Friday, February 26, 2010

जब चला काला जादू, आंख बंद, डिब्बा गायब

बंगाल काला जादू के लिए खूब मशहूर। सो अबके बजट में प्रणव दा का जादू सिर चढ़कर बोला। अब कोई बड़ा चुनाव होता। तो ऐसा जादू दादा क्या, कोई भी न दिखाता। ले-देकर बिहार के चुनाव इसी साल। जहां कांग्रेस की हालत वैसी ही, जैसे महंगाई के मारे आम आदमी की। सो जादूगर की जादूगरी देखिए। टेक्स स्लैब में बड़ा बदलाव कर शर्ट की जेब में पैसे डाले, पेंट की जेब से निकाल लिए। यों टेक्स छूट में अपने जैसों को कोई राहत नहीं मिली। अलबत्ता हायर-मिडिल क्लास की बल्ले-बल्ले। पर पलक झपकते ही पेट्रोल-डीजल की एक्साइज ड्यूटी बढ़ गई। बजट तो बाद में पारित होगा। कीमतें शुक्रवार की आधी रात से ही बढ़ गईं। सो जिनको भी राहत मिली, उन लोगों के चेहरे पर मोनालिसा सी मुस्कान। आखिर हंसे या रोए, कोई समझ नहीं पा रहा। महंगाई पर एक दिन पहले संसद में महाभारत हो। दूसरे दिन सरकार महंगाई की आग में पेट्रोल-डीजल डाल देगी, ऐसा किसी ने सपने में भी सोचा न होगा। सो विपक्ष को तो संजीवनी मिल गई। अरसे बाद पहली बार विपक्ष में ऐसी एकजुटता दिखी। जब बिना फ्लोर स्ट्रेटजी बनाए समूचा विपक्ष वाक आउट कर गया। क्या लेफ्ट, क्या लालू, क्या मुलायम। सब बीजेपी के संग हो लिए। इंदिरा राज में जैसे इमरजेंसी के खिलाफ विपक्ष एकजुट था। अबके महंगाई पर मनमोहन सरकार के खिलाफ। मुलायम सिंह ने तो यही एलान किया, इमरजेंसी जैसी जंग लड़ेंगे। पर कहीं होली के हुल्लड़ में विपक्षी तेवर हैंग ओवर न हो जाएं। वैसे हैंग ओवर उतारने के लिए संसद में होली के अगले दिन भी छुट्टी हो गई। अब विपक्ष की धार बुधवार को दिखेगी। पर प्रणव दादा ने तो पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा आम आदमी को कह दिया। बुरा न मानो, होली है। अब कांग्रेस ने यों ही ऐसी जुर्रत नहीं की। अलबत्ता मौका देख कड़े फैसले लिए। सोशल सैक्टर में आवंटन बढ़ाया। ताकि चुनाव आते-आते असर दिखने लगे। फिलहाल महंगाई का शोर। तो कांग्रेसियों को मानसून का भरोसा। अपने प्रणव दा ने भाषण की शुरुआत में ही इंद्र देवता के सामने हाथ फैला दिए। बेहतर मानसून की उम्मीद जताई। कांग्रेस यही मानकर चल रही। मानसून के बाद नई फसल आएगी। तो महंगाई खुद दम तोड़ देगी। सो सोशल सैक्टर और कर्मचारी वर्ग के लिए बजट का पिटारा खुल गया। प्रणव दा ने आंकड़ों की बाजीगरी जमकर दिखाई। टेक्स में राहत दी। तो ढिंढोरा पीटा, 26,000 करोड़ राजस्व की हानि होगी। यानी कर्मचारियों पर अहसान जताने की कोशिश। पर बजट में ही खुलासा हो गया। डीजल-पेट्रोल जैसी चीजों पर अप्रत्यक्ष कर लगा सरकार 46,500 करोड़ की उगाही करेगी। यानी कुल जमा 20,500 करोड़ का मुनाफा। पर आम आदमी को क्या मिला। जिन लोगों को टेक्स में छूट मिली। उनके लिए न छूट बड़ी बात, न पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतें। जिंदगी तो मुहाल उस आम आदमी की। जो दाल-रोटी सस्ती होने की उम्मीद लगाए बैठा था। पर बदले में क्या मिला। भले पेट्रोल-डीजल से गरीब का सीधा सरोकार नहीं। पर ढुलाई के बहाने फिर कीमतों में उछाल आएगा। शहरी महिलाओं के लिए माइक्रोवेब ओवन सस्ते तो हो गए। पर सोना-चांदी थोड़ी-बहुत मात्रा में ही सही, हर महिला इस्तेमाल करती। फिर भी प्रणव दा ने फिक्र नहीं की। अलबत्ता सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात सब महंगी कर दीं। वैसे भी सोना आम महिलाओं को तो चिढ़ा ही रहा था। अब प्रणव दा ने ऐसी कारीगरी दिखाई। सपने में भी देख आम महिला डर जाएगी। अब गांव-गरीब की बात करने वाली सरकार का भी हिसाब-किताब देखिए। राहुल बाबा दलित एजंडे पर मायावती से मोर्चा ले रहे। सो मुकुल वासनिक के मंत्रालय का बजट 80 फीसदी बढ़ गया। पर नरेगा की नब्ज देखिए। पिछले बजट में 39,000 करोड़ के करीब था। अबके 40,100 करोड़ रुपए। अपनी संसद पिछले सत्र में शिक्षा के मौलिक हक का कानून पास कर चुकी। पर पिछले बजट में 26,800 करोड़ आवंटन हुआ था। अबके नया कानून बन जाने के बाद भी आवंटन 31,036 करोड़ पर अटका। हरित क्रांति पर प्रणव दा ने खूब जोर दिया। झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पूर्वी यूपी, बंगाल में क्रांति का विस्तार करेंगे। पर बजट आवंटन हुआ महज 400 करोड़। यानी ऊंट के मुंह में जीरा। आज भी देश का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुड़ा। पर 400 करोड़ से क्या होगा। देश में पैदावार घट रही। अंधाधुंध औद्योगिकीकरण से कृषि का रकबा घट रहा। आर्थिक समीक्षा में कृषि क्षेत्र की गिरावट स्पष्टï हो चुकी। बजट में कृषि ऋण की ब्याज दर पांच फीसदी कर दी। किसान कर्ज माफी की सीमा छह माह के लिए बढ़ा दी। फिर भी दादा का हाथ तंग दिखा। कृषि का विकास कैसे हो, इसकी कहीं फिक्र नहीं। पर खाद्य सुरक्षा बिल जल्द आएगा। अपने रुपए का निशान बनेगा। ताकि दुनिया के मनी क्लब में भारत भी शामिल हो। यूनिक आईडी कार्ड से लेकर परियोजनाओं की मॉनीटरिंग, नक्सलवाद से निपटने की भी योजना। पर बजट भाषण के सवा घंटे बाद दादा ने बजट का मजा किरकिरा कर दिया। मुरली देवड़ा की फांस सीधे अपने गले में ले ली। कुल मिलाकर बजट का निचोड़ यही। चुनाव की दीर्घकालिक रणनीति बना कांग्रेस ने कृषि और महंगाई को भगवान भरोसे छोड़ दिया।
---------
26/02/2010

Thursday, February 25, 2010

इतना विकास, बाप रे बाप!

चलो, संसद भी महंगाई से निपट ली। यूपीए के छह साल में नौवीं बार बहस हुई। तो पहली मर्तबा सांसदों में दिलचस्पी दिखी। भले कामरोको प्रस्ताव खारिज हो गया। पर अबके नियम 193 के तहत विशेष चर्चा हुई। प्रश्रकाल को स्थगित करना पड़ा। सो विपक्ष इसी से गदगद हो गया। गुरुवार को संसद ने ठाना, सातवें आसमान की महंगाई सात घंटे में निपटा देंगे। अब बहस तो निपट गई, बाकी महंगाई की तो आप ही जानें। पर राजनीति के चंगुल में फंसी महंगाई की चर्चा तो ऐसी रही- 'तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। न तुम हारे, न हम हारे।' विपक्ष ने जनता की आवाज बुलंद कर दी। तो सरकार ने भी अपने गीत सुना दिए। वैसे भी अपनी संसद यों ही गोल नहीं। नेता गोल संसद की तरह आम आदमी को गोल-मोल घुमाने में माहिर हो चुके। अब संसद भवन का डिजाइन बनाने वाले ब्रिटिश वास्तुकार हरबर्ट बेकर ने क्या सोचकर संसद गोल बनाई, पता नहीं। पर अपने नेताओं ने इसका यही निचोड़ निकाला, एक बार चुनकर लोकतंत्र के मंदिर में आ जाओ। फिर आम आदमी तो खुद-ब-खुद मंदिर की परिक्रमा करता फिरेगा। सो संसद में शरद पवार ने बहस का जवाब दिया। तो लगा, मानो शरद पवार आम आदमी से पूछ रहे- महंगाई किस चिडिय़ा का नाम? पवार ने सरकारी आंकड़े गिनाए। कुछ राज्यों की चि_िïयां सुनाईं। तो महंगाई कहीं नहीं दिखी। पवार ने एक और करिश्मा दिखाया। कल के पांच बड़े अखबारों की खबरें भी लोकसभा में सुनाईं। तो उसमें महंगाई कम होने की खबरें थीं। अब जरा अखबारों के नाम देखिए। फाइनेंशियल एक्सप्रेस, अमर उजाला, हिंदुस्तान टाइम्स, बिजनेस लाइन के नाम गिनाए। अब अमर उजाला को छोड़ दें, तो बाकी कौन से अखबार सुदूर गांव तक पहुंचते? अब देश का मंत्री अखबारी खबरों को महंगाई घटने का आधार बनाए। तो आप क्या कहेंगे। पर सरकार का आपसी विरोधाभास ही देखिए। पवार ने तमाम ऐसी दलीलें दीं। जिनमें दावा किया, महंगाई तेजी से घट रही। पर दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की आर्थिक समीक्षा कुछ और कह रही। समीक्षा की मानें, तो महंगाई पर फिलहाल नियंत्रण संभव नहीं। महंगाई के लिए प्रबंधन नीति को खूब कोसा। समीक्षा में कहा गया- 'खाद्यान्न फसलों के मामले में संतोषजनक स्थिति और रबी की सुधरी हुई फसल का ध्यान नहीं रखा गया। आयातित चीनी को बाजार में लाने की देरी से अनिश्चितता पैदा हुई। सो चीनी की कीमतें चढ़ गईं।Ó यानी निशाने पर शरद पवार। पर पवार कहां मानने वाले। वह तो महंगाई को चिढ़ाते हुए आ बैल मुझे मार कह रहे। पर गोल संसद में गोलमाल यहीं खत्म नहीं होता। पवार हों या प्रणव, बहस में शामिल हुए। तो राज्यों पर ठीकरा फोडऩे में पीछे नहीं रहे। अब कोई पूछे, अगर महंगाई के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार। तो फिर कांग्रेसी राज्यों में महंगाई क्यों नहीं कम हो रही। अब प्रणव दा की समीक्षा ने तो पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का भी इशारा कर दिया। यानी संसद की बहस का निचोड़ यही, राजनीतिक छींटाकशी में आम आदमी का दर्द छू-मंतर हो गया। बहस की शुरुआत विपक्ष के हमलावर तेवरों से हुई। वैसे भी बीजेपी नए नेतृत्व के साथ मुस्तैद हो चुकी। सो लोकसभा में सुषमा स्वराज ने मोर्चा खोला। तो राज्यसभा में अरुण जेतली ने समान संभाली। लखनऊ में राजनाथ सिंह ने लाठियां खाईं। पर बहस के वक्त सत्तापक्ष की बेशर्मी भी खूब दिखी। मंत्री हो या सत्तापक्ष की बैंचों पर बैठे सांसद। ठीक वैसे ही मुस्करा रहे थे, जैसे रुचिका छेड़छाड़ कांड के दोषी एसपीएस राठौर के चेहरे पर कोर्ट से बाहर आते दिखी थी। भले आम आदमी महंगाई से त्रस्त हो। पर कांग्रेसियों की ठसक ही कहेंगे कि आंकड़ों में जनता का दर्द उलझा दिया। सुषमा ने महंगाई को महाघोटाला बता ताबड़तोड़ हमले किए। सरकार की इधर का माल उधर करने की नीति पर सवाल उठाए। तो कांग्रेस की गंभीरता का अंदाजा आप इसी से लगा लें कि महंगाई पर कांग्रेस की नुमाइंदगी शिवसेना से आयातित संजय निरुपम ने की। सो निरुपम शिवसेनिक वाले अंदाज में ही दिखे। कुतर्कों से विपक्ष के आरोपों का जवाब देने की कोशिश की। पर होना तो यह चाहिए था, समूचा सदन महंगाई के खिलाफ एकजुट होकर संकल्प लेता। पर विपक्ष ने आरोप लगाए, सरकार ने जवाब दे दिया। बस महंगाई गायब हो गई। अब अगर सरकार की दलील मान भी लें। बफर स्टॉक से लेकर विपक्ष के तमाम आरोप निराधार मान लें। तो फिर सवाल वही, महंगाई क्यों बढ़ रही? यों आर्थिक समीक्षा में मंदी से उबरने का एलान। पर महंगाई अभी और मुंह फैलाएगी। सरकार अब भी मानसून पर निगाह टिकाए बैठी। नई फसल आए, और महंगाई कम हो। पर सोचो, मानसून ने फिर ठेंगा दिखाया, तो क्या होगा। पर कांग्रेस को फिक्र नहीं। फिलहाल बिहार को छोड़ कोई बड़ा चुनाव नहीं। सो आर्थिक सुधार की नई पहल होगी। विनिवेश का दायरा बढ़ेगा। ताकि खाद्य सुरक्षा बिल और शिक्षा के मौलिक हक कानून के लिए धन जुटा सके। पर देश के खजाने की खस्ता हालत खुद देख लो। कृषि विकास दर में तीन गुनी गिरावट दर्ज हुई। राजकोषीय घाया बढ़कर छह फीसदी हो गया। फिर भी सरकार ने 2010-11 में 8.75 फीसदी विकास दर का दावा किया। चार साल बाद दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था बनने का दंभ भरा। पर यह कैसा विकास? जहां देश तो तरक्की कर रहा, पर आम आदमी फटेहाल। महंगाई ऐसे छलांग मार रही, आम आदमी की जुबां से यही आवाज निकल रही- 'बाप रे बाप, इतनी महंगाई।' बेहतर यही, शुक्रवार को प्रणव दा के बजट से ज्यादा उम्मीद करना बेमानी।
----------
25/02.2010

Wednesday, February 24, 2010

आखिर कब तक बेचारा रेलवे बिन 'चारा' दूध दे?

वाकई सचिन जैसा कोई नहीं। दोहरा शतक मार ग्वालियर में इतिहास रच दिया। कैरियर के आखिरी पड़ाव पर भी जोशीले जवानों को बता दिया। गर हो जज्बा, तो उम्र आड़े नहीं आ सकती। सचिन तेंदुलकर के रिकार्ड कभी टूटें या न टूटें, वह तो सही मायने में भविष्य के आदर्श हो गए। उधर सचिन ने युवाओं को भविष्य दिखाया। इधर ममता बनर्जी ने रेलवे के भविष्य का खाका परोस दिया। अबके ममता एक्सप्रेस विजन की पटरी पर दौड़ी। यों माल भाड़ा और यात्री किराए में बढ़ोतरी न कर सामाजिक सरोकार का संकल्प भी दोहराया। पर मुख्य फोकस रेलवे का भविष्य संवारना रहा। सो विजन-2020 का संकल्प जताया। सालाना एक हजार किलोमीटर रेल लाइन बिछाने का लक्ष्य। अगले दस साल में नेटवर्क में 25 हजार किलोमीटर इजाफे की तैयारी। काम को अंजाम देने के लिए सौ दिन के भीतर टास्क फोर्स बनेगी, जो निवेश के मामले तेजी से निपटाएगी। रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। पर बिजनेस कम्युनिटी को निवेश का न्योता दे दिया। यों लक्ष्य तो वाकई सुहाना। पर कहीं यह सपना बनकर न रह जाए। खुद ममता ने बजट भाषण में बताया। जब देश आजाद हुआ, तो 1950 में रेल के पास 53,596 किलोमीटर की लाइन थी। अ_ïावन साल बीत गए। पर आंकड़ा कहां पहुंचा, मालूम है। अपने रेल नेटवर्क का विस्तार महज 64,015 किलोमीटर पर सिमटा हुआ। यानी 58 साल में न जाने कितने मंत्री आए-गए। पर नई लाइनें बिछीं सिर्फ 10,419 किलोमीटर। सालाना औसत देखिए। तो महज 180 किलोमीटर लाइन हर साल बिछी। ऐसा क्यों न हो। अपने देश में जितने भी रेल मंत्री आए-गए। सबने शपथ तो संविधान की ली। पर रेलवे को राजनीतिक टूल बनाकर चुनाव में इस्तेमाल किया। जिस प्रदेश का मंत्री, उस प्रदेश की तो हमेशा से मौजां ही मौजां होती रहीं। सो अबके ममता अपने बंगाल पर मेहरबान। तो कोई अचरज नहीं। पर लालू को रेलवे रिवर्स गियर में जाता दिख रहा। यों लालू भूल गए, उन ने तो रेलवे को ऐसा चूसा। जितना बिहार को भी पंद्रह साल नहीं चूस पाए होंगे। पर बात रेल मंत्री के क्षेत्र प्रेम की। तो ममता बनर्जी की कर्मभूमि पर जन्मभूमि भारी पड़ी। ममता ने सबको सौगातें दीं। पर बंगाल को कुछ ज्यादा मिला। वैसे भी मंत्री बंगाल की वजह से बनीं। सो जैसे बाकी मंत्री रेल को अपना आधार मजबूत करने का जरिया बनाते रहे। वैसा उन ने भी किया। अब जरा बंगाल को क्या मिला। आप खुद देख लें। विश्व स्तरीय स्टेशन दस एलान हुए। तो दो बंगाल के खाते में गए। मल्टीफंकशनल कॉप्लेक्स 93 में से आधा दर्जन बंगाल गए। छह बॉटलिंग प्लांट में से एक बागल गया। डबल डेकर की शुरुआत दिल्ली-कोलकाता के बीच होगी। चौवन नई ट्रेनों में 28 बंगाल के खाते में। टेगोर जयंती के नाम पर हावड़ा-बोलपुर में म्यूजियम। संगीत अकादमी, सांस्कृतिक परिसर, अनुसंधान केंद्र, डिब्बों के आधुनिकीकरण, किसानों के लिए रेफ्रीजिरेटेड कंटेनर भी बाया बंगाल। बाकी सर्वे आदि आप छोड़ दो। तो कुल मिलाकर ममता ने बंगाल चुनाव की बड़ी बिसात बिछा दी। उन ने सिर्फ रेलवे नहीं, किसान, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे तमाम पहलू छूकर बता दिया। अपनी रेल का यार्ड रायटर्स बिल्डिंग में ही बनेगा। ममता गठबंधन की सरकार में मंत्री ठहरीं। सो कांग्रेस की मांग को भी बजट में पूरी जगह दी। अमेठी हो या रायबरेली, कांग्रेस को ममता ने खुश कर दिया। अब रेलवे के जरिए राजनीति की बिसात बिछे। तो रेलवे का विजन कहां पूरा होगा। वाहवाही लूटने को बजट में हर साल सैकड़ों ट्रेन का एलान होता। पर कभी ट्रेनों में भीड़ कम होती दिखी? समय पर ट्रेनें स्टेशन पहुंचीं? साफ-सफाई और खान-पान तो ऐसा, मुसाफिर यही कहकर मंजिल तक पहुंच जाते। छोड़ो, एक दिन की ही तो बात है। पर बंगाल एक्सप्रेस दौड़ाकर भी ममता रेलवे के कायापलट का दावा कर रहीं। बांग्ला में एक विचार रखा- 'नहीं नहीं भय, होबे होबे जय। खुले जाबे एई द्वार।' यानी डरो नहीं, तो जीत अवश्य मिलेगी। रास्ते अपने आप खुल जाएंगे। पर कब तक रेलवे बिना 'चारा' दूध देगा। नेताओं ने रेलवे को दुधारू गाय बना खूब दुहा। पर विकास धेला न हुआ। सो अब धड़ाधड़ दुर्घटनाएं हो रहीं और मुसाफिर को मंजिल तक पहुंचाने वाली ट्रेन मुसाफिरों का ही खून पी रही। लालू ने सरप्लस दिखाने के चक्कर में रेल को निचोड़ दिया। सो मुसीबत ममता के बजट में साफ दिख रही। योजनाओं का एलान तो खूब हुआ। पर धन कहां से आएगा, किसी को मालूम नहीं। अब आप ही सोचो, रेलवे का विजन-2020 कैसे पूरा होगा। आजादी के 58 साल बाद रेलवे का नेटवर्क रेंगता दिखा। बजट में ममता ने भारत-चीन युद्ध के बाद निराशा से उबरने के लिए नेहरू के अनुरोध पर लगा मंगेशकर का गाया गीत... जरा याद करो कुर्बानी... गाया। तो चीन की रेलवे का इतिहास बता दें। अपनी आजादी के वक्त भारत की तुलना में चीन के पास एक चौथाई रेल लाइनें भी नहीं थीं। चीन की राजधानी बीजिंग से गूंगजाऊ की 1100 किलोमीटर की दूरी तय करने में तीन से चार दिन लग जाते थे। पर आज हर रोज चीनी यात्री महज तीन घंटे में यह यात्रा पूरी कर रहे। वर्ष 2012 तक चीन में रेल लाइनों की लंबाई 79,900 किलोमीटर से बढ़कर 1,10,000 किलोमीटर पहुंच जाएगी। भारत में कैसी हालत, खुद ममता ने बजट में बता दिया। सो कब तक यों ही रेलवे को नेतागण राजनीति की दुधारू गाय बना दुहेंगे? मुसाफिरों की जिंदगी मुश्किल में डालेंगे?
----------
24/02/2010

Tuesday, February 23, 2010

क्या जब जले बस, बरपे हंगामा तभी होगी बहस?

वैसे तो नियम-कायदे ताक पर रखने में अपने नेताओं का कोई सानी नहीं। कायदे बनते बाद में, उसके नुक्स पहले ही निकाल लेते। पता नहीं अपने ही बनाए कायदे कब गले आ पड़ें। सो खतरे के वक्त नुक्स आपातकालीन दरवाजे की तरह काम आते। फिर भी मुसीबत का फंदा कस जाए। तो अपनी संसद, अपनी सरकार। सो खूबसूरत फिल्म का गाना अपनी राजनीति पर मौजूं। फिल्म में सास के अत्याचार के खिलाफ रेखा-अशोक कुमार आदि यह गाना गाते हैं- 'सारे नियम तोड़ दो, नियम पर चलना छोड़ दो। इंकलाब जिंदाबाद।' जब चौदहवीं लोकसभा में लाभ के पद का मामला सुर्खियां बना। जया बच्चन की बर्खास्तगी से लगी आग की आंच सोनिया गांधी तक पहुंची। तो कांग्रेसियों को लगा, प्रलय आ गई। सो सोनिया ने सांसदी छोड़ नैतिकता का ढोल पीटा। दो सत्र के गैप में ही दुबारा चुनकर लोकसभा लौट आईं। इधर मनमोहन ने भी रेवड़ी तैयार कर लीं। सो पलक झपकते ही लाभ के पद का बिल पास हो गया। जिन-जिन पदों में लाभ की गुंजाइश दिखी, सारे पद कानून से राहत पा गए। तभी तो सोमनाथ चटर्जी को भी सांसदी नहीं छोडऩी पड़ी। सरकार ने विपक्ष से भी लाभ के पद की लिस्ट मांग ली। पर विपक्ष ने नैतिकता दिखा लिस्ट नहीं दी। तबके राष्टï्रपति कलाम ने बिल को देश के लिए एक समान न बता संसद को वापस लौटा दिया। तो कांग्रेसियों को शर्म नहीं आई। अलबत्ता कलाम को ही चुनौती देने लगे। अगले सत्र में वही बिल जस का तस फिर भेज दिया। पर भला हो भैरोंसिंह शेखावत का। जिन ने बीच-बचाव कर देश को संवैधानिक संकट से बचा लिया। कलाम और सरकार के बीच शेखावत ने नया रास्ता निकाला। इधर संसद ने लाभ के पद पर सुधार के लिए जेपीसी गठित की। उधर कलाम ने बिल को मंजूरी दे दी। यानी जब बात नेताओं के अपने फायदे की हो। तो कायदा-कानून गया भाड़ में। अब महंगाई पर बहस की बात हुई। तो नेताओं ने आम आदमी के हित की चिंता को नियम-कायदे के पेच में उलझा दिया। वैसे भी आम आदमी का पेट कोई नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का दफ्तर नहीं। जो सरकार आनन-फानन में उपाय ढूंढ ले। याद है ना, सोनिया इसी एनएसी की मुखिया थीं। लाभ के पद विवाद में यही पद छोडऩा पड़ा था। अब एनएसी समेत कई ऐसे पद, जिन पर बैठ सांसद दोहरा लाभ उठा सकते। आखिर सांसद कोई ऐरा-गैरा तो होता नहीं। लाखों की जनता ने आंखों का नूर बना सिर पर बिठाया। सो बोझ उठाना उसी जनता की मजबूरी। नेताओं का क्या, वह तो सरकारी आवास में सरकारी भोजन का लुत्फ उठा सरकारी खर्चे पर ही सैर-सपाटा कर रहे। यानी नेताओं के लिए महंगाई तो जाके पैर न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई वाली कहावत जैसी। सो पहले दिन ही संसद पर भारी पड़ी महंगाई। अब तो ऐसी रार ठन चुकी। रेल बजट, आम बजट को छोड़ बाकी दिन शायद हंगामे में ही गुजरें। विपक्ष को सिर्फ कामरोको प्रस्ताव के तहत बहस चाहिए। तो सरकार में इतना बूता नहीं, जो महंगाई पर वोटिंग का जोखिम उठा ले। महंगाई पर वाकई पहली बार विपक्ष की ऐसी एकजुटता दिखी। जब वैचारिक मतभेद भुला लेफ्ट-बीजेपी-सपा-बसपा-आरजेडी सुर में सुर मिला रहे। अंदरखाने सत्तापक्ष के दो बड़े घटक ममता और करुणानिधि भी महंगाई पर त्यौरियां चढ़ा चुके। सो सरकार को डर, कहीं वोटिंग में विपक्ष से हारे। तो जनता को क्या मुंह दिखाएंगे। महंगाई ऐसी विकराल, हारने पर इस्तीफे का नैतिक दबाव बढ़ जाएगा। सो संसदीय कार्यमंत्री पी.के. बंसल से लेकर खुद प्रणव दा तक। साफ कर दिया, सदन के नियम सांसदों ने ही बनाए। सो नियम से ही काम होगा। बंसल की दलील, कामरोको प्रस्ताव हाल के गंभीर विषयों पर लाए जाते। महंगाई तो लंबे समय से चली आ रही। सो सामान्य चर्चा ही होगी। वाकई यूपीए के पहले टर्म में सात बार, दूसरे टर्म में एक बार महंगाई पर बहस हो चुकी। पर महंगाई नहीं रुकी। विपक्ष की नई नेता सुषमा स्वराज ने सदन में परिचय के बाद यही दलील दी। तो सरकार नियमों में महंगाई को बांधने की कोशिश कर रही। कौन नहीं जानता, जब नियम 193 के तहत चर्चा होती। तो सदन में कोरम के भी लाले पड़ जाते। अगर कामरोको प्रस्ताव में चर्चा होती। तो समूची मीडिया और देश की निगाहें टिक जातीं। नियमों के फेर में गंभीरता का पुट होता। पर कांग्रेसी और सरकार उल्टा चोर कोतलाव को डांटे की मुद्रा में। विपक्ष को हंगामाई साबित करने में जुटी। महंगाई को सामान्य मुद्दा बता रही। सो गुरुदास दासगुप्त ने सवाल पूछा। क्या कामरोको प्रस्ताव लाने के लिए बसें जलानी पड़ेंगी? वाकई अपनी सरकार शायद हिंसा की भाषा ही समझती। क्या महंगाई पर संसद में बहस के लिए दासगुप्त का ही फार्मूला अपनाना पड़ेगा? नक्सलवादी जब हिंसा का तांडव मचा रहे। तो सरकार बातचीत को तैयार हो रही। पर जब नक्सलबाड़ी में असमानता से नक्सलवाद का बीज पनपा। तब सरकार खामोश बैठी रही। यों नक्सली जो कर रहे, लोकतंत्र में जायज नहीं। पर महंगाई का हाल भी कुछ वैसा ही। देश के तेरह अमीर मंदी के दौर में अपनी संपत्ति ढाई गुनी कर गए। पर बीस रुपए दिहाड़ी पर जिंदगी जीने वाली 77 फीसदी आबादी महंगाई के बोझ तले पिस गई। तो क्या संसद या सरकार महंगाई से पिसी आम जनता की फिक्र तभी करेगी। जब सड़कों पर बसें जलेंगी, चौतरफा हंगामा बरपेगा? क्या सड़कों पर हिंसा ही कामरोको प्रस्ताव का आधार? क्या पेट की आग अपनी संसद और सरकार के लिए गंभीर मुद्दा नहीं? ----------
23/02/2010

Monday, February 22, 2010

तो क्या हारेगा संसद और जीतेगी महंगाई?

 संतोष कुमार
-----------
   जन, गण, मन और महामहिम के अभिभाषण से नए साल का पहला सत्र शुरू हो गया। अभिभाषण भले राष्टï्रपति के नाम से होता। पर सही मायने में यह केबिनेट का ही दस्तावेज। सो अभिभाषण को लेकर वही पुराना राग। सत्ताधारी दल सरकार की वाहवाही कर रहे। तो विपक्षी दल नाम के अनुरूप। बीजेपी में किसी ने सरकारी इश्तिहार कहा। तो किसी ने पुरानी बोतल में पुरानी शराब। पर कांग्रेस ने उपलब्धियों और भविष्य की सोच का दस्तावेज बताया। अब भविष्य का दस्तावेज आम आदमी को हड़काने वाला हो। तो फिर यह दस्तावेज कांग्रेस को ही मुबारक। आखिर महंगाई पर कितने बहाने बनाएगी सरकार। कभी बीजिंग ओलंपिक, कभी महामंदी, कभी एनडीए राज पर दोषारोपण, तो कभी आम आदमी के खाने की आदत में बदलाव बहाने बने। मौसम की तो पूछो ही मत। जब-जब मौसम बदला, शरद पवार ने सुर्रा छोड़ महंगाई बढ़वा दी। जो चीज महंगी न होनी थी, पवार के बयान से रातों-रात महंगी हो गई। महंगाई के हर आंकड़े के साथ सरकार ने अपने माथे की लकीरें भी दिखाईं। पर महंगाई न रुकनी थी, न रुकी। दस दिन में महंगाई रोकने के दावे तो कबके फुस्स हो गए। अब दो महीने का वक्त लिया। तो वक्त से पहले नया बहाना ढूंढ लिया। राष्टï्रपति अभिभाषण में सरकार की दलील वाकई शर्मनाक। जरा और भी गौर फरमाइए। सरकार ने किसानों को उपज मूल्य ज्यादा दिया। इसलिए महंगाई बढ़ी। सरकार ने सोशल सैक्टर में ज्यादा धन लगाया। इसलिए महंगाई बढ़ी। सरकार ने नरेगा जैसी योजनाओं में लोगों को काम दिया। सो सौ रुपए से कम दिहाड़ी पाने वाले ज्यादा अमीर हो गए। क्रय शक्ति अचानक बढ़ गई। सो मांग बढ़ी, आपूर्ति घट गई। अब सरकार की इस दलील को क्या कहेंगे आप। अपनी नजर में यही, सरकार आम आदमी को अब सिर्फ चिढ़ा ही नहीं रही। अलबत्ता अहसानफरामोश भी बता रही। अभिभाषण में कहा- 'महंगाई सर्वांगीण विकास की स्कीमों में कार्यान्वयन की झलक है।' दलील ऐसी, मानो आम आदमी की गैरत को दुत्कारते हुए यही कह रही- 'तुम्हें इतना कुछ दिया। आमदनी बढ़ा दी, विकास दर बढ़ा दी, फिर भी थोड़ी सी महंगाई बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। शर्म आनी चाहिए।'  अब सरकार आम आदमी के हित में ऐसी दलील दे। तो संसद में बहसबाजी बेमायने ही समझो। यानी सरकार भी अपनी मजबूरी समझ चुकी। सो विपक्ष के तीखे तेवर देख सहम गई। बीजेपी सबसे पहले महंगाई पर बहस चाहती। ताकि इंदौर से जो संकल्प लेकर लौटी, उसे पूरा कर सके। सो बीजेपी ने ठान लिया। बहस होगी, तो कामरोको प्रस्ताव के तहत। कामरोको प्रस्ताव के तहत आखिर में वोटिंग का प्रावधान। सो सरकार को डर, महंगाई पर विपक्ष के साथ कुछ घटक दलों ने भी जुगलबंदी कर ली। तो भरी संसद में मुंह काला होगा, इस्तीफे का नैतिक दबाव भी। वैसे भी विपक्ष की बदली सूरत और सीरत सरकार की नींद उड़ा चुकीं। बीजेपी की कमान अब पूरी तरह से युवा नेतृत्व के हाथ। सो युवा अब बड़ी जिम्मेदारी और बड़े ओहदे के साथ भविष्य की लड़ाई लड़ेंगे। आडवाणी तो युवा खासतौर से नितिन गडकरी के इतने मुरीद हो चुके। इंदौर में मंच पर तारीफ कर नहीं थके। सो अब सोमवार को ब्लॉग पर गडकरीनामा लिख दिया। मंगलवार को पहली बार गडकरी संसदीय दल की मीटिंग में शिरकत करेंगे। तो वहां भी इंदौर जैसा जोश भरने की कोशिश होगी। यानी कुल मिलाकर महंगाई से ज्यादा विपक्ष की बदली सूरत-सीरत सरकार को चौकन्नी कर रही। तभी तो दिखाने को परंपरा तोड़ धन्यवाद प्रस्ताव से पहले सरकार बहस को राजी हो गई। पर कोमरोको प्रस्ताव का जोखिम उठाने से कतरा रही। यों महंगाई इतनी बेलगाम हो चुकी। कामरोको आए या दामरोको, आम आदमी को राहत मिलती नहीं दिख रही। वैसे भी पिछले कुछ सालों से संसद के हर सत्र में महंगाई पर चर्चा धार्मिक अनुष्ठïान बन चुकी। सत्र से पहले राजनीतिक दल महंगाई पर कुर्ता फाड़ते। पर सदन में बहस होती, तो महज मु_ïीभर सांसद हाजिरी बजाने को रह जाते। सो सरकार भी आनन-फानन में बहस पूरी करा लेती। पर विपक्ष अबके खम ठोककर यही कह रहा। अगर 21 अप्रैल से पहले महंगाई पर नकेल न कसी। तो मनमोहन को गद्दी से उतार कर ही दम लेंगे। अब बीजेपी जनता में खोया अपना भरोसा कितना लौटा पाई। यह तो 21 अप्रैल को ही दिखेगा, जब महंगाई के खिलाफ संसद पर हल्ला बोल होगा। पर अब तो मनमोहन सरकार के सहयोगी ही नहीं, कांग्रेसी भी महंगाई को बला मान रहे। सोमवार को मीडिया ने संसद के अहाते में कुछ नेताओं से सवाल पूछे। क्या देश को महंगाई मंत्री चाहिए? तो विपक्ष का जवाब छोडि़ए। कांग्रेसी लालसिंह हों या जगदंबिका पाल या मंत्री सलमान खुर्शीद। जवाब का अंदाज अलग, पर मान लिया, महंगाई बड़ी बलवान। पर अपनी सरकार तो कबकी हार मान चुकी। अभिभाषण की दलीलें भी यही साफ कर रहीं, महंगाई काबू से बाहर जा चुकी। अब एकमात्र उम्मीद देश की संसद से। पर अपनी संसद सत्ता की कटपुतली हो चुकी। सो मंगलवार को महंगाई और अपनी संसद के बीच महामुकाबला होगा। तो उम्मीद यही, जीतेगी महंगाई, हारेगा संसद। अब ऐसा हुआ, तो संसद से भी राहत की उम्मीद खो चुका आम आदमी क्या स्वर्ग की बाट जोहेगा? गौरव दिखाने को संसद में जन, गण, मन तो हुआ। पर आम आदमी का जन, गण, मन कब? क्या आम आदमी स्वर्ग से ही राहत की उम्मीद करे?
----------
22/02/2010

Friday, February 12, 2010

तो सवाल, बीजेपी को जनता ने हराया या ईवीएम ने?

 संतोष कुमार
-----------
       क्या वाकई अपना लोकतंत्र जोखिम में है? क्या दो टर्म से मनमोहन की सरकार सचमुच जनता ने नहीं चुनी? आप मानें या न मानें, पर देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी यही मान रही। भले शब्दों को घुमाफिरा कर सवाल उठा रही। पर निचोड़ यही- ईवीएम में बड़ा गड़बड़झाला। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ संभव बता बीजेपी वापस बैलट की पैरवी कर रही। अब आगे बढऩे से पहले थोड़ा विवाद की शुरुआत देख लीजिए। मौजूदा लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद सवाल उठे। दिल्ली के पूर्व चीफ सैक्रेट्री उमेश सहगल ने सुर्रा छोड़ा। तो बीजेपी ने फौरन कैच कर लिया। आडवाणी ने सवाल उठाए। तो यहीं पर हमने भी सवाल का स्वागत किया। तब चुनाव आयोग से यही उम्मीद भी जताई थी कि अगर विपक्ष को एतराज है। तो परीक्षण होने दे। ऐसा हुआ भी, चुनाव आयोग ने तीन दिन की खुली चुनौती दी। पर ईवीएम को झुठलाने वाला कोई शख्स नहीं पहुंचा। अभी 25 जनवरी को जब चुनाव आयोग ने अपनी हीरक जयंती मनाई। तो आडवाणी ने फिर सवाल उठाए। पर कहीं बहस शुरू नहीं हुई। सो अब बीजेपी वर्किंग कमेटी के मेंबर और मशहूर सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब लिख दी। किताब का नाम 'डैमोक्रेसी एट रिस्क!' रखा। जिसकी प्रस्तावना खुद आडवाणी ने लिखी। शुक्रवार को नितिन गडकरी ने लोकार्पण किया। तो मौके पर तीन-तीन विदेशी एक्सपर्ट ईवीएम झुठलाने को बुलाए गए थे। जर्मनी, नीदरलैंड और यूएसए के एक्सपर्टों का लब्बोलुवाब यही रहा। ईवीएम के साथ पेपर बैकअप भी हो। पर बीजेपी की असली पोल तो समारोह के अहम गैस्ट पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने खोलकर रख दी। उन ने बीजेपी की बैलट सिस्टम वाली मांग पर कुछ नहीं कहा। अलबत्ता बीजेपी को उम्दा सुझाव दे गए। अब बीजेपी कितना अमल करेगी, यह तो मालूम नहीं। पर शायद आप-हम कृष्णमूर्ति की राय से सहमत होंगे। उन ने जो कहा, उसका लब्बोलुवाब यही- 'ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव होनी चाहिए। यह आरोप लगाना सही नहीं होगा कि कांग्रेस शासित राज्यों में ही ईवीएम का दुरुपयोग हो रहा। बीजेपी शासित राज्यों में भी दुरुपयोग संभव। सो बेहतर यही होगा, आरोप-प्रत्यारोप के बजाए ईवीएम की क्वालिटी इंप्रूव करने के लिए सभी पार्टियों की कमेटी बने और फिर व्यापक चर्चा हो।' पर बीजेपी नेता ने तो किताब में दुनिया भर से खूब तथ्य जुटाए। कैसे जर्मनी की फैडरल कोर्ट ने ईवीएम के इस्तेमाल को असंवैधानिक बताया। कैसे दुनिया भर के बड़े अखबारों में इस बाबत लेख छपे। यानी अब अदालती लड़ाई में बीजेपी के राव तमाम तथ्य परोसेंगे। पर सवाल, बीजेपी हो या सैफोलॉजिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव। अबके आखिर ऐसा क्या हो गया, जो ईवीएम पर एतबार नहीं। अपना मानना तो यही, यह वक्त का दोष। जब नरसिम्हा राव महज सैफोलॉजिस्ट थे। तो अरुण जेतली ने इन्हीं के आंकड़ों से कर्नाटक, बिहार आदि चुनावों में जीत की बिसात बिछाई थी। पर नागपुर अधिवेशन में जैसे ही उन्हें वर्किंग कमेटी मेंबर बनाया गया। उसके बाद के सारे अनुमान फेल होते गए। अब राव अपनी गलती तो स्वीकारेंगे नहीं। सो बेजुबान मशीन पर ही हमला बोल दिया। यही हाल बीजेपी का। याद है ना, 2004 में ऐसा फील गुड था। कांग्रेस तक को यही उम्मीद थी, एनडीए ही सत्ता में लौटेगा। बीजेपी में तो तब कई सूरमा नए सिरे से मंत्रालय का विभाग भी तय कर चुके थे। पर जब 13 मई 2004 को नतीजे आए। तो वही आसमान से गिरे, खजूर पर अटके वाली कहावत हो गई। पर तब ईवीएम में खोट नजर नहीं आया। आखिर आता भी कैसे। खुद एनडीए ने देश भर में ईवीएम को हरी झंडी दी। ईवीएम का प्रयोग 1982 में केरल की परुर विधानसभा के 50 बूथों पर हुआ। फिर 1989-90 में मध्य प्रदेश, राजस्थान की पांच-पांच और दिल्ली की छह सीटों में। पर 2002 से पूरे देश में अनिवार्य। तब मौजूदा सवाल उठाने वाले सत्तानशीं थे। अब बीजेपी में 2004 वाली स्थिति 2009 में भी रही। बीजेपी को लंगड़ी लोकसभा की उम्मीद थी। खुद सबसे बड़ी पार्टी बनने का अनुमान था। यूपीए के बिखराव को मनमोहन की विदाई माने बैठी थी। बीजेपी के रणनीतिकार आंध्र, तमिलनाडु और उड़ीसा की स्थानीय राजनीति का गुणा-भाग कर बहुमत का कागजी आंकड़ा बना चुके थे। पर पूरी ताकत लगाने के बाद भी सत्ता नसीब नहीं हुई। तो लोकतंत्र में कोई भी पार्टी सीधे जनता पर दोष कैसे मढ़े। सो नया टोटका निकला। जनता ने नहीं, ईवीएम ने हराया। यानी जनता का भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की। पर लगातार हार की झेंप मिटाने के लिए लोकतंत्र को जोखिम में बता रही। पर बीजेपी भूल गई, 2004 से 2009 के बीच सिवा आपसी खींचतान के पार्टी ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो जनता का भरोसा लौट सके। अगर ईवीएम का दुरुपयोग मान भी लें। तो फिर गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब जैसे राज्यों में बीजेपी-एनडीए कैसे जीती? गुजरात में मोदी की हैट्रिक क्या मशीनी छेड़छाड़ से हुई? बिहार में तो लालू-राबड़ी राज तब खत्म हुआ, जब लालू केंद्र में पॉवरफुल थे। तब लालू ने कपार्ट के महानिदेशक सप्तर्षि की चि_ïी आगे कर चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा किया था। पर बीजेपी ने आयोग का बचाव किया। अब बीजेपी हाथ पीछे से घुमाकर वही कान पकड़ रही, जो लालू ने पकड़ा था। बेहतर तो यही होता, बीजेपी फिर जनता का भरोसा हासिल करने में जुटती। ईवीएम से नुकसान होता, तो बीजेपी आंकड़ों में इतनी मजबूत विपक्ष न होती।
---------
12/02/2010

Thursday, February 11, 2010

कार, कूटनीति, भगवान और अपनी सरकार

 संतोष कुमार
-----------
          तो पाकिस्तान बातचीत को राजी हो गया। फरवरी की 25 तारीख भी तय हो गई। सो अब एजंडा-एजंडा खेल रहे दोनों देश। पाक पीएम यूसुफ रजा गिलानी कश्मीर का राग अलाप रहे। तो अपनी सरकार ने वैलेंटाइन डे से पहले दिल बड़ा कर लिया। फिलहाल कोई शर्त नहीं रखी। अलबत्ता रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने बेलाग फरमाया- 'घुसपैठ का वार्ता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।' तो दूसरी तरफ होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा दोहरा दिया। यानी पाक पीएम गिलानी की शर्त फुस्स करने चिदंबरम ने कमान संभाली। तो दुनिया को दिखाने के लिए एंटनी ने। अब सब ठीक-ठाक रहा, तो तय तारीख को द्विपक्षीय वार्ता होगी। पर विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया। गुरुवार को लालकृष्ण आडवाणी ने वार्ता की मुखालफत की। दलील दी, एजंडे में आतंकवाद को शामिल किए बिना बातचीत बेमानी। आगरा शिखर वार्ता की नजीर पेश की। कैसे आगरा में परवेज मुशर्रफ ने जेहादियों को कश्मीर की आजादी का स्वाधीनता सेनानी बताया। अपनी सरजमीं से आतंक की सरपरस्ती से इनकार किया। तो शिखर वार्ता ऐसी टूटी, मुशर्रफ अजमेर ख्वाजा की दरगाह गए बिना ही इस्लामाबाद लौट गए। यों आडवाणी का एतराज सोलह आने सही। आखिर मुंबई का हमला अपने संसद पर हुए हमले से कम नहीं था। तेरह दिसंबर 2001 को लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर लहूलुहान हुआ। तो 26/11 को देश की शान मुंबई। आतंकवादियों ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी। तो सरकार की पाक के प्रति सख्ती लाजिमी थी। सो संसद हमले के वक्त वाजपेयी सरकार हो या मुंबई हमले के वक्त मनमोहन सरकार। बयानों का उबाल इतना था कि समूचे देश में युद्ध जैसा माहौल पैदा हो गया। हां, मनमोहन ने इतिहास से इतना सबक जरूर लिया कि सीमा पर फौजें तैनात नहीं कीं। यों एनडीए राज में तो न सिर्फ दस हजार सैनिक दस्ते सीमा पर तैनात किए गए। अलबत्ता बाकायदा अभियान को 'ऑपरेशन पराक्रम'  नाम भी दिया गया। पर यह कैसा पराक्रम, जो करीब 6,500 करोड़ खर्चे और करीब 1,800 हताहत फौजियों के साथ सात महीने बाद लौट आए। एशिया के इतिहास में ऑपरेशन पराक्रम से बड़ा कोई सैन्य अभियान नहीं। फिर भी इतिहास में यह ऐसा ऑपरेशन साबित हुआ। जिसका न मकसद मालूम पड़ा, ना ही कोई नतीजा निकला। वैसे भी सरकार का मकसद साफ हो। तो इतिहास साक्षी, 1965 का युद्ध हमने सिर्फ 22 दिन में जीता और 1971 में महज 14 दिन ही पाकिस्तानी रेंजरों को धूल चटाने के लिए काफी रहे। सो सात महीने जमावड़े का मकसद भी क्या हो सकता था। देश को भ्रम में रखा गया। सो ऑपरेशन पराक्रम में नुकसान के सिवा कुछ नहीं मिला। पर इतना जरूर हुआ, परमाणु हमले की आशंका से भारत-पाक दोनों जबर्दस्त सैन्य तैयारियों में जुट गए। अब भारत तो जिम्मेदार देश, परमाणु हमला नहीं करेगा। पर पाक का क्या भरोसा, जिसका कोई दीन-ईमान नहीं। सो ऑपरेशन पराक्रम में सरकार की लचर नीति का खुलासा बाद में पूर्व सेना प्रमुख एस. पद्मनाभन ने किया। जनरल पद्मनाभन की मानें, तो तबकी केबिनेट में ऑपरेशन पर रुख साफ नहीं था। सरकार का मकसद भी ऊहापोह भरा था। इतना ही नहीं, सैन्य बेड़ों के सीमा पर धीरे-धीरे जमावड़े से पाक को बचाव की तैयारी का मौका मिल गया और आखिरकार भारत को अपना ही ऑपरेशन बंद करना पड़ा। पर बाद में वही हुआ, जो अमेरिका ने चाहा। भारत को फिर पाक से दोस्ती का हाथ बढ़ाना पड़ा। वाजपेयी खुद इस्लामाबाद गए। यों तब भारत को इतनी सफलता जरूर मिली, छह जनवरी 2004 के साझा बयान में मुशर्रफ ने वादा किया। पाक अपनी सरजमीं का इस्तेमाल आतंक के लिए नहीं होने देगा। यों आदतन पाक ने कभी यह वायदा नहीं निभाया। पर तब कांग्रेस ने बीजेपी की टांग खिंचाई की। अब करीब-करीब वही स्थिति। तो बीजेपी कांग्रेस की टांग खींच रही। आडवाणी यूपीए सरकार के बदले रुख को बराक ओबामा का दबाव बता रहे। पर एनडीए राज में किसका दबाव था? यों तब वाजपेयी ने मौजूं दलील दी थी। कहा था- 'हम दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं।'  उन ने एक और बात कही- 'दिल मिले न मिले, हाथ तो मिलाना ही चाहिए।' वाकई अगर हम पड़ोसी से बात न करें, तो वह और बेलगाम होगा। अगर कूटनीतिक स्तर पर वार्ता के जरिए घेरें, तो पाक जैसा पड़ोसी दुनिया में बेनकाब भी होगा। आतंकवाद पर ठोस कार्रवाई करने को भी मजबूर होना पड़ेगा। अपने देश की ढुलमुल नीति ही कहेंगे कि अपना कोई भी पड़ोसी आज की सूरत में भला दोस्त नहीं दिख रहा। दुनिया के झंडाबरदार देश भी वक्त आने पर भारत विरोधी लॉबी में ही खड़े दिखते। अगर खुदा न खास्ता अपने साथ खड़ा भी होता। तो पूरी सौदेबाजी करने के बाद। सो पहले तो अपने देश की राजनीति ठीक करनी होगी। यह कैसी राजनीति, जब बीजेपी का राज हो तो कांग्रेस आलोचना करे। और कांग्रेस का राज हो तो बीजेपी। कम से कम कूटनीतिक मामलों में तो ऐसा कतई नहीं हो। पर सुधार करेगा कौन। गुरुवार को आडवाणी ने फिर कबूला, राजनेताओं की छवि खराब हो चुकी। नेताओं को उन ने कविता की कुछ पंक्तियों से बेपरदा किया। कहा- 'नए-नए मंत्री ने ड्राइवर से कहा, कार मैं खुद चलाऊंगा। ड्राइवर ने कहा, मैं उतर जाऊंगा। यह कार है, सरकार नहीं, जो भगवान भरोसे चल जाएगी।'  आडवाणी ने मनमोहन पर यह फब्ती कसी। पर कूटनीति का हिसाब-किताब करिए। तो दोनों ही सरकारें भगवान भरोसे।
----------

Wednesday, February 10, 2010

अब शुरू हुआ महंगाई पर राजनीतिक रोना-धोना

 संतोष कुमार
-----------
       महंगाई अब आम आदमी के लिए कैंसर बन चुकी। पर 'सरकारी अस्पताल' में इलाज चल रहा। यूपीए सरकार के डाक्टरों की टीम नब्ज नहीं भांप पा रही। पर वोट लिया, सो इलाज करना भी मजबूरी। यानी आपाधापी में मनमोहन की टीम के डाक्टर अनाप-शनाप दवा की परची लिख रहे। पर कैंसर बढ़ता जा रहा। अब शायद भगवान शिव पर दूध कम चढ़े। सो महाशिवरात्रि के दिन से दिल्ली में दूध महंगा हो जाएगा। यानी पवारनामा यों ही हवा में फुस्स नहीं होगा। दूध की कीमतें बढऩे की तारीखें तय हो चुकीं। तो उधर मुरली अपनी तान छेड़ चुके। सो पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस और मिट्टïी तेल की कीमतों में इजाफा महज औपचारिकता भर रह गई। राहुल गांधी ने पिछले महीने ही कहा था। महंगाई अब कुछ दिनों की मेहमान। पर यहां तो पवार-देवड़ा महंगाई की मेहमाननवाजी में जुटे। दिल्ली में कांग्रेसी सीएम शीला दीक्षित को कुछ न सूझा। तो खुद ही दुकान लगाकर बैठ गईं। अब भले कल बूथों से सामान वापस गोदामों में चला जाए। पर शीला को एक दिन रोने का मौका तो मिल गया। अब इधर सरकार की लुकाछिपी। तो उधर विपक्ष को भी महंगाई याद आ गई। यों अब तक तो बीजेपी महंगाई पर आधी नींद में ही दिखी। पर बुधवार को दिल्ली के जंतर-मंतर में प्रदर्शन हुए। तो नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के जोश का असर भी दिखा। बीजेपी के बड़ों का जमावड़ा तो हुआ ही। दिल्ली के छुटभैये नेताओं ने अपनी ताकत खूब दिखाई। सो कुल मिलाकर पहली बार बीजेपी का महंगाई पर प्रदर्शन न तो फ्लॉप रहा, न सुपर हिट। पर हिट जरूर रहा। दिल्ली बीजेपी के नेता चार्ज दिखे। पर सनद रहे, सो दिल्ली के भाजपाई नेताओं के चार्ज होने की वजह बताते जाएं। न तो अभी नितिन गडकरी की नई टीम बनी, न ही दिल्ली में संगठन के चुनाव हुए। सो पद की रेवड़ी पाने को बेताब नेताओं ने ईमानदारी से ताकत लगा दी। पर अंदर की खटपट छोड़ दें। तो बड़ी बात यही, ईमानदारी से चाहे। तो विपक्ष जिम्मेदार बन सरकार को घुटने के बल ला दे। पर राजनीति में ईमानदारी सिर्फ पल-दो पल की होती। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं। अब बीजेपी को देखिए। कभी भी 2004 की हार नहीं पची। ऊपर से 2009 की हार ने तो ऐसा बौखलाकर रख दिया। बीजेपी नेता आपस में एक-दूसरे के बाल नोंचने लगे। पर गडकरी ने मोर्चा संभाला। तो शुरुआती फील गुड दिख रहा। जंतर-मंतर पर प्रदर्शन हुआ। तो सुषमा स्वराज फिर प्याज के आंसू का दर्द छुपा न सकीं। कैसे 1998 में महंगी प्याज ने सुषमा को दिल्ली की सीएम पद से रुखसत कर दिया था। वाकई महंगाई का राजनीतिक दर्द पूछना हो। तो सुषमा स्वराज से पूछिए। पर विपक्ष की ईमानदारी देखिए। सोमवार को गडकरी ने महंगाई पर मोर्चा संभाला। महंगाई कैसे और क्यों बढ़ी, इस पर रंगीन बुकलैट जारी की। तो मराठा क्षत्रप शरद पवार के प्रति नरमी बरत गए। पर अगले दिन मीडिया में पवार से नरमी की खबरें छपीं। तो बुधवार को पवार पर खूब गरजे। बानगी आप भी देखिए- 'महंगाई एक दिवसीय मैच हो गई। शरद पवार कोच। सो चीनी अर्ध शतक मार रही, तो दालें शतक। पवार को आईपीएल की चिंता ज्यादा। सो पीएम क्रिकेट मंत्रालय बना पवार को क्रिकेट मंत्री बना दें।' अब कोई पूछे, आखिर इस नरमी-गरमी का क्या राज? सिर्फ इतना ही नहीं, गडकरी ने मनमोहन को महंगाई वाला शासक बताया। कहा- 'जब मनमोहन एफएम थे, तब भी महंगाई दहाई के आंकड़े के पार गई। अब पीएम हैं, तो भी यही हाल।' पर ज्यादा दिन नहीं हुए। पिछले साल की बात है, खुद आडवाणी ने मनमोहन को देश का बेहतरीन एफएम बता तारीफ की थी। गडकरी ने 'डाक्टर' शरद पवार से एक सवाल पूछा। अगर चीनी न खाने से आदमी नहीं मरेगा। तो क्या पैसा न खाने से मंत्री मर जाएंगे? अब जो भी हो, पर गडकरी ने बता दिया, सत्ता में आने के बाद मंत्री ईमानदार नहीं होते। सो गडकरी ने अब एलान-ए-जंग कर दिया। इंदौर मीटिंग के बाद 25 लाख वर्कर दिल्ली ला संसद का घेराव करने और सरकार को अंजाम तक पहुंचाने की चेतावनी दी। पर अपना छोटा सा सवाल। ऐसी आक्रामक भूमिका बीजेपी ने पहले क्यों नहीं ली? महंगाई दो-एक दिन में नहीं बढ़ी। मनमोहन जब पहली बार पीएम बने। छह महीने बाद बीजेपी में आडवाणी अध्यक्ष बने। तो 24-26 नवंबर 2004 की रांची वर्किंग कमेटी में भाषण दिया। महंगाई पर पहली दिसंबर 2004 को संसद घेराव का एलान किया। बड़ा आंदोलन भी हुआ। पर महंगाई नहीं रुकी। सो तबसे लेकर आज तक, बीजेपी इन छह साल में क्या कर रही थी? अब बुधवार का ही किस्सा लो। इधर जंतर-मंतर पर विपक्ष सफल प्रदर्शन कर रहा था। पर सरकार की नजर में विपक्ष की हैसियत देखिए, पीएम के घर कांग्रेस की कोर कमेटी पेट्रोल-डीजल महंगा करने का फैसला कर रही थी। वैसे भी एक तरफ अंजाम की बात। तो दूसरी तरफ सादगी के बहाने इंदौर में सांप-बिच्छू डिपार्टमेंट भी खोल दिया। ताकि टेंट में किसी नेता को नुकसान न हो। पर बीजेपी बुरा न माने। समूची राजनीति के लिए एक कव्वाली के बोल याद आ गए। बोल हैं- 'एक रात सांप ने नेता को डसा। नेता तो मजे में रहा, सांप चल बसा।' पर यह तो कव्वाली है। असल बात यह, भले देर सही, राजनीतिक दल दुरुस्त आए। आम आदमी के बाद महंगाई पर राजनीतिक रोना-धोना भी शुरू हो गया।
----------
10/02/2010

Tuesday, February 9, 2010

संघ भरोसे बीजेपी बनेगी देश की 'भाग्य विधाता'!

 संतोष कुमार
-----------
         बीजेपी में हल्दी की रस्म पूरी हो गई। नितिन गडकरी अब मनोनीत नहीं, निर्वाचित अध्यक्ष हो गए। तेरह राज्यों और संसदीय दल को मिलाकर कुल 19 सैट में परचा दाखिल हुआ। बस तीन घंटे में परचा दाखिल से लेकर जांच और चुनाव तमाम हो गया। पहली दफा बीजेपी में चुने हुए अध्यक्ष को सर्टिफिकेट भी मिला। अब बाराती अगले हफ्ते इंदौर पहुंचेंगे। तो बाकायदा अनुमोदन भी होगा। पर इंदौर और बीजेपी का संयोग देखिए। सात साल पहले अप्रैल 2003 में यहीं वर्किंग कमेटी हुई। तब भी बीजेपी के खेवनहार युवा नेता ही थे। वेंकैया नायडू अध्यक्ष थे। फर्क सिर्फ इतना, तब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। केंद्र में वाजपेयी नीत एनडीए सरकार। अबके मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार, पर केंद्र में कांग्रेस नीत सरकार। तब बीजेपी सत्ता के नशे में चूर थी। सो पूरी वर्किंग कमेटी अपनी पीठ ठोकने में ही लगी रही। वेंकैया नायडू के तबके अध्यक्षीय भाषण में संगठन पर कम, कांग्रेस को ज्यादा निशाने पर लिया। वर्करों को सिर्फ तीन अगस्त 2002 के दिल्ली संकल्प की याद दिलाई। फिर नवंबर 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की जीत ने तो बीजेपी को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। फील गुड की ऐसी बयार चली, छह महीने पहले ही लोकसभा भंग करा समर में कूद पड़े। कांग्रेस को सौ से नीचे समेटने और बीजेपी अपने बूते तीन सौ सीट लाने का दंभ भरती दिखी। वेंकैया नायडू ने फील गुड में यहां तक कह दिया- 'तीन सौ सीट लाकर बीजेपी सरकार बनाएगी। पर एनडीए के सहयोगियों को भी साथ में रखेगी।'  ऐसा लगा, जैसे बीजेपी सहयोगियों पर अहसान करेगी। पर नतीजे क्या हुए, दोहराने से क्या फायदा। फिर महाराष्टï्र चुनाव की हार। वेंकैया का पत्नी की बीमारी के बहाने इस्तीफा। सन्यास का एलान और फिर आडवाणी का खेवनहार बनना। सच तो यह, वेंकैया वाजपेयी-आडवाणी का वरदहस्त पाकर भी जेतली-प्रमोद के आगे बौने ही दिखे। जेतली-प्रमोद ने हमउम्र वेंकैया को भाव नहीं दिया। उमा भारती तो तू-तड़ाक भी कर चुकीं। सो वेंकैया ने जब इस्तीफा दिया, तो संक्रमण काल में आडवाणी से ही खिवैया बनने की गुहार लगाई। आडवाणी को भी लगा, सब संभाल लेंगे। पर जिन्ना एपीसोड ने गुड़-गोबर कर दिया। फिर संघ की पसंद राजनाथ सिंह अध्यक्ष हुए। पर इन चार सालों में भी बीजेपी का खटराग जारी रहा। लोकसभा चुनाव की लगातार दूसरी हार ने तो मानो बीजेपी को हिला दिया। नेता सार्वजनिक बयानबाजी पर उतर आए। किसी ने काम और पुरस्कार में समानता की आवाज उठाई। तो किसी ने संघ से बीजेपी को टेक ओवर करने की गुहार। संघ में भी बदलाव हो चुका था। मोहन भागवत ने कमान संभाल ली। तो पहला एजंडा बीजेपी ही बनी। आखिरकार संघ ने अपनी पसंद गडकरी को अध्यक्ष बनवा ही लिया। यानी बीजेपी का रिमोट अब सीधे संघ के हाथ। अटल-आडवाणी युग में संघ की भूमिका तो थी। पर वीटो हमेशा इन दोनों दिग्गजों का हाथ ही रहा। अब बीजेपी नए युग में प्रवेश कर चुकी। तो अटल-आडवाणी जैसा कोई दिग्गज नहीं। सो दूसरी पीढ़ी के सूरमा संघ को रिमोट सौंप आए। अब सूरमाओं में जंग हुई। तो वीटो संघ के पास। सो सूरमाओं में सबसे जूनियर नितिन गडकरी फिलहाल वीटो पॉवर से लैस। अब गडकरी वाकई बीजेपी को कुछ नया देंगे या फिर संघ का बौद्धिक पिलाएंगे। यह तो इंदौर में ही मालूम पड़ेगा। यों बीजेपी में हार के बाद जब-जब बदलाव हुए। बैक टू बेसिक की परंपरा दिखी। चुनाव से पहले एजंडा अलग होता। नतीजे सही नहीं रहे। तो संघ को खुश करने के लिए वर्किंग कमेटी में हिंदुत्व से सराबोर भाषण। पर शायद गडकरी अबके कुछ संभलकर बोलेंगे। ताकि बिहार चुनाव में दांव उल्टा न पड़े। सो गडकरी ने औपचारिक अध्यक्ष चुने जाने पर रुख में थोड़ा बदलाव किया। अब तक राजनीति को सामाजिक-आर्थिक जाल में उलझाते रहे। पर मंगलवार को आने वाले वक्त में चुनावी जीत की बात की। बोले- 'चुनावी जीत का दौर आएगा। पार्टी को देश के भाग्य विधाता के तौर पर उभारूंगा।'  यों गडकरी हों या आडवाणी-राजनाथ। पुराने भाषणों को पलट कर देखिए। तो बीजेपी हमेशा जो कहती रही, उसका लब्बोलुवाब यही- 'नियति ने बीजेपी के हाथों देश का उद्धार लिखा है।' अब गडकरी भाग्य विधाता बनाने की बात कर रहे। पर इतिहास पलटकर देखिए। जब बीजेपी सत्ता में आई, तो महज छह साल में बीजेपी के नेता 'विधाता'  बन बैठे। और पार्टी को सींचने वाले वर्कर 'भाग्य' भरोसे रह गए। अब कोई पूछे, शिवसेना और शरद पवार पर नरम रहने वाले गडकरी देश का क्या भाग्य लिखेंगे? गडकरी अध्यक्ष चुने गए। पर बीजेपी हैड क्वार्टर में बामुश्किल डेढ़-एक सौ वर्कर ही नजर आए। यों पंजाब का भंगड़ा, चेन्नई से शहनाई, उत्तराखंड से पांडव नृत्य, तो हरियाणा से नगाड़े आए। पटाखे तो बीजेपी के स्टॉक में पहले से ही पड़े। यानी अबके परिस्थितियां बदल चुकीं। गडकरी के सामने चुनौतियों का अंबार। सो अब संघ के साधक गडकरी बीजेपी को कैसे भाग्य विधाता बनाएंगे, यह वक्त बताएगा। फिलहाल तो बीजेपी इंदौर में बारात सजने की तैयारी कर रही।
---------
09/02/2010

Monday, February 8, 2010

'इंडिया' तो जीता, पर 'हिंदुस्तान' हार गया

 संतोष कुमार
-----------
छज बोले, सो बोले। छलनी भी बोलती, जिसमें हजारों छेद। चीन तो आंखें दिखा ही रहा था। अब पाक भी हेकड़ी दिखा रहा। भारत ने बातचीत की पेशकश क्या रख दी। अपने मुंह मियां मि_ïू होने लगे। मुंबई हमले के बाद भारत कूटनीतिक दबाव बनाने में सफल रहा। पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ऐसे दबे, कभी सूरत न दिखी। कभी-कभार रहमान मलिक भारत के दिए डोजियर पर चूं-चपड़ करते दिखे। अब महमूद कुरैशी वैसे ही उछल रहे। जैसे हलाल होने वाले बकरे को वापस बाड़े में डाल दिया हो। भारत ने सवा साल बाद पाक को सांस लेने का मौका दिया। तो पाक हुक्मरानों की पसली चलने लगी। महमूद कुरैशी इतवार को मुल्तान में सुल्तान बनने की कोशिश करते दिखे। आवाम के सामने चीखकर बोले- 'भारत हार गया। भारत ने पहले कहा था, मुंबई हमले के आरोपियों को सजा मिलने तक हमसे से बातचीत नहीं करेगा। अब तैयार हो गया। यह सब पाक की ताकत से संभव हुआ। हमने कभी अपना स्टैंड नहीं बदला, चाहे कश्मीर हो या मुंबई। इसी वजह से हमारी जीत हुई।'  एक चुटकुला बहुत पुराना। पर पाक के लिए मौजूं। एक व्यक्ति पत्नी और बच्चों के साथ स्कूटर पर जा रहा था। रास्ते में किसी से झड़प हो गई। तो सामने वाले व्यक्ति ने थप्पड़ जड़ दिया। अब वह व्यक्ति पत्नी-बच्चों के सामने पिटा। सो तिलमिला गया। फिर चुनौती दी- 'मुझे मारा, कोई बात नहीं। मेरी बीवी को मारकर दिखाओ, फिर बताता हूं।'  उस व्यक्ति ने उसकी बीवी को भी थप्पड़ मार दिया। फिर उसने यही फार्मूला अपने बच्चे के लिए कहा। और तीनों थप्पड़ खाकर चल दिए। घर जाकर बीवी ने पूछा- 'आपने तीनों को क्यों थप्पड़ मरवाया?'  व्यक्ति ने जवाब दिया- 'ताकि घर जाकर तुम मां-बेटे मेरा मजाक न उड़ा सको, मैं पिटकर आ गया।'  पाकिस्तान भारत से एकाध बार पिटा हो। तो कोई बात समझ में आए। चार बार ऐसा पिट चुका। पाक में घुसकर अपनी फौज ने जीवन-दान दिया। जनरल नियाजी का पूरी फौज के साथ आत्म-समर्पण शायद पाक भूल चुका। सो कुरैशी सिर चढ़कर बोल रहे। पर अपने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मि रथी' में बहुत खूब लिखा- '... क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसे क्या, जो दंतहीन, विषहीन, विनीत-सरल हो।...' सो भारत ने खुद की ओर से पहल की। ताकि दुनिया को बता सके, भारत शांति चाहता। पर पाक की बचकानी कूटनीति देख लो। पिटा हुआ मोहरा अपने दड़बे में चीखकर शेर बनने की सोच रहा। कुरैशी भारत को हारा हुआ बता रहे। सो पाकिस्तान की नीयत फिर साफ हो गई। पाक ने कभी आरोपियों पर कार्रवाई नहीं की। चाहे संसद पर हमले का मामला हो, या 26/11 के मुंबई हमले का। हर बार पाक ने सबूत मांगे। फिर उन सबूतों में नुक्स निकाल दोषियों को कोर्ट से बरी करवा दिया। पाक की अदालतें भी स्वतंत्र नहीं। वैसे भी जब लोकतंत्र ही नहीं, तो फिर कोर्ट का क्या भरोसा। पाक अपने साठ साल में करीब पचास साल तो तानाशाही दौर से ही गुजरा। सैनिक हुक्मरानों ने समूची व्यवस्था को एक डंडे से हांका। परवेज मुशर्रफ के वक्त चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी समेत कई जजों की बर्खास्तगी ही तानाशाही शासन के ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। पर राजनीति ने ऐसी करवट ली। कभी टेन परसेंट दलाल के नाम से मशहूर, जेल की सजा भुगत चुके आसिफ अली जरदारी पाक के राष्ट्रपति हो गए। सो पहले तो पाक अपना इतिहास ठीक करे। फिर कश्मीर के भूगोल की बात। यों भले पाक के विदेश मंत्री दिल बहलाने को शेखी बघार रहे। बातचीत की पेशकश को भारत की हार बता रहे। पर कश्मीर और मुंबई के बारे में कुरैशी ने जो कहा। आखिर उस पर मनमोहन सरकार की चुप्पी क्यों? कम से कम भारत को एतराज तो जताना चाहिए था। अगर वाकई पाक का स्टैंड नहीं बदला। तो हम बातचीत करने को बेताब क्यों? अपनी सरकारें भी ऐसा क्यों करतीं, जैसा कुरैशी कर रहे। अवाम का दिल जीतने के लिए एनडीए सरकार ने संसद पर हमले के बाद ऑपरेशन पराक्रम किया। सीमा पर फौजों का जमावड़ा बढ़ाया। फिर लौटकर बातचीत की मेज पर आ गए। वही मनमोहन सरकार भी कर रही। मुंबई हमले के बाद शुरुआती छह महीने ऐसे बयान दिए। मानो अब-तब युद्ध हुआ। पर अमेरिकी दबाव में पाक को न्योता देकर वहां के हुक्मरानों को भारत ने हीरो बना दिया। आखिर कब तक चूहे-बिल्ली का यह खेल चलता रहेगा? पाक की नीयत को समझने के लिए सरकार को कितना वक्त चाहिए? अब देश की विडंबना नहीं, तो क्या कहें। बीजेपी भी मनमोहन सरकार पर घुटने टेकने का आरोप लगा रही। तो उधर पाकिस्तान भी भारत को घुटने टेकने को मजबूर बता रहा। वाकई पाक ने दिखावे को भी ऐसा कुछ नहीं किया। जो मनमोहन सरकार बातचीत को उतावली हो। पर न्योता दिया जा चुका। भले अमेरिकी दबाव में ही। पाक भी अमेरिकी शह पा अपनी पीठ ठोक रहा। तो कांग्रेस भी क्या करे। सो सोमवार को कांग्रेस ने बातचीत की पेशकश को जायज ठहराया। अब तक पाक की कार्रवाई से कांग्रेस संतुष्टï। सो जब सत्ताधारी दल संतुष्टï हो। तो बाकी अवाम की फिक्र क्यों? सो कुरैशी की बदजुबानी दरकिनार कर दें। तो मुंबई-कश्मीर जैसे मुद्दे पर स्टैंड देख यही लग रहा। अमेरिकी दबाव में 'इंडिया'  तो जीत गया। पर 'हिंदुस्तान'  हार गया। अमेरिका तो इंडिया की आवाज बना। सो जनता का हिंदुस्तान क्या कर पाता?
--------
08/02/2010

Friday, February 5, 2010

घरेलू ही नहीं, कूटनीति में भी फिसड्डी सरकार

 संतोष कुमार
-----------
          इंतिहा हो गई इंतजार की। पर अपने पीएम अभी भी यही कह रहे, थोड़ा और इंतजार करिए। कांग्रेस की वर्किंग कमेटी महंगाई पर सीएम मीटिंग से ठीक पहले हुई। तो मनमोहन ने कुछ हफ्तों में सरकारी कदम के असर की सफाई दी। शरद पवार ने दस दिन में महंगाई कम होने का दावा किया था। अपने पीएम पिछले साल अगस्त की वर्किंग कमेटी में भी कुछ ऐसी ही दलील दे चुके। पर महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ा। अलबत्ता महंगाई 'पुराण'  बन गई। मौके-बेमौके नेतागण बांच रहे। अब शनिवार को सीएम मीटिंग में बेपर्दा हों। कांग्रेस ने शुक्रवार को ही वर्किंग कमेटी कर अपनी गंभीरता का ढोंग रचाया। अब आशंकाएं तो यहां तक जताई जा रहीं। यूपीए के अर्थशास्त्रीगण कृषि में विदेशी निवेश यानी एफडीआई का रास्ता खोलने की जुगत में। सो महंगाई को जानबूझकर बेलगाम होने दिया गया। ताकि मांग-आपूर्ति, भंडारण और लचर सिस्टम पर सवाल उठे। फिर बेहतर कोल्ड स्टोरेज, मांग-आपूर्ति में संतुलन और डिस्ट्रीब्यूशन की पूरी शृंखला को दुरुस्त करने के बहाने एफडीआई की पैरवी हो। इसलिए दलील दी जा रही, कृषि क्षेत्र का उचित प्रबंधन न होने से 40 फीसदी अनाज बेकार हो रहा। कहीं ट्रांसपोर्टेशन की दिक्कत। तो कहीं स्टोरेज की। सो बेहतरी के नाम पर निवेश फार्मूला सोच रही सरकार। अब सचमुच ऐसा हुआ। तो सोचिए, कांग्रेस का 'हाथ'  किसके साथ? पर शुक्रवार को कांग्रेस ने सिर्फ महंगाई पर ढोंग नहीं किया। सुरक्षा अमले से घिरे राहुल गांधी ने मुंबई जाकर शिवसेना को चुनौती दी। एटीएम से पैसे निकाले। लोकल ट्रेन का टिकट लाइन में लग खरीदा। फिर चाक-चौबंद सुरक्षा के बीच 'आम मुसाफिरों'  की माफिक सफर किया। अब महाराष्टï्र का गृह राज्यमंत्री जूता उठाने को बैठा हो। तो ऐसी यात्रा कोई भी कर ले। राहुल की सुरक्षा में समूची सरकार और प्रशासन सड़कों पर उतरा था। सीएम अशोक चव्हाण राहुल की अगवानी में इतने तन, मन, धन से लगे रहे। सीडब्ल्यूसी की बैठक में आना भी मुनासिब न समझा। यों राहत की बात, शिवसेनिक दड़बे में ही बांध दिए गए। राहुल सकुशल मुंबई का दौरा पूरा कर पुडिचेरी चले गए। पर अपना एक छोटा सा सवाल विलासराव देशमुख, अशोक चव्हाण, आरआर पाटिल और बड़े नेता सोनिया-मनमोहन से। जब 2008 में राज ठाकरे मुंबई की सड़कों पर तांडव कर रहे थे। क्या तब महाराष्टï्र में कोई सीएम था या नहीं? पुलिस थी या नहीं? क्या सिर्फ सरकार और पुलिस सिर्फ वीआईपी के लिए होती? अगर नहीं, तो ऐसा सुरक्षा बंदोबस्त तब उत्तर भारतीयों के लिए क्यों नहीं किया गया? माना, शिवसेना को उसके गढ़ में चुनौती देकर राहुल ने माकूल जवाब दिया। पर क्या इस दौरे से शिवसेना-राज ठाकरे की ओछी सियासत बंद हो जाएगी? आखिर इस दौरे का क्या संदेश गया? यही ना, अगर शासन और प्रशासन ईमानदारी दिखाए। तो मुंबई में उत्तर भारतीय बेखौफ रह सकते हैं। अगर कांग्रेस वाकई ईमानदार। तो चचा-भतीजा ठाकरे पर कड़ी कार्रवाई का साहस दिखाए। वरना राहुल का दौरा भी महंगाई जैसा ही महज ढोंग माना जाएगा। पर शिवसेना कहां मुंह बंद रखने वाली। राहुल ने एटीएम से पैसा निकाला। तो उद्धव ठाकरे बोले- 'दिल्ली के नेता मुंबई को एटीएम यानी ऑल टाइम मनी समझते। यही मानसिकता हमें बदलनी है।' अब उद्धव ने छोटी बात से अपने वोटरों को बड़ा संदेश दे दिया। यानी अनजाने में ही सही, शिवसेना को छोटी बात से बड़ा फायदा मिल गया। सो जरूरत जुबानी जंग की नहीं। अलबत्ता कुछ करने की है, ताकि चचा-भतीजा ठाकरे पर नकेल कसी जा सके। पर अपनी सरकार जैसे घरेलू मोर्चे पर असहाय दिख रही। अब कूटनीतिक मोर्चे पर भी नाकामी का सेहरा बंध गया। कहां 26/11 के हमले के बाद भारत ने पाक को दुनिया के कटघरे में खड़ा किया। मनमोहन ने दो-टूक कह दिया। जब तक पाक दोषियों पर कार्रवाई नहीं, बातचीत नहीं। पर जुलाई 2009 में ही शर्म अल शेख जाकर पाक पीएम गिलानी संग साझा बयान कर आए। अमेरिकी दबाव में पहली बार बलूचिस्तान साझा बयान में आ गया। पर देश में बवाल मचा। बीजेपी ने सरकार को बेपर्दा किया। तो कांग्रेस घबरा गई। घबराहट में तबके विदेश सचिव और मौजूदा एनएसए ने ड्राफ्टिंग एरर कहा। तो विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने साझा बयान को बंदिश नहीं माना। पर चूक तो थी, सो संसद के दोनों सदनों में मनमोहन को सफाई देनी पड़ी। फिर वही वायदा, जब तक पाक 26/11 के दोषियों पर कार्रवाई नहीं करता। सार्थक बातचीत नहीं होगी। पर ओबामा के दबाव में अब खुद भारत ने आगे बढ़ पाक के सामने बातचीत की पेशकश कर दी। इसी महीने की दो तारीखें भी सुझाईं। तो जैसे गिलानी ने शर्म अल शेख को अपनी जीत बताया था। अब भारत की पेशकश को दुनिया का दबाव बता रहे। भारत से बातचीत का विषय और एजंडा पहले साफ करने की शर्त रख दी। इसे कहते हैं, चोरी और सीनाजोरी। याद है, 22 जनवरी को ही गिलानी ने क्या कहा था। पाक 26/11 नहीं दोहराने की गारंटी नहीं दे सकता। अब पाक पीएम ऐसा बयान दे। फिर भी भारत अपनी ओर से बातचीत की पेशकश करे। तो क्या कहेंगे आप। विपक्ष को तो मनमोहन की नीयत पर संदेह। अब बजट सत्र में बीजेपी पीएम से नया वादा मांगेगी। अरुण जेतली बोले- 'संसद में हमें पीएम से स्पष्टï वायदा चाहिए कि कश्मीर पर 1994 के प्रस्ताव से नहीं हटेंगे। और ना ही सीमा के बारे में भारत की पुरानी स्थिति को छोड़ेंगे।'
---------

Thursday, February 4, 2010

बटला पर कितनी बार 'टकला' होगी कांग्रेस?

 संतोष कुमार
-----------
         बटला हाउस की सियासी गूंज फिर सड़कों पर। अब कोई पूछे, चचा-भतीजा ठाकरे क्या कम थे। जो कांग्रेस के दिग्गी राजा ने बटला राग अलाप दिया। अभी भाषाई सियासत की आग बुझी भी नहीं। मजहबी सियासत को हवा मिल गई। बटला हाउस मुठभेड़ के वक्त फरार शहजाद पुलिस के शिकंजे में आया। तो दिग्विजय सिंह आजमगढ़ पहुंच गए। मुठभेड़ में मारे गए आतंकी सैफ के घर सहानुभूति जता आए। मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग फिर कर दी। सो विपक्ष को हमला करने का मौका मिल गया। शिवसेना की वजह से बीजेपी बचाव की मुद्रा में थी। पर दिग्गी राजा के शिगूफे ने मुद्दा थमा दिया। सो रविशंकर प्रसाद ने दिग्गी राजा को फौरन बीमार राजनीतिक मानसिकता का शिकार बता दिया। मुठभेड़ पर अब तक हुई सियासत का कच्चा चि_ïा भी खोला। कांग्रेस से पूछा, एक तरफ ऑपरेशन बटला हाउस में शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को अशोक चक्र। तो दूसरी तरफ बार-बार जांच की मांग और आतंकियों के घर जाना किस बात का परिचायक। बीजेपी ने कांग्रेस से एक और सवाल पूछा। आतंकियों के परिवार से सहानुभूति। तो आतंक के शिकार लोगों की फिक्र क्यों नहीं। क्या कभी कोई कांग्रेसी आतंक के शिकार लोगों के घर गया? यों सवाल सोलह आने सही। पर राजनेताओं से कैसी उम्मीद। यूपीए-वन में सरकार आतंकवादियों के आश्रितों की खातिर विशेष पैकेज लाने की सोच रही थी। मानवाधिकार के नाम पर ऐसी पहल हुई। ताकि आतंकियों के बेसहारा परिवार को पेंशन मिल सके। पर विवाद की संभावना से सरकार पीछे हट गई। अब बटला हाउस मुठभेड़ का सियासतनामा देखो। तो दिल्ली बम धमाकों की जांच करते हुए पुलिस को बटला हाउस की भनक मिली। जहां कुछ आतंकी अगली साजिश रच रहे थे। सो 18 सितंबर 2008 को पुलिस ने धावा बोला। दो आतंकी मौके पर मार गिराए गए। बाकी दो-तीन फरार हो गए। ऑपरेशन में दिल्ली पुलिस के जांबाज आफीसर मोहन चंद शर्मा शहीद हो गए। पर शर्मा की चिता की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी। सियासत करने वाले बटला हाउस पहुंच गए। तब अमर-मुलायम कांग्रेस के करीब थे। सो अमर ने हल्ला बोला। एक तरफ अमर सिंह ने मोहन चंद शर्मा के परिवार को प्रोत्साहन के तौर पर चैक भी दिया। दूसरी तरफ मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग की। सो खफा परिजनों ने अमर का चैक लौटा दिया। पर बात यहीं खत्म नहीं हुई। तब भी दिग्विजय सिंह ने न्यायिक जांच की मांग का मोर्चा खोला। मामला सोनिया से लेकर पीएम मनमोहन के दरबार तक पहुंचा। कांग्रेस के अल्पसंख्यक मोर्चा के चीफ इमरान किदवई पूरे दल-बल के साथ पीएम से मिले। पर पीएम ने बैरंग लौटा बटला हाउस मुठभेड़ की जांच की मांग खारिज कर दी। आखिर मनमोहन के पास कोई चारा नहीं था। सितंबर में इस्पेक्टर शर्मा शहीद हुए। जनवरी 2009 में अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। वैसे भी दिल्ली पुलिस कोई शीला सरकार के मातहत नहीं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के ही अधीन। सो न्यायिक जांच होती, तो भी कटघरे में कांग्रेस ही खड़ी होती। अब दिग्गी राजा ने फिर सुर्रा छोड़ा। तो सपा से आउट अमर सिंह कहां चुप रहने वाले। उन ने एक नया सुर्रा छोड़ दिया। कह रहे, सोनिया जांच को तैयार थीं। मनमोहन राजी नहीं हुए। अब अमर के सुर्रे का मतलब आप समझ लें। अमर अपने लिए कोई ठौर ढूंढ रहे। सो कभी सोनिया के मुरीद, तो कभी मायावती के। पर बात सिर्फ दिग्गी राजा की। सो गुरुवार को जब चौतरफा घिर गए। खुद कांग्रेस ने दिग्गी से किनारा कर लिया। तो दिग्गी भी पलटी मार गए। अब कह रहे, मुठभेड़ को फर्जी नहीं कहा। सिर्फ पूछा- 'मारे गए लड़के के सिर पर गोली कैसे?' पर दिग्गी राजा किससे पूछ रहे? केंद्र में कांग्रेस की सरकार। दिल्ली में भी कांग्रेस की सरकार। दिग्गी कोई ऐरे-गैरे छुटभैये नेता भी नहीं। कांग्रेस के जनरल सैक्रेट्री। वह भी यूपी जैसे बड़े सूबे के इंचार्ज। तो क्या डेढ़ेक साल में भी अपनी सरकार से जवाब नहीं ले पाए। पर दिग्गी राजा की यह कैसी पलटी। मानवाधिकार आयोग ने जांच में मुठभेड़ को सही पाया। हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट ने अलग जांच की याचिका ठुकरा दी। पर दिग्गी कह रहे, मानवाधिकार आयोग कोई जांच एजेंसी नहीं। यों दिग्गी का समुदाय विशेष के प्रति प्रेम का दिखावा जगजाहिर। हिंदू आतंकवाद शब्द दिग्गी राजा की ही देन। फिर भी आजमगढ़ में घुसने पर उलेमा काउंसिल का विरोध था। सो बटला हाउस सियासत का पारा चढ़ा दिया। अब कांग्रेस से कोई क्या उम्मीद करे। कभी तुष्टिïकरण के नाम पर मजहब की सियासत। तो महाराष्टï्र में मराठी की सियासत में भी कांग्रेस कम जिम्मेदार नहीं। चचा और भतीजे के बीच आगे बढऩे की होड़। अब भतीजा राज अलग महाराष्टï्र देश की धमकी दे रहा। शिवसेना ने इटालियन मम्मी कह राहुल गांधी पर हमला बोला। तो राज ठाकरे ने राहुल को रोम पुत्र कहा। राहुल शुक्रवार को मुंबई जाएंगे। तो शिवसेनिक काला झंडा दिखाने की तैयारी में। पर कांग्रेस की सरकार अभी भी सिर्फ गीदड़-भभकी दे रही। सो दो साल पहले राज ठाकरे ने गुंडई की। तो भी कांग्रेस सवालों के घेरे में थी। अब भी जुबान चलाने के सिवा कुछ नहीं कर रही। वही पुराना राग, एडवोकेट जनरल से राय-कानूनी सलाह-मशविरा आदि-आदि। सो भाषाई सियासत हो या बटला कांड, कांग्रेस हर बार टकला यानी बेनकाब हुई।
----------
04/02/2010

Wednesday, February 3, 2010

तो बवाल के बीच जेब में उबाल की तैयारी

 संतोष कुमार
-----------
       आखिर भाषाई हुड़दंग भाषा की लक्ष्मण रेखा लांघ ही गया। नेता गाली-गलौज पर उतर आए। बीजेपी के विनय कटियार ने बाल ठाकरे से पूछा। क्या मुंबई आपके बाप की। पर बीजेपी कटियार से इत्तिफाक नहीं रख रही। सो शिवसेना अभी बीजेपी पर संयत। पर राहुल गांधी ने चचा-भतीजे ठाकरे को चुनौती दी। तो मुंहफट ठाकरे की भाषा संयत नहीं रही। सो मुखपत्र 'सामना'  में बूढ़े शेर की गर्जना हुई। राहुल ने महाराष्टï्र सबका बताया। तो ठाकरे ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर हमला बोल कांग्रेसियों को फिर चिढ़ाया। लिखा- 'महाराष्टï्र भारतीयों का तो हो सकता। पर इटालियन मम्मी का कैसे हो सकता। जो महाराष्टï्र के रास्ते में अड़ता है। महाराष्टï्र उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर देता है। मुंबई को धर्मशाला नहीं बनाओ। वरना अंजाम बुरा होगा।'  पर सबको पता, विदेशी मूल का मुद्दा टांय-टांय फिस्स हो चुका। सो कांग्रेसियों ने ठाकरे की टिप्पणियों को भाव नहीं दिया। वैसे भी चुनाव से पहले राहुल मराठी विवाद से बिहार में पैर जमा रहे। सो कांग्रेस रफ्ता-रफ्ता कार्ड आजमा रही। ठाकरे जितनी कठोर भाषा राहुल के लिए इस्तेमाल करेंगे। कांग्रेस को उतना ही फायदा। हवा का यह रुख कांग्रेस कई बार देख चुकी। नरेंद्र मोदी से लेकर प्रमोद महाजन तक। सोनिया गांधी के खिलाफ शब्दों के खूब तीर चलाए। हताशा में भाषा की मर्यादा इस कदर लांघी गई। खुद बीजेपी के पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी को मर्यादा का पाठ पढ़ाना पड़ा। पर यहां तो शिवसेना के पुरोधा ही मर्यादा की आहुति दे रहे। राहुल गांधी के बयान से इस कदर बौखलाई। बाल ठाकरे ने अपने मुखपत्र में बयानबाजी की हदें पार कर दीं। मुद्दे से परे हट राहुल को जो कहा। आप भी देख लें- 'राहुल गांधी के सिर पर सींग निकल आए हैं। इसलिए अनाप-शनाप बयान दे रहे हैं। राहुल की उम्र ज्यादा हो गई। फिर भी शादी नहीं हुई। सो राहुल का मानसिक संतुलन बिगड़ गया।'  क्या जिनकी शादी नहीं होती, उनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता? शायद शिवसेना भूल गई, पूर्व राष्टï्रपति कलाम ने शादी नहीं की। पर बड़े वैज्ञानिक और भारत रत्न बने। अपने वाजपेयी भी कुंवारे। पर देश के पीएम बने। सो शिवसेना के बयान का क्या मतलब। कहीं ऐसा तो नहीं, बाल ठाकरे ने नाम तो राहुल का लिया। निशाना संघ प्रमुख मोहन भागवत हों। संघ के सभी पूर्ण कालिक प्रचारक कुंवारे ही तो होते। आखिर उत्तर भारतीयों की रक्षा का बीड़ा उठा मोहन भागवत ने ही शिवसेना की दुखती रग पर हाथ रखा था। पर ठाकरे ने संघ को संयत भाषा में जवाब दिया। बाकी शाहरुख खान हों या राहुल गांधी। शिवसेना ने हर बयान पर पलटवार किया। अगर किसी पर पलटवार नहीं हुआ, तो वह सिर्फ नितिन गडकरी का बयान। संघ ने मोर्चा खोला। तो नितिन गडकरी ने संविधान की दुहाई देकर एक पन्ने का बयान पढ़ दिया। नाम शिवसेना का नहीं लिया। सो शायद शिवसेना ने लिहाज रखा। तभी तो मराठी विवाद पर बयानों के जहर बुझे तीर हवा में टकरा रहे। पर बीजेपी दो दिन पुराने बयान से इतर एक शब्द कहने को राजी नहीं। कांग्रेस और राहुल की आलोचना करने में बीजेपी देर नहीं कर रही। पर ज्यों ही सवाल शिवसेना का आता। गाड़ी घूमकर गडकरी के बयान पर पहुंच जाती। अब एक और बात सामने आ रही। आडवाणी ने खुद बाल ठाकरे से फोन पर बात की। अब बीजेपी के बयान पर शिवसेना पलटवार नहीं कर रही। तो क्या यह सांठगांठ का सबूत नहीं? राज ठाकरे का बढ़ता दायरा और शिवसेना का सिमटता कुनबा बीजेपी के लिए भी चिंता की बात। सो घालमेल कर दोनों खेल रहे। मराठी कार्ड से शिवसेना को हीरो बनाने की कोशिश। ताकि राज ठाकरे का मक्कू कसा जा सके। यानी महाराष्टï्र में शिवसेना को मराठी पिच। तो इसी बहाने बीजेपी अनुच्छेद 370 को उछाल हिंदुत्व कार्ड खेलने की तैयारी में। ऐसा हुआ, तो कांग्रेस भी घिरेगी। सो अब लड़ाई शिवसेना बनाम कांग्रेस करा बीजेपी मौज ले रही। बीजेपी के एक मराठी नेता तो खुद बता रहे थे। ताजा विवाद तो 15 दिन में थम जाएगा। पर तीन-चार महीने में इस तरह के तीन-चार और राउंड होंगे। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। अब करुणानिधि भी शिवसेना-मनसे पर लगाम की बात कर रहे। खुद भी हिंदी विरोधी न होने की सफाई दे रहे। पर इतिहास करुणा की निधि देख चुका। सो लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार का विचार उम्दा लगा। ठाकरे जैसे लोगों को तवज्जो मत दो। विवाद खुद-ब-खुद ठंडा पड़ जाएगा। यानी अपना मीडिया भी जिम्मेदार हो। पर जब तक नेता ईमानदार न हो, कुछ नहीं होने वाला। अभी भी शिवसेना शाहरुख खान को धमकी दे रही। तो बीजेपी सुर में सुर मिला रही। खेल को राजनीति से अलग रखने की दलील भी, साथ में शाहरुख को नसीहत भी। पर यह क्या बात हुई, खेल संघों में राजनीति तो घुन की तरह घुसी हुई। सो इधर देश भाषाई विवाद में उलझा। रोजाना बयानों से बवाल मच रहे। तो दूसरी तरफ सरकार 'हाथ'  की सफाई दिखाने में जुटी हुई। बवाल के बीच आम आदमी की जेब में उबाल की तैयारी। सरकार की एक्सपर्ट किरीट पारिख कमेटी ने रपट दे दी। पेट्रोल तीन रुपए, डीजल तीन से चार रुपए, केरोसिन छह रुपए और एलपीजी पर सौ रुपए प्रति सिलेंडर बढ़ाने की सिफारिश। साथ में प्राइस पॉलिसी को सरकारी नियंत्रण से हटाने का फार्मूला। जैसे विलासराव देशमुख ने राज के गुंडों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर हिंदी भाषियों के खिलाफ तांडव की छूट दी। सो आप तो यही मानो, राजनीति की जय-जय।
---------
03/02/2010

Tuesday, February 2, 2010

जब पीएम-सीएम अपना, तो सिर्फ जुबानी तीर क्यों?

 संतोष कुमार
-----------
         अपने सरकारी स्कूल में रोजाना प्रार्थना के बाद एक प्रतिज्ञा ली जाती थी। सभी छात्र-छात्राएं दांया हाथ आगे कर कहते थे- 'भारत हमारा देश है। हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं...।'  पर क्या अब प्रतिज्ञा बदलनी होगी। जो महाराष्टï्र के हैं, वो सिर्फ महाराष्टï्र को ही देश बताएंगे। और जो बाहर के हैं, क्या यह कहेंगे- 'महाराष्टï्र को छोड़कर बाकी हम सब भारतवासी हैं?'  अगर राजनीति के धुरंधर यों ही जुबान चलाते रहे। तो शायद वह दिन भी दूर नहीं हो। जब राज ठाकरे के गुर्गों ने 2008 में तांडव मचाया। तो बीजेपी हो या कांग्रेस, सिर्फ आलोचना कर चुप रहीं। जेहन में तब महाराष्टï्र चुनाव थे। अब बिहार चुनाव की बारी। तो बिहारियों के हितैशी बनने में कोई पीछे नहीं। अब बीजेपी को शिवसेना से रिश्ते तोडऩे में भी शायद गुरेज न हो। विनय कटियार ने तो नितिन गडकरी की बीजेपी को नसीहत दे दी। शिवसेना से रिश्तों की समीक्षा पर जोर दिया। पर बीजेपी अभी तेल की धार देखना चाह रही। सो मंगलवार को बीजेपी ने कटियार की राय को निजी बता पल्ला झाड़ लिया। पर टेक्सी परमिट से शुरू विवाद अब वाया संघ गडकरी तक। गडकरी से कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तक। सो शिवसेना को तो मानो संजीवनी मिल गई। कहां राज ठाकरे ने मिट्टïी पलीद करने का बीड़ा उठा लिया था। अब मराठी मानुष की लड़ाई में शिवसेना राज से बढ़त ले रही। पर चचा-भतीजे में गुरु-चेले वाली कहावत। सो चचा मराठी भाषा की बात कर रहे। तो भतीजे ने अब महाराष्टï्र में पैदा होने वाले मराठियों का नारा उछाल दिया। पर चचा-भतीजे की फुफकार को आप जाने दो। अब तो कोई शक-शुबहा नहीं। ठाकरे बंधुओं को देश की नहीं, अपनी सियासत की फिक्र। सो चंद गुंडों के सहारे तोड़-फोड़ की राजनीति पर उतारू। अब ऐसे लोगों को तरजीह देना ही बेकार। सो सवाल तो सत्ता में बैठे क्षत्रपों से पूछा जाना चाहिए। राहुल गांधी बिहार की टोह लेने पहुंचे। तो कहीं बिहारियों का दर्द समझ आया। सोमवार को मिथिला यूनिवर्सिटी में राहुल का करिश्मा नहीं चला। अलबत्ता आग-बबूला छात्रों ने सवालों की बौछार की। तो राहुल की बोलती बंद हो गई। वाकई सवाल चुभने वाले थे। अव्वल ऐसे सवाल तो हर क्षेत्र में नेताओं से पूछे जाने चाहिए। एक छात्र ने पूछा- 'जब केंद्र में आपकी सरकार, महाराष्टï्र में आपकी सरकार। तो तब आपने आवाज क्यों नहीं उठाई, जब मुंबई में बिहारियों को मारा जा रहा था।'  सवाल में दम ही नहीं, विस्फोटक सवाल भी। देश में पीएम कांग्रेस का, महाराष्टï्र में सीएम कांग्रेस का। यानी पीएम-सीएम और डीएम अपनी हुकूमत का। तो कांग्रेस ने तब एकशन क्यों नहीं लिया। अगर तब घाव पर मरहम लग जाता। दोषियों को सजा मिलती। तो शायद भाषाई हुड़दंग आज नासूर नहीं बनता। पर छात्रों के सवालों के आगे निरुत्तर राहुल बिहार के गया पहुंचे। तो उन ने शिवसेना और राज ठाकरे के खिलाफ आवाज बुलंद की। याद दिलाया, 26/11 के हमले में मुंबई को बचाने वाले एनएसजी जवानों में बिहार, यूपी के थे। तब ठाकरे बंधुओं ने क्यों नहीं कहा, इन जवानों में से पहले बिहारी-यूपी वालों को हटाओ। सो राहुल की बात शिवसेना को चुभ गई। तड़के फिर जुबान चलाई। तो कहा- 'राहुल मराठी शहीदों का अपमान कर रहे।'  माना, करकरे, काम्टे, सालस्कर जैसे जांबाज आफीसर ने शहादत दी। पर मुंबई की बाकी पुलिस क्या कर रही थी। बेहतर होगा, ठाकरे बंधु राम प्रधान कमेटी की रपट पढ़ लें। अब राहुल गांधी कह रहे, उत्तर भारतीयों के लिए चुप नहीं बैठेंगे। देश का दुर्भाग्य नहीं, तो और क्या। जब राहुल गांधी तक को बार-बार सफाई देनी पड़ रही। भारत हर भारतीय का। अक्टूबर में बिहार विधानसभा चुनाव होने। सो राहुल महाराष्टï्र, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों की मजबूती के पीछे बिहारियों की भूमिका खुलकर बखान कर रहे। पर जब 27 अक्टूबर 2008 को राज ठाकरे की नफरत से खफा बिहार का एक छात्र राहुल राज मुंबई की बस में घुसकर राज का पता पूछ रहा था। मुंबई की पुलिस ने उस राहुल राज के ऊपर इतनी गोलियां बरसाईं। गिनना मुश्किल हो गया। पर तब होम मिनिस्टर आर.आर. पाटिल ने पुलिस कार्रवाई को जायज ठहराया। क्या कभी ऐसी फौरी कार्रवाई नफरत फैलाने वाले ठाकरे बंधुओं पर हुई? राज ठाकरे कभी गिरफ्तार हुए, तो पुलिस याचक की मुद्रा में दिखी। गिरफ्तारी के वक्त में भी राज के हाथों में सिगरेट होती थी। अब आप ही सोचो, बिहार चुनाव न होते। तो क्या राहुल गांधी के ज्ञान चक्षु यों ही बंद पड़े रहते। राज ठाकरे ने भाषाई हुड़दंग किया। तो कांग्रेस के विलासराव देशमुख से अशोक चव्हाण तक सबने सियासत के ओछे खेल में साथ निभाया। पर अब भी ठाकरे बंधुओं की जुबान जहर उगल रही। कोई जुबां बंद कराने का साहस नहीं दिखा रहा। शायद बिहार चुनाव तक जुबान के सहारे ही मामला खिंचेगा। फिर चुनाव बाद सब ठंडा। यही तो हुआ महाराष्टï्र चुनाव से पहले। हिंदी भाषियों पर हमले हुए। तो लोकसभा से जेडीयू के सांसदों ने इस्तीफा दे दिया। पर बीजेपी तब शिवसेना के डर से दुबकी रही। वही हाल कांग्रेस का। अगर तभी राज ठाकरे की नकेल कस दी होती। तो आज ऐसी नौबत न आती। अब राहुल चुप न बैठने की बात कर रहे। पर कब तक? क्या जब कांग्रेस विपक्ष में आएगी, तब शिवसेना को माकूल जवाब देंगे? पर राजनीति में नई शुरुआत का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता। चाहे युवा गडकरी-राहुल हों या बुजुर्ग मनमोहन-आडवाणी।
-----------
02/02/2010

Monday, February 1, 2010

चोर-चोर मौसेरे भाई नहीं, सब गोलमाल है

 संतोष कुमार
-----------
          महाराष्टï्र पर महासंग्राम होने लगा। शाहरुख खान-आमिर खान से आगे बढ़ जंग अब संघ बनाम शिवसेना हो गई। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदी भाषियों की रक्षा का एलान क्या किया। मुंबई की अपनी मांद में बैठा शेर दहाड़ उठा। बीजेपी से 26 साल की दोस्ती का कोई लिहाज नहीं। अब तक शिवसेना का बूढ़ा शेर मुखपत्र 'सामना'  के जरिए दहाड़ रहा था। पर संघ परिवार से लड़ाई ठनी। तो उद्धव ठाकरे ने मोर्चा संभाला। संघ को खरी-खरी सुनाने में देर नहीं की। कहा- 'हमें देशभक्ति और एकता का पाठ न पढ़ाए संघ। जब 1992 में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, तो हमने हिंदुओं की रक्षा की। तब कहां था संघ परिवार। अगर हिंदी की चिंता है, तो संघ प्रवक्ता राम माधव दक्षिण भारत में जाकर हिंदी सिखाएं।' अब बीजेपी की मुश्किल तो लाजिमी थी। आगे कुआं, तो पीछे खाई। पर नितिन गडकरी संघ के दुलारे। संघ ने बीजेपी ठीक-ठाक करने का जिम्मा सौंपा। सो बीजेपी को संघ के पक्ष में उतरना ही था। वैसे भी बीजेपी वाले संघ को मातृ संगठन मानते। सो मातृ अपमान भला बीजेपी कैसे बर्दाश्त करे। पर गडकरी ठहरे महाराष्टï्र से। सो बयान में वैसी तल्खी नहीं, जैसी उद्धव के बयान में। गडकरी ने 13 लाइन का बयान मीडिया के सामने पढ़ दिया। सो कइयों ने चुटकी ली। नागपुर से जो लिखकर आया, वही पढ़ दिया। वैसे भी कोई अपना बयान बेसुरे ढंग से क्यों पढ़ेगा। अब देखो, बीजेपी कहां आ गई। एक जमाना था, जब सोनिया गांधी लोकसभा में लिखा भाषण पढ़ती थीं। तो बीजेपी वाले कभी मणिशंकर, तो कभी जनार्दन का लिखा भाषण बता खिल्ली उड़ाते थे। पर अब गडकरी संविधान और राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े मुद्दे पर भी लिखित बयान पढ़े। तो आप क्या कहेंगे, अपना बयान या वाकई नागपुर से लिखकर आया? अब बयान अपना हो या नागपुर का। पर राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जैसी बुलंद आवाज विपक्ष की होनी चाहिए, बीजेपी की नहीं थी। पूरे बयान में गडकरी ने न तो शिवसेना का नाम लिया। न किसी कार्रवाई की मांग की। अलबत्ता जनसंघ जमाने का सिद्धांत उड़ेल दिया। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को राष्टï्रीय एकता में रोड़ा का अपना पुराना राग अलापा। पर क्या वाकई गडकरी की बीजेपी जनसंघ जमाने की? तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित नेहरू की पहली केबिनेट को छोड़ परमिट सिस्टम के खिलाफ जंग छेड़ी थी। आखिरकार जेल में ही शहीद हो गए। पर अबके बीजेपी में वह बात नहीं दिखी। अलबत्ता संविधान के अनुच्छेद 19 (1-ई) का जिक्र किया। देश के किसी भाग में बसने का अधिकार। भाषा, क्षेत्र या धर्म के आधार पर संघर्ष को बीजेपी स्वीकार नहीं करेगी। पर शिवसेना तो ठीक इसके उलट बात कर रही। वह सिर्फ कह नहीं रही। अलबत्ता शिवसेना और चचा को छोड़कर अलग हुए भतीजे राज ठाकरे की भी कारस्तानी देश देख चुका। सो बीजेपी शिवसेना के खिलाफ सख्त क्यों नहीं हो रही? पर शायद असली कहानी कुछ और। शिवसेना लाख जतन कर तीसरी बार भी महाराष्टï्र की कुर्सी हासिल नहीं कर पाई। शिवसेना की बौखलाहट तो नतीजों के बाद सबने देखी। जब बाल ठाकरे ने लिखा- 'मराठी मानुष ने खंजर घोंपा।'  पर बदले जमाने में वोटर कट्टïरवाद की हांडी उतार चुका। फिर भी ठाकरे जुगाड़ ढूंढ रहे। उन्माद पैदा कर सत्ता तक पहुंचने की कोशिश। पर चुनाव तो कोसों दूर। सो बीजेपी-संघ परिवार बनाम शिवसेना की तनातनी एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी धारावाहिक जैसी। सो पहले शिवसेना को देखिए। हालत खस्ता हो चुकी। बाल ठाकरे जीते जी बेटे उद्धव को सीएम बनाने का मंसूबा पाले बैठे थे। पर खुद के भतीजे ने गुड़-गोबर कर दिया। यही हाल संघ का। जबसे संघ के भेजे प्रचारक बीजेपी में राजनीति के चस्सू हो गए। संघ की बत्ती गुल होने लगी। देश भर में शाखाएं चौपट होने लगीं। रही-सही कसर सुदर्शन-भागवत के मीडिया प्रेम ने पूरी कर दी। सो जैसे शिवसेना मराठी मानुष के नाम से अपनी जमीन उपजाऊ बनाने में लगी। संघ परिवार हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान के बहाने शाखाओं की पैदावार बढ़ाने की जुगत में। बीजेपी में भी सब अच्छा नहीं। सो गडकरी ने मराठी-हिंदी विवाद के बहाने अनुच्छेद 370 का मामला उछाल दिया। पूरे खेल में बची कांग्रेस। तो उसका हाल, चित भी मेरी, पट भी मेरी...। मराठी वोट में सेंध लगाने को कभी राज को शह दी। तो कभी उत्तर भारतीयों के जख्म पर मरहम लगाने की कोशिश। यानी वोट बंटे, कांग्रेस को सत्ता मिली। अब ठाकरे-संघ में ठनी। तो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने भी खूंटा गाड़ दिया। बोले- 'मुंबई सबकी। कोई भी जाए और बसे।'  चिदंबरम ने ऑस्ट्रेलिया, पाक के खिलाडिय़ों को मुंबई में क्रिकेट खेलने पर सुरक्षा की पूरी गारंटी ली। अब आप ही इन गोलमाल नेताओं का मतलब निकालिए। भाषाई विवाद में राजनीति के ये सभी धुरंधर सिर्फ चोर-चोर मौसेरे भाई नहीं, सगे भाई कहिए। यानी इस विवाद में सब गोलमाल है। कहने को कांग्रेस-बीजेपी संविधान की दलील दे रहीं। पर जरा सोचिए, राज ठाकरे हों या बाल ठाकरे। अगर कोई संविधान-कानून को खुली चुनौती दे। और विपक्ष-सत्तापक्ष सिर्फ जुबानी पलटवार करे। तो क्या कहेंगे आप। अगर सब गोलमाल न होता। तो महाराष्टï्र चुनाव से पहले जब राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर मार रहे थे। तब चिदंबरम कहां थे। कांग्रेस कहां थी। बीजेपी के गडकरी कहां थे। तब तो गडकरी महाराष्टï्र बीजेपी के अध्यक्ष थे। वैसे भी शिवसेना बीजेपी-शिवसेना के बीच कोई पहली बार तलवार नहीं खिंची। राष्ट्रपति चुनाव में तकरार, फिर इकरार सबने देखी।
----------
01/02/2010