बीजेपी दोहरी मुश्किल में। पार्टी ने पडगांवकर के बयान का विरोध किया। जेठमलानी समर्थन कर रहे। पर मुश्किल, न अपना बयान वापस ले सकती, न जेठमलानी पर कार्रवाई कर सकती। कश्मीर पर वार्ताकार पडगांवकर ने दिल्ली लौटने के बाद लालकृष्ण आडवाणी से बात करने का एलान कर दिया। सो अब बीजेपी का स्टैंड क्या रहेगा, यह देखना होगा। बीजेपी के सहयोगी जेडीयू ने भी जेठमलानी का समर्थन कर मुश्किल बढ़ा दी। अब आखिर में सवाल, जब गुजरात दंगे में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं। तो एक वकील के पीछे समूची बीजेपी दांव पर क्यों? जेठमलानी की वजह से जिन-जिन का टिकट कट गया, अब खुलकर बोल रहे। एक ने यहां तक कह दिया- जेठमलानी कैसे जीते हैं, सबको मालूम। नरेंद्र मोदी के सिवा पार्टी में कोई उन्हें पसंद नहीं करता। पर मोदी की पकड़ मजबूत हो रही। सो मोदी की मारी बेचारी बीजेपी ठीक से सिसक भी नहीं पा रही।
---------
27/10/2010

Tuesday, October 26, 2010

अभिव्यक्ति की आजादी से ‘गुलाम’ हुई कांग्रेस-बीजेपी

कॉमनवेल्थ घोटाला हो या कश्मीर की किचकिच, खत्म नहीं होने वाली। पर पहले बात घोटाले की। तो जरा कॉमनवेल्थ के आयोजन से हुए फायदे को देखिए। अपने भारत की रैंकिंग ग्लोबल करप्शन इंडेक्स में 84 वें से 87 वें पर पहुंच गई। यानी करप्शन में अपना देश सीधे तीन पायदान छलांग मार गया। बेचारा चीन ओलंपिक कराने के बाद भी 78वें नंबर पर झक मार रहा। सचमुच ऐसे दो-चार कॉमनवेल्थ और हो गए। तो भ्रष्टाचारी देशों की सूची में अपना भारत अव्वल होगा। वैसे भी भ्रष्टाचारियों पर अपने यहां कार्रवाई गाहे-ब-गाहे ही होती। अब देख लो, कॉमनवेल्थ गेम्स को निपटे तेरह दिन हो गए। पर इसे जांच की तेरहवीं न कहें, तो और क्या कहें। अभी तक पीएम की बनाई शुंगलू कमेटी ने जांच का खाका तक नहीं बनाया। कुछ और वक्त लगने की बात कर रहे। यानी तब तक कलमाड़ी-शीला-जयपाल-गिल-अंबिका एंड कंपनियों को कागज बदलने को काफी वक्त मिल जाएगा। अब कोई पूछे, देश को कब तक यों ही लूटते रहेंगे नेता-नौकरशाह? भ्रष्टाचारी देशों की सूची में भारत लगातार आगे बढ़ रहा। फिर भी नेताओं को शर्म नहीं आ रही। अब तो ऐसा लग रहा, कोई उम्दा खरीददार मिल जाए, तो ये देश को भी बेचने से नहीं चूकेंगे। कश्मीर पर जिस तरह राष्ट्र विरोधी बयानों का दौर शुरू हुआ, इस अंदेशे की पुष्टि कर रहा। अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और अरुंधती राय ने 21 अक्टूबर को दिल्ली में सेमिनार कर आजाद कश्मीर की अलख जगाई। जब सेमिनार में कुछ देशभक्तों ने तिरंगे झंडे लहराए। तो चिदंबरम की दिल्ली पुलिस ने झंडा लहराने वालों को बाहर कर राष्ट्र विरोधियों को संरक्षण दिया। अब गिलानी-अरुंधती के बोल ने केंद्र सरकार को मुश्किल में डाला। तो राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने की मंजूरी देनी पड़ी। पर एफआईआर दर्ज करने में अभी इफ एंड बट का खेल। सरकार को डर, गिरफ्तारी से कोई बवाल न मच जाए। सरकार की ऐसी ही लचर नीतियों ने अलगाववाद को हमेशा शह दी। तभी तो देश विरोधी बयान देने के बाद भी अरुंधती राय को कोई मलाल नहीं। अलबत्ता भारत को ही धता बता रहीं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मुकदमे की हरी झंडी दी। तो अरुंधती राय ने बयान जारी कर कह दिया- मैंने लाखों लोगों के न्याय की बात कही। पर जिस देश में न्याय मांगने वालों को जेल भेजने की बात हो। ऐसे देश में मुझे दया आती है। अब अगर अरुंधती को सचमुच देश पर दया आ रही। तो क्यों नहीं पाकिस्तान की नागरिकता लेकर पीओके में हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठातीं? अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं, कोई राष्ट्र विरोधी बयान देना शुरू कर दे। खुद विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने गिलानी और अरुंधती की टिप्पणी को अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया। सीधे-सीधे उन ने देशद्रोह बता दिया। पर सवाल, कार्रवाई में इतनी देरी क्यों? जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम और केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला ने भी माना। अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल हो रहा। फारुख बेलौस बोले- हिंदुस्तानी ही हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर रहे। कुछ लोग आजादी की अभिव्यक्ति का इस कदर फायदा उठा रहे, जिसकी कोई सीमा नहीं। तो इसमें फारुख क्या करें। यों बेजा इस्तेमाल की बात तो फारुख ने सोलह आने सही कही। पर वह कुछ भी करने में असक्षम, यह सही नहीं। फारुख के बेटे उमर ही जम्मू-कश्मीर के सीएम। अगर वोट बैंक की राजनीति छोड़ दें, तो अलगाववादियों पर नकेल कसना कोई बड़ी बात नहीं। पर खुद उमर ने विधानसभा के भीतर अभिव्यक्ति की आजादी का कैसा इस्तेमाल किया, क्या फारुख ने नहीं देखा? जब उमर कश्मीर के विलय पर सवालिया निशान लगा रहे थे, तब फारुख ने क्या किया? घाटी में जाकर फारुख हों या पडगांवकर या मनमोहन, वही बात करते, जो अलगाववादियों को पसंद। सो कश्मीर सिर्फ राजनीति का मुद्दा बनकर रह गई। कांग्रेस इस कदर फंस चुकी कि अरुंधती की हैसियत पर सवाल उठा उनका निजी बयान बता रही। पर बीजेपी ने हमेशा की तरह पडगांवकर से लेकर अरुंधती-गिलानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। यों बीजेपी के भीतर विभीषणों की कमी नहीं। राम जेठमलानी ने पार्टी लाइन के उलट पडगांवकर का समर्थन किया। बीजेपी के बयानों को बचकाना और अशिष्ट हरकत कह गए। पर बेचारी बीजेपी कुछ नहीं कर पाई। खाल बचाने को प्रकाश जावडेकर बोले- जेठमलानी तो जेठमलानी हैं। वह उनकी निजी राय, पार्टी सहमत नहीं। पर कोई पूछे, अगर जेठमलानी को बीजेपी अशिष्ट और बचकानी नजर आ रही। तो उसके टिकट से सांसद क्यों बने हुए? बीजेपी को भी जेठमलानी की राय पार्टी लाइन के इतर दिख रही। तो कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? अपने जसवंत सिंह को निजी हैसियत से किताब लिखने पर इसी बीजेपी ने बर्खास्त कर दिया था। जसवंत पर विचारधारा के उलट काम करने का आरोप लगाया। पर जेठमलानी क्या कर रहे? जातीय जनगणना हो या इस्लामाबाद में हुई कृष्णा-कुरैशी की साझा प्रेस कांफ्रेंस में कृष्णा की चुप्पी का मसला। भरी सभा में जेठमलानी ने अपनी ही बीजेपी का चीरहरण किया। पर जेठमलानी के हाथ चीरहरण करवा बीजेपी को मजा आ रहा। राज्यसभा में पांच अगस्त को जेठमलानी ने एसएम कृष्णा की सराहना की थी। अब पडगांवकर का बचाव कर रहे। पर बीजेपी निजी विचार बता भाग नहीं सकती। कश्मीर के मसले पर जब पीएम से बीजेपी का डेलीगेशन पिछली बार मिला। तो आडवाणी-जेतली-सुषमा के साथ चौथे अहम शख्स जेठमलानी ही थे। सो कश्मीर पर जेठमलानी की राय को बीजेपी निजी बताकर भाग नहीं सकती।
----------
26/10/2010

Monday, October 25, 2010

कश्मीर की ‘कील’ पर बयानों का हथौड़ा

मंगलवार को तिरेसठ साल पूरे हो जाएंगे कश्मीर के भारत में विलय को। छब्बीस अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किए थे। पर यह कश्मीर का दुर्भाग्य, कहने को तो धरती का स्वर्ग। पर कभी अमन-चैन नहीं रहा। घाटी कभी अमेरिका-ब्रिटेन की कुटिल कूटनीति की, तो कभी अपने सियासतदानों के वोट बैंक की राजनीति की शिकार हुई। जब भारत आजाद हुआ, तब दुनिया दो हिस्सों में बंटी थी। सो अंग्रेजों ने रणनीति के तहत पहले भारत के दो टुकड़े करवाए। फिर रियासत-ए-कश्मीर को भारत-पाक के बीच हमेशा के लिए विवाद का मुद्दा बना दिया। अब अमेरिका अपनी सहूलियत के मुताबिक कभी पाक को शह देता। तो कभी हाथी के दिखाने वाले दांत की तरह भारत के साथ थोथी सहानुभूति। पर जब घर दुरुस्त न हो, तो बाहर वाले मजा उठाएंगे ही। जम्मू-कश्मीर के तथाकथित होनहार और युवा सीएम उमर अब्दुल्ला ने अपनी कुर्सी बचाने को कश्मीर के विलय पर ही सवाल उठा दिए थे। सो ऐसी बहस छिड़ी, अब सुर्खियां पाने को तथाकथित मानवाधिकारवादी झोला-झंडा उठाए निकल पड़े। अरुंधती राय पहले नक्सलवादियों के पक्ष में बोल सुर्खियां बटोर चुकीं। तो भला कश्मीर की आग में भुट्टा सेकने से क्यों चूकतीं? सो उन ने भी कश्मीर के विलय पर सवाल उठा दिए। अरुंधती राय ने भारत सरकार को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतिरूप बता दिया। आरोप लगाया- पूर्वोत्तर में असंतोष को दबाने के लिए सेना में भर्ती कश्मीरियों का, तो कश्मीरियों की आवाज दबाने के लिए सेना में भर्ती पूर्वोत्तर के लोगों का इस्तेमाल कर रही सरकार। अब अरुंधती राय के बयान का मतलब आप खुद निकालें। पर अरुंधती से एक सवाल, क्या कश्मीर को पाक के हवाले कर देना चाहिए? अरुंधती तो काफी पढ़ी-लिखी और इतिहास को समझने वाली। फिर कश्मीर के इन हालात के लिए कौन जिम्मेदार, यह नहीं जानतीं? पाक ने कश्मीर को हथियाने के लिए तब खूब तिकड़म की। जिन्ना ने अपने अंग्रेज सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा के पास भेजा। जिन्ना ने जबरन विलय की रणनीति भी बना ली थी। पाकिस्तानी कबाइलियों की घुसपैठ बढ़ गई थी। फिर भी कामयाबी नहीं मिली, तो पाक ने हमला बोल दिया। तब महाराजा हरि सिंह ने सूझ-बूझ दिखा भारत में विलय का फैसला लिया। फिर भारतीय सेना ने श्रीनगर पहुंच पाक कबाइलियों को मार भगाया। अब अरुंधती बताएं, किसने कश्मीर की आजादी को दासता में बदलने की कोशिश की? अपने देश में सचमुच कथित मानवाधिकावारियों ने राष्ट्र विरोधी बयान देना अपना फैशन बना लिया। नक्सलवादी हों या अलगाववादी, अगर सरकार वार्ता को राजी। तो फिर हिंसा क्यों नहीं छोड़ते? कुछ हिस्सों का विकास से दूर हो जाना एक गलती। पर जब तक बात नहीं होगी, काम कैसे होगा? अगर नक्सली बंदूक से बोलेंगे, तो फिर सरकार से आप निहत्थे जंगल में आने की कैसे सोच सकते? पता नहीं ऐसे मानवाधिकारवादियों को क्या हो गया, जिन्हें संसद पर हमले के दोषी अफजल का मानवाधिकार तो दिखता है। पर संसद हमले में शहीद अपने सुरक्षा बलों के परिजनों के आंसू नहीं दिखते। नक्सलवादियों-अलगाववादियों के पैरोकार अगर सचमुच देश से प्रेम करते, तो क्यों नहीं खुद मध्यस्थ की भूमिका निभाते? मीडिया के सामने चार बौद्धिक बातें कर लेना कोई बुद्धिमानी नहीं। बुद्धिमानी तो तब दिखेगी, जब पैरोकार पहल कर नक्सलवाद-अलगाववाद के नासूर को खत्म करने में अहम किरदार निभाएं। पर असलियत कुछ और। जब ऐसे मुद्दे नहीं होंगे। तो ऐसे बुद्धिजीवियों के पास करने को क्या बचेगा? यही हाल राजनेताओं का, जो कभी वोट बैंक से जुड़े मुद्दे दफन नहीं होने देते। अब कश्मीर जून से सितंबर तक सुलगता रहा। तो दिल्ली से सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल गया। अब केंद्र ने वार्ताकारों का नया समूह गठित किया। तो पेशे से पत्रकार दिलीप पडगांवकर की रहनुमाई में तीनों मेंबर घाटी पहुंचे। पर काम शुरू करने से पहले ही ऐसा बयान दिया, बखेड़ा खड़ा हो गया। पडगांवकर ने कश्मीर समस्या के समाधान में पाकिस्तान को शामिल किए जाने की जरूरत बता दी। यानी अरसे से जो बात अलगाववादी कह रहे, वही कह दिया। सो बीजेपी ने पीएमओ से सफाई मांगी। कांग्रेस को कुछ न सूझा, तो पडगांवकर पर ही छोड़ दिया। पर इतना जरूर कहना पड़ा- समूचे कश्मीर नहीं, पाक से सिर्फ उसके कब्जे वाले कश्मीर पर ही बातचीत हो सकती। यानी केंद्र में सरकार किसी की भी हो, सभी 22 फरवरी 1994 के संसद के संकल्प से बंधे हुए। जिसमें साफ कहा गया- जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा। पीओके को फिर से हासिल करने का काम बाकी, जिसे जल्द पूरा किया जाना चाहिए। अब पडगांवकर-अरुंधती के बयानों को कौन सा संकल्प कहेंगे? माना, समस्या के समाधान के लिए खुले मन से बात हो। पर खुले मन का मतलब यह नहीं, भारत को पाकिस्तान के हवाले कर दें। वार्ताकार यह क्यों भूल रहे, भौगोलिक सीमा एक शाश्वत सच है। वार्ताकार अगर अलगाववादियों की जुबान बोलेंगे, तो फिर वार्ता के क्या मायने? पडगांवकर के बयान से कांग्रेस ठहरी, तो बीजेपी हमलावर। पर कश्मीर के विलय पर उंगली उठा चुके सीएम उमर ने सराहना की। सो कश्मीर मुद्दा कभी सुलझेगा, दूर-दूर तक आसार नहीं दिख रहे। पहल तो कई दफा हो चुकी। पर जितनी बार बात हुई, बनी कम, बिगड़ी अधिक। वार्ताकार का मतलब तो अब सरकार की ओर से अपने पसंदीदा लोगों को नौकरी देना हो गया। ---------
25/10/2010

Friday, October 22, 2010

....तो गांव के लोग अब पेटू हो गए!

सचमुच नेताओं को शर्म है कि आती नहीं। आम आदमी जैसे-तैसे महंगाई झेल ही रहा। पर नेताओं को अब गरीबों का झेलना भी गवारा नहीं। इनका वश चले, तो गरीबी भले न मिटे, गरीबों को जरूर मिटा देंगे। सो अबके योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने महंगाई का ठीकरा गांव-गरीबों पर फोड़ दिया। अब इसे बेहयाईपन की हद पार करना न कहें, तो क्या कहेंगे? यों राजनीतिक नफा-नुकसान के लिहाज से आहलूवालिया सही फरमा रहे। सोचो, जब इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। तभी गरीबी मिट जाती, तो आज कांग्रेस क्या घास छीलती? सोनिया-मनमोहन राज में फिर यह नारा कैसे बनता- कांग्रेस का हाथ, गरीब और आम आदमी के साथ। तभी तो दादी इंदिरा से पोता राहुल तक, गरीबी ही राजनीतिक जुमला बनी हुई। अगर गरीब सुखी-संपन्न हो गए, तो फिर राजनीति की दिशा बदल जाएगी। वोट बैंक नाम की चिडिय़ा फुर्र हो जाएगी। सो मोंटेक ने बेलाग कह दिया- गांवों के लोगों की आय और जीवन स्तर बढऩे से खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ी। इसीलिए महंगाई भी बढ़ी। अगर सीधे-सपाट लहजे में मोंटेक उवाच को समझें। तो मतलब यही, गांव के लोग अब पेटू हो गए। यही भाषा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश इस्तेमाल कर चुके। उन ने वैश्विक महंगाई का जिम्मेदार भारत-चीन को ठहराया था। भारत-चीन के लोगों खदोड़ कह दिया था। सो मोंटेक भले अपने योजना आयोग का जिम्मा संभाल रहे। पर लंबे समय तक अमेरिका में काम कर चुके। सो अमेरिकी वेश-भूषा, रहन-सहन के साथ अब भाषा भी वैसी हो गई। पर मनमोहन के बयान बहादुरों में सिर्फ मोंटेक ही नहीं। शरद पवार, मुरली देवड़ा, जयराम रमेश यहां तक कि खुद मनमोहन भी इस होड़ में शामिल। सनद रहे, सो बता दें। अपने शरद पवार ने जब-जब मुंह खोला, महंगाई बढ़ी। हर बार ऐसे बयान दिए, गरीबों का जख्म कुरेद दिया। एक बार कहा था- मैं कोई ज्योतिषी नहीं, जो बताऊं, महंगाई कब कम होगी। फिर चीनी महंगी हुई। तो बयान दिया- चीनी नहीं खाएंगे, तो मर नहीं जाएंगे। फिर चावल उत्पादक राज्यों में रोटी खाने वाली जनता को जिम्मेदार बता दिया। साग-सब्जी, फल महंगे हुए। तो पवार ने कहा था- जब पेप्सी-कोला खरीद सकते, तो महंगी फल-सब्जी क्यों नहीं। पर पवार को छोडि़ए। सही मायने में पवार देश के कृषि मंत्री नहीं, क्रिकेट मंत्री कहे जाते। पर महंगाई ने जब-जब कांग्रेस को घेरा, कांग्रेस और उसकी सरकार ने बेशर्मी की सारी लक्ष्मण रेखा लांघ दी। बाईस मई-2004 को मनमोहन पीएम बने। नवंबर से ही महंगाई ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। फिर वित्त मंत्री रहते चिदंबरम ने बजट पेश किया, तो कुत्ते के खाने वाले बिस्किट की कीमतें घटा दीं। पर बाहर महंगाई पर सवाल हुआ, तो मुस्कराते हुए कहा था- कुत्ते के बिस्किट का दाम घटा दिया। फिर महंगाई रोकने को कोई जादू की छड़ी नहीं वाला बयान तो चिदंबरम से लेकर सिब्बल तक और पूरी कांग्रेस कई बार दे चुकी। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के दाम बढ़े, तो पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए जनता को भगवान भरोसे छोड़ दिया। शीला दीक्षित की अहंकारी टिप्पणियां तो कई बार अपना खून जला चुकीं। चुनाव से पहले गैस के दाम पर सब्सिडी दी, पर चुनाव बाद बेशर्मी से सब्सिडी हटा ली। शीला ने भी कहा था- अकेले महंगाई नहीं बढ़ी, लोगों की आमदनी भी बढ़ी। सो महंगाई पर हाय-तौबा करने की जरूरत नहीं। अब कांग्रेसी नेताओं के इतने सारे बयानात देखने-सुनने के बाद मोंटेक सिंह आहलूवालिया का बयान कांग्रेसी सोच को आगे बढ़ाने वाला ही लग रहा। पर जिस गांव-गरीब को मोंटेक ने पेटू कहा। अब अधिक पीछे नहीं, इसी साल लालकिले के प्राचीर से पीएम मनमोहन जो योजना आयोग के अध्यक्ष भी, उन ने महंगाई पर कुछ यों फरमाया था। उन ने कहा था- महंगाई से सबसे अधिक गरीब प्रभावित हुए। पर मनमोहन के जूनियर मोंटेक तो गरीब को महंगाई का जिम्मेदार बता रहे। आखिर कब तक गांव-गरीब को छलेगी कांग्रेस सरकार। महंगाई के लिए और कितनी वजहें गिनाई जाएंगी? पहले महंगाई को एनडीए से विरासत में मिली बताया। फिर बीजिंग ओलंपिक पर ठीकरा फोड़ा। कभी लोगों की खान-पान की आदत में बदलाव वजह बताई। अब गांव की समृद्धि को वजह बता दिया। सो सवाल राहुल गांधी से। जो भारत को दो हिस्सों यानी, चमकता और पिछड़ा भारत में बांट चुके। खुद को गांव-गरीब का रहनुमा बताते फिर रहे। अब राहुल बताएं, मोंटेक के बयान से कैसे एक ही पायदान पर खड़ा होगा भारत? गांव में आज भी अधिकतर आबादी ऐसी, जो महज दो जून की रोटी के लिए सुबह से शाम तक संघर्ष करती। पर गांव-गरीब की बात करने वाली कांग्रेस महंगाई के इस दौर में गरीबों के खाली पेट को सहलाना तो दूर, उलटे लात मार रही। सो अब कांग्रेस पर जनता कैसे एतबार करे। बिहार चुनाव में सोनिया-राहुल-मनमोहन ने चीख-चीख कर कहा- बिहार के विकास के लिए हमने पैसा दिया। तो शुक्रवार को बीजेपी ने पूछ लिया- क्या इन तीनों ने अपनी निजी संपत्ति में से दिया? पर नेताओं का क्या, अभी कुछ, घंटे भर बाद कुछ। गांव-गरीब की फिक्र तो छोडि़ए, देश को भी भगवान भरोसे छोड़ रखा। अलगाववादी नेता सैयद अलीशाह गिलानी अब दिल्ली में आकर पृथक कश्मीर की आवाज बुलंद कर गए। पर अपनी पुलिस ने तिरंगा झंडा लहराने वालों को सेमिनार हॉल से ही बाहर कर दिया। सो नेताओं से अब लाज की कैसी उम्मीद?
-----------
22/10/2010

Thursday, October 21, 2010

मोदी ने दी चोट, तो कांग्रेस को भी दिखा ईवीएम में खोट

कहते हैं ना, सांच को आंच नहीं। कर्नाटक की राजनीति में इस बार भी सभी राजनीतिक दल नंगई पर उतर आए। पिछली विधानसभा में कांग्रेस-जेडीएस-बीजेपी ने कैसे बारी-बारी सत्ता का बीस-बीस महीने बलात्कार किया, किसी से छुपा नहीं। बीजेपी को तब बीस महीने का पूरा हक नहीं मिला। तो अबके सरकार बचाने में सत्ता के दुरुपयोग की कोई कसर नहीं छोड़ रही। सो खरीद-फरोख्त के खेल में कोई पीछे नहीं। कोई स्टिंग कर रहा, तो कोई विधायक तोड़ रहा। कुल मिलाकर लोकतंत्र की ऐसी-तैसी करने को सभी ओवरटाइम कर रहे। कभी अपना देश सोने की चिडिय़ा कहलाता था। तो अंग्रेज सारा सोना लूट ले गए। पर आजादी के बाद नेताओं ने राजनीति को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बना दिया। सो अब कुर्सी बचानी हो या करप्शन करके बचना हो, सब कुछ बिकाऊ हो गया। चाहे जब एमपी-एमएलए खरीद लो, चाहे जब करप्शन का एक हिस्सा जांच करने वालों को सरका दो। सारा मामला रफा-दफा। गुरुवार को इसकी एक मिसाल भी मिल गई। कॉमनवेल्थ घोटाले में इनकम टेक्स डिपार्टमेंट कैसे लगातार छापे मार रहा। मानो, भ्रष्टाचार की कलई चंद दिनों में खोलकर रख देगा। पर झूठ के पांव नहीं होते। अब आईटी डिपार्टमेंट की हकीकत का एक और नमूना देखिए। करीब चार हजार करोड़ के घोटाले के मामले में झारखंड के पूर्व सीएम मधु कोड़ा फिलहाल जेल की हवा खा रहे। पर कोड़ा के खिलाफ तथ्य जुटाने वाले अधिकारी उज्ज्वल चौधरी को जांच से हटाने पर डिपार्टमेंट इस कदर आमादा कि सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। राजनीतिक दबाव में जब चौधरी के ट्रांसफर की कोशिश हुई। तो झारखंड हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। पर आईटी डिपार्टमेंट ने अटार्नी जनरल के जरिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर चार हफ्ते का स्टे लगा दिया। यानी जांच अधिकारी उज्ज्वल की विदाई तय हो गई। अब अपनी व्यवस्था को क्या कहेंगे। कॉमनवेल्थ गेम्स में 70 हजार करोड़ रुपए लुटाए गए। जो देश के शिक्षा बजट से करीब छह गुना अधिक। अगर यह धन शिक्षा या किसी अन्य मद में खर्च होता, तो आने वाली पीढ़ी को कुछ कर दिखाने का बेहतर मौका मिलता। पर गेम्स से क्या मिला? कॉमनवेल्थ गेम्स के रिकार्ड न तो मान्य और न ही कोई अनोखा रिकार्ड बनाया। खिलाडिय़ों के ऊपर महज साढ़े तीन सौ करोड़ खर्च हुए। बाकी आयोजन करने वालों ने मिल-बांट लिए। अब देखो, पहले गेम्स के नाम पर भ्रष्टाचार। बेतहाशा धन खर्च किया गया। अब जांच के नाम पर धन खर्च होगा। पर मिलेगा क्या? कल को कोई बड़ा नेता फंस गया। तो जांच अधिकारी बदलने में कितना वक्त लगेगा? झारखंड में मधु कोड़ा को बचाने के लिए आखिर आईटी डिपार्टमेंट इतना सक्रिय क्यों? भ्रष्टाचार तो अब सत्ता की जोड़-तोड़ में संजीवनी बन चुका। माया-मुलायम-लालू के केस अपनी कहानी खुद बता रहे। सो नेता अब कम से कम समय में अपनी सात पीढ़ी को संपन्न बना लेना चाहता। तभी तो जनता की नब्ज भांपना भूल चुके नेता। देश का वोटर अब इतना परिपक्व हो चुका कि नेताओं को चुनाव बाद ही असली तस्वीर दिखती। जैसे ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती। वैसे ही लोकतंत्र में जनता की लाठी भी हो गई। सो हारने वाले नेता दिल से हार नहीं कबूल पा रहे। याद करिए, कैसे आडवाणी के मंसूबों पर पानी फिरा। तो बेजुबान, बेचारी ईवीएम मशीन को हार का जिम्मेदार ठहराने लगे। बीजेपी नेता ने तो तथ्यों का विश्लेषण कर किताब लिख डाली। पर अब यही रोग कांग्रेस को भी लग गया। गुजरात में मोदी का मैजिक कांग्रेस के लिए रहस्य बना। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद तो कांग्रेसी कहने लगे थे- मोदी को कैसे हराना है, यह मोदी से ही पूछो। पर अब पंचायत चुनाव में भी मोदी मैजिक चला। तो कांग्रेस ने मशीन पर ठीकरा फोड़ दिया। गुजरात प्रदेश कांग्रेस ने दिल्ली में गुहार लगाई। चुनाव आयोग को बाकायदा शिकायत सौंप दी। कांग्रेस प्रवक्ता मोहन प्रकाश बोले- मोदी मैजिक की पोल अब खुल गई। पर सवाल, जब ईवीएम में खोट, तो अपने नवीन चावला के जरिए ठीक क्यों नहीं करवाया? क्या सिर्फ गुजरात के ईवीएम में खोट? अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में हारने वाली पार्टी ईवीएम पर ऐसे ही ठीकरा फोडऩे लगे। तो लोकतंत्र का क्या होगा? अपने नेताओं में हार कबूलने का साहस क्यों नहीं? क्यों नहीं समझ पा रहे, अब देश के परिपक्व वोटरों को बरगलाना खालाजी का घर नहीं। जनता के निर्णय अब ऐसे होने लगे, बड़े-बड़े रणनीतिकार तो क्या, सैफोलॉजिस्ट भी सौंफ फांकते दिख रहे। पर नेता अपनी हार के लिए मशीन को जिम्मेदार ठहरा रहे। मानो, जनता कुछ भी नहीं। अब बिहार चुनाव का पहला दौर गुरुवार को निपट गया। तो शेखचिल्लियों ने खूब दावे किए। रामविलास पासवान ने तो 90 फीसदी जनता को लोजपा-राजद गठबंधन के साथ बताया। यों देर शाम चुनाव आयोग ने आंकड़े जारी किए। तो पता चला, कुल 54 फीसदी ही वोट पड़े। लालू-पासवान अबके नीतिश का तख्ता पलटने का दंभ भर रहे। पर ऐसा न हुआ, तो लालू-पासवान भी ईवीएम मशीन पर ठीकरा फोड़ें, तो कोई हैरानी नहीं। अब शायद यही परंपरा बनने वाली। हर राज्य में विपक्ष मशीन को ढाल बना हार की खीझ मिटाएगा।
-------
21/10/2010

Wednesday, October 20, 2010

लो अब गाली-गलौज का कॉमनवेल्थ भी हुआ शुरू

कॉमनवेल्थ घोटाले की कड़ी से कड़ी जुडऩे लगी। पहले दिन बीजेपी नेता सुधांशु मित्तल निशाने पर रहे। तो दूसरे दिन खेल गांव बनाने वाली कंपनी एम्मार-एमजीएफ का खेल बिगड़ गया। डीडीए के पास जमा 183 करोड़ की बैंक गारंटी जब्ती का नोटिस जारी हो गया। पर अभी तो सिर्फ ठेका लेने वाली कंपनियों पर शिकंजा कसा। यक्ष प्रश्न, ठेका देने वाले नौकरशाहों-नेताओं ने कितना खाया, इसकी परतें कब उधड़ेंगी? अब ठेकेदारों पर कार्रवाई में तेजी दिखाने से क्या होगा? ठेकेदार तो अपना टेंडर भरते। यह तो देने वाले पर निर्भर, किस कंपनी को ठेका दे। सो सवाल, ठेका देते वक्त नौकरशाहों-नेताओं ने होश क्यों गंवाया? अब जब सब कुछ लुट गया, तो होश में आ रहे। सो फिर वही सवाल- सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। दिन में चिराग जलाए, तो क्या किया। अब डीडीए को एम्मार-एमजीएफ के काम में खोट नजर आ रहा। अपनी खाल बचाने को सारा ठीकरा कंपनी के सिर मढ़ दिया। पर आर्थिक मंदी के दौर में जब कंपनी ने हाथ पीछे खींच लिए, तो डीडीए ने अधिक कीमत देकर 333 फ्लैट खरीद लिए। एम्मार-एमजीएफ को करीबन 700 करोड़ का बेलआउट पैकेज दिया गया। पर तब डीडीए ने कोई खोट नहीं बताया। अब रपट में कह रही- मंजूरी से अधिक फ्लैट बनाए गए। नक्शे में भी हेर-फेर कर एरिया बदल दिया गया। पर डीडीए पर कौन भरोसा करे। दुनिया की भ्रष्ट संस्थाओं में भारत से अपनी डीडीए ही मुकाबले में टिक पाती। डीडीए तो भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी। सो जब कॉमनवेल्थ लूट में मौका मिला, तो दिल खोलकर कंपनी को सरकारी धन लुटाया। कंपनी से कमीशन लेकर अपनी जेब भरी। पर विडंबना देखिए, जो डीडीए खुद संदेह के घेरे में, वह दूसरी कंपनी पर आरोप लगा रही। अब ऐसे में भ्रष्टाचार की जांच कैसे होगी, यह जांच करने वाले ही जानें। तीन महीने में जांच रपट सौंपे जाने का एलान तो हो गया। पर दबी जुबान शीलावादी नौकरशाह कहते फिर रहे- तीन महीने में जांच कोई खालाजी का घर नहीं। कम से कम छह महीने तो लगेंगे ही। सो कहीं ऐसा न हो, कॉमनवेल्थ की जांच बोफोर्स घोटाले की तरह हो जाए। जहां घोटाले की रकम से कई गुना अधिक जांच में खर्च हो गए। बीजेपी ने तो मौजूदा जांच को पहले ही बेमतलब बता दिया। नितिन गडकरी के बाद बुधवार को प्रकाश जावडेकर बोले- जब मौजूदा सीएजी-सीवीसी जांच में सरकारी महकमों पर सहयोग न करने का आरोप लगा रहे। तो पूर्व सीएजी भला क्या जांच कर लेंगे? जांच की आंच सचमुच बड़ी मछलियों तक पहुंचेगी, उम्मीद कम। शायद कांग्रेस भी बखूबी समझ रही, सो फिलहाल शुरुआती तेवर सख्त दिखाने को ताबड़तोड़ कार्रवाई हो रही। बुधवार को प्रवर्तन निदेशालय ने आयोजन समिति के महासचिव ललित भनोट को तलब कर लिया। लगे हाथ सुरेश कलमाड़ी से भी पूछताछ का सुर्रा छोड़ दिया। अब कांग्रेस किसे बलि का बकरा बनाएगी, यह बाद की बात। पर सुधांशु मित्तल ने तो मोर्चा खोल दिया। मंगलवार को इनकम टेक्स-सीबीआई के छापे पड़े। दिन भर मित्तल ही सुर्खियों में रहे। सो बुधवार को मित्तल सफाई देने आ गए। उन ने छापेमारी को राजनीतिक बदले की कार्रवाई बताया। अब मित्तल से कांग्रेस राजनीतिक बदला लेगी, ऐसी मित्तल की राजनीतिक हैसियत नहीं। गर मित्तल अपनी ही पार्टी बीजेपी के लिए ऐसा कह रहे, तो माना जा सकता। मित्तल को लेकर तो बीजेपी में लोकसभा चुनाव के वक्त जबर्दस्त सिर-फुटव्वल हो चुकी। यों बीजेपी भी मित्तल को अपना सगा मानने से इनकार कर रही। ताकि घोटाले की जांच में मित्तल फंसे, तो आसानी से दूरी बना सके। पर जरा मित्तल की सफाई भी सुनिए। बोले- जहां 77 हजार करोड़ का घोटाला, वहां 29 लाख की क्या बिसात? बकौल मित्तल, उनकी कंपनी को सिर्फ 29 लाख का ठेका मिला। तो वह कॉमनवेल्थ घोटाले के चोरों के सरताज कैसे हो गए। यों मित्तल की बात में दम। पर घोटाला 77 हजार करोड़ का हो या 29 लाख का। घोटाला तो घोटाला ही होता है। सो मित्तल की ईमानदार सफाई में बेईमानी की जबर्दस्त बू आ रही। करीब-करीब ऐसी ही ईमानदार सफाई शीला सरकार, कलमाड़ी एंड कंपनी, डीडीए आदि-आदि सभी दे रहे। पर ईमानदार सफाई में बेईमानी खुद-ब-खुद जगजाहिर हो रही। सो भ्रष्टाचार के मामले में चोर-चोर मौसेरे भाई अब एक-दूसरे के खिलाफ गाली-गलौज पर उतर आए। अब जिसका नाम उछल रहा, वही खीझ रहा। मंगलवार को गडकरी ने पीएम पर निशाना साधा। तो आरोपों का जवाब देने की बजाए कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी पर्सनल हो गए। कांग्रेस खिसियानी बिल्ली की तरह गडकरी पर लपकी। प्रवक्ता ने गडकरी को बिगड़ैल बच्चा बताया। मजाक बनाते हुए बोले- बीजेपी की पूरी प्रेस कांफ्रेंस का निचोड़ यही- खोदा पहाड़, निकला गडकरी। सो बुधवार को तो बीजेपी आग-बबूला दिखी। प्रकाश जावडेकर ने चेतावनी दे दी। शीशे के घर में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते। बोले- कांग्रेस नेता भाषा में संयम बरतें, वरना वैसी भाषा का इस्तेमाल करना हमें भी आता है। उन ने कांग्रेस को इशारा भी कर दिया, अगर बीजेपी के अध्यक्ष को गाली देना बंद नहीं किया। तो यह न भूले, कांग्रेस के पास भी अध्यक्ष है। हम भी सोनिया पर फूल नहीं बरसाएंगे। यानी सोनिया गांधी के खिलाफ पर्सनल टिप्पणी की धमकी दे दी। सो भ्रष्टाचार की जांच का क्या हश्र होगा, पता नहीं। पर अब गाली-गलौज का कॉमनवेल्थ शुरू मानिए।
---------
20/10/2010

Tuesday, October 19, 2010

तो आइए मिलकर कहें- जय हो भ्रष्टाचार की!

'हू इज द फादर ऑफ करप्शन?' तमाम सर्च इंजनों पर नजर फिराते दिन निकल गए। माउस क्लिक करते-करते उंगलियां दुख गईं। पर इस सवाल का जवाब नहीं मिला। सो आखिर में यही निष्कर्ष निकाला, भ्रष्टाचार भी आस्था का विषय। एक ऐसी आस्था, जो सभी मजहबों से ऊपर। यों भ्रष्टाचार कोई देवी या देवता, यह साफ नहीं। पर दोनों में से जो भी हों, सबके लिए पूजनीय। सचमुच 'जेब' से भ्रष्टाचार की जय बोलो, तो सारे काम चट हो जाते। काम कराने वालों को भी तकलीफ नहीं, काम करने वाले भी धन मिलने के बाद तन-मन से काम कर देते। पर कहीं जेब पर दिल हावी हो गया, तो इतने धक्के खाने पड़ते कि ईमानदारी पानी मांगने लगती। तभी तो कहा जाता- कोई भी व्यक्ति तभी तक ईमानदार, जब तक बेईमानी का मौका न मिले। सो भ्रष्टाचार तो ऐसा अमृत रस, जिसे पीकर हर सरकारी मुलाजिम अपनी जिंदगी खुशहाल बनाना चाहता। सो आप खुद ही सोचकर देखो, अगर भ्रष्टाचार न होता, तो दुनिया कितनी बेरंग होती। सारे काम आसानी से होते, तो सरकारी बाबुओं और आम लोगों में क्या फर्क रह जाता। कुल मिलाकर माहौल में नीरसता ही दिखती। पर भ्रष्टाचार ने सचमुच कमाल कर दिया। भ्रष्टाचार से रोजगार के नए अवसर पैदा हो गए। व्यवस्था के नीति-नियंता नियति के बराबर खड़े हो गए। यानी भ्रष्टाचार ऐसा खेल बन गया, जितना खेलो, उतना मजा आता। पहले लूटने के लिए भ्रष्टाचार होते, फिर जांच के नाम पर लूट मचाई जाती। भ्रष्टाचार का मतलब यही, लूट लो, जितनी लूट सकते हो, ताकि अंत काल में पछताना न पड़े। अगर भ्रष्टाचार न होता, तो नेताओं-नौकरशाहों-बाबुओं की जिंदगी कितनी तनहा होती। पर भ्रष्टाचार ने इन लोगों पर प्राण वायु जैसा असर किया। अब जो चीज प्राण वायु बन चुकी हो, वह भला कैसे अलग हों। तभी तो भ्रष्टाचार के खिलाफ बातें बड़ी-बड़ी होतीं, पर कार्रवाई नहीं। भ्रष्टाचार की जानकारी आखिर किसे नहीं। कई सरकारी महकमे ऐसे, जहां ऊपर से नीचे तक सभी अधिकारियों की भ्रष्ट कमाई इतनी कि सैलरी हर महीने का बोनस नजर आती। इनकम टेक्स, सेल्स टेक्स, कस्टम, तहसील जैसे मलाईदार महकमों में ट्रांसफर के लिए कैसे राजनीतिक अर्जियां लगाई जातीं, कौन नहीं जानता। अगर भ्रष्टाचार न होता, तो आज कॉमनवेल्थ गेम्स भी न होते। भारत ने मेजबानी ली, तो मेजबानी के पीछे की कहानी मणिशंकर अय्यर बता चुके। कैसे कॉमनवेल्थ के सभी देशों को लाखों में भुगतान किए गए। सो कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी शुरू हुई, तो भ्रष्टाचार का हिस्सा पहले बंट गया। पर खेल के बाद जब भ्रष्टाचार के खेल से परदा उठा। तो भ्रष्टाचारियों के नकाब उतरने लग गए। सो सरकार को लगा, टेबल के नीचे का भ्रष्टाचार टेबल के ऊपर दिख गया। तो जनता को जवाब देना भारी पड़ेगा। सो अब भ्रष्टाचार की जांच होगी। तो देखिए, जांच के कितने फायदे होंगे। अब जांच तक कलमाड़ी एंड कंपनी की आयोजन समिति बनी रहेगी। यानी वेतन-भत्ते मिलते रहेंगे। भ्रष्टाचार की जांच से एक और फायदा, रिटायर हो चुके सीएजी वी.के. शुंगलू को काम मिल गया। विपक्षी दल बीजेपी को भी भ्रष्टाचार पर रिसर्च करने की जरूरत महसूस हुई। अपनी मीडिया को भी रपट से पहले ही परतें उधेडऩे का मौका मिल गया। अब आप खुद ही देखिए, अगर कॉमनवेल्थ गेम्स न हुए होते, तो भ्रष्टाचार न होता। भ्रष्टाचार न होता, तो नितिन गडकरी को तथ्य जुटाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती। पीएम को जांच कमेटी नहीं बनानी पड़ती। राजनीतिक दलों को आरोप-प्रत्यारोप का मौका नहीं मिलता। सो उधर कॉमनवेल्थ गेम्स की जांच शुरू हुई, इधर राजनीति का धंधा चल पड़ा। बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मंगलवार को जो दस्तावेज जारी किए, उसके पन्ने तो नहीं गिने जा सके। पर अमूमन डेढ़-दो किलो वजन जरूर होगा। गडकरी ने सीधे पीएम मनमोहन को कटघरे में खड़ा किया। भ्रष्टाचार में पीएमओ को जिम्मेदार बताया। दलील दी, पीएम के तैनात चार अधिकारी आयोजन समिति के हर फैसले में शामिल रहे। सो पीएम जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। पर सवाल गडकरी से, कर्नाटक में एक मंत्री का बेटा जमीन घोटाले में फंसा। तो सीएम येदुरप्पा ने यह कहते हुए कार्रवाई नहीं की, बेटे की सजा बाप क्यों भुगते। अब गडकरी बताएं, गर अधिकारी भ्रष्ट निकले, तो पीएम जिम्मेदार कैसे। अगर यही फार्मूला, तो फिर बीजेपी नेता सुधांशु मित्तल के घर छापेमारी की जिम्मेदारी बीजेपी अध्यक्ष क्यों नहीं लेते? मंगलवार को कॉमनवेल्थ घोटाले के मामले में बीजेपी नेता के घर छापे पड़े। तो कांग्रेस को ढाल मिल गई। मनीष तिवारी ने गडकरी को बिगड़ैल बच्चा बता उनके आरोप खारिज कर दिए। बोले- जांच की आंच बीजेपी नेताओं तक पहुंच रही, सो गडकरी डर गए। पर गडकरी की ओर से जांच के लिए जेपीसी की मांग से किनारा कर लिया। सीधे जवाब से कन्नी काटते हुए बोले- यह सरकार को तय करना है, पर फिलहाल शुंगलू कमेटी सक्षम। पर गडकरी ने तो मौजूदा जांच को परदा डालने वाली बताया। यानी मौजूदा जांच सिर्फ प्रशासनिक स्तर तक सीमित रहेगी। मंत्रियों तक आंच नहीं पहुंचेगी। वैसे भी शीला-जयपाल-गिल-कलमाड़ी ने तो अपने अधिकारियों को कागज दुरुस्त करने की हिदायत दे दी। सो जांच का क्या हश्र हुआ, यह तो तीन महीने बाद ही मालूम पड़ेगा। पर कदम जो भी उठे, इतना तो तय है, अपने देश से भ्रष्टाचार न उठेगा, न मिटेगा। भ्रष्टाचार अब एक ऐसा धर्म, जिसमें सबकी आस्था। ऐसा कर्म, जिसे सब करना चाहते। लेने वाला भी खुश, देने वाला भी खुश। सो आइए मिलकर कहें- भ्रष्टाचार की जय हो।
----------
19/10/2010

Monday, October 18, 2010

कॉमनवेल्थ से बिहार तक अब दे दना-दन

कर्नाटक का किस्सा तो क्लीयर नहीं हुआ। पर कॉमनवेल्थ में करप्शन की जांच को कमेटियां बन गईं। सीएजी विनोद राय ने तीन महीने में रपट सौंपने का एलान कर दिया। प्रधानमंत्री की ओर से बनाई वी.के. शुंगलू कमेटी से इतर सीएजी ने जांच के लिए अपनी कुल 24 टीम गठित कीं। जिनमें 15 टीम दिल्ली सरकार के विभागों में पड़ताल करेंगी। चार टीमें आयोजन समिति की, तो चार टीमें सीपीडब्ल्यूडी की। एक टीम सभी 23 टीमों की मानीटरिंग करेगी, ताकि जांच का काम जल्द पूरा हो सके। यानी जांच में जबर्दस्त तेजी दिखाई जा रही। पर क्या सचमुच करप्शन की कलई खुलेगी, या सिर्फ मनोवैज्ञानिक तेजी? घोटालों या करप्शन के मामले में जांच तो हमेशा तेजी से शुरू हुई। पर कितने मामले अंजाम तक पहुंचे? वह भी जब, ऐसे मामलों में कोई बड़ी राजनीतिक पार्टी और राजनेता फंसा हो। तो जांच वैसे भी कछुआ चाल अपना लेती। इराक तेल दलाली के मामले में यूएन की वोल्कर रपट ने भारत से दो नामों का खुलासा किया था। पहला- नटवर सिंह, दूसरा- कांग्रेस पार्टी। यानी अनाज के बदले तेल घोटाले में बड़े लोग फंसने लगे। तो कांग्रेस ने तयशुदा फार्मूले के तहत नटवर सिंह को बलि का बकरा बना दिया। फिर जस्टिस आर.एस. पाठक की रहनुमाई में जांच कमेटी बनी। आखिर नटवर को किस तरह मनमोहन केबिनेट और फिर कांग्रेस से बाहर का दरवाजा दिखाया गया, दोहराने की जरूरत नहीं। पर वोल्कर रपट में तो कांग्रेस का भी नाम था। अब सीएजी की ही बात लो। सीएजी जैसी संस्था पर खुद कांग्रेसी सीएम शीला सवाल उठा चुकीं। ऐसी संस्था को ही बेमानी बता चुकीं। तो आप खुद सोचो, सीएजी की रपट से क्या हो जाएगा? मान लो, सीएजी ने भ्रष्टाचार की पूरी कलई खोल दी, तो क्या होगा। यही ना, संसद के बजट सत्र में दो-चार दिन विपक्ष के हंगामे से दोनों सदन ठप होंगे। फिर दिखलाने को मामला सीबीआई को सौंप दिया जाएगा। इसके बावजूद हायतौबा मचती रही, तो बलि का बकरा कलमाड़ी तैयार। पर कलमाड़ी ने तो विजयादशमी पर ही खम ठोक दिया। चेतावनी दे दी- मुझे कॉमनवेल्थ का रावण बनाने की कोशिश न की जाए। कलमाड़ी खुल्लमखुल्ला बोले- आयोजन समिति के हर फैसले में पीएम के तैनात अधिकारी भी शामिल। अब कलमाड़ी उवाच का मतलब जो न समझे, वह सबसे बड़ा अनाड़ी। पर कलमाड़ी अब यहीं तक खामोश नहीं रहने वाले। दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित ने पॉलिटीकल मैनेजर की तरह कॉमनवेल्थ की सफलता की वाहवाही मैनेज कर ली। चैनलों पर इंटरव्यू में ऐसा साबित करने लगीं। मानो, उन ने बेड़ा पार न लगाया होता, तो कॉमनवेल्थ का बेड़ गर्क हो जाता। तभी तो शीला के मैनेजमेंट से दिल्ली के उपराज्यपाल उखड़ गए। उन ने पीएम को चिट्ठी लिखकर शीला की शिकायत कर दी। पर जब कॉमनवेल्थ के करप्शन की जांच की कार्रवाई शुरू हुई। तो शीला ने सीधे कलमाड़ी पर उंगली उठा दी। ताकि सारा फोकस आयोजन समिति में हुए घपले पर हो जाए। सो वक्त की नजाकत भांप कलमाड़ी पहले चुप रहे। पर शीला वार जारी रहा, तो उन ने पलटवार किया। शीला को अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत दी। कलमाड़ी ने दो-टूक कह दिया- आयोजन समिति को तो सिर्फ 1620 करोड़ मिले, शीला सरकार को 16000 करोड़ मिले थे। सो पहले शीला अपने भ्रष्टाचार को देखें। अब सवाल, जब पीएम जांच कराने ही जा रहे थे। तो शीला ने कलमाड़ी पर उंगली क्यों उठाई? अपना दामन साफ दिखाने के लिए कलमाड़ी पर कीचड़ क्यों उछाला? शीला संवैधानिक पद पर बैठी हुईं। सो उनके आरोप जांच की दिशा मोडऩे में अहम हो सकते। पर जांच तो कॉमनवेल्थ की तैयारियों में हुए समूचे भ्रष्टाचार की होनी। अब अगर शीला सरकार के दामन पर कोई दाग नहीं, तो खुद के दामन को साफ दिखाने के लिए किसी और पर कीचड़ उछालने की क्या जरूरत? ऐसा तो लोग तभी करते, जब खुद के मन में कोई चोर हो। शीला के कॉमनवेल्थ से पहले वाले बयान याद करिए। तब उन ने सारा दारोमदार भगवान पर छोड़ दिया था। पर जब खेल सफल हो गया। तो खुद को ही भगवान साबित करने में जुटीं। सो रंगारंग के बाद अब दे दना-दन शुरू हो गया। कॉमनवेल्थ में किसने नहीं खाया? सो कांग्रेस ने अब हमेशा की तरह बीच का रास्ता अपनाया। जांच की रफ्तार बढ़ेगी, दो-चार दिन नए खुलासे और सुर्खियां बनेंगी। फिर धीरे-धीरे मामला ठंडे बस्ते में। सो शीला-कलमाड़ी को संयम में रहने की नसीहत दी। जांच रपट तक आरोप-प्रत्यारोप न करने की हिदायत दी। अब देखिए, अपनी जनता की याददाश्त को नेता कैसे कमजोर समझते। तभी तो सिर्फ चुनावी साल में ही आम जनता के लिए खजाना लुटाया जाता। बाकी तीन-चार साल में अपना खजाना भरने में लगे रहते नेता। अब राजनीति की मौकापरस्ती देखिए। बिहार चुनाव की बिसात बिछी, तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। पहले राहुल गांधी, फिर पीएम मनमोहन और सोमवार को सोनिया गांधी। तीनों ने नीतिश कुमार को नकारा बताया। केंद्र का पैसा डकारने का आरोप लगाया। पर जनता की याददाश्त को कैसे कमजोर समझते नेता। बानगी देखिए, पांच मई 2009 को लोकसभा चुनाव के आखिरी राउंड से पहले राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस की। तो नीतिश कुमार को बेहतरीन काम करने वाला सीएम बताया। नरेगा में भी उम्दा प्रदर्शन करने वाला बताया। तो जवाब में तब नीतिश ने भी राहुल को थैंक यू कहा। पर महज एक साल में क्या हो गया? यानी नीतिश पर हमला हो या कॉमनवेल्थ की जांच, झूठा ही सही, पर मान लो।
---------
18/10/2010

Friday, October 15, 2010

भुखमरी और कॉमनवेल्थ में भ्रष्टाचार का कॉकटेल

कॉमनवेल्थ के आयोजक सफलता की खुमारी में, तो देश की जनता विजयादशमी के जश्न में डूबी। सो रामायण के एक प्रसंग का जिक्र लाजिमी। जब भगवान राम लंका पर फतह कर अयोध्या लौटे। राज्याभिषेक हो गया। तब सिर्फ एक धोबी की टिप्पणी सुन राम ने अग्नि परीक्षा दे चुकी सीता को तज दिया था। पर कॉमनवेल्थ के आयोजकों पर न जाने कितने आरोप लग चुके। फिर भी किसी ठोस कार्रवाई की उम्मीद बेमानी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसलिए राम राज की कल्पना की थी। पर अपने राजनेताओं ने इसे रावण राज बना दिया। कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार से तो कलमाड़ी-शीला-जयपाल-गिल, सोनिया-पीएम-बीजेपी-लेफ्ट-सपा-बसपा-लालू भी इनकार नहीं करते। पर जब सभी अनियमितता कबूल रहे। तो सवाल, भ्रष्टाचारी कौन? किसने कॉमनवेल्थ के नाम पर वेल्थ की लूट मचाई और डकार तक नहीं ली? अभी तो कॉमनवेल्थ में करप्शन का पोथा खोलने वाले कांग्रेसी दुर्वासा यानी मणिशंकर अय्यर दिल्ली नहीं लौटे। सो अगर दस जनपथ ने ताला नहीं लगाया, तो जांच एजेंसियों से पहले अय्यर की जुबान खुलेगी। अब अय्यर जब बोलेंगे, तब बोलेंगे। फिलहाल अंतरिम रिपोर्ट देकर तैयारी में भ्रष्टाचार का इशारा कर चुकी सीएजी (कैग) खेल खत्म होते ही अंतिम रिपोर्ट में जुट गई। शुक्रवार को खेलगांव से लेकर कई स्टेडियमों का दौरा किया। पर सीएजी को अपनी रपट देने में करीब तीन महीने लगेंगे। सीएजी की अंतरिम रपट के बाद सीवीसी ने भी कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार का खुलासा किया था। तो पीएमओ ने दखल देकर मामला ठंडे बस्ते में डलवाया। सो सीवीसी ने अगले ही दिन कह दिया था- हमारी प्राथमिक रिपोर्ट के आधार पर कोई निष्कर्ष न निकाला जाए। अब सीवीसी की भूमिका क्या होगी, पता नहीं। सीवीसी के कमिश्नर पीजे थामस विपक्ष की मोर्चेबंदी के बाद भी पद हासिल करने में सफल हो चुके। यानी बीजेपी को चीफ विजिलेंस कमिश्नर थामस पर भरोसा नहीं। तो जरा सीएजी की कहानी भी बता दें। सत्तापक्ष को कभी भी सीएजी रास नहीं आई। जब शीला दीक्षित की सरकार ने दुगुनी कीमत पर लो-फ्लोर बसें खरीदीं। तो सीएजी ने अपनी रपट में सवाल उठाया था। पर तब शीला दीक्षित ने सीएजी को न सिर्फ खरी-खरी सुनाई थीं, अलबत्ता रपट को कूड़ेदान में डालने को कह दिया था। इतना ही नहीं, तब कांग्रेसी शीला ने सीएजी जैसी संस्था की जरूरत पर ही सवाल उठा दिए थे। कुछ कांग्रेसियों ने तो इस संस्था को स्क्रैप करने की मांग कर दी थी। अब उसी सीएजी के जरिए कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले की जांच हो रही। तो शीला या कलमाड़ी से ऐसी उम्मीद करें कि रपट को मानेंगे? यों सत्ता में बैठे लोगों के लिए घालमेल करना कोई बड़ी बात नहीं। सुप्रीम कोर्ट की सात मार्च 2007 को चारा घोटाले में की गई एक टिप्पणी आप खुद देख लें। सीबीआई की विशेष अदालत से घोटाले के आरोपी बृज भूषण प्रसाद को सजा हो चुकी थी। सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए उनके वकील ने दलील दी- बृजभूषण तो सिर्फ बजट अकाउंट आफीसर थे। बस इतना सुनते ही जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भडक़ते हुए कहा था- तुम्हें फंड का आडिट करना था, पर तुमने क्या किया? हर कोई इस मुल्क को लूट लेना चाहता है। पर भ्रष्टाचार के मामले में कभी बड़ी मछलियों को फंसते देखा आपने? सो कॉमनवेल्थ में भ्रष्टाचार का ठीकरा बड़े नेताओं पर फूटेगा, ऐसे आसार नहीं। नेताओं में तो सिर्फ वाहवाही लूटने की होड़ मचती। गलती की जिम्मेदारी कोई नहीं ओढ़ता। अब गुरुवार का ही किस्सा देखिए, गेम्स के समापन के जश्न में कैसे एक मासूम की चीख दब गई। नेहरू स्टेडियम के सामने की कालोनी में सात साल की बच्ची ममता बिजली के नंगे तार की चपेट में आ गई। पर सुरक्षा कर्मियों ने अस्पताल तक नहीं जाने दिया। आधे घंटे बाद पीसीआर की गाड़ी ममता को लेकर गई। पर तब तक मासूम ममता की मौत हो चुकी थी। अब श्रेय की होड़ में जुटे नेता बताएं, ममता की मौत का जिम्मेदार कौन? बिजली कंपनी और दिल्ली पुलिस ने तो पल्ला झाड़ लिया। पर यह शीला-कलमाड़ी का कैसा आयोजन, जो आम आदमी भले मर जाए, पर अस्पताल भी नहीं जा सकता? आयोजक ईमानदार होते, तो ममता के घर जाकर ढांढस बंधाते। पर श्रेय लूटने को बयानों का दौर चल रहा। शीला को-आर्डीनेशन की कमी बता रहीं। जब उनके जिम्मे काम आया, तो सब ठीक हो गया। ऐसा अपनी ही जुबान से बता रहीं। पर यह कैसी शेखी, एक तरफ भारत भुखमरी में चीन-पाक-श्रीलंका से भी आगे। शनिवार को वल्र्ड फूड डे, सो अंतराष्ट्रीय संस्था की रपट में यह खुलासा हुआ। विडंबना देखिए, अपने वित्त मंत्री एशिया के सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री कहला रहे। पर आम आदमी को आखिर क्या मिला? सचमुच वेल्थ लुटाकर कॉमन हो गई भारत की जनता। आयोजन के राजा तो अब धन के मामले में महाराजा हो गए। आम आदमी को मिला, तो सिर्फ आभार। कांग्रेस ने शुक्रवार को शीला-कलमाड़ी-पीएम-उपराज्यपाल को श्रेय देने से इनकार कर दिया। मनीष तिवारी बोले- सफल गेम्स का श्रेय भारत की करोड़ों जनता और उनकी दुआओं को। यानी जनता को मिला सिर्फ श्रेय। कॉमनवेल्थ के नाम पर जेब भरने वाले तो अब कागज का पेट भरने में जुट गए। ताकि सीएजी, इनकम टेक्स और इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट के शिकंजे से बच जाएं।
----------
15/10/2010

Thursday, October 14, 2010

‘मैडल’ के लिए अब आयोजकों में भिड़ंत

कर्नाटक में गवर्नर ‘हंस’राज ‘मोती’ चुगकर भी चूक गए। बुनकेरे सिद्धलिंगप्पा येदुरप्पा ने आखिर बहुमत सिद्ध कर ही दिया। कांग्रेस-जेडीएस ने विधानसभा में विश्वास मत टलवाने की खूब कोशिश की। हाईकोर्ट के फैसले तक फैसला न सुनाने की स्पीकर से गुहार लगाई। पर स्पीकर ने सदन का फैसला सुना दिया। तो येदुरप्पा के पक्ष में 106 वोट पड़े, विपक्ष सौ वोट पर ही सिमट गया। अब सबकी निगाह सोमवार के हाईकोर्ट के फैसले पर। अगर हाईकोर्ट ने पांच निर्दलीय एमएलए को वोटिंग की अनुमति दे दी। तो भी बीजेपी बहुमत का दावा कर रही। पर कांग्रेस-जेडीएस की हालत अब खिसियानी बिल्ली जैसी। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली और कुमारस्वामी के बयान का एक ही मतलब, दस दिन इंतजार करिए, सरकार गिर जाएगी। यानी चुनी हुई सरकार को कांग्रेस-जेडीएस चलने नहीं देना चाह रहीं। सो कर्नाटक में खरीद-फरोख्त का बाजार अपने उफान पर। अब गवर्नर हंसराज की भूमिका पर बीजेपी ही नहीं, जेडीएस भी सवाल उठा रही। बीजेपी विश्वास मत जीत गई, तो अब कुमारस्वामी ने गवर्नर पर किसी अज्ञात के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया। हारे हुए विपक्ष की कसक यही, गवर्नर ने दुबारा मौका क्यों दिया। पर क्या बहुमत की सरकार को बर्खास्त करना लोकतांत्रिक कदम होता? सचमुच अपने देश में नेताओं को लोकतंत्र की फिक्र ही कहां। कर्नाटक हो या कॉमनवेल्थ, लोकतंत्र पर जेबतंत्र भारी। कर्नाटक और कॉमनवेल्थ के मुख्य आयोजन का परदा गुरुवार को गिर गया। पर सोमवार से फिर नई बहस छिड़ेगी। कॉमनवेल्थ गेम्स का धूमधड़ाके के साथ समापन हो गया। तो अब श्रेय लेने की गलाकाट होड़ मच गई। सफल आयोजन के लिए दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित टीवी चैनलों पर खूब चेहरे चमका रहीं। पर याद करिए, गेम्स से ठीक पहले शीला कैसे मीडिया को काटने दौड़ती थीं। अब सबकुछ ढंग से निपट गया। कॉमनवेल्थ गेम्स फैडरेशन के मुखिया माइक फेनेल ने जमकर तारीफ कर दी। तो रणनीति बनाकर शीला मैदान में उतरीं। खेलगांव को संवारने का जिम्मा आखिरी वक्त में पीएम ने दिल्ली सरकार को सौंपा था। सो अब शीला सारा श्रेय अकेले बटोरने में ऐसे जुट गईं, मानो, बाकी प्रशासनिक अमला घास काट रहा था। सिर्फ शीला और शीला की टीम खेलगांव के हर कमरे में झाड़ू लगा रही थीं। सो दिल्ली के उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना को शीला की रणनीति फौरन समझ आ गई। उन ने पीएम को चिट्ठी लिखकर शीला की शिकायत कर दी। चिट्ठी में शीला के बयानों पर एतराज जताया। तैयारी में जुटे बाकी लोगों को किनारे करने की साजिश पर नकेल कसने की अपील की। अभी तो सिर्फ शीला और तेजेंद्र खन्ना मैदान में आए। सुरेश कलमाड़ी, जयपाल रेड्डी, एमएस गिल और केबिनेट सेक्रेट्री केएम चंद्रशेखर का कूदना बाकी। यों खेल के बीच में ही कलमाड़ी कह चुके- अब तो ओलंपिक की मेजबानी का दावा करे भारत। पर तैयारियों की असली पोल तो धीरे-धीरे खुलेगी। कहां, कितना घपला हुआ, यह भी सामने आएगा, भले बड़ी मछलियों पर कार्रवाई न हो। पर अहम सवाल, कॉमनवेल्थ गेम्स से क्या सबक ले रहे नेता? कॉमनवेल्थ गेम्स में आखिरी दिन पीएम मनमोहन हाकी का फाइनल देखने गए। पर हाकी में भारत हार गया। यों पीएम की पत्नी गुरशरण कौर सायना नेहवाल का बैडमिंटन देखने गईं, तो गोल्ड मिला। भारत-पाक के हाकी मैच में सोनिया-राहुल गए थे, तो टीम जीती। अब जो भी हो, आखिर में भारत ने पदक तालिका में दूसरा स्थान हासिल कर लिया। कुल 101 मैडल भारत के खाते में आए। मैडल जीतने वालों में खास तौर से ऐसे खिलाड़ी और एथलीट, जिन्हें सरकारी सहूलियतें नाम मात्र की मिलीं। सचमुच सहूलियतें मिलें, तो अपना भारत मैडलों के कई ऐसे सैकड़े लगा सकता। सो आयोजकों के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स का समापन जश्न का नहीं, अलबत्ता सबक लेने का वक्त। अगर खिलाडिय़ों को समुचित प्रोत्साहन मिले, तो ओलंपिक में भी परचम लहराए। कॉमनवेल्थ में हम ऊपर से दूसरे पायदान पर आ गए। अफसोस, ओलंपिक में हमारी गिनती नीचे से शुरू होती। अपने देश के सभी खेल फैडरेशनों में नेताओं का कब्जा। सो खेल में राजनीति घुस चुकी। यानी जहां-जहां पांव पड़े संतन के....। तभी तो पिछले साल गणतंत्र दिवस के मौके पर अभिनव-विजेंदर को पद्म पुरस्कार मिल गए। पर ओलंपिक में विजेंदर की तरह ही कुश्ती में कांस्य जीतने वाले सुशील कुमार को इसी मनमोहन सरकार ने ठेंगा दिखा दिया। अब देखिए, कैसे सुशील कॉमनवेल्थ से पहले वल्र्ड चैंपियन बने। कॉमनवेल्थ में कुश्ती का गोल्ड मैडल जीता। इतना ही नहीं, कॉमनवेल्थ में सबसे लोकप्रिय एथलीट होने का भी खिताब मिला। पर चमक-दमक की दुनिया से दूर रहने वाले सुशील को पिछली बार पद्म श्री के लायक भी नहीं समझा गया। यों अबके सरकार भूल सुधार करेगी, यही उम्मीद। पर सुशील के साथ हुई नाइंसाफी खेल में घुसी राजनीति की अनौखी मिसाल। फिर भी कॉमनवेल्थ गेम्स में आए मेहमानों की विदाई से पहले क्रेडिट लेने की जैसी होड़ मची। नेता सुधरेंगे, इसकी गुंजाइश नहीं दिखती। खिलाडिय़ों के मैडल का महाकुंभ तो निपट गया। अब मैडल के लिए आयोजकों में भिड़ंत हो रही। ताकि सिर्फ सफलता का ढोल बजे। और भ्रष्टाचार की सारी कहानी उस शोर में दब जाए। -----------
14/10/2010

Wednesday, October 13, 2010

कॉमनवेल्थ, कर्नाटक और क्लाइमैक्स!

तो कॉमनवेल्थ और कर्नाटक क्लाइमैक्स के दौर में पहुंच गए। गुरुवार को खेल का महाकुंभ भी निपटेगा। कर्नाटक की राजनीतिक उठापटक भी थमेगी। पर संयोग, दोनों 'खेल' निपटाने के बाद भी कर्ताधर्ता राहत की सांस नहीं ले पाएंगे। कॉमनवेल्थ गेम्स के भ्रष्टाचार की परतें फिर से उधड़ेंगी। बेतहाशा खर्च पर सवाल पहले की तरह ही उठेंगे। पर मैडल और उद्घाटन-समापन के जश्न में कहीं भ्रष्टाचार दफन न हो जाए। स्टेडियम के निर्माण पर बेतहाशा खर्च का सवाल संसद में उठा था। तो खेल मंत्री एमएस गिल ने खर्च को जायज ठहराने की नौकरशाही दलीलें खूब दी थीं। सो कॉमनवेल्थ में हुए भ्रष्टाचार को लेकर किसी को सजा मिलेगी, उम्मीद ना के बराबर। अब तो पेट भरने के बाद आयोजकों में पीठ ठोकने की होड़ मच चुकी। शीला अपनी पीठ ठोक रहीं, तो कलमाड़ी अपनी। गिल-जयपाल की भूमिका तो फिलहाल न तीन में, न तेरह में। पर बीजेपी तो इसी से गदगद कि कलमाड़ी ने उद्घाटन समारोह में ही कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लिया। अगर कॉमनवेल्थ के आयोजन की तारीफ हुई। तो इसमें कोई शक नहीं, श्रेय बटोरने बीजेपी भी मैदान में कूदेगी। पर कॉमनवेल्थ की बात समापन के बाद करेंगे। फिलहाल कर्नाटक में चल रहे राजनीतिक कॉमनवेल्थ की कहानी। बुधवार को बीजेपी ने गवर्नर हंसराज भारद्वाज पर हमला तेज कर दिया। आडवाणी-जेतली-सुषमा-वेंकैया ने मोर्चा उठा पीएम के दर अलख जगाई। हंसराज के समूचे राजनीतिक कैरियर और गवर्नरी का पोथा पीएम के सामने खोल दिया। बीजेपी ने हंसराज को संविधान से हटकर काम करने वाला नेता साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पीएम को सौंपे ज्ञापन में बीजेपी ने कहा- हंसराज भारद्वाज राज्यपाल बनाए जाने के बावजूद राजनीतिक अतीत और राजनीति से खुद को अलग नहीं रख पाए। उन ने यह साबित कर दिया कि वह गवर्नर जैसे संवैधानिक पद के लायक नहीं हैं। अरुण जेतली बोले- कानून मंत्री के रूप में भी हंसराज भारद्वाज ने ऐसे आचरण किए। जिससे यह साफ हो गया कि संविधान से इतर उनकी एक आस्था है और अपनी वफादारी साबित करने में संविधान से इतर काम करना उनकी राजनीतिक रणनीति रही है। इतना ही नहीं, निष्पक्ष रहना हंसराज भारद्वाज के स्वभाव में ही नहीं है। यानी बीजेपी ने अपनी तरफ से सारे तथ्य गिना दिए। जैसे कभी मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला और बूटा सिंह, एससी जमीर, सिब्ते रजी के मामले में गिनवा चुकी। पर बीजेपी की शिकायत का हश्र क्या हुआ, सबको मालूम। जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार विधानसभा भंग करने को असंवैधानिक ठहराया, तब भी मनमोहन ने बूटा को न हटाया और न बूटा ने खुद इस्तीफा दिया। अलबत्ता जब कोर्ट ने विस्तृत फैसला दिया। तो बूटा गवर्नरी से चलता हुए। नवीन चावला के मामले में तो मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी की सिफारिश कूड़े के डिब्बे में डाल दी गई। सो हंसराज पर कोई कार्रवाई होगी, ऐसी उम्मीद फिलहाल तो नहीं। तभी तो बीजेपी नेताओं की शिकायत मनमोहन ने मौनी बाबा की तरह तफ्सील से सुनी। पर कोई भरोसा नहीं दिया। वैसे भी हंसराज पर कार्रवाई मनमोहन के वश की बात नहीं। जब तक हंसराज पर दस जनपथ का साया, उनकी कुर्सी पर कोई काली छाया नहीं पड़ सकती। पर गवर्नर की वजह से कांग्रेस की किरकिरी हो चुकी। यों जेहाद पर उतरे गवर्नर की सिफारिश पर बटन दबाया होता। तो कर्नाटक का मुद्दा कांग्रेस के लिए फिदायीन बन जाता। सो अबके कांग्रेस ने सब्र से काम लिया। गवर्नर की सिफारिश को किनारे कर एक और मौका देने की हिदायत दी। ताकि गवर्नर की लाज बच जाए और बीजेपी को भी शिकायत का मौका न मिले। सचमुच गवर्नर हंसराज ने कर्नाटक में जिस तरह से काम किया, अब कांग्रेस के नेता खुद चूक मान रहे। कांग्रेस मान रही, गवर्नर ने पद की मर्यादा से इतर कांग्रेस के नेता की तरह बयानबाजी की। प्रदेश कांग्रेस भी इस मुद्दे को सही ढंग से हैंडल नहीं कर पाई। अगर कांग्रेस ने पहले से ही आक्रामक तेवर अपनाया होता। तो बीजेपी को राजनीतिक बढ़त नहीं मिलती। रही-सही कसर गवर्नर हंसराज ने अपने नौकरशाह सलाहकारों की वजह से जल्दबाजी दिखाकर पूरी कर दी। अगर राष्ट्रपति की सिफारिश करने में वक्त लेते, तो शायद बीजेपी को भी बहुमत हासिल करने के तरीके पर जवाब देना भारी पड़ता। पर फौरी सिफारिश कर गवर्नर ने हवा का रुख बीजेपी के पक्ष में मोड़ दिया। अब बेभाव की पड़ी, तो गवर्नर अपनी ही चाल में फंस गए। गुरुवार को येदुरप्पा सरकार फिर से विश्वास प्रस्ताव पेश करेगी। तो 208 की विधानसभा में ही बहुमत साबित करना होगा। क्योंकि अयोग्य करार दिए गए सोलह एमएलए हाईकोर्ट जा चुके। जिनका फैसला सोमवार को आएगा। बुधवार को पांच निर्दलीयों ने जल्द राहत की मांग की। सीलबंद लिफाफे में वोट का हक मांगा। पर कोर्ट ने राहत देने से इनकार कर दिया। अब हवा का रुख देख एक निर्दलीय एमएलए की वापस बीजेपी की ओर लौटने की खबर। सो येदुरप्पा ने विश्वास मत जीत लिया। तो गवर्नर की पहली सिफारिश पर सीधे सवाल उठेंगे। यों कर्नाटक का क्लाइमैक्स भले गुरुवार को खत्म हो जाए। पर येदुरप्पा सरकार की स्थिरता पर सस्पेंस बना रहेगा। हाईकोर्ट ने साफ कर दिया- गुरुवार का विश्वास मत उसके सोमवार के फैसले से ही तय होगा।
----------
13/10/2010

Tuesday, October 12, 2010

दूध की जली कांग्रेस फूंक-फूंक कर पी रही छाछ

अब दिल्ली शिफ्ट हो गया कर-नाटक। सोनिया-आडवाणी के घर फैसलाकुन बैठकों का दौर चला। राष्ट्रपति राज के खौफ में बीजेपी ने अपने 105 एमएलए दिल्ली बुला लिए। ताकि राष्ट्रपति के सामने परेड करा राजनीतिक मुद्दे को धार दे सके। पर तेल की धार देख कांग्रेस ने खुद को फिसलने से बचा लिया। बिहार, झारखंड, गोवा जैसी जल्दबाजी नहीं की। गवर्नर हंसराज भारद्वाज तो बेनकाब हो चुके। सो फैसले पर फौरन मोहर लगाने की तोहमत नहीं ली। अलबत्ता बीजेपी को भी बेनकाब करने की रणनीति बनाई। केबिनेट की मीटिंग टाल गवर्नर को इशारा कर दिया। येदुरप्पा सरकार को दुबारा बहुमत साबित करने की हिदायत दें। सो सोमवार को राष्ट्रपति राज की सिफारिश करने में जेहादी तेवर दिखाने वाले हंसराज मंगलवार को सरेंडर कर गए। येदुरप्पा को फिर से बहुमत साबित करने को गुरुवार का वक्त दिया। अब कोई पूछे, जब सोमवार को गवर्नर राष्ट्रपति राज को मुफीद बता रहे थे। तो चौबीस घंटे में ही क्यों पलट गए? अगर खुद की ऐसी सोच, तो चौबीस घंटे पहले पल्ले क्यों नहीं पड़ी? सोमवार को खुद रपट दी- 120 एमएलए सरकार के खिलाफ। फिर आज क्यों मौका दे रहे? कर्नाटक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। तो गवर्नर हंसराज खुद मीडिया से मुखातिब हुए। करीब पौना-एक घंटे की लंबी प्रेस कांफ्रेंस में गवर्नरी का कम, नेतागिरी का अंदाज अधिक दिखा। राजनीतिक आरोपों का जवाब ऐसे दिया, मानो, गवर्नर नहीं, विपक्ष के नेता हों। बोले- मुझे कोई डिक्टेट नहीं कर सकता, ना ही मैं किसी की स्क्रिप्ट पर काम करता हूं। स्क्रिप्ट पर काम वे लोग (बीजेपी) कर रहे। और भी बहुतेरे सवाल हुए, जिनका हंसराज ने आरोप-प्रत्यारोप के अंदाज में जवाब दिया। पर हंसराज का राजनीतिक कैरियर को जानने वाले बखूबी जानते, हंसराज किसकी स्क्रिप्ट पर काम करते। यों हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। गवर्नर ने येदुरप्पा सरकार को बहुमत साबित करने का मौका दिया। पर इसके संकेत करीब दो-ढाई घंटे पहले कर्नाटक कांग्रेस के प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद दिल्ली में दे चुके थे। जब उन ने कहा था- स्पीकर ने गलत काम किया। अयोग्य करार दिए गए विधायकों को बहाल कर येदुरप्पा सरकार फिर से विश्वास मत हासिल करे, तो हमें एतराज नहीं होगा। हू-ब-हू यही बात गवर्नर ने सीएम को लिखी चिट्ठी और प्रेस कांफ्रेंस में कही। अब आप खुद देख लो। केबिनेट कमेटी की मीटिंग नहीं हुई, सिर्फ कांग्रेस कोर ग्रुप और सोनिया की गुलाम नबी-वीरप्पा मोइली से मीटिंग हुई। तो सवाल, गवर्नर ने किसकी सलाह पर अपना फैसला बदल दिया। गवर्नर ने सचमुच पिछले कुछ दिनों से कर्नाटक में खूब खेल किया। सीएम को बिन मांगे सलाह, राष्ट्रपति-पीएम को रपट देना किसी को भी रास नहीं आया। पर जब बीजेपी के कुछेक एमएलए बागी हुए। सरकार बचाने को बीजेपी ने भी कांग्रेसी नुस्खा अपनाया। तो गवर्नर ने स्पीकर को चिट्ठी लिखकर ऐसा निर्देश दिया, कानून पानी भरता दिखा। स्पीकर को बहुमत से एक दिन पहले लिखा- अगर बागी एमएलए की सदस्यता रद्द की, तो विश्वास मत को मंजूर नहीं करेंगे। सो अब सवाल, क्या राजभवन सदन से ऊपर? हंसराज कानून मंत्री रह चुके। पर शायद पद छिनने के साथ ही कानून भूल गए। बड़े बेमन से गवर्नर बने। सो खुद को राजनीतिक धुरंधर साबित करने के चक्कर में अपना खेल खराब कर लिया। अब कर्नाटक का पेच उलझ गया। बागी एमएलए हाईकोर्ट जा चुके। पर हाईकोर्ट ने कोई फौरी फैसला नहीं सुनाया। अलबत्ता अब अगली सुनवाई 18 अक्टूबर को होगी। पर देश में गवर्नर की सिफारिश से बीजेपी ने बवाल खड़ा किया। तो गवर्नर ने दुबारा बहुमत साबित करने के लिए 14 अक्टूबर का समय दिया। अब सोचो, गर 14 अक्टूबर को येदुरप्पा ने मौजूदा 208 की विधानसभा में बहुमत हासिल कर लिया। फिर 18 अक्टूबर को अगर कोर्ट ने बागी विधायकों को अंतरिम राहत दे दी, तो क्या होगा? क्या फिर येदुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए कहा जाएगा? कांग्रेस की रणनीति कुछ अलग। कांग्रेस की सोच, गुरुवार को येदुरप्पा बहुमत साबित नहीं कर पाएंगे। अगर हंगामे में सोमवार का खेल दोहराया गया। तो राष्ट्रपति राज लगाने में देर नहीं होगी। पर बीजेपी पहले हिचकी। रार ठान ली, जब एक बार बहुमत साबित कर चुके। तो दुबारा क्यों करें। पर आडवाणी के घर देर शाम तक चली मीटिंग के बाद 208 की विधानसभा में बहुमत साबित करने को राजी हो गई। सो कांग्रेस और गवर्नर के लिए कर्नाटक चुनौती बना। तो बीजेपी के लिए भी अब प्रतिष्ठा की लड़ाई। कर्नाटक में पहली बार कमल खिला। पर महज दो साल में ही कमल पर इतना कीचड़ उछला, कमल का रंग मालूम नहीं पड़ रहा। भ्रष्टाचार और अंतर्कलह के इतने कारनामे हुए कि बीजेपी की साख खत्म हो चुकी। अब गवर्नर ने राजनीतिक मजबूरी के तहत एक और मौका दिया। तो साख गंवा चुकी बीजेपी के लिए खाल बचाने की चुनौती। कर्नाटक में बीजेपी के रणनीतिकार औंधे मुंह गिर चुके। सो अब बीजेपी को सरकार बचाने की फिक्र नहीं। अलबत्ता गवर्नर पर हमला तीखा कर दिया। कांग्रेस भी थोड़ी सहम गई। गर राष्ट्रपति राज लगाया, तो न सिर्फ विपक्ष से संबंध में कटुता आएगी। राज्यसभा में पास कराना भी टेढ़ी खीर होगा। तब समूची कांग्रेस की भद्द पिटेगी। सो फिलहाल कांग्रेस ने भद्द को हंसराज तक ही सीमित रखा। वैसे भी बिहार, गोवा, झारखंड में कांग्रेस तेवर दिखा भद्द पिटवा चुकी। सो अबके दूध की जली कांग्रेस छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रही।
---------
12/10/2010

Monday, October 11, 2010

‘तुम करो तो लीला, हम करें तो करेक्टर ढीला’

तो हंसराज भारद्वाज भी ‘मिशनरी गवर्नर क्लब’ के मेंबर हो गए। राजनीतिक मिशन में सफल गवर्नरों की लिस्ट में कई नाम। कर्नाटक में ही बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर गवर्नर वेंकट सुबैया, आंध्र में एनटीआर को हटा रामलाल, यूपी में कल्याण हटा व जगदंबिका को शपथ दिला रोमेश भंडारी, गोवा में परिक्कर सरकार को बर्खास्त कर एससी जमीर, झारखंड में मुंडा को रोक सैयद सिब्ते रजी, बिहार में नीतिश को रोक गवर्नर बूटा सिंह इतिहास रच चुके। यों मिशनरी गवर्नर क्लब में शामिल होने की कोशिश करने वाले बहुतेरे। पर संविधान का मखौल उड़ाने में सभी कामयाब नहीं। अपने हंसराज भारद्वाज अभी क्लब की मेंबरी से एक कदम दूर। अगर केबिनेट ने कर्नाटक की येदुरप्पा सरकार बर्खास्त करने की सिफारिश मान ली। तो समझो, काम हो गया। गवर्नर हंसराज कर्नाटक की बीजेपी सरकार को विदा करने की कोशिश पहले भी कर चुके। पर उम्दा मौका अब मिला, जब बीजेपी आदतन अंतर्कलह की शिकार। बीजेपी के डेढ़ दर्जन बागी और पांच निर्दलीय एमएलए ने समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंप दी। तो गवर्नर ने येदुरप्पा को बहुमत साबित करने को कहा। सो सोमवार को येदुरप्पा ने विश्वास मत तो जीत लिया। पर तरीका वही, जो सत्ता में बने रहने को अपनाया जाता। बहुमत नहीं, तो बागियों को स्पीकर के जरिए वोट से वंचित कर दो। फिर मौजूदा संख्या बल में अपना बहुमत दिखा दो। कर्नाटक विधानसभा के स्पीकर केजी बोपैया ने दल-बदल कानून के तहत बीजेपी के 11 बागी और पांचों निर्दलीयों को अयोग्य करार दे दिया। सो विधानसभा में जो ड्रामा हुआ, उसे लोकतंत्र तो कतई नहीं कहेंगे। विपक्षी कांग्रेस-जेडीएस की शह पर बागियों ने सदन में कुर्ता-बनियान फाड़ डांस किया। हंगामे के बीच ही येदुरप्पा को स्पीकर ने ध्वनिमत से विश्वास मत दिला दिया। सो हंगामा और बरपा। विपक्ष गवर्नर हंसराज तक पहुंचा। तो गवर्नर ने भी अपनी रपट भेजने में देर नहीं लगाई। अयोग्य करार दिए गए पांचों निर्दलीय एमएलए हाईकोर्ट पहुंच गए। सो अब केंद्र सरकार की नजर हाईकोर्ट पर टिकी हुई। मंगलवार को केबिनेट कमेटी गवर्नर की सिफारिश पर फैसला करेगी। सो बीजेपी को डर, दक्षिण का कमल कुम्हला न जाए। नितिन गडकरी ने तडक़े ही चेतावनी दे दी, राष्ट्रपति राज लगाने की हिमाकत न करे केंद्र। पर कर्नाटक में कर-नाटक सभी एक जैसे ही पात्र। सुषमा स्वराज ने इतवार को ही राष्ट्रपति से गवर्नर हंसराज को वापस बुलाने की मांग कर दी थी। यानी विधानसभा और राजभवन में जो हुआ, सब कुछ पहले से तय था। गवर्नरी का खेल तो कांग्रेस हमेशा करती आई। जब मनमोहन पीएम और शिवराज पाटिल एचएम बने। तो चार गवर्नर यह कहकर हटाए गए थे कि इनकी पृष्ठभूमि संघ की है। फिर कांग्रेस राज में जो बने, उन ने कांग्रेसी मापदंड पर खरे उतरने की पूरी कोशिश की। गोवा में गवर्नर एससी जमीर ने पहले बीजेपी की सरकार हटाई। फिर लगातार कांग्रेस की सरकार बचाते आ रहे। परिकर सरकार दो फरवरी 2005 को बर्खास्त हुई। पर ड्रामा देखिए। बीजेपी के तीन एमएलए बागी हो गए थे। तबके स्पीकर विश्वास सतारकर ने तीनों को वोटिंग से रोका। परिकर ने विश्वास मत के लिए तीन फरवरी की तारीख तय की। तो गवर्नर जमीर ने चौबीस घंटे यानी दो फरवरी को ही बहुमत साबित करने का फरमान सुनाया। हंगामे में परिकर ने विश्वास मत जीत लिया। पर महज 25 मिनट के भीतर जमीर ने बीजेपी की सरकार बर्खास्त कर दी। देर रात कांग्रेसी प्रताप सिंह राणे को शपथ दिला बहुमत के लिए तीस दिन का समय दे दिया। सो गवर्नर का ‘जमीर’ इसी से दिख गया। फिर 2007 में बीजेपी ने कांग्रेस की दिगंबर कामथ सरकार के खिलाफ वही काम किया। कुछ विधायक तोड़े, राष्ट्रपति के सामने परेड कराई। पर स्पीकर राणे ने बागी विधायक को वोट से वंचित कर दिया। फिर बीजेपी के एमएलए गवर्नर जमीर के पास गए। तो कार्रवाई नहीं, सिर्फ विचार का भरोसा मिला। यों गोवा उठापटक की फैक्ट्री। जो भी दल सत्ता में होता, पॉवर के बेजा इस्तेमाल से परहेज नहीं। स्पीकर तो सिर्फ नाममात्र के संवैधानिक पद पर। सचमुच में ऐसे विरले ही स्पीकर, जो दलगत भावना से परे रहे। यों एक नजीर झारखंड की। अगर तबके स्पीकर इंदर सिंह नामधारी ने पद का बेजा इस्तेमाल किया होता, तो अर्जुन मुंडा की पिछली सरकार नहीं गिरती। और ना ही मधु कोड़ा जैसे भ्रष्ट सीएम बन पाते। पर उन ने आसंदी के दामन और अपनी पगड़ी पर दाग नहीं लगने दिया। अब कोड़ा को सीएम बनाने वाली कांग्रेस का बयान देखिए। मनीष तिवारी बोले- आजाद भारत में ऐसी गुंडागर्दी की कोई मिसाल नहीं होगी, जो बीजेपी ने कर्नाटक में किया। पर कोई पूछे, सदन में हंगामा करने वाले विधायकों को किस नजरिए से जनता का सेवक माना जाए? अगर बीजेपी के 11 विधायकों को येदुरप्पा पर एतबार नहीं। तो इस्तीफा देकर चुनाव क्यों नहीं लड़ लिया? लोकतंत्र में संख्या बल का महत्व। अब 117 में से 11 एमएलए अपनी मर्जी से तो सरकार नहीं चलवा सकते। पर विपक्ष ने शह दिया, तो बनियान फाडऩे लगे। सो कौन कह सकता, बागी बिके हुए नहीं थे। लोकतंत्र में अब पैसे का ही बोलबाला। करोड़ों रुपए देख किसी का भी मन डोल जाए। खरीद-फरोख्त के खेल में ईमानदार कोई भी नहीं। फर्क सिर्फ कुर्सी के मुंह का। सत्ता में बैठने वाला अपने हर काम को जायज ठहराता। पर जब वही विपक्ष में जाता, तो वही काम लोकतंत्र की हत्या और बलात्कार कहलाने लगते। यानी फर्क सिर्फ कुर्सी का, पर कहावत दोनों के लिए एक- ‘तुम करो तो लीला, हम करें तो करेक्टर ढीला।’
----------
11/10/2010

Friday, October 8, 2010

मन की हो, तो वाह, नहीं तो पार्टी की तेरी....!

तो केंद्र सरकार ने भी मान लिया, अलगाववादियों की जुबान बोल रहे उमर। सो उमर से सफाई मांगी। क्षेत्रीय स्वायत्तता और विलय पर दिए बयान का मतलब पूछा। पर केंद्र सरकार गर सचमुच उमर से नाराज। तो सवाल, क्या कोई कार्रवाई करेगी? अगर ऐसा कोई इरादा होता। तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह गुरुवार को उमर संग सुर न मिलाते। कांग्रेस उमर के बयान को वजूद बचाने वाला बयान मान रही। सो केंद्र सरकार की जवाबतलबी का मकसद, पाक को बेवजह मौका न मिले। यानी देश या लोकतंत्र की नहीं, नेताओं को सिर्फ अपने वजूद की फिक्र। तभी तो अब्दुल्ला खानदान की तीसरी पीढ़ी बागडोर संभाल रही। पर सोच पहली पीढ़ी से भी गई-गुजरी। सचमुच राजनीति में वजूद बचाने को नेता लोक-लिहाज को रौंदने में तनिक भी संकोच नहीं करते। तभी तो इस होड़ में लेफ्ट को छोड़ कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं। पर ताजा किस्सा बीजेपी का। वैसे कहते हैं, मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। बीजेपी पर यह कहावत सटीक। कर्नाटक में संकट अभी सुलझा भी नहीं, बीजेपी बिहार में उलझ गई। यों कर्नाटक में दल-बदल कानून का डंडा और मंत्री पद का लॉलीपाप दिखा कुछ बागियों को पटा लिया। पर बिहार में पहले चरण की वोटिंग से महज 14 दिन पहले सीपी ठाकुर ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। चुनावी समर के बीच बीजेपी में ऐसा हुड़दंग दिल्ली की ही देन। याद करिए लोकसभा चुनाव का वाकया। तबके बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और अरुण जेतली के बीच ऐसी जंग छिड़ी। पोल मैनेजर होते हुए भी जेतली ने केंद्रीय चुनाव समिति की मीटिंग का लगातार बॉयकाट किया। संयोग देखिए, तब खींचतान की वजह भले सुधांशु मित्तल थे। पर अधर में बिहार का ही टिकट लटका था। रार ऐसी कि जेतली बैठक में नहीं गए। पर आडवाणी के कहने पर राजनाथ के घर जाकर टिकट बंटवाया। अब जरा सीपी ठाकुर की नाराजगी की वजह भी देख लो। प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए भी बेटे विवेक ठाकुर को मनमाफिक सीट से टिकट नहीं दिला पाए। अलबत्ता वह सीट नीतिश कुमार की झोली में आलाकमान ने डाल दी। तो सीपी ठाकुर ने आव देखा न ताव, अपना इस्तीफा दिल्ली भेज दिया। पर जरा खत का मजमून बताते जाएं। ताकि नेताओं के दिल और दिमाग का फर्क साफ हो जाए। सीपी ठाकुर ने अपने इस्तीफे में लिखा- प्रदेश अध्यक्ष पद से मेरे इस्तीफे का यह मतलब नहीं है कि अपने बेटे विवेक ठाकुर को टिकट नहीं दिला पाया। बल्कि प्रदेश में अब तक बहुत से ऐसे निर्णय हुए हैं, जिनमें मुझसे सहमति नहीं ली गई। इससे मैं आहत हूं। यानी सीपी ठाकुर का दिल रो रहा कि बेटे को टिकट नहीं दिला पाए। पर मजबूरी, वही बात जुबां से कह नहीं सकते। सो निर्णय में उपेक्षा की दलील दे रहे। पर सवाल, सीपी ठाकुर को यही वक्त क्यों मिला? गर उपेक्षा हो रही थी, तो पहले ही इस्तीफा क्यों नहीं दिया? अब जब दीघा विधानसभा सीट बीजेपी ने गठबंधन के सहयोगी जेडीयू को दे दी। तो ही ठाकुर को उपेक्षा क्यों नजर आई? अगर दीघा सीट से विवेक ठाकुर उम्मीदवार हो जाते। तो क्या सीपी ठाकुर उपेक्षा का आरोप लगाते? अगर उपेक्षा हुई भी हो, तो बेटे को टिकट मिल जाने से सारे दर्द दूर हो जाते। यों गठबंधन की जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व की होती। सो केंद्र ने फैसला लिया, तो इसमें नाराजगी क्यों? आखिर नेताओं में यह कौन सा रोग। जब आलाकमान तमाम विरोधों के बावजूद सीपी ठाकुर को अध्यक्ष बनाए, तो फैसला बहुत अच्छा। पर वही आलाकमान गठबंधन में समझौते के तहत दीघा सीट सहयोगी को दे दे। तो आलाकमान का फैसला गलत कैसे हो गया? राजनीति में किसी प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनने के बाद आलाकमान से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि जो बात राज्य को पसंद हो, वही बात करे। कम से कम सीपी ठाकुर जैसे कद्दावर नेता को यह शोभा नहीं देता। बीजेपी खुद को लोकतांत्रिक पार्टी कहती। नितिन गडकरी हर मंच से कहते- बीजेपी ही ऐसी पार्टी, जहां मेरे जैसा पोस्टर चिपकाने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता। गडकरी ने इस बयान से हमेशा कांग्रेस के वंशवाद पर निशाना साधा। पर ठाकुर बीजेपी में रहकर कांग्रेस जैसा मंसूबा पाले बैठे। कांग्रेस में जहां वंशवाद की पूरी बेल और हर शाख पर वंशवाद का फल दिख रहा। कुछ हद तक बीजेपी में भी यह बेल लगी। जब राजनाथ सिंह अध्यक्ष थे, तो उनने अपने बेटे पंकज सिंह को यूपी के चिरईगांव विधानसभा से उम्मीदवार बना दिया। पर सवाल उठे, तो राजनाथ ने कदम पीछे खींचने में पूरी शालीनता दिखाई। खुद पंकज ने टिकट छोड़ संगठन में रहने की इच्छा जताई। सो आज राजनाथ का अलग वजूद। पर अपने बेटे-बेटियों-रिश्तेदारों को टिकट दिला राजनीतिक वजूद बनाने वाले नेता भी कम नहीं। गोपीनाथ मुंडे बेटी पंकजा को एमएलए बना चुके। दामाद को टिकट दिलाया, पर हार गए। मध्य प्रदेश में विक्रम वर्मा की पत्नी, कैलाश सारंग और कैलाश जोशी का बेटा एमएलए। राजस्थान से अपने दुष्यंत सांसद। हिमाचल से धूमल के बेटे अनुराग का ग्राफ बढ़ रहा। तो भला सीपी ठाकुर पीछे क्यों रहते। यों बीजेपी में सीपी ठाकुर जैसे क्षत्रपों की कमी नहीं। जब कुर्सी मिलती, तो आलाकमान की वाह-वाह। और जब कुछ न मिले या कुर्सी छोडऩे को कहा जाए, तो आलाकमान को आंख दिखाने लगते। अपनों की ऐसी-तैसी और छीछालेदर करने में नहीं हिचकते।
---------
08/10/2010

Thursday, October 7, 2010

शेख से उमर तक, चालू आहे कश्मीर कथा

तो उमर अब्दुल्ला भी सोलह दूनी आठ ही साबित हुए। दादा से पोते तक दुनिया और राजनीति कई करवट ले चुकी। पर अब्दुल्ला खानदान की सोच नहीं बदली। जब-जब अब्दुल्ला खानदान की कुर्सी खतरे में पड़ी। जुबान पर अलगाववादियों की भाषा चढ़ गई। कश्मीर घाटी 11 जून से सुलग रही। पर युवा उमर की राजनीति बचकानी साबित हुई। घाटी की हिंसा थामने और अवाम का भरोसा जीतने में नाकाम रहे। तो उन ने आखिर में वही तुरुप चल दिया। जो कभी दादा शेख अब्दुल्ला और वालिद फारुख अब्दुल्ला आजमा चुके। अब उमर अब्दुल्ला ने मुखर होकर न सिर्फ स्वायत्तता का राग अलापा। अलबत्ता कश्मीर के भारत में विलय पर ही सवाल उठा दिए। उमर ने कहा- कश्मीर को हैदराबाद, जूनागढ़ से मत जोडि़ए। इन दोनों का पहले सम्मिलन और फिर विलय हुआ था। पर कश्मीर का भारत से सिर्फ सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं। हम 1947 के समझौते पर कायम हैं। पर भारत सरकार ने राज्य की स्वायत्तता छीन ली। यानी उमर ने अलगाववादियों की जुबां बोल घाटी का बवाल थामने की कोशिश की। अपने संविधान में जम्मू-कश्मीर को स्पेशल स्टेटस मिला हुआ। पंडित नेहरू ने अनुच्छेद 370 के तहत यह प्रावधान कराया था। ताकि अवाम धीरे-धीरे राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ सके। पर इन साठ सालों में स्पेशल स्टेटस से सैपरेट स्टेटस की मांग होने लगी। उमर के दादा जान शेख अब्दुल्ला ने तो अनुच्छेद 370 को देश के सभी राज्यों में लागू करने का दाव खेल दिया था। ताकि संविधान का अस्थायी अनुच्छेद स्थायी हो जाए। सोचो, अगर शेख अपने मंसूबे में कामयाब हो जाते। तो आज देश के हालात क्या होते। सचमुच अलगाववाद पर अंकुश लगाने को कभी ईमानदार पहल नहीं हुई। अमेरिका ने भारत-पाक के बीच कश्मीर मुद्दे को हमेशा जिंदा रखा। ताकि दोनों को ब्लैकमेल कर सके। शेख अब्दुल्ला ने डिक्शन प्लान के तहत तीन स्टेट बनाने की लॉबिंग शुरू कर दी थी। सीआईए के चीफ स्टीवन लाई 1953 में भारत आए। तो अब्दुल्ला की लॉबिंग की भनक पंडित नेहरू को भी लगी। आईबी में तबके आईजी बीएन मलिक ने अपनी पुस्तक- माई डेज विद नेहरू में इसकी पुष्टि की। पर नेहरू नहीं माने, तो मामला रफी अहमद किदवई के पास गया। तो शेख गिरफ्तार हुए। बख्शी गुलाम मोहम्मद को जम्मू-कश्मीर का पीएम बनाया गया। शेख पर कश्मीर षडयंत्र का मुकदमा चला। पर 1963 में नेहरू-शेख पैक्ट के बाद केस वापस हुआ। फिर उमर के वालिद फारुख की कहानी कोई अधिक पुरानी नहीं। भावनाओं का आवेग पैदा करने में तो फारुख अपने बाप-बेटे से भी आगे रहे। जब मामला हाथ से निकल जाता, तो रोकर सहानुभूति बटोरने में फारुख का कोई जवाब नहीं। वाजपेयी राज में फारुख एनडीए का हिस्सा थे। नेशनल कांफ्रेंस ने 1996 के विधानसभा चुनाव में स्वायत्तता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया था। सो जून 2000 में उन ने विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेज दिया। पर चार जुलाई 2000 को वाजपेयी केबिनेट ने प्रस्ताव नामंजूर करते हुए दलील दी- ऐसा करना देश को पीछे की ओर लौटाना होगा और यह देश की एकता के हित में नहीं। अब उमर अब्दुल्ला की कहानी देखिए। जनवरी 2009 में अपने वालिद को किनारे कर सीएम हो गए। राहुल गांधी से दोस्ती ने खूब रंग दिखाया। तो आस बंधी, युवा सीएम कश्मीर के लिए सचमुच कुछ कर दिखाएगा। पर उमर सच मायने में राजनीति के अनाड़ी निकले। अगर 11 जून को पहली मौत के वक्त ही उमर ने राजनीतिक चतुराई दिखाई होती, तो घाटी के हालात इस कदर नहीं बिगड़ते। पर तब उमर छुट्टी मना रहे थे, जिसे कैंसल नहीं किया। बाद में भी कभी मौके पर पहुंच अवाम को ढांढस बंधाने की कोशिश नहीं की। यों हालात बेकाबू हो गए, तो दो महीने बाद मौके पर पहुंचे। पर तब तक पानी सिर से ऊपर निकल चुका था। फिर सर्वदलीय टीम का घाटी में दौरा, राजनीतिक पैकेज की मांग। केंद्र की सलाह पर स्कूल-कालेज का खुलना, बंदियों की रिहाई। सो ऐसा लगा, उमर केंद्र सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रहे। यानी जब उमर चौतरफा घिर गए। तो आखिर में अलगाववादियों पर ठोस कार्रवाई करने की बजाए अलगाववाद की जुबां बोल भरोसा जीतने की आखिरी कोशिश भी कर डाली। बोले- हम केंद्र सरकार की कठपुतलियां नहीं। कोई रिमोट कंट्रोल नहीं, हम अपने लोगों और उनके फायदे के लिए फैसले लेते हैं। भारत को कश्मीर का ऐसा हल ढूंढना चाहिए, जो पाक को भी पसंद हो। पर कोई पूछे, क्या सीएम उमर के पास कोई ऐसा हल है? या फिर कुर्सी बचाने को कोई भी बयान चलेगा? उमर के बयान का मतलब तो यही- न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। कश्मीर पर ऐसा हल निकल ही नहीं सकता, जो भारत-पाक को दिल से कबूल हो। हू-ब-हू यही मांग अलगाववादी भी करते आ रहे। सो गुरुवार को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जमकर हंगामा हुआ। बीजेपी-पैंथर्स पार्टी के एमएलए मार्शल से भिड़ गए। मार-पीट में विधायक और मार्शल दोनों घायल हो गए। बीजेपी उमर अब्दुल्ला के इस्तीफे की मांग कर रही। गर उमर भावना की राजनीति पर उतर आए। तो मारपीट पर उतर बीजेपी भी वही कर रही। सबको अपने वोट बैंक की फिक्र। पर उमर हों या बीजेपी, यह भूल गए, भावना की राजनीति टिकाऊ नहीं होती। पीडीपी ने श्राइन बोर्ड विवाद में बहुत कुछ किया। पर सत्ता से बेदखल हुई। यानी कश्मीर की आग यों ही जलती-बुझती रहेगी। कोई भी नेतृत्व ईमानदार नहीं। सो कश्मीर कथा यों ही चलती रहेगी।
---------
07/10/2010

Wednesday, October 6, 2010

राजनीतिक चक्की के आटे में सौहार्द-शिष्टाचार क्यों नहीं?

कर्नाटक में बीजेपी का नाटक फिर शुरू हो गया। दक्षिण भारत में पहली बार किला फतह किया। पर कुनबे में ऐसी कलह मची, दो साल में ही किले की चारदीवारी दरकने लगी। अब बीजेपी के डेढ़ दर्जन एमएलए बगावत पर उतर आए। गवर्नर को चिट्ठी लिख समर्थन वापसी का एलान किया। तो येदुरप्पा ने भी चार असंतुष्ट मंत्रियों को फौरन केबिनेट से बर्खास्त कर दिया। बाकी एमएलए को अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी। कर्नाटक की खींचतान कई दफा दिल्ली दरबार तक पहुंच चुकी। यानी कर्नाटक में बीजेपी की सरकार जनता नहीं, अपनों के संकट सुलझाने में ही उलझी हुई। सो विपक्ष भी भला मौका क्यों गंवाता। देवगौड़ा-कांग्रेस ने मोर्चा खोला। तो मौजूदा गवर्नर हंसराज भारद्वाज अति सक्रिय हो गए। अबके उन ने विधानसभा का सत्र चालू होने के बावजूद सीएम को बहुमत साबित करने के लिए बारह अक्टूबर तक का समय दे दिया। बीजेपी के नाराज 15 एमएलए और पांच समर्थक निर्दलीय एमएलए ने गवर्नर को चिट्ठी लिखकर समर्थन वापसी का एलान कर दिया। सो कानून की बारीकी से वाकिफ हंसराज भारद्वाज ने कानून को किनारे रख राजनीतिक एजंडा चल दिया। यों हंसराज भारद्वाज कोई पहली बार इतने सक्रिय नहीं। इससे पहले अवैध खनन के मामले में राष्ट्रपति से लेकर पीएम तक अपनी रपट बिन मांगे भेज चुके। मर्यादा लांघ सीएम को बेमतलब नसीहत तक दे चुके। जब गवर्नर ने यहां तक कह दिया था, अगर वह सीएम होते, तो रेड्डी बंधुओं को केबिनेट से फौरन बाहर करते। अब कोई गवर्नर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करे। तो उसे संविधान का पहरुआ कहा जाए या किसी पार्टी का, यह आप ही तय करिए। पर बात भाषाई मर्यादा की। तो राजनीति में ऐसी उम्मीद ही बेमानी। अब ताजा किस्सा देखो, अयोध्या फैसले के बाद कैसे हिंदू-मुसलमानों ने कौमी एकता की मिसाल पेश की। राजनीतिबाजों के झांसे का शिकार नहीं बने। तो अब नेताओं के पेट में मरोड़े उठ रहे। सो पहले मुलायम सिंह यादव ने उकसावे की कोशिश की। संघ-विहिप-बीजेपी ने अयोध्या फैसले को अपनी जीत के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया। तो कांग्रेस भी मुस्लिम हितैशी होने का ढिंढोरा पीटने लगी। पर राजनीतिबाजों को सामाजिक सौहार्द शायद रास नहीं आ रहा। सो लगातार कोशिश हो रही, कोई एक पक्ष उकसावे में आकर ऐसा बयान दे दे, जिससे अयोध्या पर बंद हुई राजनीति की दुकान फैस्टीवल सीजन में चल पड़े। सो अब खुद राहुल गांधी ने नया सुर्रा छोड़ दिया। प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी और आरएसएस को एक ही तराजू में तोल दिया। दो दिन पहले मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में राहुल ने कांग्रेस में आने वाले लोगों से बेहिचक कह दिया था। आरएसएस और सिमी की विचारधारा छोडक़र आने वालों को ही कांग्रेस में जगह मिलेगी। बुधवार को भोपाल में जब राहुल के बयान का मतलब पूछा गया। तो राहुल ने कह दिया- आरएसएस और सिमी दोनों ही कट्टरवादी संगठन। वैचारिक कट्टरता की दृष्टि से इनमें कोई फर्क नहीं। यानी राहुल बाबा की नजर में जैसा सिमी, वैसा ही आरएसएस। पर सवाल, अगर आरएसएस को सिमी जैसा मान रहे राहुल। तो मनमोहन-चिदंबरम से कहकर बैन क्यों नहीं लगवाते? सिमी पर बैन यूपीए के पिछले टर्म में ही बढ़ाया गया। अब अचानक ऐसा क्या हो गया, जो राहुल ने संघ को सिमी के बराबर खड़ा कर दिया? अयोध्या फैसले के बाद संघ ने जो संयमित रुख अपनाया, खुद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कायल हो गए। फिर राहुल के बयान का क्या मकसद? क्या यह जानबूझ कर उकसाने की कोशिश नहीं? सो राहुल के बयान पर बीजेपी ने पलटवार किया। प्रकाश जावडेकर बोले- मानसिक संतुलन खो चुके हैं राहुल। कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद के उपचुनावों में लगातार हार रही। सो हताशा में राहुल अंट-शंट बयान दे रहे। बीजेपी ने राहुल को अपरिपक्व और उद्दंड तक करार दे दिया। पर सिर्फ बीजेपी नहीं, जिस संघ को राहुल ने सिमी जैसा बताया। उसके प्रवक्ता राम माधव ने भाषाई मर्यादा को लांघ पलटवार किया। राम माधव बोले- राहुल को राजनीति की लंबी पारी खेलनी। सो सिर्फ इटली-कोलंबिया को समझने से काम नहीं चलेगा। भारतीय समाज को भी समझना पड़ेगा। बयानबाजी से पहले इतिहास पढ़ लेना चाहिए और समाज में रचे-बसे संघ और उसके क्रियाकलापों को भी समझ लेना चाहिए। पर बीजेपी-संघ ने कड़ा जवाब दिया। तो कांग्रेस तिलमिला गई। राहुल को नसीहत देने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में नहीं। सो किसी का नाम लिए बिना जनार्दन द्विवेदी बोले- किसी व्यक्ति के बारे में टिप्पणी नहीं, पर सभी राजनीतिक संगठनों को अपने विरोधियों के प्रति भाषा में सभ्यता का ख्याल रखना चाहिए। पर अपने राजनीतिबाजों को आखिर क्या हो गया? क्या राजनीतिक चक्की के आटे में सद्भावना, शिष्टाचार या मर्यादा नहीं पाई जाती? किसी को आरएसएस-सिमी में फर्क नजर नहीं आता। तो मुलायम को अपना वोट बैंक दिख रहा। विहिप को मंदिर के लिए पूरी पंचकोसी चाहिए। तो अयोध्या मामले को निजी विवाद बता कपिल सिब्बल सरकार को बीच में न पडऩे की सलाह दे रहे। पर कोई पूछे, गर अयोध्या विवाद निजी, तो क्या शाहबानो प्रकरण सरकारी था? जिसके लिए संसद ने कानून बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया। क्या यही राजनीति की मर्यादा?
-----------
06/10/2010

Tuesday, October 5, 2010

अपनी ही केंचुली में अब छटपटा रही कांग्रेस

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी। अयोध्या का फैसला वैसा ही आया, जैसा जनता चाहती थी। पर राजनीतिक मठाधीशों ने वोटों का सुरमा आंखों में लगा लिया। सो करीब-करीब सुलझ चुके मंदिर-मस्जिद विवाद को विक्रम-बेताल की कहानी बनाने में जुट गए। मंगलवार को विशेष सुरमा लगा कांग्रेस भी मैदान में उतर आई। सोनिया गांधी की नई टीम अभी बनी नहीं। सो पुरानी वर्किंग कमेटी को स्टेयरिंग कमेटी में बदल मीटिंग बुला ली। अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की चीर-फाड़ हुई। तो कांग्रेस सचमुच झोला छाप डाक्टर नजर आई। सत्तारूढ़ पार्टी से ईमानदार पहल की उम्मीद थी। पर कांग्रेस ने बयान जारी कर कह दिया- सुलहनामे की पहल हम नहीं करेंगे। अगर सभी पक्ष खुद से कोई समझौता करें, तो स्वागत करेंगे। पर हम सबको सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यानी फिर वही बात। सुप्रीम कोर्ट में कोई गया नहीं। पर कांग्रेस अपील करने का दबाव बना रही। सो महीने भर के भीतर सुप्रीम कोर्ट में अपील का वक्फ बोर्ड ने एलान कर दिया। पर कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बयान में बेहद मजबूती के साथ यह जोड़ा गया- मौजूदा फैसला किसी भी तरह छह दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद गिराने के कृत्य को माफ नहीं करता। वह शर्मनाक और आपराधिक कृत्य था। जिसके लिए दोषियों को सजा भुगतनी होगी। लगे हाथ कांग्रेस ने बीजेपी-संघ परिवार पर भी निशाना साध दिया। अब तक संघ के संयत रुख की मुफीद कांग्रेस अब फैसले को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगा रही। यानी कुल मिलाकर कांग्रेस ने मुलायम सिंह से सबक नहीं लिया। अब कांग्रेस का दोहरापन देखिए, मुलायम को कोस भी रही। पर खुद भी वही खेल कर रही। तभी तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी में अयोध्या फैसले की बेचैनी दिखी। एक खेमे ने फैसले को आस्था आधारित बताया। तो दूसरे ने सामाजिक सौहार्द के लिए जायज ठहराया। पर कांग्रेस की सबसे बड़ी बेचैनी एक समुदाय विशेष में फैसले से पैदा हुई निराशा की वजह से। कांग्रेस को यही लग रहा, बाबरी विध्वंस के वक्त मुसलमानों का खोया भरोसा लंबे समय बाद कांग्रेस की ओर लौट रहा। सो ताजा फैसला कहीं कांग्रेस को 1996 की तरह भारी न पड़ जाए। तब कांग्रेस सत्ता से ऐसी विमुख हुई, आठ साल तक विपक्ष में बैठना पड़ा। यूपी में तो शरशैय्या तक पहुंच गई थी। पर पिछले चुनाव में कांग्रेस केंद्र ही नहीं, यूपी में भी दौडऩे लगी। सो अयोध्या फैसले से धर्मसंकट में। किधर का रुख करें, यह कांग्रेसियों को समझ नहीं आ रहा। अगर मौजूदा फैसले पर अधिक जोर दे समझौते की कोशिश की। तो मुस्लिम वोट बैंक खिसकने का डर सता रहा। पर फैसले को जल्द लागू नहीं कराया, तो विहिप-संघ-बीजेपी के आंदोलन का डर। सो कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट से आस बांध ली। भले कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं गया। पर कल्पना कर ली, कोई न कोई सुप्रीम कोर्ट जाएगा ही। कांग्रेस को उम्मीद, जैसे ही मामला सुप्रीम कोर्ट जाएगा। अंतरिम आदेश जारी कर हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट रोक लगाएगी। फिर मुकदमा और वोट बैंक की सियासत चलती रहेंगी। मंदिर के पैरोकार भी समझौते को लेकर दो हिस्सों में बंटे हुए। हिंदू महासभा सुलहनामे के खिलाफ। तो बाकी मुसलमानों को विवादित स्थल से दूर मस्जिद बनाने के लिए राजी करने में जुटे। खुद मंदिर के पक्षकार भी आपस में बंटे हुए। यानी राजनीतिक बेचैनी दोनों तरफ। सो ज्योतिपीठाधीश्वर बद्रिकाश्रम के जगतगुरु शंकराचार्य माधवाश्रम महाराज ने सोलह आने सही कहा। अगर राजनेता दखल न दें, तो अयोध्या का विवाद सुलझ जाएगा। उन ने फैसले को जायज ठहराया, सुलह की उम्मीद जताई। सचमुच मामला सुप्रीम कोर्ट गया, तो मौजूदा सामाजिक सौहार्द पर तनाव के काले बादल मंडराते रहेंगे। राजनीतिबाज कब भावना भडक़ा जाएं, कोई भरोसा नहीं। अब कांग्रेस का ही रुख देख लो। कैसे अब तक कोर्ट के हर फैसले का स्वागत करती आई। पर मंगलवार को कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था की अहम मीटिंग हुई। तो बयान में फैसले का स्वागत नहीं, अलबत्ता शब्दों को बदल सम्मान जोड़ दिया। सचमुच अयोध्या फैसले पर कांग्रेस मुश्किल में। सैक्युलरिज्म का चोला ओढ़ कांग्रेसी पीएम देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बता चुके। पर सुप्रीम कोर्ट की ओर निगाह टिकाए बैठी कांग्रेस तब क्या करेगी, जब सुप्रीम कोर्ट भी कुछ ऐसा ही फैसला दे? खुद कांग्रेस की केंद्र सरकार ने चौदह सितंबर 1994 को सुप्रीम कोर्ट में कहा था- अगर बातचीत से मसले का समाधान नहीं हुआ, तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की राय के मुताबिक समाधान लागू करने को प्रतिबद्ध है। अगर यह साबित होता है कि विवादित ढांचे से पूर्व वहां कोई मंदिर था, तो केंद्र का फैसला हिंदू भावना के मुताबिक होगा। और यह साबित नहीं होता है, तो सरकार का फैसला मुस्लिम भावना के अनुरूप होगा। सो मुश्किल में फंसी कांग्रेस अब एक पक्ष को नसीहत, तो दूसरे को दिलासा दे रही। संसद का शीत सत्र नौ नवंबर से शुरू हो रहा। सो कांग्रेस रंगनाथ मिश्र रपट पर बहस को हरी झंडी दिखा हंगामा करा सकती। ताकि खुद को मुस्लिम हितैशी होने का दावा कर सके। पर मुस्लिम समाज भी सियासतदानों की नीयत समझ चुका। सो हाशिम अंसारी जैसे प्रबुद्ध पक्षकार समझौते का बीड़ा उठा चुके। पर कथित सैक्युलरिज्म की केंचुली पहन बैठी कांग्रेस अब खुद ही छटपटा रही।
---------
05/10/2010

Monday, October 4, 2010

कहीं बीजेपी ‘अल्जाइमर’ की शिकार तो नहीं?

तो देश की जनता ने अपना दम दिखा दिया। राजनीतिबाजों की भडक़ाऊ दाल नहीं गली। अलबत्ता रोटी सेकने वाले मुलायमों को ही फटकार लगा दी। सो अब केंद्र सरकार ने मान लिया, कठिन दौर गुजर गया। एहतियात के तौर पर तैनात सुरक्षा बलों की वापसी शुरू हो गई। केंद्र के लिए सचमुच सुकून का पल, अयोध्या पर अमन बना रहा। तो दूसरी तरफ कॉमनवेल्थ की सुहानी शुरुआत हो गई। दुनिया को भी अपने रंगारंग उदघाटन समारोह की दिल खोलकर तारीफ करनी पड़ी। पर देश के लिए गौरव का यह पल खासतौर से दिल्ली वालों के लिए गाज रहा। समूची दिल्ली मानो बाड़ में बंद कर दी गई हो। गर यह कॉमन लोगों का खेल, तो दिल्ली में अघोषित कफ्र्यू क्यों? आम लोगों को घरों में बंद कर पीठ थपथपाना कोई बहादुरी नहीं। पर उदघाटन समारोह की चमक-दमक में कहीं भ्रष्टाचार का असली मुद्दा दफन न हो जाए। और गेम्स के बाद आयोजक वाहवाही लूट लें। ऐसी चालबाजी को ही तो जुगाड़ की राजनीति कहते हैं। पर अयोध्या और गेम्स के बाद अब नेता सीधे चुनावी समर में कूदेंगे। बिहार विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी। पर चुनाव में धन बल, बाहुबल और ई.वी.एम. को लेकर चुनाव आयोग ने दिल्ली में सर्वदलीय मीटिंग की। तो सबने धनबल, बाहुबल और पेड न्यूज को लेकर चिंता जताई। पर सबसे अहम बात यह कि ई.वी.एम. को लेकर बीजेपी ने भी एतराज नहीं किया। अलबत्ता बीजेपी अब यह कह रही, कभी ई.वी.एम. का विरोध नहीं किया। बीजेपी के रविशंकर प्रसाद बोले- भाजपा ने कभी ईवीएम का विरोध नहीं किया। राव ने ईवीएम के दुरुपयोग पर सवाल खड़े किए थे। जो बीजेपी के मेंबर नहीं, बल्कि सैफोलॉजिस्ट हैं। अब कोई पूछे, तीस साल की जवान पार्टी को छह-आठ महीने पुरानी बात भी याद क्यों नहीं रहती? कहीं बीजेपी शिबू सोरेन के अल्जाइमर वाले रोग की शिकार तो नहीं हो गई? हो न हो संगत का कुछ तो असर होगा ही। तभी तो रविशंकर प्रसाद जीवीएल नरसिम्हा राव को अपना नहीं मान रहे। और न ही आडवाणी सरीखे नेताओं के बयान और ब्लॉग याद आ रहे। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। जब लोकसभा चुनाव में बीजेपी के वेटिंग पीएम का टिकट कनफर्म नहीं हुआ। तो बीजेपी आपस में ही सिर-फुटव्वल करने लगी। किसी को हार की वजह समझ नहीं आ रही थी। तभी दिल्ली के पूर्व चीफ सैक्रेट्री ओमेश सहगल ने एक सुर्रा छोड़ दिया। ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। मशीन से टेंपरिंग को संभव बताया। तो अपने लालकृष्ण आडवाणी को यही लगा, तमाम विरोधाभासी मुद्दों के बावजूद मनमोहन को जनता ने नहीं जिताया होगा। सो उन ने फौरन सवाल उठाए। चार जुलाई 2009 को आडवाणी ने कहा था- अगर चुनाव आयोग ईवीएम का फूल प्रूफ होना सुनिश्चित नहीं करता, तो बैलेट पेपर प्रणाली शुरू की जानी चाहिए। उन ने अक्टूबर 2009 में होने वाले महाराष्ट्र चुनाव में बैलेट की मांग की थी। जर्मनी और अमेरिका की नजरी भी दी। तब यहीं पर हमने भी लिखा था- अगर विपक्ष को एतराज है, तो आयोग परीक्षण होने दे। फिर आयोग ने सचमुच तीन दिन की खुली चुनौती दी। पर न सुर्रा छेडऩे वाले सहगल और न ही कोई और ईवीएम को झुठलाने चुनाव आयोग पहुंचे। फिर इसी साल 25 जनवरी को जब चुनाव आयोग ने अपने साठ साल पूरे होने पर हीरक जयंती मनाई। तो आडवाणी ने फौरन ब्लॉग लिख मारा। फिर भी कोई बहस शुरू नहीं हुई। तो तब बीजेपी वर्किंग कमेटी के मेंबर जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब लिखी। किताब का नाम रखा- ‘डैमोक्रेसी एट रिस्क!’। जिसकी प्रस्तावना खुद आडवाणी ने लिखी। बारह फरवरी 2010 को नितिन गडकरी ने लोकार्पण किया था। तब मौके पर तीन-तीन विदेशी एक्सपर्ट ईवीएम झुठलाने को बुलाए थे। जर्मनी, नीदरलैंड और यूएसए के एक्सपर्टों का लब्बोलुवाब यही रहा। ईवीएम के साथ पेपर बैकअप भी हो। पर बीजेपी की असली पोल तो समारोह के अहम गैस्ट पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने खोलकर रख दी थी। जब वह बीजेपी को ही सुझाव दे गए। उन ने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब था- ‘ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव होनी चाहिए। पर यह आरोप लगाना सही नहीं होगा कि कांग्रेस शासित राज्यों में ही ईवीएम का दुरुपयोग हो रहा। बीजेपी शासित राज्यों में भी दुरुपयोग संभव। सो बेहतर यही होगा, आरोप-प्रत्यारोप के बजाए ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव करने के लिए सभी पार्टियों की कमेटी बने और फिर व्यापक चर्चा हो।’ लगता है देर से ही सही, कृष्णमूर्ति की बात बीजेपी के पल्ले पड़ गई। अगर बीजेपी हार वाली जगहों पर ईवीएम के दुरुपयोग की बात करे। तो दूसरा पक्ष भी बीजेपी शासित राज्यों में जीत पर यही सवाल उठा सकता। सो बीजेपी अब सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव से दूरी दिखा रही। उन्हीं राव से जिन्हें लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुए नागपुर अधिवेशन में बीजेपी वर्किंग कमेटी का मेंबर बनाया गया था। बीजेपी में आने से पहले तक राव के सर्वेक्षण सटीक होते थे। पर पार्टी में आते ही दशा-दिशा बिगड़ गई। सो उन ने भी सारा दोष ईवीएम के सिर ही फोड़ दिया। ऐसी किताब लिखी, जिसमें लोकतंत्र को जोखिम में बता दिया। पर जनता का खोया भरोसा हासिल करने को कोई प्रयास नहीं। अब बीजेपी खुद ही बताए, हारे तो ईवीएम को दोष दिया। अब बिहार चुनाव में बयार खुद के पक्ष में दिख रही। तो अपने रुख को ही क्यों झुठला रही। याददाश्त अब गोल क्यों हो गई? छह महीने पहले मुखालफत, छह महीने बाद भूलना, क्या सचमुच कोई बीमारी?
---------
04/10/2010

Friday, October 1, 2010

देश तो संतुष्ट, पर वोट के ‘सौदागर’ नहीं!

तो आस्था बनाम तथ्य की बहस शुरू हो गई। फैसले को अहम मोड़ देने वाली भारतीय पुरातत्व विभाग की रपट पर सवाल उठने लगे। लेेफ्ट विंग इतिहासकारों ने एएसआई के निष्कर्ष को गलत ठहराने की कोशिश की। सहमत नामक संस्था से जुड़े इन इतिहासकारों ने बयान जारी कर अपनी चिंता जताई। आस्था के आधार पर रामलला को जमीन दिए जाने को कानून के खिलाफ बताया। यों साहित्य जगत ने फैसले की सराहना की। साहित्यकारों ने फैसले को संतुलित करार देते हुए माना, किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ। पर कुछ लोग ऐसे भी, जिन्हें अयोध्या की आग में घी डालने से परहेज नहीं। सो फैसले के अगले दिन ही जैसी बयानबाजी हुई, सुप्रीम कोर्ट जाना तय हो गया। अब देखो, कैसे कल तक अदालती फैसले का सम्मान और शांति की अपील करने वाले रंग बदलने लगे। जामा मस्जिद के शाही इमाम ने फैसला नामंजूर बता दिया। अब्दुल्ला बुखारी ने सीधे-सीधे कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया। तो हाल तक कल्याण सिंह संग बाबा बने मुलायम शुक्रवार को फिर मौलाना मुलायम हो गए। कोर्ट के फैसले को निराशाजनक करार दिया। बोले- आस्था को कानून व सबूतों से ऊपर रखकर फैसला दिया गया। जो देश, संविधान और खुद न्यायपालिका के लिए अच्छा संकेत नहीं। इस फैसले से कई संकट पैदा होंगे। और तो और, इस फैसले से देश का मुसलमान ठगा सा है, पूरे समुदाय में मायूसी। मुलायम फैसले का विरोध करते वक्त यह भी याद दिलाना नहीं भूले, इमारत बचाने के लिए बतौर सीएम उन ने ही कारसेवकों पर गोली चलवाई। अपनी तुलना महाभारत के अर्जुन से करते हुए बोले- संविधान और कानून की रक्षा के लिए अपने ही लोगों पर गोलियां चलवानी पड़ी थीं। पर वोट बैंक को साधने की कोशिश में जुटे मुलायम इतिहास भूल गए। देश की जनता अब अमन-भाईचारे में भरोसा करती। सर्वजन हिताय की बात करने वाला ही आज समाज को मंजूर। मुलायम ने 1991 में जब सिर्फ एक खास वोट बैंक को साधने के लिए गोलियां चलवाईं। तो चुनाव में हश्र भी दिख गया था। सपा महज 29 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। तब मुलायम मुस्लिम समाज के हीरो थे। तो कट्टर हिंदुओं की नजर में मौलाना मुलायम हो गए थे। सो फैसले के बाद भी जिस तरह माहौल बन रहा, केंद्र ने चुप्पी साध ली। शुक्रवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्पणी से परहेज किया। पर फैसले के बाद जनता की संयत प्रतिक्रिया को संतोषजनक बताया। कांग्रेस के लिए सचमुच सब्र के इम्तिहान की घड़ी। सो कांग्रेस और सरकार का हर बयान एहतियात की चासनी में सराबोर। कल तक बीजेपी-वीएचपी-संघ परिवार पर भरोसा न करने की बात करने वाले दिग्विजय सिंह का सुर फैसले के बाद बदल गया। उन ने अपनी मौत तक संघ परिवारियों पर भरोसा न करने का दावा किया था। पर शुक्रवार को बोले- संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान आडवाणी से बेहतर और संतुलित। मुझे उनसे यही उम्मीद थी। यों दिग्विजय ने एक अहम बात कही। निर्णय के बाद आपसी सहमति से हल का रास्ता खुला है। पर चिदंबरम ने हल के लिए कोई पहल करने का संकेत नहीं दिया। अलबत्ता पीएम की भावना का जिक्र करते हुए चिदंबरम ने साफ कर दिया, जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, यथास्थिति बरकरार रहेगी। यानी सरकार मौजूदा फैसले के मद्देनजर कोई भी कदम उठाने से परहेज कर रही। शाही इमाम, मुलायम, सुन्नी वक्फ बोर्ड फैसले पर आपत्ति जाहिर कर चुके। सो कांग्रेस बर्र के छत्ते में हाथ लगाने से डर रही। यों शाही इमाम बुखारी ने तो खुल्लमखुल्ला कह दिया। कांग्रेस के राज में ही सब कुछ हुआ। अयोध्या में पूजा शुरू हुई, ताले खुले और अब फैसला भी कांग्रेस राज में ही आया। यानी कांग्रेस के लिए सचमुच आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति हो गई। सो कांग्रेस और सरकार ने एक पक्ष को संयम, तो दूसरे को सुप्रीम कोर्ट जाने का मंत्र थमाया। चिदंबरम ने उम्मीद जताई, कोई पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाएगा। तो सुप्रीम कोर्ट अंतरिम आदेश देगा। सो तब तक केंद्र की कोई जिम्मेदारी नहीं। यूपी की सीएम मायावती ने केंद्र पर दारोमदार छोड़ पल्ला झाडऩे की कोशिश की। सचमुच अपनी राजनीतिक नेतृत्व की विफलता, जो आज कोर्ट के फैसले पर सवाल उठ रहे। माना, कोर्ट का फैसला पूरी तरह कानून के तराजू पर नहीं। पर कोई बताए, इससे बेहतर क्या विकल्प? जस्टिस एसयू खान ने इशारों में ही कबूला, इसके सिवा कोई चारा नहीं था, क्योंकि 1992 दोहराया, तो देश खड़ा नहीं हो पाएगा। पर अपने राजनेताओं को भावनात्मक मुद्दों से खेलना ज्यादा मुफीद लगता। सो दशकों से उलझी मंदिर-मस्जिद की डोर सुलझ गई। तो अब तक मंदिर-मस्जिद की आड़ में राजनीति की रोटी सेकने वालों को अपनी दुकान बंद होती दिख रही। इन्हें लग रहा, जब लोग भाईचारे के साथ रहेंगे, तो इन तथाकथित ठेकेदारों को कौन पूछेगा? इस ठेकेदारी में बीजेपी भी कम नहीं। नितिन गडकरी ने कहा- अयोध्या पर अब न कोई रणनीति, न राजनीति। यानी फैसले से पहले तक खूब राजनीति कर चुके। बीजेपी फिलहाल संयम में। पर भविष्य में मंदिर का श्रेय लूटने की रणनीति बना रही। विहिप के फायर ब्रांड प्रवीण तोगडिय़ा तो मथुरा-काशी का राग छेड़ चुके। तो क्या आस्था के नाम पर मथुरा-काशी-रामसेतु के भी फैसले हों? बेहतर यही, विवाद यहीं खत्म हो जाए। देश की अवाम ने अयोध्या फैसले के बाद संयम और संतुष्टि का इजहार किया। पर लगता है, वोट के सौदागर अभी भी संतुष्ट नहीं। तो क्या खून से लथपथ और लाशों की राजनीति ही अपनी व्यवस्था का शगल हो गया?
----------
01/10/2010