Friday, May 28, 2010

नक्सली बढ़ते जा रहे, सरकार भाग रही!

क्या नक्सलवाद पर सख्ती के लिए भी किसी 26/11 का इंतजार? आतंकवाद पर ईमानदार राजनीतिक एकता तो सिर्फ तभी दिखी थी। आनन-फानन में सरकार पोटा के रद्द कुछ प्रावधान यूएपीए कानून में वापस लाई। समूचे खुफिया तंत्र की सर्जरी हुई। एनआईए-मैक बना, अधिकारियों की जिम्मेदारी तय हुई। सो पुणे जर्मन बेकरी विस्फोट को छोड़ डेढ़ साल में कोई अन्य आतंकी वारदात नहीं हुई। पर 26/11 से पहले ऐसा कौन सा आतंकी हमला नहीं, जिस पर 24 घंटे के भीतर वोट बैंक की राजनीति न शुरू हुई हो। मनमोहन सरकार के 22 जुलाई के विश्वास मत के बाद जब बेंगलुरु-अहमदाबाद में 25-26 जुलाई 2008 को सीरियल बम धमाके हुए। तो याद है, बीजेपी की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज ने क्या कहा था। उन ने खम ठोककर भाजपा शासित दोनों राज्यों में हुए धमाकों के पीछे मनमोहन सरकार का हाथ बता दिया था। फिर कूटनीति के हिसाब से सुषमा का बयान कटघरे में खड़ा हुआ। तो बीजेपी ने निजी राय बता पल्ला झाड़ लिया था। आतंकवाद पर सियासत के उदाहरण तो कई, पर यह उदाहरण वोट बैंक की सियासत की इंतिहा थी। आतंकवाद पर पहले तो ऐसी ओछी सियासत न हुई होगी, पर भविष्य का पता नहीं। राजनीति का स्तर तो ग्राउंड वाटर जैसा हो गया, जिसका स्तर लगातार घटता ही जा रहा। सो गिरी हुई राजनीति से नक्सलवाद से निपटने की क्या उम्मीद? नक्सली अब आए दिन हमला कर रहे। छह अप्रैल को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवान मार गिराए। फिर बस में विस्फोट कर आम मुसाफिर समेत 31 लोग मार गिराए। बीच में कई छिटपुट वारदातों को अंजाम दिया। अब शुक्रवार को शुरू हुए डेढ़ घंटे ही बीते थे, पश्चिमी मिदनापुर के झारग्राम में रेल पटरी को निशाना बनाया। विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी। सो हावड़ा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतर गए। तभी विपरीत दिशा से आ रही मालगाड़ी ने टक्कर मार दी। सो गरीब 70 लोग मारे गए, 200 से भी अधिक घायल हो गए। शुरूआती जांच में ही साफ हो गया, नक्सलवादियों का संगठन पीसीपीए जिम्मेदार। पीसीपीए ने मौके पर पोस्टर भी छोड़े, जिनमें जिम्मेदारी कबूली। पोस्टर में लिखा- हमने पहले मांग की थी कि जंगल महाल से संयुक्त सुरक्षा बलों को वापस बुलाया जाए और माकपा के अत्याचारों को खत्म किया जाए। लेकिन इन मांगों को पूरा नहीं किया गया। अब सुरक्षा बलों को फौरन वापस बुलाओ। यानी नक्सलियों का यह कोई आखिरी हमला नहीं। पुलिस उत्पीडऩ के खिलाफ नक्सली काला सप्ताह मना रहे। सो आगे क्या होगा, यह समझना मुश्किल नहीं। पीसीपीए ने ही पिछले साल 27 अक्टूबर को इसी झारग्राम में कंधार दोहराने की कोशिश की थी। जब भुवनेश्वर- नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बना लिया। बदले में जेल में बंद नक्सली नेता छत्रधर महतो की रिहाई की शर्त रखी थी। पर तब गनीमत यह रही, मुसाफिरों को कंधार प्लेन हाईजैक जैसी परेशानी नहीं उठानी पड़ी थी। अलबत्ता नक्सलियों ने आम नागरिक की सहानुभूति हासिल करने के मकसद से मुसाफिरों को ढांढस बंधाया। पर अबके पीसीपीए की मंशा धरी रह गई। नक्सली अपने काला सप्ताह के प्रति सरकार का ध्यान खींचना चाह रहे थे। पर मालगाड़ी की टक्कर ने नक्सलियों को मुश्किल में डाल दिया। आखिर शुक्रवार को ट्रेन में मारे गए और घायल हुए मुसाफिरों के दोषी नक्सली ही। सो नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए अब जनदबाव बढ़ेगा। सचमुच नक्सलियों ने आतंकवाद का रुख अपना लिया। अब तो लश्कर से संबंध की खुफिया रपट भी आने लगी। पर अपनी सरकार कब तक बहस में उलझी रहेगी? आखिर नक्सलवाद पर अब भी सख्ती नहीं होगी, तो कब होगी। सरकार और कांग्रेस में कब तक मल्ल युद्ध चलेगा। हर नक्सली हमले के बाद दिग्विजय सिंह का वही राग। पर दिग्विजय से सवाल, जब छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का पार्ट था, तब दिग्विजय पूरे दस साल सीएम रहे। तब विकास को आदिवासी इलाके तक क्यों नहीं पहुंचाया? तब दिग्विजय को चुनाव जीतने के लिए विकास जरूरी नहीं लगता था। अलबत्ता चुनाव के वक्त दलील दी थी, विकास से चुनाव जीते जाते, तो बिहार में लालू-राबड़ी राज न होता। पर क्या हुआ, सबको मालूम। नक्सलवाद पर चिदंबरम ने साहस दिखाया। पर सोनिया गांधी तक ने साथ नहीं दिया। सो चिदंबरम ने लाचारी जता दी। अब शुक्रवार को ताजा वारदात हुई। तो भी सरकार में जबर्दस्त ऊहापोह दिखा। ममता ने बम विस्फोट की बात कही। तो चिदंबरम-प्रणव ने इनकार किया। यानी अब भी सरकार में एक सुर नहीं। अपने मनमोहन तो राष्ट्रीय प्रेस कांफ्रेंस में बड़ी चतुराई से निकल गए। पर देश की व्यवस्था को बंदूक से लहूलुहान करने वालों से नरमी क्यों? शुक्रवार को तो भारत-पाक दोनों अपनों की बंदूक से लहूलुहान दिखे। अपने यहां नक्सलियों ने, तो लाहौर में पाक के पोसे आतंकियों ने मस्जिद में घुसकर आतंक मचाया। पर यहां बात सिर्फ अपनी। नक्सलवाद पर इतना सब कुछ हो रहा। पर अभी भी रुख स्पष्ट नहीं। सरकार, कांग्रेस और दिग्विजय जैसे बुद्धिजीवी भी ऊहापोह में। कोई ऐसा नेता नहीं दिख रहा, जो सीधी लाइन तय करे। अलबत्ता शुक्रवार की घटना के बाद रेलवे में नक्सली बैल्ट में रात को ट्रेन नहीं चलाने पर विचार हो रहा। यानी नक्सलियों के हौसले बढ़ते जा रहे और अपनी सरकार भाग रही। सोचो, अगर नक्सली दिल्ली आ गए, तो..। ---------
28/05/2010