Thursday, December 16, 2010

अड़तालीस साल बाद भी चीन के सामने दब्बू क्यों?

चीन की चकल्लसबाजी असर दिखा गई। पिछले साल अक्टूबर में भारत-चीन रिश्तों में जबर्दस्त तल्खी आई। तीन अक्टूबर 2009 को पीएम मनमोहन अरुणाचल के चुनावी दौरे पर गए थे। तब दस दिन बाद यानी तेरह अक्टूबर को चीन ने मनमोहन के दौरे पर सवाल उठाया। अरुणाचल को विवादास्पद बता पीएम के दौरे पर एतराज जताया। तब भारत ने थोड़ी सख्ती दिखाई, चीनी राजदूत को तलब कर लिया था। फिर भी चीन ने अपना डरावना चेहरा दिखाना बंद नहीं किया। भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश में चीन ने पाक से खूब पींगें बढ़ाईं। पाक पीएम यूसुफ रजा गिलानी और चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ के बीच हुई मीटिंग में झेलम पनबिजली प्रोजैक्ट और काराकोरम मार्ग में सहयोग का वादा हो गया। तब जिन्ताओ ने बाकायदा बयान दिया था- भले वैश्विक परिस्थितियां बदल रहीं, पर पाक और चीन के लोग आपस में दिल से जुड़े हुए। यों चीन की ऐसी दिल्लगी कौन नहीं जानता। पंडित नेहरू के जमाने में चीन ने अपने साथ भी दिल्लगी की थी। सो चीन का पाक प्रेम सिर्फ भारत पर हौवा बनाने के लिए। चीनी फार्मूला, दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त। फिर वीजा डिप्लोमैसी का खेल किया। तो कभी अरुणाचल के लोगों को वीजा नहीं, तो कभी कश्मीर के बाशिंदों को स्टेपल्ड वीजा दिया। कश्मीर को भारत से अलग मान चीनी दूतावास लंबे समय से पासपोर्ट के बजाए कोरे कागज पर मुहर लगाता था। चीनी अतिक्रमण के किस्से तो पिछले साल इस कदर बढ़ गए थे कि कभी अरुणाचल तो कभी उत्तराखंड से खबरें आतीं। पर मनमोहन सरकार ने चुप्पी साध ली। यानी पिछले अक्टूबर से लेकर हाल तक चीन ने भारत पर दबाव बनाने के हर पेंतरे आजमाए। पर भारत ने आंखों पर गांधारी की तरह पट्टी बांध ली। सो चीनी प्रधानमंत्री का चार सौ के दल-बल के साथ भारत दौरा हुआ। तो अपनी तैयारी का नमूना देखिए। न स्टेपल्ड वीजा पर भरोसा मिला, न यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का। न मुंबई हमले के लिए पाक की निंदा, न सीमा पर चीनी अतिक्रमण की बात। पर चीन की चालाकी देखिए, वेन जियाबाओ जिस मकसद से आए, उसे पूरा कर लिया। भारत का मध्य वर्गीय बाजार अमेरिका-चीन समेत औद्योगिक देशों के लिए हमेशा से आकर्षण का केंद्र। सो पहले ओबामा ने अपना काम किया। पर अमेरिका से भी भारत को रणनीतिक साझेदारी मिली। अमेरिका ने चीन की तरह भारत को पूरी तरह दबाव में नहीं रखा। पर चीनी पीएम वेन जियाबाओ और मनमोहन की वार्ता के बाद छह अहम बिंदुओं पर समझौते हुए। चीन सौ बिलियन डालर के व्यापार का खाका बना गया। पर बदले में भारत ने क्या हासिल किया? भारत-चीन के बीच व्यापार में असंतुलन किसी से छुपा नहीं। स्टेपल्ड वीजा तक के मुद्दे पर जियाबाओ ने टका सा जवाब दिया। खुद भरोसा देने के बजाए अधिकारियों पर टाल दिया। सो कुल मिलाकर चीन की साल भर की कोशिश सफल रही। पर अपनी सरकार की तैयारी ऐसी रही, हर मोर्चे पर डिफेंसिव दिखे। या यों कहें, सरेंडर कर दिया, तो अतिशयोक्ति नहीं। सचमुच मनमोहन सरकार आंतरिक मोर्चे में ही उलझी रह गई। भ्रष्टाचार के भंवर से निकलने की कोशिश में वेन जियाबाओ को वॉकओवर दे दिया। मनमोहन सरकार जेपीसी और सुप्रीम कोर्ट को सफाई देने की तैयारी में ही लगी रही। यों गुरुवार को थोड़ी राहत मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की मॉनीटरिंग कबूल ली। अब विपक्ष की मजबूरी, सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा सकता। सीबीआई, सीवीसी, पीएसी, एक सदस्यीय कमेटी से जांच को ठुकरा चुका। पर सुप्रीम कोर्ट ने निगरानी का बीड़ा उठाया। तो बीजेपी को स्वागत करना ही पड़ा। पर भ्रष्टाचार के मुद्दे से सरकार को घेरने की देशव्यापी रणनीति का एलान हो चुका। सो बीजेपी के राजीव प्रताप रूड़ी बोले- कोर्ट की पहल का स्वागत। पर यह जेपीसी का विकल्प नहीं। यानी अगर जांच की यही रफ्तार रही, तो बजट सत्र आते-आते जेपीसी मांग की हवा निकल चुकी होगी। पर बात चीन की, जिसने साबित कर दिया। बॉर्डर तो बहाना, असली लड़ाई बाजारवाद की। पिछले साल जब दोनों देशों में वार ऑफ वर्ड चरम पर था, तब 15 अक्टूबर को यही बात आपको बताई थी। पर सवाल, हम खुद को चीन से कमजोर मान मनौवैज्ञानिक हार क्यों कबूल रहे? दुनिया अब 1962 जैसी नहीं। भारत को 1962 की भूल से सबक लेकर अपनी बढ़ती ताकत का भरोसा होना चाहिए। जब आर्थिक महामंदी ने दुनिया को झकझोर दिया। तो सिर्फ भारत और चीन ही ऐसे दो देश, जिन ने मंदी को मात दी। सो चीन की कोशिश हमेशा यही होगी, भारत मजबूत ताकत बनकर न उभरे। इतिहास साक्षी, कैसे माओत्सेतुंग ने भारत को सबक सिखाने का एलान किया था। कैसे लाल झंडा बीजिंग से होकर काठमांडू, कलकत्ता और लंदन तक पहुंचाने का दंभ भरा था। यह नहीं भूलना चाहिए। चीन ने आज भी पीओके में 43,180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमा रखा। पर दबाव बनाने को भारत पर पूर्वोत्तर में 90,000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जाने का दावा ठोक रहा। सो चीन से रिश्तों में सावधानी जरूरी, समर्पण नहीं। यों इस डर की जिम्मेदार भी कांग्रेस। अपने नटवर सिंह ने एक बार कहा था- अगर 1962 की हार का विश्लेषण किया होता, तो डरने की बात नहीं होती। पर तबके पीएम को बचाने के लिए तबके रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने जिम्मेदारी ओढ़ ली थी। अफसोस, अड़तालीस साल बाद भी चीन संग कूटनीति में दब्बू निकला भारत।
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16/12/2010