संसद सत्र की बलि चढ़ गई, पर किसी भ्रष्टाचारी को बलि चढ़ाने वाली जेपीसी नहीं बनी। एक पूरे सत्र का हंगामे में गुजर जाना संसद का नया इतिहास रच गया। पर इस काले इतिहास में किसका परिहास बना? न विपक्ष, न सत्तापक्ष अपना परिहास मान रहा। यानी सचमुच अपनी संसद मजाक बनकर रह गई। तभी तो समूचा विपक्ष चीखता-चिल्लाता रह गया। सत्ता के बहरे कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब सत्र निपटने के बाद भी कांग्रेस और सरकार वही दलीलें दोहरा रहीं। जेपीसी को नकार पीएसी, सीबीआई, रिटायर्ड जज से जांच की बात। पर सवाल वही, जब कोई खुद को ईमानदार मान रहा। तो किसी भी जांच से डर कैसा? जेपीसी कोई भूत तो नहीं, वह संसद की नियमावली का ही हिस्सा। फिर कोई भी सरकार जेपीसी की मांग को कानून या संविधान की अवमानना कैसे करार दे सकती। पर अब संसद का शीत सत्र निपट गया। तो संकट के बादल बजट सत्र पर घुमडऩे लगे। एनडीए ने सोमवार को बापू की मूर्ति के सामने धरना दिया। अब सडक़ों पर विपक्ष का शंखनाद होगा। जिसकी गूंज बजट सत्र तक बरकरार रखने की तैयारी। सो संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल बोले- अगर बजट सत्र ठप हुआ, तो संवैधानिक संकट के लिए विपक्ष जिम्मेदार होगा। उन ने शीत सत्र में हंगामे की वजह से डेढ़ अरब रुपए के नुकसान का ठीकरा भी विपक्ष के सिर फोड़ा। तो बीजेपी से वेंकैया नायडू ने कमान संभाल ली। बोले- नुकसान की जिम्मेदार खुद कांग्रेस। अगर हंगामे से हुआ नुकसान अपराध, तो टू-जी स्पेक्ट्रम-कामॅनवेल्थ और आदर्श घोटाले के तीन लाख करोड़ डकारने वाले क्या अपराधी नहीं? सो बजट सत्र में किसका बाजा बजेगा, यह तभी दिखेगा। पर शीत सत्र के आखिर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने सांसदों से रू-ब-रू हुईं। तो गीता सार (क्यों व्यर्थ चिंता.. किससे व्यर्थ डरते.. कौन तुम्हारा क्या बिगाड़.... जो हुआ वह अच्छा.. जो हो रहा या जो होगा वह भी अच्छा..) का अनुसरण करते हुए जेपीसी से इनकार कर दिया। भ्रष्टाचार पर हंगामे के बीच पीएम के लंबे मौन की भी खूब तारीफ की। फिर उन ने बीजेपी को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरू किया। सोनिया ने बीजेपी को कर्नाटक और तहलका की याद दिलाई। भ्रष्टाचार पर दोहरे मापदंड का आरोप लगाया। पर सवाल, अगर बीजेपी ने भ्रष्टाचार किया, तो क्या कांग्रेस को भी भ्रष्टाचार का लाइसेंस? आखिर बचाव का यह कौनसा हथियार? भ्रष्टाचार पर अगर बीजेपी की कमीज सफेद नहीं, तो क्या कांग्रेस भी वैसी ही कमीज पहनेगी? राजनीति की यह कौन सी नैतिकता, जब छह साल एनडीए सत्ता में थी। तो कांग्रेस के 45 साल को अपनी ढाल बनाए चली। अब आठ साल बनवास के बाद कांग्रेस ने दुबारा सत्ता हासिल की। तो एनडीए के छह साल को ढाल बना लिया। आखिर जनता से यह आंख-मिचौली का खेल कब तक चलता रहेगा? यों सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की ओर से की गई कार्रवाई का भी ढोल पीटा। आदर्श घोटाले में अशोक चव्हाण का इस्तीफा, संचार घोटाले में राजा का इस्तीफा और जांच की दलील दी। पर कोई पूछे, क्या ये कार्रवाई कांग्रेस ने अंतरात्मा के धिक्कार पर की? चव्हाण हों या राजा का इस्तीफा। सीबीआई की जांच हो या सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज से। कांग्रेस ने सारे कदम मीडिया, सुप्रीम कोर्ट और संसद में बने राजनीतिक माहौल के बाद उठाए। अब जब सोनिया गांधी खुद कह रहीं, कांग्रेस के पास भ्रष्टाचार के मामले में छुपाने को कुछ नहीं। सो डरने की कोई बात नहीं। तो सवाल, जब छुपाने और डरने जैसी कोई बात नहीं। तो जेपीसी से डर कैसा? लोकतंत्र का तो यही तकाजा, अगर सत्तापक्ष के मन में कोई चोर नहीं। तो विपक्ष की हर शंका का समाधान करने में आगे बढक़र कदम उठाए। पर दोनों की जिद ने एक ऐसा इतिहास बना दिया, जो हर भ्रष्टाचार के वक्त याद आएगा। अगर संसद का कोई मतलब न होता, तो संविधान में एक्जीक्यूटिव आर्डर से ही सरकार चलाने का प्रावधान होता। पर संसद को सर्वोपरि इसलिए बनाया गया, ताकि सत्तापक्ष अपनी मनमानी न कर सके। फिर भी व्यवहार में संसद अब सत्तापक्ष की बपौती दिखने लगी। सो सोमवार को जब संसद हमले की नौवीं बरसी पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई। तो भ्रष्टाचार पर बेनतीजा रही जंग देख यही लगा, इस बार शीत सत्र में शहीदों को श्रद्धांजलि तो दी गई। पर भ्रष्टाचार को चिरायु होने का आशीर्वाद मिल गया। अगर अपने नेता संसद का मान नहीं रख सकते। तो क्यों न संसद का विसर्जन कर श्रद्धांजलि दे देते। अपने नेताओं का कोई ठिकाना नहीं। कोई ऐसा प्रस्ताव लेकर भी आ जाए। जुबान पर कंट्रोल होता, तो दिग्विजय सिंह के बाद होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ऐसा न बोलते। दिग्विजय तो अपनी हठबयानी से पीछे हटने को राजी नहीं। पर सोमवार को चिदंबरम ने क्राइम कैपीटल बनी दिल्ली का गुनहगार प्रवासियों को बना दिया। सो संसद भवन में बिहार-यूपी के नेताओं ने चिदंबरम को जमकर कोसा। कोसने वालों में विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेसी भी शामिल। सो शाम होते-होते चिदंबरम ने बयान वापस ले लिया। पर बात तो मुंह से निकल चुकी। सो कांग्रेस की मंशा भी जगजाहिर हो गई। अगर चिदंबरम की नजर में प्रवासी दिल्ली के अपराध के लिए जिम्मेदार। तो क्या समूचे भारत में अपराध के लिए विदेशियों को जिम्मेदार कहेंगे?
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13/12/2010
Monday, December 13, 2010
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