Tuesday, March 1, 2011

‘राज’ हो या ‘राजा’, सत्ता के लिए कुछ भी चलेगा

तो बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी के चुनाव की रणभेरी बज गई। जेपीसी का प्रस्ताव राज्यसभा से भी पास हो गया। कांग्रेस ने कानूनदां रविशंकर प्रसाद के मुकाबले अभिषेक मनु सिंघवी को मैदान में उतारा। पर सिंघवी पहले ही मैदान छोड़ गए। सिंघवी ने जेपीसी में शामिल होने से सोमवार की रात ही इनकार कर दिया। फिर भी प्रस्ताव में नाम शामिल। सो मंगलवार को संसद भवन परिसर में ही बोले- कई टेलीकॉम कंपनियों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे की जिरह कर चुका। सो मेरा जेपीसी में होना सही नहीं होगा। सिंघवी की दलील सोलह आने सही। पर कांग्रेस ने अभी सिंघवी को हटाने की कोई राय नहीं बनाई। सो अब देखना होगा, सिंघवी की नैतिकता जीतेगी या कांग्रेस का जोर चलेगा। पर राज्यसभा में कपिल सिब्बल और अरुण जेतली की वकीली जंग जमकर हुई। सिब्बल ने एनडीए सरकार को दोषी ठहराने की पुरानी कोशिश जारी रखी। तो जेतली ने पूछ ही लिया- 2001 की परिस्थितियां 2007 में कैसे दोहराई जा सकतीं? पहले आओ, पहले पाओ की नीति पर सिब्बल लगातार सवाल उठा रहे। ए. राजा को एनडीए की नीति का ही अनुसरण करने वाला बता रहे। सो जेतली ने सिब्बल को याद दिलाया- एनडीए राज के वक्त संचार क्षेत्र में घनत्व बहुत कम था। ओडिशा, पूर्वोत्तर, पूर्वी यूपी जैसे कुछ सर्किलों में तो दो बार टैंडर जारी हुए। पर कोई बोली लगाने वाला नहीं आया। सो पहले आओ, पहले पाओ की नीति अपनाई गई। सचमुच तब और राजा के घोटाले के वक्त के संचार जगत में बहुत फर्क आ चुका था। पर राजा ने तो जानबूझकर 2001 को आधार बना 2007 में कमाल किया। पसंदीदा कंपनियों को फायदा पहुंचाया। पर अपने मीडिया बंधुओं और वकीलों की यही बड़ी कमजोरी। एक बार जो बात कह दी, भले झूठ ही क्यों न हो, आखिरी सांस तक अड़े रहते। सो सिब्बल सब कुछ जानकर भी कुछ समझने को तैयार नहीं। वैसे सिब्बल की मुश्किल, कानूनदां होने के नाते सही साबित करने की चुनौती। आखिर कांग्रेस ने बड़े भरोसे के साथ दो-दो भारी-भरकम मंत्रालय दे रखे। यूपीए की पहली पारी में बड़े बेआबरू वाले हालात में सिब्बल ने राज्यमंत्री का दर्जा कबूला था। सो ओहदा बढ़ा, तो सुर्खियों में रह साबित कर रहे। पर अब वकीलों की दलीलबाजी छोडि़ए। जेपीसी से जनता की उम्मीदें बंधीं। जिसकी खातिर विपक्ष ने संसद का शीत सत्र नहीं चलने दिया। सरकार को घुटने टेकने पड़े। भले दिल बहलाने को कांग्रेस ने लोकतंत्र की थोथी दुहाई दी। संसद को चलाना जरूरी बताया। पर संसद में तो हंगामे का सफर जारी। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विपक्ष की जिद का देश ने समर्थन किया। पर आम बजट के बाद मंगलवार को दोनों सदनों की बैठक शुरू हुई। तो कुछ नए मुद्दों के साथ विपक्ष हंगामे पर उतर आया। जातीय जनगणना के फॉर्मेट, टेलीफोन टेपिंग और सिख विरोधी दंगे के मिले-जुले मुद्दे ने दोपहर तक दोनों सदनों की कार्यवाही ठप करा दी। सचमुच अब संसद में यह परंपरा बन गई। मुद्दा छोटा हो या बड़ा, वैल में कूदकर हंगामा करो। मानो, अपनी बात कहने का सांसदों के पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं। जाति की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों ने अपने हिसाब से जातीय गणना कराने को लेकर हंगामा किया। तो अकाली दल ने सिख विरोधी दंगे में नया मुद्दा उठाया। हरियाणा के रिवाड़ी में भी सिखों का नरसंहार हुआ था। पर अब थाने से उसकी एफआईआर गायब हो गई। सो हरियाणा सरकार पर मामले को दबाने का आरोप लगाया। सांसद वैल में आ गए। सो कार्यवाही ठप हो गई। अब जब सिख विरोधी दंगे के मामले में गाहे-ब-गाहे नए खुलासे हो रहे। तो अभी गोधरा-गुजरात दंगे की कई परतें उधडऩी बाकी। साबरमती एक्सप्रेस में गोधरा स्टेशन पर 59 कारसेवकों को जलाने के केस में विशेष अदालत ने मंगलवार को सजा सुना दी। दोषियों में से 11 को फांसी, 20 को उम्रकैद हुई। तो एक पक्ष गदगद हुआ, दूसरे पक्ष ने अपील का एलान कर दिया। यों गोधरा कांड पर अदालती फैसले ने साजिश की बात साबित कर दी। पर इसे आधार बना गुजरात दंगे को जायज नहीं ठहराया जा सकता। क्रिया की प्रतिक्रिया बताकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। सो गुजरात दंगे के मामले में भी अदालती फैसले और पक्षकारों की प्रतिक्रिया का इंतजार। पर सवाल- क्रिया की प्रतिक्रिया के नाम पर क्या दंगे को जायजा ठहराया जा सकता? माना, गोधरा कांड में कुछ कट्टरपंथियों ने साजिश की। पर गुजरात दंगे में साजिश को भी इनकार नहीं किया जा सकता। अगर क्रिया की प्रतिक्रिया आधार बनने लगी, तो लोकतंत्र का क्या होगा? जिस लोकतंत्र की सब दुहाई देते, वह तो अराजक हो जाएगा। पर अपने नेताओं को लोकतंत्र से अधिक कुर्सी की फिक्र। सो संसद का हश्र जनता बखूबी देख रही। लगे हाथ विपक्षी बीजेपी के  चाल, चरित्र, चेहरे का नया रंग भी देख लो। महाराष्ट्र की सत्ता से दूरी में बीजेपी पानी बिन मछली बन चुकी। शायद उद्योगपतियों का चंदा कम हो गया होगा। सो अब बीजेपी उस राज ठाकरे से गठजोड़ करना चाह रही। जिसने प्रांतवाद के नाम पर संविधान के साथ होली खेली। खुद आडवाणी ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे की मुहिम को असंवैधानिक कहा था। पर शिवसेना के एतराज के बाद भी बीजेपी का राज-प्रेम उफान मार रहा। शिवसेना से हामी भराने को हाथ-पैर मार रही। सो लोकतंत्र का पहरुआ किसे कहेंगे आप? भ्रष्टाचारियों को बचाने की हरसंभव कोशिश में जुटे सत्तापक्ष को या संविधान का मखौल उड़ाने वाले राज के साथ पींगें बढ़ाने वाले विपक्ष को?
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01/03/2011